डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन
भारतीय लोग रोज़ाना लगभग 52-55 ग्राम प्रोटीन खाते हैं। यह उन्हें अधिकांशत: फलियों, मछली और पोल्ट्री से मिलता है। कुछ लोग, खास तौर से विकसित देशों में, ज़रूरत से कहीं ज़्यादा प्रोटीन का सेवन करते हैं। वॉशिंगटन स्थित संस्था वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट ने हाल ही में सुझाया है कि लोगों को बीफ (गौमांस) खाना बंद नहीं तो कम अवश्य कर देना चाहिए। यह सुझाव हमारे देश के कई शाकाहारियों का दिल खुश कर देगा और गौरक्षकों की बांछें खिल जाएंगी। किंतु वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के इस सुझाव के पीछे कारण आस्था-आधारित न होकर कहीं अधिक गहरे हैं। आने वाले वर्षों में बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए एक टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित करने के लिए अपनाए जाने वाले तौर-तरीकों की चिंता इसके मूल में है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यू ने इस सम्बंध एक निहायत पठनीय व शोधपरक पुस्तक प्रकाशित की है: शिÏफ्टग डाएट्स फॉर ए सस्टेनेबल फ्यूचर (एक टिकाऊ भविष्य के लिए आहार में परिवर्तन, इसे नेट से मुफ्त में डाउनलोड किया जा सकता है)।
संस्था ने इसमें तीन परस्पर सम्बंधित तर्क प्रस्तुत किए हैं। पहला तर्क है कि कुछ लोग अपनी दैनिक ज़रूरत से कहीं अधिक प्रोटीन का सेवन करते हैं। यह बात दुनिया के सारे इलाकों के लिए सही है, और विकसित देशों पर सबसे ज़्यादा लागू होती है। एक औसत अमरीकी, कनाडियन, युरोपियन या रूसी व्यक्ति रोज़ाना 75-90 ग्राम प्रोटीन खा जाता है - इसमें से 30 ग्राम वनस्पतियों से और 50 ग्राम जंतुओं से प्राप्त होता है। 62 कि.ग्रा. वज़न वाले एक औसत वयस्क को 50 ग्राम प्रतिदिन से अधिक की ज़रूरत नहीं होती।
तुलना के लिए देखें, तो भारतीय व अन्य दक्षिण एशियाई लोग लगभग 52-55 ग्राम प्रोटीन का भक्षण करते हैं (जो अधिकांशत: फलियों, मछलियों और पोल्ट्री से प्राप्त होता है)। यही हाल उप-सहारा अफ्रीका के निवासियों का है (हालांकि वे हमसे थोड़ा ज़्यादा मांस खाते हैं)। मगर समस्या यह है कि आजकल ब्राज़ील और चीन जैसी उभरती अर्थ व्यवस्थाओं के ज़्यादा लोग पश्चिम की नकल कर रहे हैं और अपने भोजन में ज़्यादा गौमांस को शामिल करने लगे हैं। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक दुनिया में गौमांस की मांग 95 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। दूसरे शब्दों में यह मांग लगभग दुगनी हो जाएगी। यह इसके बावजूद है कि यूएस में ‘लाल मांस’ खाने को लेकर स्वास्थ्य सम्बंधी चिंताओं के चलते गौमांस भक्षण में गिरावट आई है।
चलते-चलते यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि जब बीफ की बात होती है तो उसमें गाय के अलावा सांड, भैंस, घोड़े, भेड़ें और बकरियां शामिल मानी जाती हैं। फिलहाल विश्व में 1.3 अरब कैटल हैं (इनमें से 30 करोड़ भारत में पाले जाते हैं)। उपरोक्त अनुमान का मतलब यह है कि आज से 30 साल बाद हमें 2.6 अरब कैटल की ज़रूरत होगी।
वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का दूसरा तर्क है कि कैटल पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करते हैं। ये ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती के औसत तापमान में वृद्धि में योगदान देते हैं। इसके अलावा, कैटल के लिए काफी सारे चारागाहों की ज़रूरत होती है (एक अनुमान के मुताबिक अंटार्कटिक को छोड़कर पृथ्वी के कुल भूभाग का 25 प्रतिशत चारागाह के लिए लगेगा)। यह भी अनुमान लगाया गया है कि विश्व के पानी में से एक-तिहाई पानी तो पालतू पशु उत्पादन में खर्च होता है। इस सबके अलावा, चिंता का एक मुद्दा यह भी है कि गाएं, भैंसें, भेड़-बकरी व अन्य खुरवाले जानवर खूब डकारें लेते हैं। मात्र उनकी डकार के साथ जो ग्रीनहाउस गैसें निकलती है, वे ग्लोबल वार्मिंग में 60 प्रतिशत का योगदान देती हैं।
इसके विपरीत गेहूं, धान, मक्का, दालें, कंद-मूल जैसी फसलों के लिए चारागाह की कोई ज़रूरत नहीं होती और इनकी पानी की मांग भी काफी कम होती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इनसे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन नहीं होता या बहुत कम होता है। हमने वचन दिया है कि अगले बीस वर्षों में धरती के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक वृद्धि नहीं होने देंगे। किंतु कैटल की संख्या में उपरोक्त अनुमानित वृद्धि के चलते स्थिति और विकट हो जाएगी।
अति-भक्षण से बचें
इस नज़ारे के मद्देनज़र, वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का सुझाव है कि हम, यानी विकसित व तेज़ी से उभरती अर्थ व्यवस्थाओं के सम्पन्न लोग, आने वाले वर्षों में अपने भोजन में कई तरह से परिवर्तन लाएं। पहला परिवर्तन होगा - ‘अति-भक्षण से बचें’। दूसरे शब्दों में ज़रूरत से ज़्यादा कैलोरी का उपभोग न करें। हमें रोज़ाना 2500 कैलोरी की ज़रूरत नहीं है, 2000 पर्याप्त है। आज लगभग 20 प्रतिशत दुनिया ज़रूरत से ज़्यादा खाती है, जिसकी वजह से मोटापा बढ़ रहा है। इसके स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों से सब वाकिफ हैं। कैलोरी खपत को यथेष्ट स्तर तक कम करने से स्वास्थ्य सम्बंधी लाभ तो मिलेंगे ही, इससे ज़मीन व पानी की बचत भी होगी।
भोजन में दूसरा परिवर्तन यह सुझाया गया है कि प्रोटीन के उपभोग को न्यूनतम अनुशंसित स्तर पर लाया जाए। इसके लिए खास तौर से जंतु-आधारित भोजन में कटौती करना होगा। जब प्रतिदिन 55 ग्राम से अधिक प्रोटीन की ज़रूरत नहीं है, तो 75-90 ग्राम क्यों खाएं? और इसकी पूर्ति भी जंतु-आधारित प्रोटीन की जगह वनस्पति प्रोटीन से की जा सकती है। सुझाव है कि पारम्परिक भूमध्यसागरीय भोजन (कम मात्रा में मछली और पोल्ट्री मांस) तथा शाकाहारी भोजन (दाल-फली आधारित प्रोटीन) को तरजीह दी जाए।
और भोजन में तीसरा परिवर्तन ज़्यादा विशिष्ट है: ‘खास तौर से बीफ का उपभोग कम करें।’ बीफ (सामान्य रूप से कैटल) में कटौती करने से भोजन सम्बंधी और पर्यावरण-सम्बंधी, दोनों तरह के लाभ मिलेंगे। पर्यावरणीय लाभ तो स्पष्ट हैं: इससे कृषि के लिए भूमि मिलेगी और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा। बीफ की बजाय हम पोर्क (सूअर का मांस), पोल्ट्री, मछली और दालों का उपभोग बढ़ा सकते हैं।
शाकाहारी बनें या वेगन?
हालांकि वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट विशिष्ट रूप से इसकी सलाह नहीं देता किंतु ऐसा करने से मदद मिल सकती है। ज़ाहिर है, यह बहुत बड़ी मांग है और इसके लिए सामाजिक व सांस्कृतिक परिवर्तन की दरकार होगी। मनुष्य सहस्त्राब्दियों से मांस खाते आए हैं। लोगों को मांस भक्षण छोड़ने को राज़ी करना बहुत मुश्किल होगा। शायद बीफ को छोड़कर पोर्क, मछली, मुर्गे व अंडे की ओर जाना सांस्कृतिक रूप से ज़्यादा स्वीकार्य शुरुआत होगी। स्वास्थ्य के प्रति जागरूक और जलवायु-स्नेही लोग ‘लचीला-हारी’ होने की दिशा में आगे बढ़े हैं। ‘लचीलाहारी’ शब्द एक लेखक ने दी इकॉनॉमिस्ट के एक लेख में उपयोग किया था। हिंदी में इसे ‘मौकाहारी’ भी कह सकते हैं। दरअसल भारतीय सेना में एक शब्द ‘मौका-टेरियन’ का इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जो वैसे तो शाकाहारी होते हैं किंतु मौका मिलने पर मांस पर हाथ साफ कर लेते हैं। इन पंक्तियों का लेखक भी मौका-टेरियन है।
शाकाहार की ओर परिवर्तन भारतीय और यूनानी लोगों ने करीब 1500-500 ईसा पूर्व के बीच शुरू किया था। इसका सम्बंध जीव-जंतुओं के प्रति अहिंसा के विचार से था और इसे धर्म और दर्शन द्वारा बढ़ावा दिया गया था। तमिल अध्येता-कवि तिरुवल्लुवर, मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त व अशोक, और यूनानी संत पायथागोरस शाकाहारी थे।
शाकाहार की ओर वर्तमान रुझान एक कदम आगे गया है। इसे वेगन आहार कहते हैं और इसमें दूध, चीज़, दही जैसे डेयरी उत्पादों के अलावा जंतुओं से प्राप्त होने वाले किसी भी पदार्थ की मुमानियत होती है। फिलहाल करीब 30 करोड़ भारतीय शाकाहारी हैं जिनमें से शायद मात्र 20 लाख लोग वेगन होंगे, हालांकि यह आंकड़ा पक्का नहीं है। (स्रोत फीचर्स)