रिनचिन
कहानी
वह धीरे-से अपनी क्लास से बाहर निकली। उसे ज़रा-सा भी अन्दाज़ा नहीं था कि उससे मिलने कौन आया है। उसकी टीचर ने उसे बताया ही नहीं। “मेस में जाओ, वहाँ कोई तुम्हारा इन्तज़ार कर रहा है।” वह बाहर निकली और सीमेंट की ढलान को हौले-से पार करके रुक गई। मेस के हल्के नीले रंग के दरवाज़े पर ताला जड़ा हुआ था। उसके ठीक सामने उसकी माँ खड़ी थी। उसकी कमर में अल्पू थी। उसकी माँ उसकी तरफ मुस्कराती हुई स्थिर खड़ी थी। अप्रैल की गर्म दोपहरी में उसे वे दोनों एक सपने की तरह लग रही थीं। उसे देखकर अल्पू उत्तेजित होकर माँ की कमर में ही ऊपर-नीचे उछलने लगी। क्या उसे उसकी याद है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। जब वे साथ थीं तो वह बहुत ही छोटी थी और अब एक साल बाद उसे क्या याद होगा? अल्पू किलकारी मार रही थी और गोद से आज़ाद होने को मचल रही थी। उसकी माँ अभी तक स्थिर खड़ी थी। सिर्फ उसने अल्पू को और भी कसकर पकड़ लिया था, जिससे वह नीचे न कूद जाए।
वह उनकी ओर भागी। माँ ने उसे कसकर चिपटा लिया। उसने अपनी बाँहें माँ के चारों ओर कस लीं और अल्पू के पैरों को चूमा। जब उसने मुँह उठाकर अपनी माँ की ओर देखा तो वह मुस्करा रही थी। उसकी आँखों में आँसू चमक रहे थे।
“मुझे देखने दो,” उसकी माँ ने उसे हल्के-से ढकेला। “तुम कितनी बड़ी हो गई हो।”
माँ को इस तरह देखते वह लजा गई। पिछले एक साल में उसमें कई बदलाव भी तो हुए हैं।
“माँ, मुझे महीना होने लगा है।”
“कब से?” माँ ने पूछा।
“जब वे तुम्हें ले गए, उसके तुरन्त बाद से ही। मैंने वर्षा टीचरजी को बताया। उन्होंने मुझे पैड दिए। अब तो यह छह बार हो चुका है। माँ, यह और कितनी बार होगा?” माँ हँस पड़ी और उसे फिर से चिपटा लिया। “जब तक तुम बहुत बड़ी नहीं हो जाती हो, मुझसे भी बड़ी। क्या उस वक्त तकलीफ होती है?”
“नहीं, ज़्यादा नहीं। जब तुम्हें पहली बार हुआ था तो तुम डरी थी?”
“हाँ, मैं रोई थी। मैं बहुत छोटी थी, तुमसे भी छोटी। इसलिए मुझे लगा कि कुछ गड़बड़ हो गई है। मैं रोने लगी। क्या तुम भी रोई थी?”
“नहीं, मैं नहीं रोई। मुझे इसके बारे में पता था। मेरी सहेलियों ने मुझे इसके बारे में बता दिया था। इसलिए मैं बस वर्षा मैडम के पास गई और उनसे कहा कि मुझे कपड़ा चाहिए।” यह बताते वक्त वह शरमा रही थी। वह माँ की तरफ देख नहीं रही थी। उसका एक हाथ अभी भी माँ के हाथ में था। दूसरे हाथ से वह अल्पू की पायल से खेल रही थी।
वे रुक-रुककर आवेग में बातें करती रहीं। वह जल्दी-जल्दी जो कुछ भी घटा था, उसे बता देना चाहती थी। उसकी माँ बैठ गई लेकिन उसका हाथ नहीं छोड़ा। वह भी दीवार से लगकर उकड़ू बैठ गई। अल्पू कूदकर अपनी माँ की गोद से उतर गई और उनके बीच उछलकूद करने लगी। माँ को एक हाथ से उसे सम्हालने में परेशानी होने लगी। वे दोनों प्यार से मुस्कराते हुए अल्पू को देखने लगीं। वे दोनों परिपूर्ण थीं। एक साथ।
“एक्ज़ाम हो गया?”
“हाँ।”
“अच्छे नम्बर आए?”
वह अल्पू के साथ खेलते-खेलते अपने पैर से ज़मीन पर लकीरें खींच रही थी। “हाँ, ठीक-ठाक। पर मुझे अँग्रेज़ी में बहुत कम मिले हैं।”
“क्यों, टीचर खराब हैं क्या?”
“पता नहीं, खुद पढ़ने के लिए बोलती हैं। पर गणित की मैडम खूब खुश हैं। मेरे पूरे नम्बर आए हैं।” अचानक उसने पूछा, “तुम्हारी पूरी छुट्टी हो गई? अब फिर वापस तो नहीं जाना पड़ेगा?”
“हाँ,” माँ उसके माथे पर लटक आई लटों को हटाते हुए उसकी ओर झुकते हुए बोली। मानो माँ उसे छूने का बहाना ढूँढ़ रही हो।
“तो अब हम सब साथ रहेंगे। आओ मैडम से बात कर लो।” वह उठते हुए और माँ का हाथ खींचते हुए बोली।
“नहीं, आज नहीं। तुझे कुछ दिन यहीं रहना पड़ेगा। ये साल पूरा कर ले।” माँ ने उसे वापस बिठाते हुए कहा।
“लेकिन अब तुम बाहर आ गई हो तो क्या हम सब साथ नहीं रह सकते हैं?”
“हाँ, हम रहेंगे। पर अभी नहीं। तुम्हें अभी कुछ दिन और यहाँ रहना पड़ेगा। मुझे अभी कुछ और चीज़ें निपटानी हैं। अभी घर भी तो नहीं है। मुझे सब इन्तज़ाम करने दे।”
“तुम जो कुछ भी करोगी, उसमें मैं भी तो मदद कर सकती हूँ, तो सब जल्दी हो जाएगा।” वह माँ के चेहरे को देखते हुए और उसके हाथों को झकझोरते हुए बोली।
“ज़िद मत कर।”
“तो अल्पू तुम्हारे साथ क्यों रहती है जबकि वह तो तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकती? मैं तो कर सकती हूँ।” वह अपनी माँ के हाथ से अपना हाथ छुड़ाते हुए बोली।
“वह बहुत छोटी है रे,” माँ ने कहा, और आगे बढ़कर फिर से उसका हाथ पकड़ लिया। “अच्छा ये बताओ, यहाँ खाना कैसा मिलता है?”
“अच्छा है, लेकिन वे नमक-मिर्ची कम डालते हैं। बड़ी लड़कियाँ अपने साथ रखती हैं, वे दे देती हैं।” उसकी आवाज़ में गुस्सा था। उसका मुँह भी सूजा हुआ था।
“वे खरीदती हैं?”
“हाँ।” लेकिन उसने यह नहीं बताया कि अब कुछ लड़कियाँ उसे नहीं देना चाहतीं क्योंकि उसके पास कुछ खरीदने के लिए पैसे नहीं होते जिससे वह कुछ खरीदकर बदले में उन्हें दे सके।
“किसी और की मम्मी आती हैं तो फिर हम लोग बाँट लेते हैं। तुम अभी चली जाओगी?”
“हाँ, थोड़ी देर में जाना है।”
“तो फिर अभी चली जाओ, मुझे भी क्लास में जाना है।”
“अरे, अभी तो टाइम है। हमें तो आठ बजे की गाड़ी पकड़नी है। तेरी मैडम ने बोला है कि तू आधे दिन की छुट्टी ले सकती है।”
“नहीं, मुझे अभी क्लास में जाना है। मैडम आज नया चैप्टर पढ़ाने वाली हैं।”
उसकी माँ चुप रही। थोड़ी देर बाद उसने फिर कहा, “अब तुम जाओ, बाद में आना। पर तभी आना जब मुझे घर ले जाओगी।” वह रोने-रोने को हो रही थी। लेकिन चेहरे पर कठोर भाव लिए वह माँ की आँखों की तरफ देखने से बच रही थी। माँ ने उसे चिपकाना चाहा लेकिन वह अकड़ी रही और उसका जवाब नहीं दिया। अचानक उसने कहा, “मुझे जूते चाहिए। मेरे जूते फट गए हैं। तुम मुझे कुछ भी नई चीज़ नहीं दिलाती हो। सभी लड़कियाँ मुझे चिढ़ाती हैं। अगर इसे नए कपड़े मिल सकते हैं तो मुझे नए जूते क्यों नहीं?” उसने अल्पू की झालर वाली फ्रॉक के नीचे उसकी जाँघ में चुटकी काट ली। अल्पू ने अपना पैर पीछे की ओर झटका और उसके बाल पकड़कर खींच लिए। इसके बाद उसने अल्पू को और ज़ोर से चुटकी काट ली। अल्पू चौंक गई और रोने लगी।
“देख तूने क्या किया, इसे वापिस रुला दिया न।” इसके पहले कि वह सम्हलती, माँ ने उसे एक थप्पड़ मार दिया।
“मुझको ही मारो। अब मत आना मुझसे मिलने।” उसने माँ को दूर ढकेलते हुए कहा। माँ बुरी तरह से रो रही अल्पू को चुप कराने की नाकाम कोशिश कर रही थी। वह रोते हुए बैग लेकर अपने क्लास की ओर भाग गई।
लेकिन वह क्लास में न जाकर मैदान की ओर चली गई। वह जानती थी कि उसकी टीचर को पता था कि वह अभी क्लास में नहीं आएगी। और अभी होस्टल जाने का वक्त नहीं हुआ था। इसलिए वह हैण्डपम्प के पास चली गई। वहाँ पानी पिया। फिर वह इमली के पेड़ के नीचे बैठ गई और अपना बैग खोला। उसकी गणित की किताब में उसकी माँ के खत थे। वह बैठ गई और उन्हें देखने लगी। उसका दिल कचोट रहा था। उसे लगा कि वह साँस नहीं ले पा रही थी। उसे गुस्सा आ रहा था। साथ ही, वह रोने-रोने को हो रही थी।
लगभग आधे घण्टे के बाद किसी ने उसके कन्धे पर हाथ रखा। बिना देखे ही वह जानती थी कि वह कौन है। उसकी माँ ने उसे एक प्लास्टिक का थैला दिया, “ये तेरी सहेलियों के साथ बाँट लेना।” उसमें नमकीन सेव, अचार, बिस्किट और सैनेटरी पैड का एक पैकेट था।
वह घूमी और माँ के पैरों से लिपटकर रोने लगी। “तुम्हारी बहुत याद आती है। डर लगता है। बाकी बच्चे कहते हैं कि तुमको फिर से पकड़कर जेल में डाल देंगे।” वह एक झटके में सब कह गई। माँ उसके पास बैठ गई। अल्पू सो गई थी। इसलिए माँ ने उसे एक तौलिये पर लिटा दिया था। इसके बाद उसे अपने पास खींचते हुए माँ ने अपने से चिपका लिया।
उसकी माँ भी रो रही थी। लेकिन वह मुस्करा भी रही थी। “डाल भी देंगे तो क्या? तुम तो बहादुर हो न। जब एक बार में नहीं डरी तो बार-बार क्या डरोगी।”
“मैं तुम्हारे साथ रहूँगी।”
“मुझे इन्तज़ाम तो कर लेने दे। थोड़े दिन रुक जा, हम सब साथ रहेंगे।” उसकी माँ उसका सिर थपथपा रही थी। उसे इच्छा हो रही थी कि वह पूरी तरह से अपनी माँ की गोद में बैठ जाए। लेकिन गोद में बैठने के लिए वह बहुत बड़ी हो चुकी थी। इसलिए वह अपनी माँ की गोद में सिर रखकर लेट गई। इससे वह उसके बहुत नज़दीक महसूस कर रही थी।
“मैं तुझसे मिलने हर हफ्ते आऊँगी। और अगली बार तेरे जूते भी लाऊँगी।”
“जूते नहीं चाहिए, वो तो ऐसे ही बोला था।”
“सुन, अगर नहीं आई तो तुझे मिलने रानी मौसी आएगी। जैसे वह पहले आती रही है।”
उसने अपना सिर सहमति में हिलाया। यही ठीक रहेगा...वह जानती थी कि किसी-न-किसी तरह वह अपनी माँ से जुड़ी रहेगी।
“रानी मौसी पिछली बार किताबें लेकर आई थीं। मैं उनके सामने नहीं हँसती। उनको लगेगा कि मैं तुमको याद नहीं करती। इसलिए उनसे ज़्यादा बात नहीं करती।”
“अरे पागल, तू खुश रहेगी तो मुझे चैन मिलेगा न। तू गुमसुम रहती है, सुनकर मैं कितना परेशान रहती हूँ।”
माँ ने उसे कसकर पकड़ लिया और बोलती रही, “मुझे भी तो तेरी याद आती है। तुझे नहीं मिली थी तो बहुत बुरा लगता था। आ नहीं पाती तो इसलिए नहीं कि याद नहीं आती। इसलिए कि आ ही नहीं सकती।”
अब उसे यह एहसास हुआ कि केवल वही अपनी माँ को याद नहीं करती, उसकी माँ भी उसे बहुत याद करती है। उसकी माँ उसे कभी भी अकेला नहीं छोड़ेगी।
लेकिन अगर उन्हें कुछ हो गया तो? अगर वे उन्हें फिर से जेल में डाल देंगे तो? फिर क्या होगा? और कुछ सोचने में भी उसे डर लग रहा था। लेकिन वह जानती थी कि ऐसा हो सकता है।
दोनों ने एक-दूसरे को कसकर पकड़ लिया और रोती रहीं। उसने अपने उन सारे आँसुओं को बह जाने दिया जो उसने बहुत दिनों से रोककर रखे थे। फिर आँख में आँसू भरे हुए ही वह अपनी माँ से बातें करने लगी। उसने पहले कही हुई बातों को फिर से माँ को सुनाया। पर इस बार बिना किसी हिचकिचाहट के। वे देर तक बातें करती रहीं। तभी अल्पू जाग गई। माँ उसे अल्पू के बारे में बताने लगी। वह पिछले साल से कितनी बड़ी हो गई है। वह कितनी शैतान है, और कैसे उसने उसे दीदी बोलना सिखाया। फिर उसने अल्पू को अपनी गोद में लेते हुए कहा, “देख, अल्पू दीदी...।” माँ ने उसकी ओर इशारा किया।
“दीदी,” अल्पू ने अपने बिना दाँतों वाले मसूढ़े दिखाते हुए कहा। वह हँसने लगी और अल्पू को वापस अपनी गोद में ले लिया। अल्पू तुरन्त उसके बाल खींचते हुए दीदी...दीदी... करने लगी।
वे हँस पड़ीं। अल्पू भी हँसने लगी।
क्लास की ओर जाते वक्त उसका दिल एकदम हल्का था। उसे पता था कि अब वह कितने भी महीने माँ से फिर मिले बगैर रह सकती है। वह उसके आलिंगन की गरमाहट को महसूस कर रही थी। वह खुद पर मुस्कराई और सीट पर बैठ गई। वह अपने पाठ में ध्यान लगाने का बहाना करने लगी। लेकिन अपने ख्यालों में वह अभी भी अपनी माँ के साथ थी। कोई भी उन यादों को उससे छीन नहीं सकता था। वह अपनी माँ को बहुत प्यार करती थी और उसकी माँ भी उसे प्यार करती थी। उसकी माँ भी उसे बहुत याद करती थी और जब तक यह सच है, उसकी माँ उससे मिलने आती रहेगी।
रिनचिन: बच्चों व बड़ों के लिए कहानियाँ लिखती हैं। अपनी कहानियों में वे राजनैतिक जटिलता की परतों को बड़ी ही सरलता से बयाँ करती हैं। इनके पात्र जितने मज़बूत और जीवन्त होते हैं, वहीं कहानियों में आम ज़िन्दगी का संघर्ष, प्यार और जद्दोजहद बेहद सरल तरीके से अभिव्यक्त होता है। वे करीब दो दशकों से सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों पर जन आन्दोलनों के साथ काम कर रही हैं। महिला, क्वेयर और जातिवाद-विरोधी मुद्दों के साथ जुड़ी हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: वर्षा: कहानियाँ व कविताएँ लिखती हैं। हिन्दी अनुवाद करती हैं।
सभी चित्र: शेफाली जैन: चित्रकार हैं। महाराजा सयाजीराव युनिवर्सिटी ऑफ वडोदरा से पढ़ाई। वर्तमान में अम्बेडकर युनिवर्सिटी, दिल्ली में सहायक प्रोफेसर हैं।
यह कहानी एकलव्य द्वारा प्रकाशित रिनचिन के नए कहानी संग्रह चुड़ैल का नाश्ता में भी प्रकाशित की गई है।