लेखक: रुद्राशीष चक्रवर्ती
अनुवाद: सुशील जोशी
मैं सोचता हूँ कि इन पंक्तियों को देखते हुए आपने पत्रिका को अपने दोनों हाथों से पकड़ा हुआ है - आपके अपने जाने-पहचाने हाथ। आपने इन हाथों को अनगिनत बार देखा है। जहाँ तक आपकी याददाश्त जाती है, ये हाथ आपके सबसे अन्तरंग साथी रहे हैं। इनके बगैर आप अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते।
ये हाथ कहाँ से आए? आपको क्या लगता है?
यदि मैं कहूँ कि एक मायने में तो ये तब भी थे, जब आप पैदा भी नहीं हुए थे। आपके माता-पिता के पैदा होने से भी पहले, इन्सानों के पैदा होने से भी पहले, और-तो-और, धरती और सूरज के पैदा होने से भी पहले। और फिर यदि मैं यह कहूँ कि ये हाथ आपकी मृत्यु के बाद भी रहेंगे, सर्वत्र सारे मनुष्यों की मृत्यु के बाद भी, हमारी दुनिया के एक-एक जीव की मृत्यु के बाद भी, हमारे इस सुन्दर नीले ग्रह और आसमान में दमकते लाल गोले के अवसान के बाद भी ये हाथ रहेंगे, तो?
इतनी अनोखी बात पर कौन यकीन करेगा?
तो, मेरे प्रिय पाठक, आप और मैं कहाँ से आए हैं?
हममें से हरेक के पास इस शाश्वत सवाल का एक व्यक्तिगत जवाब है, है ना? ये वे जवाब हैं जो लगभग यह व्यक्त करते हैं कि हम कौन हैं। मेरे पास भी एक जवाब है और वह जवाब मेरे लिए बहुत कीमती है। हो सकता है कि वह जवाब आपका भी हो। और सबसे दिलचस्प बात यह है कि यह शायद ऐसा जवाब हो, जो खुद कोे और अपने आसपास की हर चीज़ को देखने का आपका ढंग बदल दे, हमेशा के लिए। कम-से-कम यह आपको चकरा तो अवश्य देगा, जैसा कि मेरे साथ कुछ वर्षों पहले हुआ था। आज भी होता है।
वह जवाब सुनना चाहते हैं? ठीक है, मगर उसके लिए मैं चाहूँगा कि आप मेरे साथ यात्रा पर चलें। एक अद्भुत यात्रा जो 13.8 अरब वर्ष पहले शु डिग्री हुई थी। 13.8 अरब यानी 13,80,00,00,000 वर्ष पहले। और यह यात्रा आज भी जारी है, आपके अन्दर, मेरे अन्दर, हर उस व्यक्ति के अन्दर जिसे हम जानते हैं या भविष्य में कभी जान पाएँगे।
जो तन में वो ब्रह्माण्ड में
ज़रा रुकिए; इस यात्रा के निमंत्रण के बदले मैं आपको थोड़ा तंग करूँगा। ज़रा बताइए, मेरे और आपके या किसी भी व्यक्ति के शरीर का जो भार है, उसे बनाने में कौन-से चार तत्व सबसे ज़्यादा योगदान देते हैं? जी हाँ, जवाब है - ऑक्सीजन (65 प्रतिशत), कार्बन (18.5 प्रतिशत), हाइड्रोजन (9.5 प्रतिशत) और नाइट्रोजन (3.2 प्रतिशत)। अर्थात् ये चार तत्व मानव शरीर के कुल वज़न का 96.2 प्रतिशत हिस्सा बनाते हैं। बढ़िया, अगला सवाल: जब आप ब्रह्माण्ड की सैर पर निकलते हैं तो कौन-से चार तत्व आपको सबसे ज़्यादा बार मिलते हैं? इसका जवाब वैसे थोड़ा पेंचदार है। यह देखिए कि हमारे आसपास जो पदार्थ नज़र आता है उसे तकनीकी भाषा में ‘बैरियॉनिक’ (भारयुक्त) पदार्थ कहते हैं। अपनी हाई स्कूल कक्षा में लौटें, तो कह सकते हैं कि यह वही पदार्थ है जो छोटे-छोटे बुनियादी कणों से मिलकर बना है। इनके अजीबोगरीब नाम हैं प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन। आजकल के कई चतुर वैज्ञानिकों के मुताबिक बैरियॉनिक पदार्थ ब्रह्माण्ड की कुल ऊर्जा का मात्र 4.6 प्रतिशत है (इसमें हमने मशहूर समीकरण क उ थ्र्ड़2 के अनुसार ऊर्जा द्वारा द्रव्यमान में दिए गए योगदान को भी जोड़ा है)। शेष ब्रह्माण्ड दो अजीब चीज़ों से बना है। इनके नाम भी उतने ही रहस्यमय हैं: डार्क एनर्जी (72 प्रतिशत) और डार्क या अदृश्य पदार्थ (23 प्रतिशत)। और यकीन मानिए इन दो चीज़ों की भविष्यवाणी शुद्धत: सैद्धान्तिक आधार पर की गई है, प्रत्यक्ष रूप से इनका अवलोकन नहीं किया गया है और न ही इन्हें ठीक से समझा गया है। इनके विचित्र नामों को देखते हुए इसमें अचरज की कोई बात नहीं। व्यक्तिगत रूप से मैं इनसे परिचित होना नहीं चाहूँगा। बहरहाल, ब्रह्माण्ड में उपस्थित उस थोड़े-से साधारण, दोस्ताना, भारयुक्त पदार्थ में हाइड्रोजन, हीलियम, ऑक्सीजन और कार्बन सर्वाधिक पाए जाने वाले तत्व हैं। तो यह था मेरे दूसरे सवाल का जवाब। उम्दा।
और, यदि हम लोग वाकई उस ब्रह्माण्ड के सूक्ष्म हिस्से हैं, तो हमारे शरीर की बनावट और हम सबके आसपास फैली खाली जगह के बीच इतना अन्तर क्यों है? उदाहरण के लिए, फॉस्फोरस - जो पृथ्वी पर मौजूद जीवन के स्तम्भ डीएनए और आरएनए के अणुुओं को बनाने के लिए निहायत अनिवार्य है - वह वास्तव में बाह्य अन्तरिक्ष में प्रचुरता की दृष्टि से अठारहवें स्थान पर है। क्या ऐसा कोई अन्तर्निहारिका कारखाना है जो खास तौर से सजीवों की बुनियादी इकाइयाँ बनाता है?
शुक्र है कि आजकल के उन्हीं चतुर वैज्ञानिकों के पास कुछ जवाब हैं। उनकी बात सुनना वास्तव में बेचैन कर देता है, सत्य बार-बार ऐसा ही करता है। मगर यदि आप तस्वीर में थोड़ी बालसुलभ कल्पना और अचरज का भाव जोड़ने को तैयार हैं, तो यह जवाब एक ऐसे शानदार जवाब में बदल जाएगा जो शायद किसी इन्सान ने किसी सवाल के लिए नहीं दिया होगा।
वो महाविस्फोट
सब कुछ 13,80,00,00,000 वर्ष पहले शु डिग्री हुआ था। ऐसा क्यों - किसी को पक्का पता नहीं है, और न ही यह कहा जा सकता है कि इस असाधारण क्षण के बारे में ‘क्यों’ पूछना उचित भी है या नहीं। महाविस्फोट यानी बिग बैंग के बाद ब्रह्माण्ड फैलने और बढ़ने लगा। यह कहने का लोभ काफी ज़ोरदार होता है, ‘ब्रह्माण्ड की शुरुआत बिग बैंग से हुई थी’, मगर वैज्ञानिक ऐसी कोई बात कहने से डरते हैं जिसका अर्थ यह निकले कि ब्रह्माण्ड की सृष्टि हुई थी - क्योंकि अभी वे इसके बारे में यकीनी तौर पर नहीं जानते। इसके बाद जैसे-जैसे समय बीता, ब्रह्माण्ड ठण्डा होने लगा (शुरुआत 10,00,000 लाख डिग्री सेल्सियस से हुई थी)। तुलना के लिए देख सकते हैं कि सूरज के केन्द्रीय भाग का तापमान मात्र 150 लाख डिग्री है। तापमान कम होने पर गुरुत्व बल को अन्तरिक्ष में दूर-दूर के हिस्सों पर प्रभाव दिखाने का मौका मिला। गुरुत्व बल के प्रभाव से अन्तरिक्ष में गैसों के बादल बनने लगे। ये बादल मात्र उन दो तत्वों से बने थे जो बिग बैंग के समय पैदा हुए थे - हाइड्रोजन और हीलियम। समय बीतने के साथ ये बादल घने होते गए और गर्म होते गए। अन्तत: इन घने, गर्म बादलों में तैरते हाइड्रोजन के परमाणु आपस में जुड़कर और अधिक हीलियम पैदा करने लगे और इस प्रक्रिया में खूब ऊर्जा पैदा हुई। यह वही नाभिकीय संलयन की क्रिया है जिसके बारे में हमने हाई स्कूल की किताबों में पढ़ा था। यही वह क्रिया है जो तारों को चमकाती है, हमारे सूरज को ज़िन्दा रखती है।
तारों का ईंधन
हमने जिस मुकाम की बात की वह हमारे ब्रह्माण्ड के जीवनचक्र में एक निर्णायक मुकाम था। यह वह मुकाम था जब तारे बनने लगे थे, मगर उस अबूझ बिग बैंग के 10 करोड़ साल बीत जाने से पहले नहीं। और इस नाटक में तारों की भूमिका के बगैर, आपके और मेरे जैसे, कैक्टस, यूकेलिप्टस, चींटी और हाथियों जैसे सजीव कभी दिन की रोशनी न देख पाते।
क्या कहा, ‘कैसे’? चलिए, देखते हैं।
बड़े से बड़े सितारों का ईंधन - यानी हाइड्रोजन - भी एक-ना-एक दिन चुक ही जाता है। ठीक वैसे ही जैसे जन्मदिन पर चाहे जितनी चॉकलेट मिलें, कभी-न-कभी तो खत्म हो ही जाती हैं। मगर जब उन्हें पता चलता है कि हाइड्रोजन खत्म हो गई है, तो तारे रोने नहीं लगते - शायद इसलिए कि वे इतने गर्म हैं कि आँसू बहाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। हाइड्रोजन खत्म होने पर वे उनके पास उपलब्ध दूसरे ईंधन - हीलियम - का उपयोग करने लगते हैं। तारे हीलियम परमाणुओं को आपस में जोड़ना शुरू कर देते हैं। इस क्रिया में और भी ज़्यादा ऊर्जा पैदा होती है और बेरिलियम और कार्बन जैसे भारी तत्व बनने लगते हैं। एक समय के बाद हीलियम भी खत्म हो जाती है; अब तारा क्या करेगा?
आपने ताड़ लिया क्या? सही अन्दाज़ लगाया, तारा भारी तत्वों के परमाणुओं को जोड़ना शुरू कर देता है, और क्या? मगर किसी तारे में इस तरह की संलयन क्रिया किस हद तक हो सकती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह तारा कितना बड़ा और कितना वज़नदार है। उदाहरण के लिए, हमारे सूरज से पाँच गुना बड़ा कोई तारा कार्बन परमाणुओं का संलयन कर सकता है। यदि कोई तारा हमारे सूरज से 20 गुना वज़नी हो और 8 गुना बड़ा हो, तो वह भारी-से-भारी तत्वों का संलयन करके अधिक-से-अधिक ऊर्जा पैदा कर सकेगा और बड़ा और गर्म होता जाएगा। वह कार्बन का संलयन करेगा, फिर नियॉन का और उसके बाद ऑक्सीजन और अन्तत: सिलिकॉन को काम में लेगा। इस मोड़ पर एक अहम क्रिया होगी: लौह तत्व बनेगा और उसके बाद संलयन की क्रिया रुक जाएगी।
और यह एक खतरनाक रुकावट है। कल्पना कीजिए कि हमारे रेफ्रिजरेटर, और किचन और अलमारियों में भोजन खत्म हो जाए। हम पगला नहीं जाएँगे? यकीनन हमारा दिमाग ठप हो जाएगा। जैसा कि आप जल्दी ही देखेंगे, हम सबका जन्म तारों के अन्दर रक्त-तप्त भट्टियों में हुआ है। तो यह कोई अचरज की बात नहीं है कि जब तारों को पता चलता है कि अब लोहे के अलावा कुछ नहीं बचा है तो बड़े-बड़े और भारी-भरकम तारे भी हमारी तरह ठप हो जाते हैं। ईंधन की दृष्टि से लोहा उनके लिए वैसा ही है जैसे हमारे भोजन की दृष्टि से हवा। ब्रह्माण्ड विज्ञान की भाषा में इसे ‘गुरुत्वीय ध्वंस’ कहते हैं। गुरुत्वाकर्षण के ज़बर्दस्त खिंचाव के कारण विशालकाय तारा सिकुड़ जाता है - एक करोड़ किलोमीटर व्यास का तारा चन्द सेकण्डों में सिकुड़कर चन्द किलोमीटर का गोला रह जाता है। इस दौरान ऊष्मा का एक क्षणिक मगर ज़ोरदार उफान आता है। और यह भी एक निर्णायक क्षण होता है क्योंकि इस उफान में लौह से भारी तत्वों का संलयन होता है।
यह हो सकता है कि मैंने ज़बर्दस्त खिंचाव और ज़ोरदार उफान जैसे शब्दों का उपयोग यों ही चलते-चलते किया है - मगर यह समझ लेना बेहतर होगा कि उस समय जो कुछ होता है वह इतना उग्र और इतना शक्तिशाली होता है कि हम जैसे अदना जातकों के लिए उसकी कल्पना करना भी असम्भव है। उस अत्यन्त वज़नी तारे की बाहरी परत एक धमाके में तहस-नहस हो जाती है। इसे ‘सुपरनोवा’ कहते हैं। मैं आपको कुछ आभास देने की कोशिश करता हूँ कि यह धमाका कितना शक्तिशाली होता है। सुपरनोवा इतनी ऊर्जा छोड़ता है जितनी हमारा सूरज अपने पूरे जीवनकाल में छोड़ेगा, और इस घटना के दौरान वह पूरी निहारिका से ज़्यादा दैदीप्यमान होता है। और, मूल तारे में जो भी पदार्थ बने होंगे, उन्हें लगभग पूरा-का-पूरा चारों ओर फेंका जाता है, करीब 30,000 कि.मी. प्रति घण्टे की रफ्तार से। इस पदार्थ में वे तत्व भी शामिल होते हैं जो अभी-अभी बने थे।
तो, तारा मर जाता है। मगर मरते-मरते वह भविष्य की एक नई दुनिया के बीज बो देता है। क्योंकि बाह्य अन्तरिक्ष में छितराए गए वे नवर्निमित तत्व किसी दिन नया ग्रह बनाने में मददगार हो सकते हैं। हो सकता है वह ग्रह हमारी धरती जैसा हो। ऐसा हुआ भी है, इसमें कोई सन्देह है क्या?
यहाँ तक तो ठीक है, और अब हम उस सवाल का सामना करने को तैयार हैं, जो अब तक अनुत्तरित है। हम मनुष्य, अपने दो कुशल, दोस्ताना, पत्रिका को थामने वाले हाथों के साथ कहाँ से आए, कहाँ से विकसित हुए?
तारों की धूल और इन्सान
खुशकिस्मती से, आजकल के एक चतुर वैज्ञानिक ने करीब 30 साल पहले निहायत दिलकश अन्दाज़ में उस सवाल का जवाब दे दिया था जो इन्सानों के इस धरती पर इतिहास के बराबर पुराना है। मैंने इससे मोहक जवाब नहीं सुना है, इसलिए उस वाक्य को ज्यों-का-त्यों उतार देने के लिए माफी चाहूँगा।
उन्होंने यह कहा: “हमारे डीएनए में नाइट्रोजन, हमारे दाँतों में कैल्शियम, हमारे खून में लोहा, हमारी एपल-पाई (एक किस्म की मिठाई) में कार्बन (ये सब) ढहते तारों के अन्दर बने थे। हम स्टारस्टफ (तारा-पदार्थ) से बने हैं।”
उनका नाम था कार्ल एडवर्ड सैगन। अमरीकी खगोल शास्त्री, लेखक, विज्ञान को लोकप्रिय बनाने वाले विज्ञान संचारक। उन्होंने 1980 में 13 खण्डों में एक टेलीविज़न सिरीज़ बनाई थी: ‘कॉसमॉस: ए पर्सनल वोयेज’। आज तक यह अमेरिका में निर्मित सबसे लोकप्रिय टीवी कार्यक्रम है और इसे 60 देशों के 50 करोड़ लोग देख चुके हैं। इसका विषय है विज्ञान और यह सचमुच एक सुन्दर रचना है। उपरोक्त उद्धरण इसी नाम की पुस्तक से है जो सैगन ने टीवी सिरीज़ के साथ लिखी थी।
और, मेरे दोस्त, यह 100 टका सच है। हाइड्रोजन को छोड़ दें, तो बाकी जो कुछ भी हमारे शरीर में है, वह तारों ने पकाया है। एक बार फिर मैं बेशर्मी से उद्धरण का सहारा लूँगा। इस बार एक वेबसाइट www.physicscentral.com से: “हमारा शरीर लगभग 7 न् 1027 परमाणुओं से बना है। बहुत बड़ी संख्या है। कागज़ पर लिखने की कोशिश कीजिए: 7 के आगे 27 शून्य लगेंगे। हमने लगभग इसलिए कहा क्योंकि यदि आप बाल कटवा लें, या नाक छिनक दें, तो थोड़े परमाणु कम हो जाएँगे। पता यह चलता है इन अरब अरब अरब परमाणुओं में से 4.2 न् 1027 परमाणु तो सिर्फ हाइड्रोजन के हैं। ध्यान दें कि हाइड्रोजन बिग बैंग की धूल है, तारों का मलबा नहीं। तो हमारे पास बचे 2.8 न् 1027 तारों के मलबे के परमाणु। यानी हमारे शरीर में तारों के मलबे के परमाणुओं की संख्या 40 प्रतिशत है।”
क्या आप इस सच की अविश्वसनीय गहराई को पकड़ पा रहे हैं? इसे पढ़ना छोड़कर किसी दर्पण के सामने खड़े होकर देखिए। पलटकर जो आपको घूर रहा है उसमें से लगभग आधा तारों के अन्दर की रसोई में पका था - वे तारे जो हमें रोज़ सुबह जगाने वाले पीले गोले से कहीं अधिक बड़े थे, अधिक चमकदार थे और अधिक गर्म थे।
चलिए थोड़ा रुककर एक मिनट के लिए अलग ढंग से सोचते हैं। मसलन, धरती पर बसेरा करने वाले सारे सजीवों की बात तो दूर, आप और मैं तो वे पहले इन्सान भी नहीं हैं जिन्होंने इस नीले गगन के तले साँस ली है। और सूरज से तीसरे नम्बर की इस चट्टान पर हर सजीव चीज़ आपकी और मेरी तरह उसी तारकीय धूल से बनी है। और जब वह ज़िन्दा चीज़ मर गई तो उसका शरीर धीरे-धीरे उसको बनाने वाले तत्वों में विघटित हो गया और ये तत्व एक बार फिर इस तृतीय पिण्ड की मिट्टी-पानी-हवा में घुल-मिल गए। इनमें से कुछ का उपयोग एक बार फिर किसी अन्य जीवधारी के निर्माण में हुआ। फिर उस जीवधारी की मृत्यु के बाद चक्र फिर से चला। यह चक्र उस समय से चल रहा है जब से पृथ्वी पर जीवन है।
आइए, कल्पना का एक खेल खेलें। आपकी दाईं आँख के एकदम कोने की बरौनी में विराजमान वह कार्बन परमाणु कभी ट्राइलोबाइट नामक एक प्राचीन समुद्री आर्थ्रोपोड जीव के गलफड़े का हिस्सा था जो लगभग 52.1 करोड़ वर्ष पूर्व कैम्ब्रियन काल में हमारे ग्रह के समुद्र में तैरा करता था। और शायद यही कार्बन परमाणु उस शाकाहारी डायनासौर की बाईं टांग में उपस्थित था जो 25 करोड़ वर्ष पहले भोजन की तलाश में पैंजिया नामक महा-महाद्वीप पर भटक रहा था, या शायद 3 करोड़ वर्ष पूर्व यही कार्बन परमाणु हिमालय के किसी चीड़ के वृक्ष में विराजमान था और ठण्डी हवा के झोंकों के साथ लहरा रहा था। यही परमाणु ईसा पूर्व करीब 2560 में मिस्र में पिरामिड के लिए पत्थर ढोने वाले मज़दूर की दाईं कलाई में था; हो सकता है यह हिरोशिमा की उस जापानी लड़की के हृदय के वाल्व का हिस्सा था जो 6 अगस्त, 1945 के दिन ‘लिटिल बॉय’ के विस्फोट में मारी गई थी। और शायद 26 मार्च, 2999 के दिन यह परमाणु उस महिला के फेफड़ों में पाया जाए जो सैकड़ों प्रकाश वर्ष दूर स्थित किसी तारे के आसपास चक्कर काटते किसी ग्रह पर पहुँचने वाली प्रथम इन्सान होगी, जहाँ एक सम्मानित मेहमान के रूप में उसका स्वागत किया जाएगा। हम इस अनादि-अनन्त रास्ते पर चलते जा सकते हैं।
मगर मैं रुकता हूँ क्योंकि यहाँ के आगे आपकी अपनी कल्पना आपको ऐसी जगहों की सैर करा सकती है जो मेरी कल्पना से भी अधिक अद्भुत होंगी। बस, खुद को थोड़ी मोहलत दीजिए।
तो वक्त आ गया है कि मैं विदा लूँ और आपको उस यात्रा पर आगे बढ़ने को अकेला छोड़ दूँ जिसके लिए मैंने आपको आमंत्रित किया था। उम्मीद करता हूँ कि यह यात्रा आपके लिए सचमुच हैरतअंगेज़ रही, मेरे लिए तो रही थी। मेरा ख्याल है कि इस दौरान आपने कुछ शानदार समझा होगा - इस मायने में कि हम सबने इस यात्रा की शुरुआत 13.8 अरब वर्ष पूर्व एक साथ की थी। वह शुरुआत फैलते अन्तरिक्ष के धधकते, दमकते कढ़ाव में हुई थी जो हमारे सूरज के केन्द्रीय भाग से भी 6000 गुना ज़्यादा गर्म था। और इस मायने में कि हम सब इसमें भविष्य में भी साथ-साथ ही रहेंगे।
मैं आपसे विदा लेने से पहले दो ज़बर्दस्त विचार सौंप जाऊँगा। दोनों ही सैगन ने अपनी 1980 की पुस्तक कॉसमॉस में प्रस्तुत किए थे। उनमें से एक तो इस लेख के मूल लेख के शीर्षक का स्रोत है: ‘Starstuff pondering the stars’ यानी तारा-पदार्थ सोचे तारों के बारे में। इन विचारों को पढ़िए, समझिए, अपने दिमाग में सोखिए, अपनी आत्मा में आत्मसात कीजिए और फिर इस ‘धुँधले नीले बिन्दु’ (यह एक वास्तविक फोटोग्राफ का शीर्षक है जिसे अन्तरिक्ष टोही यान वोयेजर-1 ने धरती से 6 अरब कि.मी. की रिकॉर्ड दूरी से खींचा था - उस समय वह यान सौर मण्डल को विदा कह रहा था और नासा के निर्देश पर उसने अपना कैमरा घुमाया था और विस्तीर्ण अन्तरिक्ष में टंगी धरती का फोटो खींचा था, सोचिए किसके आग्रह पर...) को देखिए और स्वयं को देखिए... कौन जाने, हो सकता है आपका देखने का नज़रिया फिर कभी पहले जैसा न रहे।
“हम ब्रह्माण्ड के एक स्थानिक साकार रूप हैं जिसमें आत्म चेतना विकसित हुई है। हमने अपनी उत्पत्ति पर मनन शु डिग्री कर दिया है - तारा-पदार्थ सोचे तारों के बारे में; दस अरब अरब अरब परमाणुओं के सुगठित समायोजन परमाणुओं के विकास पर चिन्तन कर रहे हैं; उस लम्बी यात्रा का नक्शा खींचने का प्रयास कर रहे हैं जिससे होकर, कम-से-कम यहाँ, चेतना का जन्म हुआ। हमारी निष्ठाएँ प्रजातियों और ग्रह के प्रति हैं। हम पृथ्वी के लिए बोलते हैं। जीवित रहने का हमारा दायित्व सिर्फ स्वयं के प्रति नहीं बल्कि ब्रह्माण्ड के प्रति है, उस अर्वाचीन और विस्तीर्ण ब्रह्माण्ड के प्रति जिसमें से हम उभरे हैं।”
“ब्रह्माण्ड के परिप्रेक्ष्य से देखें तो हममें से प्रत्येक मूल्यवान है। यदि कोई मनुष्य आपसे असहमत है तो उसे जीने दीजिए। सैकड़ों-अरबों निहारिकाओं में आपको दूसरा नहीं मिलेगा।”
- कॉसमॉस, कार्ल सैगन
रुद्राशीष चक्रवर्ती: एकलव्य, भोपाल के प्रकाशन समूह के साथ कार्यरत हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।