अश्विन साई नारायण शेषशायी
हमारे आसपास रहने वाले और हम पर वास करने वाले सूक्ष्मजीवों की पूरी रेंज को जानने में कई दिक्कतें हैं। आगे की प्रगति सिर्फ नवाचार पर निर्भर होगी।
हम एक सूक्ष्मजीवी संसार में निवास करते हैं। यह संसार ऐसे जीवों से भरा पड़ा है जिन्हें नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता। सबसे पहले डच वैज्ञानिक एन्तोन फॉन ल्यूवेनहुक ने अपने हाथों से बने सूक्ष्मदर्शी से सूक्ष्मजीवों (जिन्हें उन्होंने एनिमलक्यूल कहा था) को देखा था। तब से इन सूक्ष्मजीवों के बारे में हमारा ज्ञान लगातार बढ़ता गया है।
लुई पाश्चर और रॉबर्ट कोच जैसे कई सारे सूक्ष्मजीव खोजियों द्वारा कुछ बीमारियों के कारक के रूप में सूक्ष्मजीवों की पहचान की बदौलत उन्नीसवीं सदी में युरोप में बीमारियों का कीटाणु सिद्धांत शिखर पर पहुंच चुका था। इसके बाद ये सूक्ष्मजीव मात्र कौतूहल का विषय नहीं रह गए थे बल्कि हमारे स्वास्थ्य और तंदुरुस्ती के लिए महत्वपूर्ण हो गए थे। तो आज इस सूक्ष्मजीव संसार के ज्ञान के संदर्भ में हम कहां खड़े हैं?
आज हम एक असामान्य चीज़ के गवाह हैं। एक ओर तो भौतिक शास्त्री दूरबीनों का उपयोग करके ब्रह्मांड के दूर-दराज़ क्षेत्रों की खोजबीन कर रहे हैं, और विशालकाय मशीनों की मदद से सूक्ष्मतम कणों की खोज में भिड़े हैं। वहीं जीव वैज्ञानिक रोज़ाना नए-नए जीवों की खोज कर रहे हैं। कभी-कभी वे इस बात पर भी गौर करते हैं कि ये जीव हमारे ग्रह पर (या शायद उससे कहीं दूर) क्या-क्या गुल खिलाते हैं।
जीवों की खोज करना और उनका वर्गीकरण करना एक प्राचीन विषय है। चार्ल्स डारविन द्वारा जैव विकास का विचार (जिसके तहत जीवों के वर्गीकरण की व्याख्या की जाती है) प्रस्तुत करने से पहले ही कैरोलस लीनियस नामक व्यक्ति ने हज़ारों पौधे, जंतु और समुद्री शंख व सीपें एकत्रित करके उनका वर्गीकरण किया था। लीनियस ने इन जीवों के आकार के आधार पर एक वर्गीकरण प्रणाली विकसित की थी।
लीनियस द्वारा विकसित प्रणाली का इस्तेमाल आज भी किया जा रहा है। जब कोई कहता है कि तकनीकी शब्दावली में हम होमो सेपिएन्स हैं तो वह वास्तव में लीनियस की वर्गीकरण प्रणाली के अंतर्गत बात कर रहा है। इसमें होमो हमारे वंश (जीनस) का नाम है और सेपिएन्स हमारी प्रजाति है। हमारे पूर्वजों में होमो इरेक्टस शामिल हैं जो उतने सेपिएन (बुद्धिमान) होमो नहीं थे। चूहे तो होमो वंश में भी नहीं आते बल्कि एक अन्य वंश मस में वर्गीकृत किए जाते हैं। सारे होमो सेपिएन्स जैव विकास की दृष्टि से होमो इरेक्टस से निकट से सम्बंधित हैं मगर मस से उतने निकट से सम्बंधित नहीं हैं। स्थूलकायी जंतुओं का वर्गीकरण तो हम उन्हें देखकर ही कर सकते हैं। मगर सूक्ष्मजीव समस्यामूलक हैं।
आकृति कहां तक?
लगभग एक सदी पहले जब ज़्यादा से ज़्यादा सूक्ष्मजीवियों, खास तौर से बैक्टीरिया, का अवलोकन सूक्ष्मदर्शी से किया जाने लगा तो इतना तो स्पष्ट हो गया कि आकार के आधार पर उनका वर्गीकरण बहुत दूर तक नहीं जाएगा। ये जीव तो बस छड़ों, गेंदों या स्पिं्रग जैसे नज़र आते थे। यह भी स्पष्ट नहीं था कि क्या एक ही सूक्ष्मजीव अपने जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाओं में अलग-अलग आकार ग्रहण कर सकता है। इस मामले में बात कुछ हद तक स्पष्ट तब हुई जब कुछ प्रेक्षणीय रासायनिक गुणधर्मों का सहारा लिया गया - जैसे किसी जीव की अनाज का किण्वन करके बीयर में बदलने की क्षमता। मगर सवाल तो बना रहा - क्या लीनियस नुमा कोई वर्गीकरण कभी सूक्ष्मजीवों के संदर्भ में कारगर होगा? दूसरे शब्दों में, क्या ये उसी किस्म के जीव हैं, जैसे हम अपने आसपास देखते हैं?
फिर हम फास्ट फॉरवर्ड करके वर्तमान में आते हैं, और जानते हैं कि ये वैसे ही जीव हैं मगर एक महत्वपूर्ण अंतर है जिसमें हम अभी नहीं जाएंगे।
व्यवस्था यह बनी कि जीवन को दो बड़े-बड़े समूहों में बांटा जा सकता है - केंद्रक-युक्त और केंद्रक-रहित। अंग्रेज़ी में इन्हें यूकेरियोट और प्रोकेरियोट कहते हैं। केंद्रक-युक्त समूह में वे जीव आते हैं जिनकी कोशिकाओं में एक केंद्रक होता है। केंद्रक कोशिका का एक बंद हिस्सा होता है जिसमें डीएनए (जेनेटिक पदार्थ) पाया जाता है। इस समूह के जीवों में खमीर, वनस्पतियां, कीट, जंतु, पक्षी और मोटे तौर पर कहें तो सारे बड़े जंतु शामिल किए जाते हैं। बैक्टीरिया की कोशिका में केंद्रक नहीं होता और ये दूसरे समूह - केंद्रक-रहित - जीवों में शामिल हैं। यह वर्गीकरण सूक्ष्मदर्शी से कोशिका की संरचना की छानबीन करने के बाद हासिल हुआ था। इसने उस पुरानी मान्यता को पलट दिया जिसके अनुसार बैक्टीरिया एक किस्म के पौधे माने जाते थे, जो हमसे और शेष जंतुओं से भिन्न हैं।
यह सही है कि आकार और अन्य प्रेक्षणीय गुणधर्म प्राय: चीज़ों के वर्गीकरण में उपयोगी होते हैं मगर ये जैव विकास के वास्तविक क्रीड़ांगन (यानी जेनेटिक पदार्थ या डीएनए) से एक कदम हटकर होते हैं। फिर भी लीनियस के दो शताब्दि बाद भी डीएनए पर आधारित कोई सुदृढ़ वर्गीकरण हमारे हाथ में नहीं था। अलबत्ता, 1970 के दशक में डीएनए अनुक्रमण की नव-अर्जित क्षमता ने नज़ारा बदल दिया है।
अर्बाना के इलिनॉय विश्वविद्यालय के कार्ल वीस और जॉर्ज फॉक्स ने बैक्टीरिया के राइबोसोम के आरएनए पर पाए जाने वाले 16च् नामक जीन के क्षार अनुक्रम की तुलना केंद्रक-युक्त जीवों में पाए जाने वाले इसी से सम्बंधित जीन 18S से करके बताया कि वास्तव में प्रमुख जीवजगत तीन हैं। जैव विकास के समय-पैमाने पर देखा जाए तो अधिकांश जीन्स का क्षार अनुक्रम काफी तेज़ी से बदलता है। इसके चलते दो दूरस्थ जीवों के अनुक्रमों की तुलना बहुत मुश्किल होती है। मगर आशा की एक किरण मौजूद है। 16S/18S राइबोसोमल जीन का अनुक्रम वही आशा की किरण है। यह जीन प्रोटीन-संश्लेषण मशीनरी का हिस्सा है और जैव विकास के समय-पैमाने पर बहुत धीमी गति से बदलता है। अत: इसे पृथ्वी पर अधिकांश विविध जीवों में इसके क्षार-अनुक्रम के आधार पर काफी यकीन के साथ पहचाना जा सकता है। लिहाज़ा, यह तुलना के लिए आदर्श है।
सूक्ष्मजीव गणना
वीस और फॉक्स ने पाया कि दरअसल केंद्रक-रहित (प्रोकेरियोट) जीव दो प्रकार के होते हैं: बैक्टीरिया और आर्किया। आर्किया जीवों के बारे में आगे चलकर पता चला कि वे कई इन्तहाई पर्यावरण में वास करते हैं और उनमें केंद्रक-युक्त जीवों की जटिल कोशिकाओं के साथ कई समानताएं पाई जाती हैं। फिलहाल हम सूक्ष्मजीव वर्गीकरण की भंवर में नहीं उलझते हुए फक्त इतना ही कहेंगे कि बैक्टीरिया और आर्किया को पहचानने व वर्गीकरण करने में राइबोसोमल आरएनए जीन 16S के अनुक्रमण का उपयोग आज भी एक पसंदीदा विधि है। यही तथाकथित सूक्ष्मजीव जनगणना का आधार भी है। देखा जाए तो सूक्ष्मजीव जनगणना मानव जनगणना से बहुत अलग नहीं है।
दुनिया भर की कई प्रयोगशालाओं ने विविध पर्यावरणों में पाए जाने वाले बैक्टीरिया के राइबोसोमल आरएनए 16S का अनुक्रमण किया है। काफी समय तक ये प्रयोग प्राकृतिक परिवेशों से बैक्टीरिया प्राप्त करके उन्हें प्रयोगशाला में संवर्धित करके किए जाते थे। यह तरीका समस्यामूलक है क्योंकि हमारे प्राकृतिक विश्व के अधिकांश बैक्टीरिया को प्रयोगशाला में नहीं पनपाया जा सकता। इसके चलते इस विधि से इन्हें सूचीबद्ध नहीं किया जा सकता। अलबत्ता, 1990 के दशक में नॉर्मन पेस नामक व्यक्ति के विचारों की बदौलत हम सीधे पर्यावरण से प्राप्त बैक्टीरिया के डीएनए का अनुक्रमण करने लगे हैं। इन प्रयासों ने सूक्ष्मजीव विविधता की हमारी सूची को यकीनन विस्तार दिया है।
इन सारे अध्ययनों में, राइबोसोमल आरएनए 16S जीन्स का अनुक्रमण किया जाता है और समानता के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। यह वर्गीकरण जिन समूहों के रूप में किया जाता है उन्हें कामकाजी वर्गीकरण इकाइयां अथवा ऑपरेशनल टेक्सॉनॉमिक युनिट्स (OTU) कहते हैं। किसी पर्यावरण में पाई जाने वाली OTU की संख्या को प्राय: उस पर्यावरण में सूक्ष्मजीव समुदाय की समृद्धता का पैमाना माना जाता है।
आज यह जनगणना कैसी नज़र आती है? लगभग 15 लाख राइबोसोमल आरएनए अनुक्रमों का डैटाबेस सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है। इसका उपयोग करते हुए मिशिगन विश्वविद्यालय के पैट्रिक श्लॉस और उनके साथियों ने दर्शाया है कि हमने 2 लाख बैक्टीरियल OTU पहचाने हैं। इसकी तुलना में आर्किया अनुक्रम बहुत कम पहचाने गए हैं। बैक्टीरियल OTU की यह संख्या भी बहुत कम है क्योंकि हमारा अनुमान है कि पृथ्वी पर करीब 1 अरब बैक्टीरिया प्रजातियां मौजूद हैं। मगर पेस के विचारों को स्वीकार करने का ही परिणाम है कि हम सीधे पर्यावरण से प्राप्त बैक्टीरिया का अनुक्रमण कर पा रहे हैं।
जनगणना की सीमाएं
सूक्ष्मजीव जनगणना के हमारे ज्ञान में दो खामियां उजागर होती हैं। पहली का सम्बंध नई बैक्टीरिया प्रजाति की खोज की हमारी वर्तमान विधियों से है। यह विधि शायद किसी समुदाय के ज़्यादा प्रचुर सदस्यों की खोज को तरजीह देती है। इस तरह से हम लगभग एक संतृप्त स्थिति में पहुंच चुके हैं। दूसरे शब्दों में, 16S राइबोसोमल आरएनए जीन्स का अनुक्रमण जिस तरह से हम करते हैं, उसे जितना ज़्यादा करेंगे नई OTU मिलने की संभावना उतनी ही कम होगी। इसके चलते हमें समुदाय के दुर्लभ सदस्यों की खोज के लिए नए तरीकों की दरकार है। इनमें ऐसे तरीके हो सकते हैं जिनमें ऐसे प्रयोगों का विश्लेषण किया जाए जिनमें बैक्टीरिया समुदाय के समूचे जेनेटिक पदार्थ का अनुक्रमण किया जाता है, सिर्फ 16S का नहीं। ऐसी कोई नई तकनीक भी मददगार होगी जिसमें लाखों-करोड़ों कोशिकाओं की बजाय मात्र एक अकेली कोशिका के डीएनए का अनुक्रमण किया जा सके। संक्षेप में कहें, तो अपने पड़ोसियों को जानने के मामले में हम एक अवरोध पर खड़े हैं और आगे की प्रगति नवाचार पर ही निर्भर है।
दूसरी खामी यह है कि हम कुछ विशिष्ट समुदायों के बैक्टीरिया की ही खोज कर पा रहे हैं। उदाहरण के लिए, मानव शरीर में बसने वाले बैक्टीरिया, न कि वे बैक्टीरिया जो मिट्टी जैसे समृद्ध पर्यावरण में बसते हैं। हमने हमेशा सोचा था कि पोषण की दृष्टि से अभावग्रस्त मगर विविधता पूर्ण मिट्टी में बड़े-बड़े जीनोम वाले बैक्टीरिया पाए जाएंगे, जिससे उन्हें पोषक तत्वों की विविधता का लाभ उठाकर जीवन यापन में मदद मिलेगी। कुछ दिन पहले बायो-आर्काइव में जमा किए गए एक प्रकाशन-पूर्व पर्चे में बताया गया है कि मिट्टी में एक ऐसा बैक्टीरिया बहुतायत में पाया जाता है जिसमें डीएनए बहुत छोटा है और एकदम कामकाजी है (मगर राइबोसोमल आरएनए के डैटाबेस में इसे बहुत कम जगह मिली है)। इसी तरह का छोटा व कामकाजी डीएनए उन समुद्री सूक्ष्मजीवों में देखा गया है जो पोषक पदार्थों की एक सीमित रेंज में जीते हैं। इससे पता चलता है कि मिट्टी में रहने वाले सूक्ष्मजीवों के बारे में हमारी जानकारी कितनी अपर्याप्त है।
सूक्ष्मजीव गणना से पता चलता है कि हमने अपने सूक्ष्मजीवी पड़ोसियों को जानने में काफी प्रगति की है मगर एक अवरोध पर पहुंच गए हैं। इस तरह का पूर्वाग्रहों से ग्रस्त ज्ञान हमारी समझ को सीमित करता है - हम यह समझने में नाकाम रह जाते हैं कि हमारे इकोसिस्टम के कामकाज में और हमारे जीवन में ये सूक्ष्मजीव कितना व्यापक योगदान करते हैं। (स्रोत फीचर्स)