एक ताज़ा अध्ययन के मुताबिक जेनेटिक्स और पर्यावरण की जटिल परस्पर क्रिया से निर्धारित होता है कि कौन व्यक्ति अवसादग्रस्त होगा। मॉलीक्यूलर सायकिएट्री नामक शोध पत्रिका के 24 मई के अंक में प्रकाशित अध्ययन का निष्कर्ष है कि गरीब परिवारों के बच्चों में मानसिक रुग्णता की संभावना ज़्यादा होती है और इसके लिए उनके डीएनए की संरचना को नहीं बल्कि उसमें पर्यावरण की वजह से होने वाले बदलावों को दोषी ठहराया जा सकता है।
यह देखा गया है कि गरीब परिवारों के बच्चे सम्पन्न बच्चों के मुकाबले अधिक अवसादग्रस्त होते हैं। इसकी कई वजहें हो सकती हैं। इनमें कुपोषण, धूम्रपान की ज़्यादा आदत और जीवन के संघर्ष से उपजे तनाव शामिल हैं। ये सभी चीज़ें दिमाग के उस हिस्से को प्रभावित करती हैं जो तनाव से निपटता है। मस्तिष्क की भौतिक संरचना में ये अंतर देखे जा चुके हैं। आम तौर पर मस्तिष्क की संरचना में ऐसे अंतर जन्म से ही होते हैं, जिससे लगता है कि माता-पिता द्वारा झेले गए तनाव का असर अगली पीढ़ी में भी नज़र आता है। मगर बच्चे का विकास जन्म के साथ रुक नहीं जाता। ड्यूक विश्वविद्यालय के तंत्रिका वैज्ञानिक अहमद हरीरी का ख्याल था कि जन्म से लेकर किशोरावस्था तक होने वाले परिवर्तनों की भी इसमें कुछ भूमिका होती होगी। उन्होंने अपने विचार की जांच डीएनए संरचना में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर करने की ठानी।
काफी छानबीन के बाद हरीरी और उनके साथियों ने एक जीन पहचाना जो एक प्रोटीन बनाता है। यह प्रोटीन सिरोटोनिन नामक अणु को तंत्रिका कोशिका में प्रवेश करने में मददगार होता है। यह काफी समय से पता है कि यह जीन अवसाद में कुछ भूमिका निभाता है। हरीरी के दल ने च्ख्र्क्6ॠ4 नामक इस जीन पर ध्यान केंद्रित किया।
उन्होंने 11-15 वर्ष उम्र के 183 कॉकेशियन बच्चों के रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया और साथ ही इन बच्चों की जांच अवसाद के लक्षणों के हिसाब से की। उन्होंने यह भी पता लगाया कि ये बच्चे तनाव के प्रति क्या प्रतिक्रिया देते हैं। आम तौर पर तनाव के प्रति संवेदी लोगों में तनाव की स्थिति में दिमाग के एमिग्डेला नामक हिस्से में अत्यधिक सक्रियता दिखाई देती है। ऐसे प्रयोग इन बच्चों पर करीब तीन वर्ष तक कई बार किए गए।
पता यह चला कि गरीबी में जी रहे बच्चों में च्ख्र्क्6ॠ4 के समीप डीएनए में मिथायलेशन ज़्यादा हुआ था। मिथायलेशन वह प्रक्रिया है जिसके ज़रिए डीएनए के अणु पर मिथाइल समूह जुड़ जाते हैं और ये डीएनए के उस हिस्से के कामकाज को प्रभावित करते हैं। यदि इस जीन के आसपास मिथायलेशन होगा तो इसका असर उस प्रोटीन पर होगा जो सिरोटोनिन को तंत्रिका में प्रवेश करवाने के लिए जवाबदेह है। ऐसे में इनके मस्तिष्क में सिरोटोनिन सही जगह पर पहुंच नहीं पाएगा, जो अवसाद का एक प्रमुख कारण है।
तो गरीबों में ज़्यादा अवसाद का एक रासायनिक कारण समझ में आ गया। आगे क्या? क्या इस समस्या को रासायनिक तरीके से हल किया जाए? वैज्ञानिकों का मत है कि यदि यह असर गरीबी की वजह से है तो हल यह है कि गरीबी और उससे जुड़े तनाव व अन्य हालात को बदला जाए। (स्रोत फीचर्स)
-
Srote - July 2016
- आर्यभट से आज तक की अंतरिक्ष यात्रा
- प्रशांत महासागर के पांच द्वीप जलमग्न हुए
- बड़े जीव विज्ञान का ज़माना
- गाय की महानता के अवैज्ञानिक दावे
- बन गई कृत्रिम आंख
- अंतरिक्ष से कार्बन डाईऑक्साइड की निगरानी
- सफेद दाग और पशुओं की विचित्र चमड़ी
- भारत में स्टेम कोशिका आधारित पहली दवा
- चक्रवात - वायु दाब का खेल
- co2 हटाकर जलवायु परिवर्तन से मुकाबला
- रूफ वाटर हार्वेस्टिंग का देवास मॉडल
- भारत में सूखे का प्रकोप
- क्या समंदरों में ऑक्टोपस वगैरह का राज होगा?
- भारत में बिकेगी बोतलबंद हवा
- 2050 तक आधी आबादी में निकटदृष्टि दोष
- स्पेस वॉक में लंबाई बढ़ी, उम्र घटी
- कहानी आयोडीन की खोज की
- घावों से रिसता मकरंद और दुश्मनों की छुट्टी
- पतंगे और चमगादड़
- एक मस्तिष्क रोग के लिए जीन उपचार
- जिराफ की लंबी गर्दन और कुछ दर्जन जीन्स
- बंदर भी मातम मनाते हैं
- पेड़ शाखाएं झुकाकर सोते हैं
- गरीबी के जेनेटिक असर
- चीते भी भोजन चुराते हैं