लेखक : ए आर पी राव
अनुवाद: विवेक मेहता:
इस निबन्ध में हम देखेंगे कि प्रतीकों व सरल सम्बन्धों (समीकरणों) के साथ माथापच्ची करने की इच्छा होने पर महज़ साधारण स्कूली बीजगणित की मदद से कोई भी उन पैटर्नों की सराहना कर सकता है जो हमारी आँखों से परे होते हैं। ‘प्रकृति में निहित सुन्दरता से दूर ले जाने’ या कमतर करने की बजाए इससे उन पैटर्नों की समझ और उससे जुड़ी खुशी में इज़ाफा ही होगा जिन्होंने हमारी इन्द्रियों को अचम्भित कर रखा है।
अन्तरिक्ष की हमारी खोज का नवीनतम नमूना है शानदार यूरोपीय अन्तरिक्ष खोजी यान रोज़ेटा-फिले, जिसने 12 नवम्बर 2014 के दिन धूमकेतु 67P/Churyumov-Gerasimen-koand के करीब पहुँचकर उस पर फिले नामक एक लैंडर गिराया। दो दशकों की प्लानिंग, दस सालों व हज़ारों-लाखों मीलों की एक लम्बी यात्रा व इस तरह की लैंडिंग को अंजाम दे पाना अपने आप में ही दंग कर देने वाली बातें हैं। उस पर, इस पूरे अभियान से जुड़ी कुछ संख्याओं को उसके पीछे की भौतिकी के परिपेक्ष्य में जानना इस पूरे अभियान को और सराहनीय बना देता है। कला के क्षेत्र से उदाहरण लेकर कहें तो कई लोगों को कला संग्रहालयों में रखे महान चित्रों की संरचना व चित्रण देखकर बहुत अच्छा लगता है। लेकिन उन्हीं चित्रों को देखते हुए हम जब एक कला विशेषज्ञ के साथ हों तो उन चित्रों को गहराई से समझ सकते हैं और सराहने की कला सीख सकते हैं।
बॉक्स-1 में दिए गए विमिय विश्लेषण (dimensional analysis) की पृष्ठभूमि में इस धूमकेतु मिशन पर फिर से विचार कर सकते हैं। जिन आश्चर्यजनक आँकड़ों के बारे में हमने टीवी कवरेज के दौरान सुना है, उनमें से कुछ हैं इस धूमकेतु का छोटा आकार -- मात्र 4 कि.मी. (लगभग 2 मील) चौड़ाई, पृथ्वी की अपेक्षा दस हज़ार गुना (10-4) या उससे भी कम गुरुत्वीय त्वरण, और मात्र 2 मी/से ‘पलायन वेग’ (देखें बॉक्स-2)। इन सबके चलते फिले की लैंडिंग एक अत्यन्त मुश्किल काम था। चलिए इन संख्याओं व अवधारणाओं की बेहतर समझ बनाने की कोशिश करते हैं। हम पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से परिचित हैं और जानते हैं कि पृथ्वी की सतह के करीब सभी वस्तुएँ एक समान त्वरण, जिसे ढ़ से दर्शाते हैं, 9.8m/s2 से नीचे की ओर गिरती हैं। यकीनन ये त्वरण पृथ्वी के द्रव्यमान, जिसे हमारे विश्लेषण के लिए हम पृथ्वी के ज्यामितीय केन्द्र में केन्द्रित मान सकते हैं, के चलते लगने वाले गुरुत्वाकर्षण बल का ही नतीजा है। उन तमाम वस्तुओं को सतह के करीब माना जा सकता है, जिनकी सतह से दूरी पृथ्वी की त्रिज्या ङ (6400 कि.मी. या 4000 मील) की अपेक्षा काफी कम हो। यानी कि अगर तुलनात्मक रूप से देखें तो किसी पेड़ से लटक रहा फल या फिर सतह से 200-300 मील ऊपर किसी स्पेस स्टेशन सरीखा उपग्रह, दोनों सतह के करीब ही माने जाएँगे।
विश्लेषण के अनुसार वेग की डायमेंशन [L]/[T]होंगी, जिसके चलते गुरुत्व के बारे में किसी अन्य जानकारी के बिना भी, सतह के करीब अपने कक्ष में स्थित उपग्रह के वेग V0 का अनुमान मात्र दो सम्बन्धित व ज्ञात राशियों, पृथ्वी की त्रिज्या R व धरती का गुरुत्वीय त्वरण g के आधार पर केवल एक तरह से ही लगाया जा सकता है (यहाँ पहली राशि [L]है और दूसरी राशि [L]/[T]2 है):
V0=(gR)1/2
गुणनफल gR की डायमेंशन [L]2/[T]2 होगी। अत:इस राशि से [L]/[T] पाने के लिए इसका वर्गमूल निकालना होगा। विस्तृत भौतिकी की दृष्टि से देखें तो सम्भव है कि इस तरह के विश्लेषण में कुछ अन्य विमाहीन (dimensionless) राशियाँ या संख्याएँ भी शामिल हों, लेकिन इस विधि पर आधारित ऐसे सरल विश्लेषणों से अक्सर ही ज़रूरी जानकारियाँ मिल आती हैं, और जैसा कि इस मामले में हुआ - एकदम सही सम्बन्ध भी। इस नतीजे को हम वैकल्पिक तौर पर V02/R=g, की तरह भी देख सकते हैं। यहाँ बाईं ओर की राशि अभिकेन्द्रीय त्वरण (centripetal acceleration) कहलाती है जो कि किसी भी वृत्तीय गति, इस मामले में त्रिज्या R पर V0 गति, में अवश्य तौर पर होती है। क्योंकि इस मामले में गति का कारण गुरुत्वाकर्षण है, इसलिए g ही अभिकेन्द्रीय त्वरण होना चाहिए। पृथ्वी के लिए, g ≈ 10m/s2 व R = 6.4 x 106m के साथ V0 = 8Km/s या 5miles/s होगा। यही कारण है कि पृथ्वी की सतह के करीब के उपग्रह 90 मिनटों में पृथ्वी की परिधि यानी तकरीबन 25,000 मील की दूरी तय करते हैं।
पलायन वेग
किसी खगोलीय पिण्ड से पलायन वेग की अवधारणा के लिए ऊर्जा की दृष्टि से सोचना मददगार होता है - गति में होने की वजह से एक द्रव्यमान m में निहित ‘गतिज’ ऊर्जा mv2/2 व गुरुत्वीय ‘स्थितिज’ ऊर्जा। गतिज ऊर्जा के उपरोक्त समीकरण के मुताबिक ऊर्जा की डायमेंशन [M][L]2/[T]2होंगी। जब m द्रव्यमान की एक वस्तु गुरुत्वाकर्षण की पकड़ में होती है, तो उस पकड़ से अलग करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है, एक ‘अनिवार्य’ ऊर्जा जिसमें m , g व एक लम्बाई शामिल हों। लम्बाई के लिए प्राकृतिक व एकमात्र उम्मीदवार त्रिज्या R ही है। इस तरह mgR ही वह आवश्यक गुरुत्वीय ऊर्जा होगी; जिसके लिए भी डायमेंशन [M][L]2/[T]2 होंगी। इस तरह m द्रव्यमान की एक वस्तु को गुरुत्वाकर्षण की पकड़ से आज़ाद कर अनन्त दूरी तक ले जाने के लिए ज़रूरी गतिज ऊर्जा ‘पलायन वेग’ Ve से मिलेगी, यानी कि mve2/2 = mgR होगा। आश्चर्य की बात नहीं कि पिछले पैराग्राफ में भी (gR)1/2 की डायमेंशन का ही संयोजन आया था, लेकिन इस दफे एक अतिरिक्त गुणक 2 के साथ, जिसके चलते पलायन वेग ve=(2gR)1/2है। इस तरह हम पाते हैं कि पृथ्वी से पलायन करने के लिए किसी भी द्रव्यमान m की वस्तु के लिए पलायन वेग तकरीबन 8√2 ≈ 11km/s होगा।1 गौर कीजिए कि पलायन वेग वस्तु के द्रव्यमान पर निर्भर नहीं करता है। ऊर्जाओं की तुलना करने पर द्रव्यमान m दोनों पक्षों में आने के चलते निरस्त हो जाता है।
धूमकेतु के सन्दर्भ में
अब इस मौके पर हम अपना रुख धूमकेतु की ओर करते हैं। पृथ्वी की तुलना में 3200 गुना छोटी त्रिज्या व 10,000 गुना कम ढ़ के कारण कक्षीय व पलायन वेग 5500 गुना कम होंगे। इस तरह धूमकेतु से पलायन वेग काफी कम मात्र 2m/sहोगा, जो महज़ चलने की रफ्तार के बराबर है! यही वो वजह थी जिसके चलते फिले (Philae) की लैंड़िग मुश्किल थी, क्योंकि उसे यान रोज़ेटा से कुछ इस तरह गिराना था कि जब वो नीचे धूमकेतु को छुए तो उसकी रफ्तार इस राशि से कम हो। इसीलिए उसे 1m/s2 के लिए डिज़ाइन किया गया था (देखें चित्र-1)। इसने ऐसा किया भी, लेकिन दुर्भाग्यवश दो उपकरण - एक छोटा रॉकेट जिसे जलते हुए फिले को सतह की ओर लाना था व हारपून से लगाया गया लंगर जिसे सतह पर इसको थामना था - सम्भवत: फेल हो गए। और सचमुच वो छोटा-सा लैंडर सतह से टकराकर उछल गया। सैकड़ों मीटर ऊपर उछलकर यह तकरीबन एक किलोमीटर दूर जाकर दोबारा सतह से टकराया। इस बात को भी ऊपर आए समीकरणों से समझ सकते हैं - इस दफे यह देखना होगा कि प्रक्षेप रफ्तार v के लिए वस्तु के द्वारा तय की कोई भी ऊँचाई या सतह पर तय की गई दूरी, लम्बाई होने की वजह से, v2/g ही हो सकती है। 1m/s की रफ्तार व 1m/s2 की g के साथ लैंडर का उछलना व एक किलोमीटर दूर जाकर गिरना सही बैठता है। साथ ही यह भी कि इस दौरान लैंडर को तकरीबन, डायमेंशन के मुताबिक, v/g या 1000 सेकण्ड लगे (ऊपर जाकर फिर नीचे आने के लिए 2 के गुणक के साथ, व ऊँचाई के साथ ढ़ में होने वाले परिवर्तन को भी ध्यान में रखते हुए, रिपोर्ट के मुताबिक तकरीबन एक घण्टा लगा)।
इस छोटे से धूमकेतु से जुड़ी कई अनोखी बातों में से एक यह है कि इस पर कूदना खतरों से खाली नहीं होगा! इस पर बड़ी सावधानी से कदम रखने होंगे। 200 किलोग्राम के फिले की ही तरह धूमकेतु पर, हम में से किसी का भी भार कुछ इतना होगा मानो धरती पर एक मक्खन के छोटे-से कतरे का भार।
मात्र दो संख्याओं, धूमकेतु का आकार व g का मान, और डायमेंशन आधारित विश्लेषण के ज़रिए धुमकेतु से जुड़ी कई जानकारियों को मात्रात्मक सटीकता की हद तक समझा जा सकता है। यहाँ तक कि सरल भौतिकी के ज़रिए यह भी समझ सकते हैं कि इन संख्याओं के अपने आप में क्या मायने हैं। जैसे कि एक छोटे-से धूमकेतु के लिए ढ़ का मान एक बड़े ग्रह की तुलना में कम होगा इस पर तो सभी को यकीन होगा, लेकिन अगर हम यह पहचाने कि इसका कारण गुरुत्व है तो हम कहीं आगे बढ़ सकते हैं। एक बुनियादी नियतांक न्यूटन का गुरुत्वीय स्थिरांक G(जिसे अँग्रेज़ी वर्णमाला के बड़े अक्षर से दर्शाया जाता है ताकि इसे छोटे अक्षर g, जोकि गुरुत्वीय त्वरण के लिए इस्तेमाल होता है, से अलग देखा जा सके) गुरुत्वाकर्षण के गुण को निर्धारित करता है। यहाँ इस स्थिरांक को गहराई से देखने की बजाए, सिर्फ इसकी डायमेंशन को पहचानना ही काफी होगा - जोकि [L]3/[M][T]2 हैं। क्योंकि [M]/[L]3, द्रव्यमान बटे आयतन यानी कि घनत्व ρ की डायमेंशन है, इसलिए ρG की डायमेंशन 1/[T]2 होगी व राशि (ρG)1/2 आवृति 1/[T] को दर्शाएगी।
चूँकि त्वरण [L]/[T]2 होता है, ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि R का ρG से गुणनफल त्वरण होगा। छोटे R व कम घनत्व के चलते ρG का मान स्वत: ही कम होगा। पृथ्वी की भू-विज्ञान की एक विशेषता यहाँ नज़र आती है कि भले ही सतह पर पाई जाने वाली बेसाल्ट व ग्रेनाईट जैसी चट्टानों का घनत्व 2-3g/cm3 क्यों ना हो, इसके लोहे व निकल से बने, लगभग 7g/cm3 के घनत्व के कोर की वहज से पृथ्वी का औसत घनत्व कहीं ज़्यादा है –5.5g/cm3 वहीं छोटा-सा धूमकेतु हल्के पदार्थों से मिलकर बना हुआ है व उसका औसत घनत्व पृथ्वी से कई गुना कम (एक अन्दाज़ के मुताबिक0.4g/cm3) होगा। इतना कम घनत्व व पृथ्वी की अपेक्षा 3200 गुना छोटा आकार, इस धूमकेतु के ढ़ के पृथ्वी के गुरुत्वीय त्वरण से दस हज़ार गुना या उससे भी कम होने का कारण है।
कब पिण्ड होगा गोलाकार?
अन्त में, धूमकेतु पृथ्वी की तरह गोलाकार ना होकर ऐसे दो अलग-अलग भागों से मिलकर बना हुआ है जोकि एक गर्दन-नुमा आकृति से जुड़े हुए हैं (चित्र-2) और कुछ-कुछ बत्तख की तरह दिखता है। इससे एक जो बात निकलकर आती है कि जब गुरुत्वाकर्षण अहम् भूमिका निभाता है तब ही पदार्थ के एक विशाल पिण्ड के गोलाकार होने की गारण्टी होती है। अगर विद्युत-चुम्बकीय बल ज़्यादा प्रभावी होते हैं तो वस्तु अन्य आकारों में भी हो सकती है, जोकि इन्सानों, अन्य जानवरों व कृत्रिम वस्तुओं के मामले में भी लागू होती है। ना केवल हमारे आकार के स्तर पर बल्कि यह बात मंगल ग्रह के दो चाँदों के लिए भी सच है। वह आकार कितना हो जिसके बाद कोई पिण्ड गोलाकार या गोलाकार के समतुल्य बन पाने में सक्षम होगा, इसे एक सरल डायमेंशनल विश्लेषण से समझ सकते हैं। पृथ्वी पर उच्चतम पर्वत 6 मील ऊँचा है। ऐसा इसलिए क्योंकि ऊँचाई की एक सीमा है जिससे ज़्यादा होने पर ऊँचाई पर जमे पदार्थों का भार नीचे के पदार्थों की भार वहन करने की क्षमता (विद्युत-चुम्बकीय बलों के कारण उत्पन्न एक गुण)2 से ज़्यादा हो जाता है जिस वजह से पिघलन व प्रवाह शुरू हो जाता है। जहाँ g कम और उसके चलते भार कम होगा, वहाँ पर्वत और भी ऊँचे हो सकते हैं। अत: सम्भाले जा सकने वाले किसी भी उभार का आकार g के व्युत्क्रमानुपाती होता है व पिछले पैराग्राफ के मुताबिक R के व्युत्क्रमानुपाती। जैसे-जैसे R कम होगा, पर्वत की ऊँचाई व्युत्क्रम में बढ़ सकती है। अगर उभार R के तुलनीय हो जाए तो वस्तु को गोलाकार या गोलाकार के समतुल्य नहीं माना जा सकता। इस तरह लम्बाई के तौर पर देखें तो वह लम्बाई जिससे बड़ा होने पर पिण्ड गोलाकार होने की सम्भावना है, की दो लम्बाइयों, R व सबसे ऊँचे पर्वत की ऊँचाई, के ज्यामितीय मध्यमान के बराबर होने की उम्मीद की जा सकती है। जो कि R= 6400km व सबसे ऊँचे पर्वत माउंट-एवरेस्ट की ऊँचाई 10km लेने पर, तकरीबन 250km के बराबर मिलता है। हमारा खुद का चाँद व यहाँ तक कि प्लूटो भी इस सीमा के काफी ऊपर हैं इसलिए लगभग गोलाकार हैं, वहीं मंगल के चाँद व धुमकेतू 67P नहीं।
अन्य पहलू
धूमकेतु के छोटे व अजीब आकार व आकृति के चलते इसके गुरुत्व का पता लगाना इसके चारों ओर चक्कर काटते हुए व इस दौरान गुरुत्व को मापते हुए मात्र रोज़ेटा के द्वारा ही सम्भव था। गुरुत्व का पता लगाना लैंडर को सही सलामत इस पर उतारने के लिए ज़रूरी था। यह सब धुमकेतु की सतह से 25 कि.मी. ऊपर, यानी कि उसकी त्रिज्या के 12 गुना दूरी, से किया गया। इसके बाद लैंडर को नीचे उतरने में लगने वाले समय का अन्दाज़ा भी आसानी से लगा लिया गया। समय होने के नाते, डायमेंशन के अनुरूप इसमें (R/g)1/2 का संयोजन शामिल होना ज़रूरी था।3 इसके अलावा, ज़्यादा दूरी होने के चलते g में होने वाले परिवर्तन को भी ध्यान में रखना ज़रूरी था। इसके चलते कैपलर के तीसरे नियम के रूप में एक अन्य घटक भी शामिल हो गया।4 यह नियम प्राकृतिक और कृत्रिम उपग्रहों के लिए दूरी और परिक्रमणकाल के बीच 3/2 घात का एक सम्बन्ध स्थापित करता है। इस प्रकार, धूमकेतु त्रिज्या की तुलना में गिरावट की ऊँचाई के लिए 123/2 के रूप में एक अतिरिक्त घटक भी आ जाता है। इसकी वजह से, जैसा कि रिपोर्ट किया गया लैंडिग में 7 घण्टों का समय लगा। कुल मिलाकर ये सारा विश्लेषण लैंडिंग में लगे इस समय की व्याख्या करता है।
मार्क ट्वेन ने विज्ञान पर व्यंग्य करते हुए कहा था कि “यह छोटे-छोटे निवेशों पर थोक में फायदा देता है।” लेकिन यह सच है कि एक अनुशासित सोच से ही काफी हद तक विज्ञान को सराहा जा सकता है।5
4 केप्लर ने सूर्य के चारों ओर चक्कर लगा रहे ग्रहों की कक्षीय संरचना व परिक्रमण काल के लिए तीन नियम दिए थे। पहले नियम के मुताबिक ग्रह सूर्य के चारों ओर एक दीर्घवृत्तीय कक्षा (elliptical orbit) में परिक्रमा करते हैं व दीर्घवृत्त के दो केन्द्रों में से एक पर सूर्य स्थित होता है। दूसरे नियम के मुताबिक अपनी कक्षा में परिक्रमा करते हुए जब भी ग्रह सूर्य के करीब होता है तो उसकी गति बढ़ जाती है व सूर्य से दूर जाने पर धीमी हो जाती है। तीसरा नियम ग्रह के परिक्रमणकाल का सम्बन्ध सूर्य से उसकी औसत दूरी से स्थापित करता है। इस नियम के मुताबिक ग्रह के परिक्रमणकाल का वर्ग, सूर्य से उसकी औसत दूरी के घन के अनुक्रमानुपाती होता है। जिसका मतलब हुआ कि दो ग्रहों में से जिस ग्रह की औसत दूरी सूर्य से ज़्यादा होगी उसका परिक्रमणकाल भी ज़्यादा होगा।
5 A R P Rau, The Beauty of Physics: Patterns, Principles, and Perspectives, Oxford University Press, Oxford, 2014.
ए आर पी राव: दिल्ली विश्वविद्यालय और युनिवर्सिटी ऑफ शिकागो से भौतिकी विषय में डिग्री हासिल की। लूसियाना स्टेट युनिवर्सिटी के भौतिकी व खगोलशास्त्र विभाग में प्रोफेसर रहे हैं। इनकी शोध रुचियों में मुख्यत: एटॉमिक फिज़िक्स और क्वांटम इंफॉर्मेशन विषय शामिल हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: विवेक मेहता: आई.आई.टी., कानपुर से मेकेनिकल इंजीनियरिंग में पीएच.डी. की है। एकलव्य के विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के साथ फैलोशिप पर हैं।
यह लेख रेज़ोनेंस पत्रिका के अंक - अप्रैल 2015 से साभार।