श्रद्धांजलि
श्याम बोहरे
हमारे समाज ने शिक्षकों से जो भी अपेक्षाएँ की हैं, वे ज़रूरत से ज़्यादा तो हैं ही, साथ ही अव्यवहारिक भी हैं। अव्यवहारिक इसलिए कि वे घर के, समाज के, स्कूल के और सरकार द्वारा शिक्षा व्यवस्था के संचालन से मेल नहीं खातीं। तमाम तरह की अपेक्षाओं को पूरा करने की कोशिश में अधिकांश शिक्षक पोस्टमैन की तरह ही केवल सन्देश वाहक का काम करते नज़र आते हैं। जिस तरह सन्देश यहाँ से वहाँ ले जाने में पोस्टमैन का अपना कुछ भी नहीं होता, लगभग उसी तरह शिक्षक भी दूसरों के द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम को, दूसरों की लिखी पुस्तकों में दिए गए सन्देशों को ही, अपने विद्यार्थियों को परोसते रहते हैं। जो औसत से कुछ बेहतर शिक्षक होते हैं, वे मेहनत करके उसी सन्देश को सरल बनाकर पेश करते हैं। वे प्रभावशाली ढंग से, रोचक अन्दाज़ में, सन्देश को इस तरह पेश करते हैं कि विद्यार्थी चमत्कृत और उत्साहित हो जाते हैं। ऐसे शिक्षक विषयवस्तु को कई लेखकों की पुस्तकों से पढ़कर, मेहनत कर, अपने हुनर से उसे आकर्षक बनाते हुए, अलग-अलग तरह के उदाहरणों के ज़रिए कुछ इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि विषय को समझना रोचक और आसान हो जाता है। लेकिन ये कुछ बेहतर शिक्षक भी दूसरों का ही सन्देश देते हैं।
शिक्षकों की इस बिरादरी के मरुस्थल में हरियाली की भाँति अनूठे और सुखद अपवाद भी होते हैं। दूसरे अच्छे शिक्षकों की तरह, ये भी अनेक पुस्तकों और सन्दर्भों से सामग्री बटोरकर उसकी रोचक व्याख्या तो करते ही हैं, साथ ही अपना मौलिक ज्ञान भी मिलाते चलते हैं। इतना ही नहीं, एक कदम आगे बढ़कर उसमें अपना अंश, अपना व्यक्तित्व, विचारधारा, सामाजिक सरोकारों से लैस अपने सपने भी साझा करते रहते हैं। वे पूरी शिद्दत के साथ नए मानवीय समाज को बनाने के लिए अपने विद्यार्थियों को गढ़ते रहते हैं। ऐसे बिरले अपवादों में दविन्दर कौर उप्पल थीं जो 4 मई, 2021 को कोविड की वजह से जीते-जागते इन्सान से एक कहानी बन गईं। सामाजिक सरोकार, गैरबराबरी के खिलाफ हमेशा खड़े रहना, वंचितों की पक्षधर, खासकर महिलाओं के प्रति संवेदनशील आचरण, जो गलत लगे उसके खिलाफ पूरी ताकत से खड़े रहना, अध्ययनशीलता और अध्यापन के प्रति गम्भीरता के साथ-साथ अपने विद्यार्थियों की समस्याओं से जूझना आदि अनेक गुणों ने दविन्दर को विद्यार्थियों का फ्रेंड, फिलॉसफर और गाइड बना दिया। दविन्दर हमेशा अपने विद्यार्थियों के सामने अकादमिक विषयों को सामाजिक सन्दर्भों में प्रभावी ढंग से पेश करने की कोशिश करतीं।
मानवीय समाज के लिए संवदेनशील इन्सान बनाने का यह काम विश्वविद्यालय की सीमाओं में रहकर व केवल पुस्तकों के द्वारा अधिक प्रभावी ढंग से नहीं हो सकता। दविन्दर विश्वविद्यालयीन अकादमिक जगत के साथ-साथ, समाज में जाकर उसके सुख-दुख में, उसकी चिन्ताओं में शामिल होकर, समाज से लगातार सीखती रहतीं और उसे कुछ देती-लेती रहतीं। प्रदेश में सार्थक काम करने वाली स्वैच्छिक संस्थाओं में उनकी औपचारिक और अनौपचारिक सक्रिय उपस्थिति बनी रहती। किसी संस्था के निदेशक मण्डल में, तो किसी की समिति में, तो किसी में कुछ भी न होते हुए भी बहुत कुछ होतीं। वे एकलव्य की विशाखा समिति की प्रमुख रहीं। प्रदेश में चल रहे आन्दोलन और आन्दोलनकारियों की ओर वे अपने आप खिंची चली आती थीं। अनेक कार्यशालाओं, संगोष्ठियों, सभाओं, बैठकों, प्रदर्शनों में वे अक्सर मौजूद रहतीं। निरन्तर अध्ययन और सामाजिक संस्थाओं से सम्पर्क के कारण दविन्दर अकादमिक सिद्धान्तों और ज़मीनी सच्चाई के तालमेल से विषय को व्यवहारिक बना देतीं। वे पढ़ाते समय पाठ्यक्रम की विषयवस्तु, सामाजिक सरोकारों, मानवीय संवेदनाओं के साथ बेहतर समाज के सपनों को सन्तुलित ढंग से पेश करतीं।
भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पहले वे सागर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता और जनसंचार विभाग में अध्यापक थीं। मैं जब कभी अपने घर, सागर जाता तो दविन्दर से मुलाकात होती थी। दो-तीन बार मुलाकात उस समय हुई जब वे अपने किसी विद्यार्थी की स्टोरी छपने को सेलीब्रेट कर रही होती थीं। अपने विद्यार्थियों की उपलब्धियों के प्रति उनका उत्साह वाकई कमाल का होता था। उम्र में उनसे वरिष्ठ होने के बावजूद, ऐसा लगता था कि अभी दविन्दर का विद्यार्थी बन जाऊँ।
वे सागर विश्वविद्यालय की महिला छात्रावास में रहती थीं। वहाँ शायद छात्रावास अधीक्षक भी थीं। वहाँ रहते हुए दविन्दर छात्राओं से जिस तरह दोस्ताना व्यवहार करतीं, जिस तरह से दकियानूसी नियमों और परम्पराओं को धूर्तता बतातीं, जिस तरह से छात्राओं को आज़ाद रहने देतीं, वह उन्हें एक अराजक और विद्रोही के फ्रेम में फिट कर सकता था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यह कमाल था दविन्दर के परिपक्व, शालीन, गम्भीर, संयमित और उदार तथा स्पष्ट विचारों का, जिसके कारण आज़ाद होने के बावजूद छात्राएँ अराजक और उद्दण्ड नहीं हो पाती थीं। दविन्दर के महिला छात्रावास के कारनामों से समझ में आया कि आज़ाद रहने देने से युवा अधिक समझदार और ज़िम्मेवार बनते हैं।
श्याम बोहरे: प्रशासनिक अकादमी, भोपाल से रीडर के पद से सेवानिवृत्त। पंचायती राज पर बहुत काम किया है। लिखने-पढ़ने में विशेष रुचि। भोपाल में रहते हैं।