डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
पिछले दशकों की तुलना में अब लोग ज़्यादा लंबा जीवन जीते हैं। स्वास्थ्य देखभाल के विभिन्न प्रयासों के चलते पूरे विश्व में लोग दीर्घायु हुए हैं। संयोगवश इसके चलते उम्र-सम्बंधी विकारों जैसे मनो-भ्रंश (डिमेंशिया) में भी वृद्धि हुई है। आज पूरे विश्व में 4.7 करोड़ से ज़्यादा लोग संज्ञान विकारों जैसे पॉर्किंसन, अल्ज़ाइमर और अन्य विकारों से पीड़ित हैं। भारत में 41 लाख लोग डिमेंशिया से पीड़ित हैं। चीन में तो स्थिति और भी खराब है, जहां 92 लाख लोग इससे पीड़ित हैं।
डिमेंशिया की वजह से व्यक्ति अल्पावधि याददाश्त क्षति, अंगों के हिलने-डुलने में परेशानी, बोलने में समस्या और अन्य सम्बंधित परेशानियों से पीड़ित रहता है। यह एक संज्ञानात्मक विकार है जिसमें मस्तिष्क में सामान्य तंत्रिका सर्किट विकृत हो जाते हैं। तंत्रिकाएं उलझ जाती हैं (शार्ट सर्किट या क्रॉस कनेक्शन की तरह), कोशिकाओं के प्रोटीन अणु घोल में से अवक्षेपित हो जाते हैं और प्लाक बना लेते हैं जिससे तंत्रिका में संकेतों की आवाजाही प्रभावित होती है। इसके कारण मस्तिष्क का वह हिस्सा बेकार हो जाता है। आज तक पार्किंसन, अल्ज़ाइमर और अन्य सम्बंधित विकारों के इलाज के लिए कोई प्रभावी दवा उपलब्ध नहीं है, हालांकि एक अणु एल-डोपा अल्पावधि के लिए मददगार साबित हुआ है। किंतु यह मस्तिष्क में हुई क्षति को ठीक करने और उसकी मरम्मत करने में सक्षम नहीं है। मस्तिष्क को बाहर निकालकर उसकी मरम्मत करना तो असंभव है और मस्तिष्क का प्रत्यारोपण निश्चय ही अकल्पनीय है, क्योंकि प्रभावी तौर पर इसका मतलब होगा कि पूरे व्यक्ति का प्रत्यारोपण कर दिया जाए।
आशा की किरण
इस निराशाजनक तस्वीर के पीछे आशा की किरण भी है। सही है कि हम क्षति को ठीक नहीं कर सकते हैं मगर क्या भविष्य में होने वाली क्षति को रोका नहीं जा सकता? क्या पड़ोसी तंत्रिका कोशिकाओं को दोहरी ड्यूटी की इज़ाजत देकर जो हिस्सा क्षतिग्रस्त हुआ था उसकी क्षतिपूर्ति नहीं करवाई जा सकती? अब हम यह जानते हैं कि यह संभव हो सकता है। उदाहरण के लिए, जब एक उंगली कट जाती है तो मस्तिष्क के आसपास के हिस्से उस क्षेत्र के कार्य को करने लगते हैं जो पहले उस कटे अंग को संभालता था। दूसरे शब्दों में मस्तिष्क स्थिर, पत्थर की तरह जड़ नहीं है, बल्कि लचीला है जिसे नए सांचे में ढाला जा सकता है। यदि हम इस तरह के तंत्रिका लचीलेपन को ट्रिगर करने के तरीके खोज सकें तो हम क्षतिग्रस्त कार्य को बहाल कर सकते हैं और उम्मीद है कि तंत्रिका सर्किट में आगे क्षति को टाला जा सकता है।
उल्लेखनीय और सुखद रूप से संगीत ऐसा करने में सक्षम है। अब हम यह समझ चुके हैं कि संगीत न केवल मस्तिष्क को शांत और सहज महसूस कराता है बल्कि उपचारात्मक भूमिका भी निभा सकता है। डॉ. डेविड कैलिमैग और उनके साथियों ने अपने पर्चे “संगीत चिकित्सा अल्ज़ाइमर रोग की अनुभूति के लिए संभावित हस्तक्षेप: एक संक्षिप्त समीक्षा” में लिखा है, “संगीत एक गैर-औषधीय तरीका है, इसके इस्तेमाल का इतिहास काफी लंबा रहा है, साथ ही डिमेंशिया रोगियों के लिए उपयोगी भी है।” यह पर्चा ट्रांसलेशनल न्यूरोडिजनरेशन में प्रकाशित हुआ है।
लंबे समय से यह ज्ञात है कि संगीत संज्ञानात्मक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हम मस्तिष्क के लगभग हर हिस्से में संगीत को प्रोसेस करते हैं। गर्भ में बच्चा अपनी मां की नब्ज़ महसूस करता है और यहां तक कि मां का गुनगुनाना भी। लोरियां बच्चे को शांत और सहज रहना सिखाती हैं। हालांकि बारंबार दोहराए जाने वाले इस दावे के लिए बेहतर वैज्ञानिक प्रमाण की आवश्यकता है कि मोज़ार्ट का संगीत सुनने से बच्चे के आईक्यू में इज़ाफा होता है, किंतु ऐसा लगता है कि सिर्फ सुनना नहीं बल्कि संगीत में प्रशिक्षण संज्ञानात्मक विकास को बढ़ाता है। प्रसिद्ध तंत्रिका वैज्ञानिक लेखक डॉ. ओलिवर सैक्स ने अपनी किताब ‘म्यूज़िकोफिलिया: टेल्स ऑफ म्यूज़िक एंड दी ब्रेन’ में बताया है कि संगीत मनुष्य होने का हिस्सा है। दिमागी क्षति वाले कई लोग संगीत सुनकर और बजाकर ज़्यादा बेहतर तरीके से चलते-फिरते हैं, ज़्यादा याद रख पाते हैं और यहां तक कि बोलने में भी सक्षम हुए हैं।
अल्ज़ाइमर के लिए थेरेपी
यही संगीत उपचार का आधार है। एक संगीत चिकित्सक डॉ. कॉनसेटा तोमाएनो ने अल्ज़ाइमर की अंतिम अवस्था से पीड़ित एक बुज़ुर्ग को लगातार एक माह तक एक पुराना गाना बार-बार सुनाया। एक माह बाद उस पीड़ित व्यक्ति ने बोलने और गाने की कोशिश की। सिकंदराबाद की प्रसिद्ध संगीत चिकित्सक राजम शंकर ने बताया कि राग कल्याणी जैसे संगीत को सुनकर एक महिला रोगी न केवल सक्रिय हो गईं थीं बल्कि उन्होंने खुद से गाना भी शु डिग्री कर दिया था और धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगी थीं। पाठक एक प्रसिद्ध पुरस्कृत फिल्म एलाइव इनसाइड को देख कर डिमेंशिया रोगियों और संगीत के बीच के रिश्ते को समझ सकते हैं जिसमें कई डिमेंशिया पीड़ित मरीज़ों की कहानियां शामिल हैं (www.youtube.com/watch?v=6FwfV9pnj8o)।
संगीत चिकित्सा एक बढ़ता हुआ क्षेत्र है जिसे भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में अपनाया जा रहा है। लेकिन यह ज़रूरी है कि इसके लिए उचित और कठोर दिशानिर्देश तय किए जाएं ताकि सही प्रथाएं अपनाई जा सकें। यह भी महत्वपूर्ण और उपयोगी होगा कि प्रत्येक व्यक्ति के केस का स्वतंत्र विश्लेषण किया जाए। तर्कसंगत और व्यावहारिक दिशानिर्देश बनाए जाएं, खासकर इसलिए क्योंकि इसमें इंसान शामिल हैं।
इस क्रम में कुछ चेतावनियां हैं। वेब पर इस तरह के कई दावे हैं कि अमुक राग लीवर (यकृत) के कामकाज में मदद करता है, दमुक राग डायबिटीज़ में, वगैरह। ये अतिशयोक्तियां हैं क्योंकि संगीत मस्तिष्क को प्रभावित करता है और संज्ञान में मददगार है, न कि मेटाबॉलिक विकारों को ठीक करने में। कुछ लोग यह दावा करते हैं कि डिमेंशिया में कुछ राग अन्य रागों से बेहतर हैं। ये ऐसे दावे हैं जैसे सभी के लिए एक ही आकार फिट बैठेगा। संगीत चिकित्सा व्यक्ति-आधारित है और यह व्यक्ति-विशिष्ट के लिए उसकी मानसिक स्थिति वगैरह पर निर्भर करती है। यह सवाल भी है कि क्या पूरा गाना या केवल एक स्वर का उच्चारण पर्याप्त है या दोनों का मिला-जुला रूप? चिकित्सक के लिए सही यही होगा कि वह प्रत्येक रोगी की स्थिति को देखते हुए फैसला ले। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - July 2017
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