लेखक : एस. आनंदलक्ष्मी
अनुवाद: तनीषा यादव[Hindi,PDF 142 KB]
में आज अँग्रेज़ी के एक सरल व्याकरणिक पाठ से शुरुआत करूँगी जो दूसरी कक्षा के स्तर का है। हर बच्चा व्याकरण सीखने से बहुत पहले ही एक और अनेक की अवधारणाओं से परिचित होता है। एकवचन शब्द ‘पेंसिल’ का बहुवचन ‘पेंसिल्स’, ‘ऐप्पल’ का ‘ऐप्पल्स’ आदि। एकवचन-बहुवचन का यह खेल घण्टों तक चल सकता है। और जब कभी कक्षा का कोई छात्र ‘चाइल्ड’ के बहुवचन को चिल्ड्रेन की बजाय ‘चिल्ड्रेन्स’ या ‘चाइल्ड्स’ बताता है तो अँग्रेज़ी शिक्षक इन अपवादों को बहुत ही व्यंग्यात्मक हाव-भाव से सुनाता है।
अनेक बहुवचन
मेरा फोकस यहाँ वर्तनी या बहुवचन संज्ञाओं की संरचना पर नहीं है बल्कि उस अन्तर्निहित पूर्वधारणा पर है - कि बहुवचन शब्द अलग-अलग शब्दों कायोग है। उदाहरण के लिए, दस मोतियों की माला दस एकल मोतियों से बनती है। माला के मोती अलग-अलग रंग व आकर के होते हैं तब भी हम उन्हें ‘दस मोती’ कहने में बिलकुल सही होंगे। इसी तरह हम एक किताब, कई किताबें या फिर तीस किताबें भी कह सकते हैं। जब कक्षा में मॉनिटर छात्रों की किताबें एकत्रित करती है तोतीस किताबों का ढेर बन सकता है। अब एक ऐसी परिस्थिति के बारे में सोचिए जिसमें शिक्षक की मेज़ पर ये किताबें हैं: एक तरफ चार्ल्स डिकन्स द्वारा लिखी गई अ टेल ऑफ टू स्टेट्स की दस किताबों का एक ढेर है, और दूसरी तरफ एक अन्य ढेर जिसमें विलियम शेक्सपियर, लुइस कैरल, अगाथा क्रिस्टी, जेम्स जॉय्स, इसाबेल अल्लन्दे, सॉमरसेट मौहम्, बर्टरंड रस्सल्, पी.जी. वोडहाउस, जेन ऑस्टन और हैंस क्रिस्टियन एंडरसन द्वारा लिखी गई एक-एक किताब है। हम बिलकुल सही होंगे जब यह कहेंगे कि मेज़ पर दो दस-दस किताबों के ढेर हैं। लेकिन इस बात पर आप भी सहमत होंगे कि किताबों के दूसरे ढेर के लिए किताबें कहना उस ढेर की विविधता को बयाँ नहीं करता। यह संग्रह एक किताब की उन दस प्रतियों या फिर छात्रों की उन तीस कॉपियों से काफी अलग है। जब हम एक-एक करके जोड़ते हैं तो हमें एक कुल (टोटल) मिलता है जिसकी जाँच करके हम उसे प्रमाणित कर सकते हैं। लेकिन एक तरह की चीज़ों और अलग-अलग गुणों की विभिन्न तरह की चीज़ों को जोड़ने में एक वर्गीकरणीय अन्तर है।
कॉपियों व किताबों के इन तीन सेट के लिए एक समान लेबल से हमें विभिन्न कारणों की वजह से असन्तुष्टि है। इसमें कोई शक नहीं कि वीरान द्वीप पर अपने आपको अकेले पाने की स्थिति में कोई किताबों का कौन-सा सेट चुनेगा। अन्तत: वर्गीकरण के आधार एकदम भिन्न हैं जबकि वे एक समान प्रतीत होते हैं। तो चयन किए गए वर्गीकरण मानकों की जाँच की ज़रूरत है।
सामान्यीकरण का एक नियम
यहाँ एक और कारक काम कर रहा है। मुझे लगता है की मैंने खुद-ब-खुद इसे सोचा है (क्योंकि मैंने इसे कहीं पढ़ा नहीं है)। मैंने इस कारक को नाम दिया है: ‘अनुभूति में समीपस्थ-दूरस्थ के प्रभाव’ का नियम। मैं इस नियम का उल्लेख करना चाहूँगी। जितना हम किसी सेट/समूह की चीज़ों से परिचित होते हैं, उतना ही स्पष्ट रूप से हम उन चीज़ों के बीच के बारीक-से-बारीक भेद बता पाएँगे। और जितना ज़्यादा हम चीज़ों से अपरिचित हैं या उनसे दूर हैं, उतनी ही आसानी से उनके बीच की समानता को पहचान लेते हैं। ऐसे में हमसे दूरी पर चीज़ों के समूह को एक लेबल देना आसान होता है -- उन्हें हम काफी सहजता से एक खाके में डाल देते हैं। और लगभग समान चीज़ों के किसी निकटस्थ समूह को जब देखते हैं तो तुरन्त उनके बीच के अन्तर को नोट कर लेते हैं। संज्ञानात्मक दृष्टि से यह बिलकुल समझ में आता है। उदाहरण के तौर पर किसी दावत के बाद बर्तन-डिब्बों, उनके ढक्कन व चम्मचों को सही पहचानने के हुनर को ही लें -- महिलाएँ अक्सर इस मामले में कभी-भी चूकती नहीं हैं। अगर इस कौशल को लोगों पर लागू किया जाए तो कुछ दिलचस्प बातें पता चल सकती हैं। जैसे कि पड़ोस में छह-वर्षीय तिड़वा बच्चों में अन्तर कैसे किया जा सकता है? या फिर अपने विस्तृत परिवार में चार बहनों के बीच वे सब छोटी-सी-छोटी बातें बता सकते हैं जो उनमें अलग-अलग हैं और कैसे चारों में फर्क किया जा सकता है। ऐसा होते हुए भी हम बड़ी आसानी से चीनी लोगों को बहुत मेहनती और उत्तर अमेरिका के लोगों को मिलनसार बतला देते हैं जबकि वे करोड़ों की संख्या में हैं और हम बहुत ही कम लोगों, जैसे दउ3, के सैम्पल के आधार पर सामान्यीकरण कर रहे होते हैं।
कक्षा - विशिष्ट बच्चों का समूह
व्याकरण और वर्गीकरण प्रणाली हमें आज के विषयों, बच्चों की दुनिया और उनके रिश्ते पर ले आते हैं। यहाँ लगभग सभी ने कभी-न-कभी बच्चों के समूह के साथ कुछ समय तो बिताया होगा। और हम यह बात तुरन्त मानने को तैयार होंगे कि दस बच्चों के समूह की देखभाल में और दस अलग-अलग बच्चों की देखभाल के कुल योग में अन्तर है। सबसे महत्वपूर्ण अन्तर समूह के डायनैमिक्स का है। समूह के सदस्यों की अन्तःक्रियाओं में भौतिकी व रसायन से अलग एक विशिष्ट सामाजिक विज्ञान बनता है। मुझे यकीन है कि जिन बातों पर हम चर्चा कर रहे हैं उनको हम सब समझते हैं। इसके बावजूद किसी भी पुस्तकालय में इस सामाजिक विज्ञान पर एक भी किताब मिलना मुश्किल होगी। एक ही उम्र के बच्चों के समूह में और अलग-अलग उम्र के बच्चों के किसी समूह में गुणात्मक फर्क है। जिस किसी ने मिश्रित-उम्र के बच्चों या वर्टिकल ग्रुप्स के साथ काम किया हो वो इस बात की पुष्टि कर सकता है। देखिए, यहाँ बहुवचन के कितने विभिन्न रूप हैं!
वर्गीकरण और बच्चों की प्रगति
किताबों के सेट के उदहारण को जब हम बच्चों के समूहों पर लागू करते हैं तो हम समझने लगते हैं कि स्कूलों व शिक्षकों की क्या अपेक्षाएँ हैं और क्यों किसी स्कूल का वर्गीकरण बच्चे की प्रगति के विरुद्ध चलता है। बच्चों के समूह बनाने के लिए सबसे सामान्य आधार उनकी उम्र होती है। यह इसलिए क्योंकि हमारी धारणा है कि कालक्रम अपने आप में ही औचित्य उपलब्ध कराता है कि बच्चों को हम एक ही पाठ, एक ही गति व एक ही तरीके से पढ़ाएँ। सीखने की व्यक्तिगत शैलियाँ या बच्चों की प्रवीणता की तरफ तो ध्यान दिया ही नहीं जाता। कक्षा संचालन ज़्यादातर एक मनगढ़न्त औसत उम्र को मानकर किया जाता है जो कुछ बच्चों के लिए कठिन और कुछ अन्य के लिए दोहरावपूर्ण एवं थकाऊ होता है। ऐसे में विद्यार्थी अपने सीखने की गति व माँगने पर सही जवाब देने की क्षमता के आधार पर तात्कालिक लाभ की उम्मीद करने लगते हैं।
कक्षा में प्रतिस्पर्धा की एक हाई टेंशन लाइन खींची जाती है और इसकी भूमिका को इस तरह जायज़ बताया जाता है कि यह बच्चों के लिए नियुक्त कार्य को अच्छे ढंग से करने के लिए प्रेरक है। जबकि यह कभी भी इस तरह से नहीं होता है। जिन बच्चों से कक्षा में कोई एक संयोजी शब्द या अवधारणा चूक जाती है वे उलझे या गुम महसूस कर सकते हैं और पन्ने पर शब्दों में कुछ सुराग ढूँढ़ते रह जाते हैं। और आगे बढ़ने की प्रेरणा उन्हें इस बात से बिलकुल नहीं मिलती है कि उनके कुछ सहपाठियों को शिक्षक से शाबाशी मिली है। तो इस बात का विश्वास होने के लिए कि विषय उनकी पहुँच में है उन्हें इससे कहीं ज़्यादा समय की ज़रूरत पड़ सकती है।
कक्षा में व्यवस्था इस प्रकार की होनी चाहिए जो सभी बच्चों को अपना श्रेष्ठ काम करने में मदद करे, और साथ में अपने तरीके से काम करने दे। किसी सहपाठी से बेहतर काम करने से ज़्यादा बच्चों को खुद को चुनौती देने में बहुत मज़ा आता है, चाहे वो बहुत ही मुश्किल काम को सही-सही पूरा करना हो या फिर मध्यम जटिल काम को तेज़ी-से खत्म करना हो। हर विशिष्ट बच्चा विविध कक्षा में पहचाने जाने का हकदार होता है और हाल ही में तमिलनाडु के स्कूलों में शुरू की गई गतिविधि-निर्धारित सीख की पद्धिति - एक्टिविटी बेस्ड लर्निंग - सही दिशा में कदम है। यह इस बात में सफल रहा है कि जितनी उर्जा व उत्साह के साथ बच्चे आखिरी घण्टी के बाद भाग जाते थे अब उतनी ही ऊर्जा एवं उत्साह से बच्चे स्कूल में भागे चले आते हैं!
हमें यह बात भी समझनी होगी कि सामूहिक प्रयास अपने आप में इतनी ऊर्जा देता है -- जिस बच्चे को शिक्षक द्वारा सिखाए पाठ की समझ न बनी हो वह अपने सहपाठी द्वारा समझाए जाने पर बहुत ही जल्दी बात पकड़ लेता है। यह एक उल्लेखनीय अवलोकन है कि कक्षा का मिश्रित माहौल सीखने की प्रक्रिया के लिए बहुत कारगर होगा। साधारणत: इस्तेमाल किए जाने वाले वर्गीकरण के विभिन्न सिस्टम के बारे में काफी कुछ कहा जा सकता है। विकलांग या विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए स्कूलों के प्रशासन एक खास वर्ग बनाते हैं। अगर एक रैंप का निर्माण किया जाता है तो वह स्कूल अपने आपको बड़े गर्व के साथ विकलांगों के लिए अनुकूल बतलाता है। विकलांगता की अन्य किस्म भी हैं लेकिन ज़्यादातर स्कूल उनकी तरफ ध्यान नहीं देते हैं। और यह ज़रूरी नहीं कि विशेष आवश्यकता वाले बच्चे अच्छे से तब सीखते हैं जब उन्हें इकट्ठा कर अन्य बच्चों से बिलकुल अलग रखा जाता है। विभिन्न विषयों और गतिविधियों के लिए उन्हें स्कूल की अलग-अलग मुख्यधारा कक्षाओं में भी पढ़ाया जा सकता है जो सभी बच्चों के लिए लाभदायक होगा। इन सभी संयोजनों का कुशलतापूर्वक प्रबन्धन करने के लिए स्कूल प्रशासकों में लचीलापन और कल्पना की आवश्यकता होगी। लेडी इर्विन कॉलेज के राजकुमारी अमृत कौर चिल्ड्रैन्स सेन्टर में विशेष आवश्यकता वाले बच्चों (कुछ कम व कुछ मध्यम आवश्यकता वाले, दोनों) के लिए हमने एक अलग सैक्शन बनाया था। लेकिन जब कभी हम किसी बच्चे या बच्चों के छोटे समूह को मुख्यधारा कक्षाओं में ले जाते तब हमें महसूस होता कि वहाँ हो रही कुछ गतिविधियों में वे आराम से शामिल हो सकते हैं।
विविधता और वास्तविक समावेश
एक अँग्रेज़ी शिक्षक, जिन्हें कहावतों का शौक था, ने विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को अँग्रेज़ी में ‘पास्ट इम्पर्फेक्ट, प्रैज़ेंट कंटिन्युअस् और फ्यूचर टैन्स’ लेबल किया था। यहाँ पर अँग्रेज़ी व्याकरण के इन कालों का मतलब कि इन बच्चों का अतीत अपूर्ण, वर्तमान में भी यही हाल और भविष्य तनावपूर्ण है। सुनने में स्मार्ट लगता है परन्तु मुझे ऐसा लगता है कि शिक्षक को अपने आपको ऐसी पूर्वधारणाओं से बचने व हटने की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए। और ऐसे हर बच्चे में उसके खास गुण, पसन्द, कमज़ोरियों एवं शक्तिओं को पहचानना चाहिए। हमारा ध्यान आज और अभी पर होना चाहिए। किसी ज्ञानी ने कहा है कि ‘आप अपने अतीत को नहीं बदल सकते परन्तु भविष्य की चिन्ता कर अपने वर्तमान को ज़रूर बर्बाद कर सकते हो’।
किसी भी समस्या के लिए एकदम सही समाधान से हमें थोड़ा सावधान रहना चाहिए क्योंकि समीकरण बदलते रहते हैं और बच्चे बड़े होते जाते हैं। या फिर ऐसे कह सकते हैं कि जो पहले काम कर चुका है उसका पूर्ण ज्ञान हर मौके पर एक समाधान ढूँढ़ने की इच्छा से कम महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए समावेश की अवधारणा को लेते हैं। हममें से कई समावेश चाहते हैं, इसके लिए अभियान करते हैं, लड़ते हैं और साथ ही अमल भी करते हैं। पिछले बीस वर्षों से यह एक सराहनीय प्रचलन रहा है।
मेरे विचार में समावेश कीप्रक्रिया सबसे पहले दिल में शुरु करनी चाहिए। यह केवल कक्षा या खेल के मैदान जैसी जगहों की साझेदारी भर से नहीं पूरी हो जाती है, हालाँकि इसे भी निश्चित रूप से करने की कोशिश करनी चाहिए। कभी-कभी इसमें व्यावहारिक समस्याएँ हो सकती हैं।
हालाँकि वास्तविक समावेश बच्चे को इन्सान वदोस्त मानकर उसकी विशेष ज़रूरतों का समायोजन करना होता है। शिक्षक के लिए यह भी ज़रूरी है कि वह बच्चे को पहले बच्चा समझे फिर उसकी विकलांगता पर ध्यान केन्द्रित करे।
यह मेरा अवलोकन है कि स्वयंसेवक जो नेत्रहीन बच्चों की मदद करने की कोशिश कर रहे होते हैं वे उनके प्रति सहानुभूतिशील, दयालु व अपरिहास-शील होते हैं, बजाय उनके साथ स्नेहशील व हल्की बातें करें और हास्य मिजाज़ बनाए रखें। इन बच्चों को वही चाहिए जो बाकि सभी बच्चों को चाहिए: मज़ा, फैलोशिप और नई चीज़ें सीखने के अवसर।
विविधता को स्वीकार करना, व्यक्तिगत पहल का समर्थन, चर्चा के विभिन्न तरीकों को अपनाना, शिक्षण और थिएटर गतिविधियाँ - ये सब अनेकता (plurality) लेबल के अन्तर्गत आते हैं। इससे जोड़ें विभिन्न लोगों, उनकी भाषा और धर्म से जुड़ने की भावना, पेड़ और पौधों से, भूमि, आकाश और समुद्र से, और चाँद, सितारे व सूरज से जुड़ने की भावनाओं को।
हम शिक्षकों, विशेष शिक्षकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व एक्टिविस्ट, प्रबन्धक व प्रशासकों के लिए एक-दूसरे से, पर्यावरण की हर चीज़ से और ब्रह्माण्ड से जुड़ाव की इस भावना से ज़्यादा सन्तुष्टि नहीं।
एस. आनंदलक्ष्मी: अपनी स्नातकोत्तर पढ़ाई अमेरिका के ब्रिन मौर कॉलेज और यूनिवर्सिटी ऑफ विस्कौन्सिन से की। 1956 में चेन्नई के विद्या मन्दिर स्कूल को स्थापित किया और उसकी प्रधानाध्यापक भी रहीं। फिर दिल्ली के लेडी इर्विन कॉलेज में चाइल्ड डिवेलपमेंट स्नातकोत्तर कोर्स की शुरुआत की और कॉलेज की डायरेक्टर भी रहीं। सोश्यलाइज़ेशन, शिशुओं और लड़कियों में कॉग्निटिव डिवेलपमेंट पर शोध। लेखक, काउंसलर एवं कई शैक्षिक स्वैच्छिक संस्थाओं के साथ काम करती हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: तनीषा यादव: शोध छात्रा हैं। वर्तमान में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसिज़, मुम्बई से शिक्षा में एम.फिल. कर रही हैं और वहीं से शिक्षा में स्नातकोत्तर।
सभी चित्र: तनुश्री रॉय पॉल: आई.डी.सी., आई.आई.टी. बॉम्बे से एनीमेशन में स्नातकोत्तर। स्वतंत्र रूप से एनीमेशन फिल्में बनाती हैं और चित्रकारी करती हैं।
यह लेख जर्नल ऑफ द कृष्णमूर्ति स्कूल्स के अंक-16, जनवरी, 2012 से लिया गया है।