सवाल: लौकी की बेल में सफेद फूल आते हैं, तो लौकी की बेल या फल हरे रंग के क्यों होते हैं? ऐसे ही भटे का पौधा तो हरे रंग का होता है पर उसके फूल परपल और भटे का रंग गहरा बैंगनी क्यों होता है?
- मानवी मुले, कक्षा 1, सेमिरिटन स्कूल, होशंगाबाद
जवाब की कोशिश
यह बहुत मज़ेदार बात है और शायद ही कोई यह देख पाए कि पेड़-पौधों में ढेर सारे रंग पाए जाते हैं। वैसे मोटे तौर पर देखा जाए तो पेड़-पौधे हरे होते हैं – इसीलिए तो हम हरियाली की बात करते हैं। लेकिन यह बात ज़्यादातर पत्तों पर ही लागू होती है। जब बात फूलों और फलों की आती है तो दुनिया रंग-बिरंगी हो जाती है (वैसे कई पेड़ों में पत्तियाँ भी रंग-बिरंगी होती हैं)। तो सवाल वाजिब है कि जब पत्तियाँ हरी होती हैं तो फूलों और फलों में लाल, पीले, नारंगी, कत्थई, नीले रंग कहाँ से आ जाते हैं और क्यों।
तो चलो, समझने की कोशिश करते हैं। यह तो जानी-मानी बात है कि सूरज के प्रकाश में कई रंग उपस्थित होते हैं। इन सबका मिल-जुलकर असर यह होता है कि हमें यह प्रकाश सफेद दिखता है। लेकिन इन रंगों को अलग-अलग किया जा सकता है। इन्हें अलग-अलग करने के कई तरीके हैं। इन्द्रधनुष एक तरीका है।
रंजक पदार्थ और उनका विवरण
सबसे पहली बात तो यह है कि पौधों में पाए जाने वाले अधिकांश रंग रासायनिक पदार्थों की उपस्थिति की वजह से होते हैं। ये ऐसे पदार्थ होते हैं जो सूरज की रोशनी में से कुछ रंगों को सोख लेते हैं और बाकी को या तो परावर्तित कर देते हैं या आर-पार निकल जाने देते हैं। तब वह वस्तु हमें उस रंग की दिखाई पड़ती है जो वह नहीं सोखती। ऐसे पदार्थों को रंजक कहते हैं। जैसे पत्तियों में एक पदार्थ क्लोरोफिल पाया जाता है। यह हरे और थोड़े नीले को छोड़कर बाकी सारे रंग सोख लेता है। तो पत्तियाँ हरी नज़र आती हैं। वैसे क्लोरोफिल भी कई प्रकार का होता है और ये अलग-अलग प्रकार, अलग-अलग रंगों के प्रकाश को सोखते हैं।
पौधों में मुख्यत: चार प्रकार के रंजक पाए जाते हैं। इनके नाम में जा सकते हैं, लेकिन मुख्य बात यह है कि इन सबकी रासायनिक संरचना अलग-अलग होती है और ये अलग-अलग रंगों के प्रकाश को सोख लेते हैं। इनमें से कुछ पदार्थ पत्तियों में भी पाए जाते हैं लेकिन क्लोरोफिल की उपस्थिति में नज़र नहीं आते। पतझड़ के समय जब क्लोरोफिल का विघटन हो जाता है तो हमें लाल-पीली पत्तियाँ दिखने लगती हैं।
रंजक तय करने वाले कारक
अब आते हैं वास्तविक सवाल पर। किसी भी पौधे में यह तय करने वाले कारक होते हैं कि उसमें कौन-कौन-से रंजक बनेंगे। इन्हें जीन कहते हैं। पूरे पौधे की हर कोशिका में एक-जैसे जीन होते हैं। तो हर कोशिका को (यानी हर अंग को) ये सारे रंग बनाना आता है। लेकिन कहाँ कौन-सा रंग बनेगा, यह उस कोशिका की स्थिति पर निर्भर रहता है। जैसे जड़ें कभी क्लोरोफिल नहीं बनातीं।
जब पौधे के किसी स्थान पर फूल बनने लगता है तो वहाँ की परिस्थिति बदल जाती है। उस स्थान की कोशिकाओं के तेवर ही कुछ और हो जाते हैं। फिर फल की बारी आती है। फल बनने की शुरुआत तब होती है जब किसी फूल के अण्डों का मिलन परागकणों से होता है। इस क्रिया को निषेचन कहते हैं। निषेचन के कारण परिस्थिति फिर बदल जाती है। जो जीन पहले निष्क्रिय पड़े थे, वे अब सक्रिय होकर काम करने लगते हैं। नए-नए रसायन बनने लगते हैं और रंग-रूप बदल जाता है।
तो जीन्स और कोशिका का पर्यावरण मिलकर तय करते हैं कि किसी कोशिका में कौन-से पदार्थ बनेंगे। रंजकों का निर्माण भी इसी से तय होता है। लेकिन फलों में एक बात और होती है। ये जो रंजक होते हैं, इनका रंग भी आसपास के पर्यावरण से प्रभावित होता है। यदि वातावरण अम्लीय है तो वही रंजक कुछ अलग रंग दिखाता है लेकिन वातावरण उदासीन या क्षारीय हो जाए, तो उसका रंग बदल जाता है। इसी प्रकार से शकर (यानी साधारण शकर, ग्लूकोज़, फ्रक्टोज़ वगैरह) भी रंजक के रंग को प्रभावित करती है। जब फल पकने लगता है और उसमें शकर की मात्रा बढ़ने लगती है तो वह रंजकों से जुड़कर उनका रंग बदल देती है।
अब इसी सवाल का दूसरा पहलू देखो। इतना तो तुम समझ ही गई होगी कि ये सारे रंग वगैरह बनाने में पौधे का काफी खर्चा होता होगा। खर्चा यानी इतने सारे रसायनों को अदल-बदलकर नए रसायन बनाने के लिए जो क्रियाएँ होंगी, उनमें ऊर्जा तो लगेगी न! क्लोरोफिल बनाया तो खर्चा तो हुआ लेकिन उसकी मदद से प्रकाश संश्लेषण की क्रिया करके फायदा भी तो मिला। तो फूलों, फलों को अलग-अलग रंग से सजाने में जो खर्चा होता है, उससे भी कुछ फायदा मिलता है।
ऐसा माना जाता है कि जब पौधे ज़मीन पर आए तो उन्हें कई खतरनाक परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था। पानी में थे तो पानी की कमी नहीं थी। ज़मीन में से पानी सोखने के लिए जुगाड़ जमाने पड़े। धूप तेज़ थी तो उससे बचने के लिए व्यवस्था करनी पड़ी। कई रंजक पौधों को हानिकारक प्रकाश से बचाने का काम करते हैं। पानी में तो यह काम पानी कर देता था।
ऐसा कहते हैं कि फूलों में जो अलग-अलग व्यवस्थाएँ बनी हैं, वे ऐसे जन्तुओं को आकर्षित करने के लिए बनी हैं जो उनके परागकणों को दूसरे फूलों तक पहुँचा दें। इन्हें परागणकर्ता कहते हैं। रंग अलग होगा तो कीटों को, पक्षियों को ये फूल आसानी-से दिख जाएँगे। परागणकर्ता फूलों पर बैठेंगे तो परागकण उनसे चिपककर अन्य फूलों पर पहुँच जाएँगे। लेकिन रंग-बिरंगे फूलों पर वे बैठेंगे तो उन्हें वापिस आने का या उसी रंग के फूलों पर बैठने का कोई कारण भी तो होना चाहिए। तो फूलों में पौष्टिक मकरन्द की व्यवस्था हुई। परागणकर्ता को उसकी मदद के बदले इनाम मिला। तो इन रंगों से फायदा तो हुआ – परागणकर्ता फूलों पर आने लगे। यदि परागकणों को हवा में उड़ाकर दूसरे फूलों पर पहुँचाने का तरीका (वायु परागण) अपनाया जाए, तो बहुत अधिक संख्या में परागकण बनाने पड़ते हैं क्योंकि हवा तो हवा है, आपका किराए का ऑटो तो है नहीं।
रंगों में भिन्नता के फायदे
यही हाल फलों का भी है। पौधों के लिए फलों का कोई महत्व नहीं है – महत्व है उनके अन्दर के बीजों का। फल तो इन बीजों को दूर-दूर तक बिखराने के साधन हैं। सही है, हवा-पानी भी यह काम कर सकते हैं मगर यहाँ भी जन्तुओं की मदद लेना फायदेमन्द होता है। किसी पौधे के फल या बीज ऐसे होते हैं जो जन्तु पर गोंद जैसे पदार्थ की मदद से चिपककर दूर-दूर तक जाते हैं तो कुछ में काँटे होते हैं। कई पौधों में फलों को इस तरह बनाया गया है कि जन्तु उन्हें खाने को लालायित होते हैं और साथ में बीजों को बिखरा देते हैं। इसमें रंग की विशेष भूमिका है। फल यदि अलग रंग का दिखेगा तो जन्तु उन्हें आसानी-से पहचानकर खाएँगे। लेकिन कच्चा फल खिलाकर कोई फायदा नहीं क्योंकि बीज भी तो कच्चे होंगे। वे मंज़िल पर पहुँचकर उगेंगे ही नहीं। इसलिए जन्तु पका फल खाएँ तो काम का है। इसलिए फल पकने पर वह खाने योग्य भी हो जाता है और उसका रंग बदलकर इस बात का ऐलान भी कर देता है कि वह फल अब पक गया है।
तुम देख ही सकती हो कि हरे रंग के पौधे पर बैंगनी भटा आसानी-से दिख जाएगा और लौकी भी बाकी पौधे की तुलने में थोड़ी हल्के रंग की होती है। अब पौधे इतना सोच-समझकर करते हैं या नहीं, मैं नहीं जानता। वैसे लौकी और भटे में एक बात और है। ये हमारे पालतू हैं, हमने सदियों में इन्हें अपने हिसाब से बदला है। तो शायद प्रकृति से ज़्यादा यहाँ मनुष्य का हाथ है। वैसे बैंगन सिर्फ बैंगनी नहीं होते, हरे-सफेद बैंगन भी होते हैं। एक जगह मैंने यह भी पढ़ा है कि बड़े फल आम तौर पर ज़्यादा रंग-बिरंगे या भड़कीले नहीं होते। कारण स्पष्ट नहीं है लेकिन कहते हैं कि इन्हें खाने वाले जन्तु रंग देखकर इनकी ओर आकर्षित नहीं होते।
तो पता नहीं, जो सवाल था उसका जवाब मिला या नहीं। यदि 6 वर्षीय मानवी मुले आगे बात बढ़ाएगी तो बात बढ़ेगी, नई-नई और बातें निकलेंगी। उसे भी मज़ा आएगा, मुझे भी मज़ा आएगा और बाकी लोगों का मज़ा तो मुफ्त में।
सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।