जानकी अय्यर
कभी-कभी नहीं बल्कि अक्सर पाठशाला से मैं दिल में न समांए इतनी खुशियां लिए लौटती हूं। उस दिन की घटना बार-बार याद करके दिल आनन्द के साग में डुबकियां लेता रहता है।
आज मंजुला और जया के साथ गणित के इकाई-दहाई-सैंकड़े पर काम चल रहा था। जया अभी नई आई है। बहुत लगन से सीखती है। मंजुला काफी समय से सीखती है। मंजुला काफी समय से सीख रही है लेकिन घर के बदहालातों की वजह से पिछले कुछ महीनों में ठीक से स्कूल नहीं आ पा रही थी। इससे उसके सीखने पर काफी असर पड़ रहा था।
दोनों को सीखने में मदद हो इसलिए मैं मोती की लड़ियों (हर लड़ी में उस मोती पिरोए थे) और मोतियों के सहारे संख्याएं सिखाने की कोशिश में जुटी थी। मंजुला यह सब काफी पहले सीख चुकी थी, लेकिन ठीक से नहीं बता पा रही थी। मैं पूछती, “छह लड़ियों में कितने मोती?” तो वो कहती, “सत्तर।” मैं उसे मदद करते, पूछते, कहलवाते शायद थकने लगी थी और शायद थोड़ी परेशान भी हो रही थी। इतने में जया बोली, “दीदी, मंजुला को ये सब आता है। उसे तो ये सब मालूम है। वो सिर्फ हड़बड़ाहट की वजह से ठीक से नहीं बता पा रही है।”
जया की यह संवेदनशील, सुहानुभूतिपूर्ण और स्पष्ट अभिव्यक्ति लाजवाब थी। उसके ऐसा कहने का मंजुला पर बहुत अच्छा असर हुआ। उनका ढाढस तो बंधा ही, साथ में मेरा भी। फिर, एक-दूसरे के लिए और ज़्यादा प्यार लिए हम फिर से काम में जुट गए।
जानकी अय्यर एक विचारशील शिक्षिका हैं। 1989 में उन्होंने ‘आनन्द भारती’ की शुरूआत की। ‘आनन्द भारती’ एक पाठशाला हे। हैदराबाद शहर में लोगों के घर में चौका बर्तन करने वाली लड़कियां इस पाठशाला में दोपहर दो बचे से पांच बजे तक पढ़ती हैं। लड़कियों के कठिन जीवन में सिर्फ ये ही तीन घण्टे हैं जिन्हें वे अपने खुद के लिए जीती हैं। इनके लिए आनन्द भारती पाठशाला तो है ही और भी साथ में बहुत कुछ है।
आपसी बातचीत के आधार पर इस वाकए को लिख है ऊषा राव ने।