घाव में कीड़े पड़ना बहुत बुरी बात समझी जाती है। कई जगहों पर तो यदि किसी व्यक्ति के घाव में कीड़े पड़ जाएं तो उसका बहिष्कार किया जाता है और वापिस समाज में शामिल होने के लिए उसे सबको दावत देनी होती है। मगर अब चिकित्सा शोधकर्ता कोशिश कर रहे हैं कि ऐसी इल्लियों का उपयोग घायल लोगों के घावों के उपचार के लिए किया जाए।
यू.के. ने इल्ली-उपचार को वास्त्विक परिस्थिति में आंकने के लिए मैगट प्रोजेक्ट नामक एक परियोजना तैयार की है। इस प्रोजेक्ट के तहत यू.के. सरकार सीरिया, यमन और दक्षिणी सूडान जैसे इलाकों में इल्लियां भेजने जा रही है जहां उनका उपयोग घायलों के उपचार में किया जाएगा। ये इल्लियां ग्रीन बॉटल मक्खियों की हैं। यह देखा गया है कि जैसे ही ये घाव में पहुंचती हैं, वहां उपस्थित मृत कोशिकाओं को खाना शुरू कर देती हैं और अपनी बैक्टीरिया-रोधी लार फैला देती हैं जिससे घाव में बैक्टीरिया नहीं पनपने पाते।
वीभत्स लगने वाले इस उपचार का उपयोग काफी समय से होता आया है। जैसे ऑस्ट्रेलिया के देशज लोग इल्लियों का उपयोग घाव की सफाई हेतु करते हैं। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भी इनका उपयोग किया गया था।
प्रोजेक्ट के तहत स्थानीय अस्पताल स्वयं इल्लियां पालेंगे। इसके लिए मक्खियां पाली जाएंगी और उनके अंडों को बैक्टीरिया मुक्त करके एक-दो दिन तक रखा जाएगा। अंडों में से निकली इल्लियों को सीधे घाव में डाला जा सकता है या थैलियों में भरकर पट्टी की तरह घाव पर बांधा भी जा सकता है।
ऐसी बैक्टीरिया मुक्त इल्लियां उन स्थानों पर काफी कारगर हो सकती हैं जहां उपचार की सुविधाएं न हों। ये इल्लियां मृत ऊतकों का भक्षण करती हैं और घाव को साफ रखती हैं। दरअसल घाव में होने वाले द्वितीयक संक्रमण ही स्थिति को बिगाड़ते हैं और ये इल्लियां ऐसे संक्रमणों से बचाव करती हैं। इस सम्बंध में 2012 में इंडियन जर्नल ऑफ प्लास्टिक सर्जरी में सुरजीत भट्टाचार्य की एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई थी।
यदि यह योजना कारगर रहती है तो मैदानी अस्पतालों में इल्लियां पैदा की जाने लगेंगी जो प्रतिदिन 250 घावों के लिए पर्याप्त होंगी। इस प्रोजेक्ट के लिए ज़रूरी तकनीकी जानकारी ऑस्ट्रेलिया के ग्रिफिथ विश्वविद्यालय के फ्रेंक स्टेडलर के समूह द्वारा उपलब्ध कराई गई है। (स्रोत फीचर्स)