क्यों चाहिए प्रतिरक्षा व्यवस्था
इम्यूनिटी यानी प्रतिरक्षा व्यवस्था पिछले दिनों काफी चर्चित रही है। विनीता बाल और सत्यजीत रथ के आलेखों की एक शृंखला वर्ष 1997 में रेज़ोनेंस में प्रकाशित हुई थी और प्रतिरक्षा के समझने में काफी मददगार है। यहां प्रस्तुत है पहला आलेख।
कई मायनों में प्रतिरक्षा तंत्र बाकी तंत्रों से अलग है। एक खासियत तो यह है कि यह कोई ऐसा तंत्र नहीं है जो कुछ सुपरिभाषित अंगों के साथ शरीर में विशिष्ट स्थान पर स्थित हो। दूसरी खासियत यह है कि आदर्श स्थिति में यह विश्राम की अवस्था में रहता है और तभी सक्रिय होता है जब इसे उकसाया जाए। तीसरी खासियत यह है कि काम शुरू करने से पहले इसकी कोशिकाओं को परिपक्व होने के चरण से गुज़रना पड़ता है। चौथा अंतर यह है कि (प्रजनन तंत्र के अलावा) यह एकमात्र ऐसा तंत्र है जिसकी कोशिकाएं अपने डीएनए (जेनेटिक सामग्री) को पुर्नव्यवस्थित करती हैं और कभी-कभी तो डीएनए के हिस्से गंवा भी देती हैं। यह उनके विकास और परिपक्व होने की प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा है।
सवाल यह है कि प्रतिरक्षा तंत्र ऐसा विचित्र व्यवहार क्यों करता है। इस सवाल का जवाब इस आधार पर दिया जा सकता है कि प्रतिरक्षा तंत्र के सामने किस तरह की चुनौतियां होती हैं। तो पहला सवाल आता है कि प्रतिरक्षा तंत्र की ज़रूरत क्या है।
इसका जवाब पाने के लिए एक बहु-कोशिकीय जीव पर विचार करते हैं। ऐसे बहु-कोशिकीय जीव को अपनी कोशिकाओं को साथ-साथ रखना होता है और कोशिकाओं के अलग-अलग समूहों से अलग-अलग कार्य करवाने होते हैं। इस श्रम विभाजन का मतलब यह होता है कि शरीर की हर कोशिका सारे काम नहीं कर सकती। कुछ कोशिकाएं तो इतनी विशिष्ट हो जाती हैं कि वे शायद स्वतंत्र इकाई के रूप में जीवित भी न रह सकें। अर्थात ऐसी कोशिकाओं के कई समूहों को जीवन की अनिवार्य चीज़ें बनी-बनाई मुहैया करवानी होंगी। इसके लिए शरीर को सख्ती से नियंत्रित आंतरिक पर्यावरण बनाकर रखना होगा जो पोषण की दृष्टि से समृद्ध हो।
ऐसा पर्यावरण तमाम बाहरी जीवों को आमंत्रण है कि वे आएं और दावत उड़ाएं। यदि ऐसे मेज़बान जीव को अपनी अखंडता बनाए रखनी है तो उसे इन मुफ्तखोरों से निपटना होगा।
दरअसल, यह भी हो सकता है कि स्वयं मेज़बान की कोशिकाएं जीव के नियंत्रण को धता बताकर एक स्वतंत्र जीवनशैली अपना लें और इस पौष्टिक आंतरिक पर्यावरण का बेजा फायदा उठाकर मौज-मस्ती करने लगें। इन कोशिकाओं को हम कैंसर कोशिकाएं कहते हैं। इन शरारती कोशिकाओं से भी निपटना पड़ता है।
दूसरे शब्दों में, बहु-कोशिकीय जीवन के लिए ज़रूरी है कि तमाम किस्म के घुसपैठियों के खिलाफ कुछ-ना-कुछ सुरक्षा व्यवस्था हो।
लेकिन प्रयोगों की बदौलत यह स्पष्ट हुआ है कि प्रतिरक्षा तंत्र का मुख्य काम संक्रमणों से हिफाज़त करना है। यानी इसका विकास ऐसे संक्रमणों के प्रकार और प्रकृति से निर्धारित हुआ होगा।
तो प्रतिरक्षा तंत्र की उन विशेषताओं की व्याख्या कैसे की जाए, जिनकी चर्चा हमने शुरू में की थी। सबसे पहली बात तो यह है कि घुसपैठ बाहर से होने वाली है, इसलिए शरीर को पता नहीं होता कि उसकी सुरक्षा में कहां सेंध लगेगी। इसलिए प्रतिरक्षा व्यवस्था के घटक शरीर में हर जगह उपस्थित होने चाहिए ताकि घुसपैठ को प्रवेश के बिंदु पर ही पकड़ा जा सके। इसका मतलब है कि प्रतिरक्षा तंत्र तभी उपयोगी होगा जब वह पूरे शरीर में फैला हो। अत: यह कोई अचरज की बात नहीं है कि यह व्यवस्था कुछ सुपरिभाषित अंगों में कैद नहीं है। अलबत्ता, यह अपने कामकाज (जैसे विकास) के लिए कतिपय अंगों का उपयोग करती है।
इसी प्रकार से, यदि प्रतिरक्षा तंत्र का प्रमुख काम संक्रमणों से निपटने का है, तो पर्यावरण में कोई परजीवी न हो, तो इस तंत्र के पास कोई काम नहीं होगा। वास्तविक दुनिया में भी इसके पास लगातार काम नहीं होगा। जब संक्रमण होगा तब उसका आव्हान किया जाएगा। अर्थात ‘सामान्यत:’ प्रतिरक्षा तंत्र कुछ नहीं करेगा, बस बैठकर निगरानी करता रहेगा।
प्रतिरक्षा तंत्र संक्रमण से कैसे निपटता है?
पहली बात है कि संक्रमण से ‘निपटने’ के दो हिस्से होने चाहिए - पहचान और कार्रवाई। पहले घुसपैठिए को पहचानना होगा और फिर उसके बारे में कुछ करना होगा। इसे करने का सबसे आसान तरीका यह होगा कि प्रतिरक्षा कोशिकाओं की सतह पर एक विशेष ग्राही हो जो सारे घुसपैठियों को पहचान सके और फिर कोशिका को उसके बारे में उपयुक्त सुरक्षात्मक कार्रवाई करने को उकसा सके।
बदकिस्मती से, यदि पहचान और कार्रवाई की प्रक्रिया को उपयोगी होना हो, तो वे इतनी एकतरफा नहीं हो सकती। रोगजनक परजीवी बहुत विविध रूपों में और अत्यधिक लचीलेपन के साथ आते हैं। इसलिए यह तो कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कोई एक ग्राही सारे रोगजनकों पर उपस्थित किसी ‘चिंह’ को पहचान पाएगा। इसलिए हमें ग्राहियों का एक विशाल समूह चाहिए।
इसी प्रकार से परजीवी घुसपैठ के लिए बहुत अलग-अलग रणनीतियां अपनाते हैं। प्रतिरक्षा तंत्र को इन विविध रणनीतियों से निपटने को भी तैयार होना चाहिए। इसलिए पहचान होने के बाद भी कोई एक तरीका काम नहीं करेगा।
अंतत:, इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि एक ‘चिंह’ एक ही रोगजनक से सम्बद्ध होगा और एक विशिष्ट प्रतिक्रिया पक्के तौर पर कारगर होगी।
इसलिए लक्ष्य की पहचान और उसके बारे में उचित कार्रवाई का निर्णय, ये दो कार्य अलग-अलग करने होंगे।
अब एक-एक करके इन दिक्कतों पर विचार करते हैं।
सबसे पहली चुनौती तो यह है कि प्रतिरक्षा तंत्र को इतने सारी ग्राही पैदा करने होंगे कि वे मिल-जुलकर सारे रोगजनकों को पहचान सकें। ऐसा कैसे किया जा सकता है?
इस संदर्भ में पहचान के दो मॉडल्स उपयोगी हो सकते हैं: क्लोनल एकरूपता और क्लोनल विविधता पर आधारित मॉडल्स।
प्रतिरक्षा लक्ष्यों की पहचान के मॉडल्स
मॉडल्स की बात शुरू करने से पहले कुछ शब्दों को परिभाषित कर लिया जाए।
क्लोनल एकरूप का मतलब है ऐसी कोशिकाओं का समूह जो हू-ब-हू एक-दूसरे की नकल हैं। इन सभी कोशिकाओं पर एकदम एक-जैसे ग्राही होंगे। शरीर में यही सामान्य स्थिति होती है; उदाहरण के लिए, लीवर की सारी कोशिकाएं एकदम एक जैसी दिखती हैं। दूसरी ओर, क्लोनल विविध कोशिका समूह एक ही मातृ कोशिका से पैदा हुई कोशिकाओं का समूह होता है जो सब एक ही कार्य करेंगी लेकिन प्रत्येक पर कोई एक ग्राही अन्य से अलग होगा।
क्लोनल एकरूप ग्राही ‘विदेशी’ लक्ष्य को इस आधार पर पहचानते हैं कि उन पर कोई ‘पराया’ अणु उपस्थित होता है। यह लगभग ऐसा है जैसे हर उस व्यक्ति को विदेशी माना जाएगा जो किसी खास रंग की टोपी पहने है जो आपके समुदाय में कोई नहीं पहनता। कहने का मतलब यह है कि उन आणविक चिंहों को विदेशी माना जाता है जो आम तौर पर स्तनधारियों के शरीर में नहीं बनते। एक उदाहरण लिपोपॉलीसेकराइड का है। क्लोनल एकरूप कार्यकारी कोशिकाएं (जैसे मैक्रोफेज और पोलीमॉर्फोन्यूक्लियर ल्यूकोसाइट) पर ऐसे ग्राही पाए जाते हैं। ऐसे ग्राहियों के समूह की पहचान-क्षमता अत्यंत सीमित होगी और स्थिर होगी क्योंकि इन्हें इस तरह बनाया गया है कि ये बार-बार नज़र आने वाले ‘चिंहों’ की पहचान कर सकें।
तो यह क्लोनल एकरूप पहचान का तरीका पर्याप्त क्यों नहीं है?
बार-बार नज़र आने वाले लक्ष्यों को पहचान करने के तरीके में कुछ बड़े जोखिम हैं। एक जोखिम तो यह है कि यदि रोगजनक परजीवी वह चिंह बनाना बंद कर दे या उसे इतना बदल दे कि वह उपलब्ध ग्राहियों द्वारा पहचान के काबिल न रहे, तो प्रतिरक्षा तंत्र ऐसे संशोधित घुसपैठियों के प्रति अंधा हो जाएगा। यानी ये प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा की जाने वाली ‘मिथ्या नकारात्मक’ चूक साबित होंगे। दूसरी ओर, कई बैक्टीरिया ऐसे हैं जो स्तनधारी शरीरों में, खास तौर से आंतों में या त्वचा पर, मज़े से सहयोगी ढंग से रहते हैं। मान लीजिए ये सबके सब लिपोपोलीसेकराइड को सतह पर दर्शाएंगे, तो प्रतिरक्षा तंत्र इन सबको पहचान कर इनसे निपटने के लिए भारी उठापटक करेगा। यह एक बेकार की मेहनत होगी क्योंकि ये कोई नुकसान नहीं पहुंचाते, बल्कि कभी-कभी तो विटामिन वगैरह का निर्माण करके मददगार ही होते हैं। तो ये प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा की गई ‘मिथ्या सकारात्मक’ चूकें होंगी और प्रतिरक्षा तंत्र अहानिकर सहजीवियों के खिलाफ जंग छेड़ता रहेगा।
यदि परजीवियों के प्रवेश की संभावना कम है तो यह उम्मीद की जा सकती है कि ऐसे ग्राहियों से युक्त थोड़ी-सी प्रतिरक्षा कोशिकाएं ठीक-ठाक काम कर पाएंगी। यह तब और भी ज़्यादा कारगर होगा जब मेज़बान को पहले से मालूम हो कि कौन-से परजीवी अंदर घुसने की कोशिश करने वाले हैं।
कुछ जंतु कमोबेश एक ही जगह पर टिके रहते हैं और उनके पर्यावरण में ज़्यादा बदलाव नहीं होते, उन्हें कुछ ही प्रकार के घुसपैठियों से निपटना पड़ता है। कुछ जंतु ऐसे हैं जिनके शरीर पर कठोर कवच होते हैं और परजीवियों के लिए शरीर में प्रवेश करना आसान नहीं होता। इन दोनों प्रकार के जंतुओं के लिए अपेक्षाकृत सरल प्रतिरक्षा व्यवस्था पर्याप्त होगी। ऐसे जंतुओं में कीटों या घोंघों जैसे जंतुओं के उदाहरण दिए जा सकते हैं। इनके लिए घुसपैठियों की पहचान का क्लोनल एकरूप मॉडल पर्याप्त है। दरअसल, ऐसे अधिकांश जंतुओं में प्रतिरक्षा व्यवस्था ऐसी ही कोशिकाओं के भरोसे रहती है जो बैक्टीरिया जैसे कणों को निगल सकती हैं।
लेकिन दूर-दूर तक आवागमन करने वाले, मुलायम और संवेदनशील त्वचा वाले जंतुओं (जैसे स्तनधारी) को काफी विविध प्रकार के और बड़ी संख्या में परजीवियों का सामना करना होता है। ऐसी स्थिति में क्लोनल एकरूप मॉडल की सीमाएं इन्हें परास्त कर देंगी।
तो, स्तनधारी जीवों की प्रतिरक्षा व्यवस्था इन समस्याओं से कैसे निपटती है? एक अत्यंत परिवर्तनशील लक्ष्य-पहचान तंत्र ऐसे लचीले परजीवियों से निपटने में कामयाब रहेगा। ऐसी व्यवस्था बनाने का एकमात्र तरीका यह है कि हरेक कोशिका को इनमें से मात्र एक ग्राही प्रदान किया जाए ताकि वह किसी एक ही लक्ष्य की पहचान कर सके - यह लक्ष्य पहचान का क्लोनल विविधता मॉडल है।
क्लोनल विविधता मॉडल
प्रतिरक्षा तंत्र की दृष्टि से इस मॉडल के कई फायदे हैं। पहला, प्रत्येक लक्ष्य प्रतिरक्षा तंत्र की कुछ कोशिकाओं को ही सक्रिय करेगा क्योंकि हर कोशिका पर किसी एक लक्ष्य के लिए ग्राही है। इसके चलते काफी संसाधन व ऊर्जा की बचत होगी।
लेकिन दिक्कत यह है कि यदि लाखों कोशिकाओं में से मात्र एक ही लक्ष्य का जवाब देगी तो इससे ज़्यादा फायदा नहीं होगा। इस कोशिका को अपने जैसी और कोशिकाओं को इस काम में लगाना होगा। लेकिन इस काम में वह आसपास पड़ी अन्य कोशिकाओं को तैनात नहीं कर सकती क्योंकि उनके ग्राही तो काफी अलग लक्ष्यों के लिए बने हैं। इसलिए उस कोशिका को विभाजन करके ढेर सारी कोशिकाएं बनानी होगी जो सब उस लक्ष्य के लिए विशिष्ट होंगी। इसके चलते कोशिकाओं की संख्यावृद्धि प्रतिरक्षा तंत्र के जवाब का बुनियादी हिस्सा है। संख्यावृद्धि पर आधारित इस व्यवस्था का फायदा यह है कि किसी भी समय पर इतनी सारी कोशिकाओं को तैयार अवस्था में उपस्थित नहीं रहना होता क्योंकि संख्यावृद्धि करते-करते वे तैयार भी होती जाती हैं।
यह प्रतिरक्षा तंत्र का एक और अनोखा पहलू है कि उसकी कोशिकाओं को लक्ष्य को पहचानने या उसके खिलाफ कार्रवाई करने से पहले परिपक्व होने के एक चरण से गुज़रना होता है। यही गुण इस तंत्र को अतीत में हुए संपर्कों को लक्ष्य-विशिष्ट ढंग से याद रखने की क्षमता प्रदान करता है। यानी जब प्रतिरक्षा तंत्र किसी लक्ष्य को एक बार देख ले तो उसे पहचानने वाली कोशिकाएं अधिक संख्या में संग्रहित हो जाती हैं। इसके चलते अगली बार वही लक्ष्य सामने आने पर प्रतिक्रिया कहीं अधिक त्वरित होती है। यह अनुकूलन की दृष्टि से फायदे का सौदा है क्योंकि इस बात की संभावना काफी अधिक होती है कि वही परजीवी बार-बार कोशिश करेगा।
तो, क्लोनल एकरूप और क्लोनल विविधता मॉडल के बीच एक अंतर यह है कि एकरूप मॉडल में प्रतिरक्षा कोशिकाओं को लगातार सक्रिय अवस्था में रहना होता है जबकि क्लोनल विविधता मॉडल में कोशिकाएं तब तक विश्राम अवस्था में पड़ी रह सकती हैं जब तक कि उनसे सम्बद्ध लक्ष्य उन्हें चुनौती नहीं देता।
दूसरा अंतर यह है कि सारी क्लोनल एकरूप कोशिकाएं किसी भी चलती हुई कार्रवाई में हिस्सा लेती हैं जबकि विविधता मॉडल में मात्र वही कोशिकाएं युद्धरत होती हैं जो उस लक्ष्य से सम्बंधित ग्राही से लैस हों। इसका एक मतलब यह है कि क्लोनल एकरूप कोशिकाएं आम तौर पर अतीत में हुए संपर्क को याद नहीं रखतीं क्योंकि उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लक्ष्य कौन-सा है। दूसरी ओर, क्लोनल विविधता वाली कोशिकाएं एक बार संपर्क हो जाने के बाद विश्राम अवस्था में भी चौकन्नी रहती हैं ताकि अगले संपर्क के समय त्वरित प्रतिक्रिया दे सकें।
क्लोनल एकरूप पहचान व्यवस्था को जन्मजात या कुदरती (innate प्रतिरक्षा कहते हैं और इसमें प्रतिरक्षा स्मृति की कोई गुंजाइश नहीं होती। दूसरी ओर क्लोनल विविधता आधारित प्रणाली को अनुकूली (Adaptive) या अर्जित प्रतिरक्षा कहते हैं और यह स्मरण के गुण से लैस होती है। इसी गुण की वजह से टीके यानी वैक्सीन बनाना संभव होता है।
ज़ाहिर है, क्लोनल विविधता आधारित पहचान प्रणाली की जटिलताएं कई व्यावहारिक दिक्कतों को जन्म देती है। अगली बार इन पर चर्चा करेंगे। (स्रोत फीचर्स)