लेखक : आइज़ेक एसीमोव
अनुवाद: अम्बिका नाग
आज यह बात लगभग सभी जानते हैं कि सन्तुलित भोजन हमें कई तरह की बीमारियों से बचाता है। 18वीं शताब्दी का वह भी दौर था जब लम्बी यात्राएँ करने वाले नाविक भर-पेट भोजन करने के बावजूद कुछ खास तरह की बीमारियों के शिकार हो जाते और बेदम-से जान पड़ते पर कोई कारण समझ न आता।
फल और अनाज हमें न जाने कितनी बीमारियों से बचाते हैं और हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण होते हैं यह समझने में लम्बा वक्त लगा। इसी यात्रा का एक रोचक हिस्सा है यह लेख।
1492 में क्रिस्टोफर कोलम्बस की अमरीका यात्रा के बाद यूरोपीय देश अपने जहाज़ों को महासागरों के पार लम्बी समुद्री यात्राओं पर भेजने लगे। उस ज़माने में छोटे जहाज़ अक्सर कई हफ्तों तक ज़मीन से दूर रहते थे।
समुद्री यात्रा के दौरान नाविक जो कुछ जहाज़ के भण्डार में उपलब्ध होता था वही खाते थे। उस वक्त रेफ्रिजरेटर नहीं हुआ करते थे, इसलिए जहाज़ पर वही भोजन सामग्री ले जाई जा सकती थी जो सामान्य तापमान पर शीघ्र खराब न हो जैसे सूखी ब्रेड और सूखा या धुँए से प्रसंस्कृत (processed) मांस। हालाँकि यह भोजन खाने में बहुत नीरस होता था, लेकिन आम तौर पर इतनी मात्रा में उपलब्ध होता था कि कोई नाविक भूखा न रहे।
स्कर्वी: जानलेवा बीमारी की पहचान
भरपेट भोजन के बाद भी, नाविक उन लम्बी यात्राओं के दौरान अक्सर बीमार हो जाते थे। वे कमज़ोर हो जाते थे, उनके मसूड़ों से खून बहने लगता था और उनकी मांसपेशियाँ दर्द करने लगती थीं। कुछ ही समय बाद वे इतने कमज़ोर हो जाते कि बिलकुल भी कोई काम नहीं कर पाते और अन्तत: मर जाते थे। यह बीमारी ‘स्कर्वी’ कहलाती थी पर अभी तक यह पता नहीं चल सका है कि यह नाम कहाँ से आया।
स्कर्वी रोग की मार उन जेलों और अस्पतालों पर भी हुई जहाँ दिन- प्रतिदिन एक-समान तरह का भोजन पकाया जाता था। ऐसा सेना में भी पाया गया और घेरा-बन्द शहरों में भी जहाँ प्रतिदिन एक ही प्रकार का भोजन परोसा जाता था। यदा-कदा कोई-न-कोई स्कर्वी और भोजन के बीच सम्बन्ध पर ध्यान दिलाता था।
स्कर्वी और भोजन के बीच सम्बन्ध
1734 में, जब स्कर्वी रोग की महामारी फैल रही थी तब एक ऑस्ट्रियन डॉक्टर जे.जी.एच. क्रेमर सेना में कार्यरत थे। उन्होंने पाया कि यह रोग हमेशा सिर्फ आम सैनिकों को हो रहा था, अधिकारियों को कभी नहीं। आम सैनिकों को भोजन में सिर्फ ब्रेड और दालें मिलती थीं, जबकि अधिकारी फल और हरी सब्ज़ियाँ भी खाते थे।
1737 में क्रेमर ने अपनी रिपोर्ट में यह लिखा कि फल और सब्ज़ियों के सेवन द्वारा स्कर्वी रोग से बचाव किया जा सकता है। लेकिन किसी ने उनकी इस रिपोर्ट की ओर ध्यान नहीं दिया, जबकि स्कर्वी रोग की महामारी अब भी फैल रही थी।
खास तौर पर ब्रिटिश सरकार स्कर्वी से अत्यधिक परेशान थी। वर्ष 1700 में, ब्रिटिश साम्राज्यवादी दुनियाभर में अपनी कॉलोनियाँ बसा रहे थे। गहरे समुद्र के पार व्यापार फैलाने में अन्य देश उनका अनुसरण कर रहे थे। उन्हें कई व्यापारिक जहाज़ों की आवश्यकता थी जो माल का परिवहन करें, साथ ही युद्धपोत जो उनके व्यापार और उपनिवेश की रक्षा करें। लेकिन, अभी तक इन सभी जहाज़ों पर नाविक स्कर्वी का शिकार हो रहे थे।
एक स्कॉटिश डॉक्टर, जेम्स लिंड, ने इस समस्या के समाधान में रुचि दिखाई। उन्होंने क्रेमर की रिपोर्ट देखी। फिर उन्होंने स्कर्वी के बारे में विस्तार से जानने के लिए कई पुरानी किताबों को पढ़ा। उदाहरण के तौर पर, 1537 में फ्रांसीसी खोजी जैकस कार्टिएर जब कनाडा में अपनी टुकड़ी को लेकर उतरे थे तो उनमें से अधिकांश स्कर्र्वी रोग से पीड़ित थे। कनाडा के मूल निवासियों ने उन्हें ऐसा पानी पिलाया था जिसमें सदाबहार सूईनुमा पत्तियों को भिगो कर रखा गया था। इसे पीकर आश्चर्यजनक रूप से वे सभी ठीक हो गए थे।
लिंड ने निष्कर्ष निकाला कि स्कर्र्वी रोग को उचित आहार के द्वारा ठीक किया जा सकता है। 1747 में उन्होंने स्कर्वी से पीड़ित नाविकों के साथ प्रयोग करना शु डिग्री किया, यह देखने के लिए कि किस प्रकार का आहार उनके लिए श्रेष्ठ उपचार साबित होता है। कुछ रोगियों के नियमित आहार में उन्होंने सेब का आसव दिया, कुछ में सिरका, और कुछ अन्य को विभिन्न फलों का रस। उन्होंने पाया कि शीघ्रतम स्वास्थ्य लाभ उन रोगियों को हुआ जिनके आहार में नींबू कुल के फलों जैसे नींबू, सन्तरा, मौसम्बी आदि का रस शामिल किया गया था।
शोधों के प्रभाव की शुरुआत
उन्होंने इस जानकारी और सम्बन्ध की घोषणा की और ब्रिटिश नौसेना में नाविकों के आहार में इन फलों के रस को शामिल करने के लिए प्रचार अभियान चलाया। लेकिन फिर भी वे ब्रिटिश सेना के अधिकारियों को राज़ी नहीं कर पाए। उस समय यह धारणा बहुत नई और अजीब प्रतीत होती थी।
तत्पश्चात् लिंड की शोध से पहली बार एक महान ब्रिटिश खोजी, कैप्टन जेम्स कुक प्रभावित हुए। उन्होंने जहाज़ पर रखे जाने वाले भोजन भण्डार में नींबू को शामिल किया और जब भी कोई नाविक बीमार हुआ तो उसे नींबू का रस पिलाया। 1770 के दशक में प्रशान्त महासागर में की गई उनकी महान यात्राओं के दौरान सिर्फ एक ही नाविक स्कर्वी रोग से मरा। लेकिन ब्रिटिश नौसेना ने अभी भी अपनी प्रणाली नहीं बदली।
1794 में, डॉक्टर लिंड की मृत्यु के कई वर्षों बाद, आखिरकार ब्रिटिश नौसेना उनके शोध के आगे झुक गई। ब्रिटेन फ्रांस के साथ युद्ध लड़ रहा था और ब्रिटिश नाविकों के स्कर्वी से कमज़ोर हो जाने के कारण होने वाली हार को लेकर चिन्तित था। अब युद्धपोतों के भोजन भण्डार में नींबू को भी शामिल कर लिया गया।
वर्ष 1795 के बाद से, ब्रिटिश सेना में स्कर्वी रोग का सफाया हो गया। फिर तो ब्रिटिश जहाज़ों पर नींबू का इस्तेमाल इतनी आम बात हो गई कि ब्रिटिश नाविकों को ‘लाइमी’ कहा जाने लगा। लंदन के बन्दरगाह पर जिन गोदामों में नींबू का भण्डारण किया जाता वे ‘लाईम हाउस’ कहलाने लगे।
जापान में बेरीबेरी का फैलना
100 वर्ष बाद जापानी सेना ने भी एक ऐसी ही समस्या का सामना किया। जापान ने पश्चिम के तरीकों के बारे में पहली बार 1853 में जाना, जब अमरीकी जहाज़ टोक्यो बन्दरगाह पहुँचे और इस देश से अन्य देशों के साथ व्यापार करने की मांग की। जापान राज़ी हुआ और जल्दी ही उसने पश्चिमी रंग में अपने आपको पुनर्गठित कर लिया। उन्होंने स्वयं पश्चिमी शैली के युद्धपोत बनाए और अपनी नौसेना विकसित की।
जापानी सैनिक अक्सर ‘बेरीबेरी’ नामक रोग से ग्रसित हो जाते थे। यह शब्द श्रीलंका के द्वीपों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा से उत्पन्न हुआ जिसका अर्थ है, ‘महा-दुर्बलता’। बेरीबेरी से ग्रसित लोग बहुत कमज़ोर हो जाते थे और उनके हाथ और पैर में लकवा लग जाता था। अन्तत: वे मर जाते थे।
हालाँकि, बेरीबेरी स्कर्वी रोग के समान नहीं था। इस रोग में कमज़ोरी अलग तरीके से दिखाई देती थी जिसमें विशेष तौर पर पैर प्रभावित होते थे। बेरीबेरी तब भी प्रभावित करता था जबकि नाविक के आहार में कुछ सब्ज़ियाँ और फल भी शामिल हों।
1878 में, जापानी युद्धपोतों में बेरीबेरी रोग इतना फैल चुका था कि जापान के एक तिहाई नाविक बेकाम हो चुके थे। जापान युद्ध लड़ने के लिए सक्षम नहीं बचा था।
जापानी नौसेना के एड्मिरल इन-चार्ज के. तकाके जानते थे कि ब्रिटिशों ने अपने नाविकों के आहार को बदलकर स्कर्वी रोग पर विजय पाई थी। वे यह भी जानते थे कि ब्रिटिश नाविकों को बेरीबेरी कभी नहीं हुआ। इसलिए उन्होंने ब्रिटिश व जापानी सेना के नाविकों के आहार की तुलना की।
जापानी नाविक कुछ सब्ज़ियाँ, मछली और सफेद चावल खाते थे। ब्रिटिश नाविक चावल नहीं खाते थे, बल्कि अन्य अनाज जैसे कि जौ आदि खाते थे। तकाके ने जापानी नाविकों को चावल के साथ जौ भी खिलाया। परिणाम यह था कि जापानी नौसेना से बेरीबेरी लापता हो गया।
उस समय किसी को यह नहीं पता था कि आहार में बदलाव से किसी रोग की रोकथाम की जा सकती है।
भोजन के आवश्यक तत्व
वर्ष 1800 के दौरान, रसायन शास्त्री भोजन का अध्ययन करने लगे थे कि भोजन किन तत्वों से बना है, उन्होंने खाद्य पदार्थों में पाँच मुख्य तत्व खोज लिए थे: (1) कार्बोहाइड्रेट जैसे कि चीनी और स्टार्च के रूप में, (2) लिपिड जैसे कि तेल और वसा के रूप में, (3) प्रोटीन, (4) खनिज, (5) जल।
ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इनमें सब कुछ शामिल था, और प्रत्येक प्रकार का पदार्थ शरीर के लिए उपयोगी था।
तो, मान लीजिए कि आप कुछ कार्बोहाइड्रेट, लिपिड, प्रोटीन और खनिजों के साथ शु डिग्री करें और पानी के साथ उन सबको उचित अनुपात में मिला दें। आप एक प्रकार का कृत्रिम भोजन बना लेंगे। इस तरह के एक कृत्रिम भोजन की सहायता से क्या आप लोगों को ज़िन्दा रख सकेंगे?
यह पता लगाने के लिए एक मौका उपलब्ध हुआ 1870 में। जर्मन सेना ने पेरिस को घेरा हुआ था और पेरिस के लोग भूख से मर रहे थे। एक फ्रांसीसी रसायन शास्त्री, जीन दुमस, उस समय शहर में थे। उन्होंने बच्चों की दूध की आवश्यकता को पूरा करने के लिए एक विकल्प के तौर पर ऐसा कृत्रिम भोजन तैयार करने की कोशिश की लेकिन यह प्रयोग सफल नहीं हुआ।
1871 में, दुमस ने अपने प्रयोग के बारे में लिखा कि हो सकता है कि कार्बोहाइड्रेट, लिपिड, प्रोटीन, खनिज, और पानी के अलावा भोजन में उपस्थित कुछ और तत्व भी जीवन और स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हों। स्वाभाविक रूप से, यह बहुत कम मात्रा में मौजूद होते होंगे, अन्यथा रसायन शास्त्रियों ने इन्हें खोज लिया होता।
1880 में, एक जर्मन रसायनज्ञ, एन. लूनीन ने भी एक कृत्रिम भोजन तैयार किया। उन्होंने चूहों को प्रोटीन, शर्करा, खनिज और पानी का एक मिश्रण खिलाया। ऐसे चूहे लम्बे समय तक जीवित नहीं रहे।
फिर उन्होंने एक अलग कृत्रिम भोजन बनाने की कोशिश की। उन्होंने दूध से प्रोटीन, शर्करा, वसा और खनिज अलग कर दिया। इसके बाद उन्होंने इन सबको एक साथ फिर से पानी की उचित मात्रा में मिलाया। यह कृत्रिम दूध जैसा प्रतीत हो रहा था, लेकिन जब उन्होंने इसे चूहों को खिलाया तो चूहे अभी भी, लम्बे समय तक जीवित नहीं रह पा रहे थे। जब उन्होंने चूहों को गाय का दूध प्राकृतिक रूप में पिलाया तो पाया कि चूहे लम्बे समय तक जीवित रहते थे। लूनीन ने निष्कर्ष निकाला कि कार्बोहाइड्रेट, लिपिड, प्रोटीन, खनिज और पानी के अलावा दूध में अन्य पदार्थ भी मौजूद थे और ये पदार्थ जीवन और स्वास्थ्य के लिए आवश्यक थे।
यदि वैज्ञानिकों ने दुमस और लूनीन की बात सुनी होती तो हो सकता है कि उन्हें स्कर्वी और बेरीबेरी के लिए एक स्पष्टीकरण मिल जाता। शायद नींबू के रस में जीवन और स्वास्थ्य के लिए आवश्यक एक पदार्थ की छोटी मात्रा निहित है, जिसके अभाव में लोगों को स्कर्वी का सामना करना पड़ा था। शायद जौ में एक ऐसा ही अन्य पदार्थ मौजूद था जिसके बिना लोग बेरीबेरी से पीड़ित हो रहे थे।
डॉक्टरों ने दुमस और लूनीन की बात नहीं सुनी, इसका कारण ये हो सकता है कि वे एक अलग दिशा में प्रयोगरत थे। 1880 के दशक के आखिरी वर्षों में, डॉक्टरों ने कई कीटाणुओं की रोगों के कारक के रूप में पहचान की थी। थोड़ी देर के लिए भी, वे इस सोच से बाहर नहीं आ सकते थे कि सब तरह के रोग कीटाणुओं की वजह से ही होते हैं।
उदाहरण के लिए, वे सोचते और मानते थे कि स्कर्वी और बेरीबेरी रोग भी कीटाणुओं के कारण फैलते थे। वे जानते थे कि आहार में बदलाव करने से ये दोनों बीमारियाँ ठीक हो जाती हैं, लेकिन यह कारक इतना महत्वपूर्ण है ऐसा विश्वास नहीं कर पा रहे थे। वे मानते थे कि शायद आहार में परिवर्तन ने सिर्फ शरीर को कीटाणुओं से लड़ने में मदद पहुँचाई होगी।
कुछ समय तक तो डॉक्टरों ने स्कर्वी और बेरीबेरी रोग के कारक कीटाणुओं को खोजना जारी रखा। उन्होंने खाद्य-पदार्थ में किसी तत्व को खोजने का अति-अल्प प्रयास किया जिसके बारे में अब हम जानते हैं कि इनका खाद्य पदार्थों में अभाव, रोग का कारण बन सकता है।
आइज़ेक एसीमोव: बीसवीं शताब्दी में विज्ञान को लोगों तक पहुँचाने में जिन वैज्ञानिकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है - उनमें से एक हैं आइज़ेक एसीमोव। विज्ञान गल्प को भी वे नईऊँचाइयों तक लेकर गए। उन्होंने बहुत-सी पुस्तकें लिखीं हैं, जिनकी कुल संख्या सैकड़ों में होगी।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: अम्बिका नाग: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, जयपुर में विज्ञान की स्रोत व्यक्ति के तौर पर कार्यरत हैं। वनस्पति शास्त्र में पीएच.डी. की है।
यह लेख आइज़ेक एसीमोव की पुस्तक हाउ डिड वी फाइंड आउट अबाउट विटामिंस से लिया गया है।