अरविंद गुप्ते
लम्बी यात्राओं के दौरान ये सही रास्ता कैसे ढूंढ पाते हैं; और वह भी इतने अचूक ढंग से कि साल-दर-साल उसी स्थान पर पहुंचते हैं? इस बार हम इस सवाल की जांच-पड़ताल करते हुए जंतुओं के प्रवास से जुड़े कुछ प्रयोगों की चर्चा कर रहे हैं।
प्रवासी जंतुओं के प्रवास के ओर-छोर का पता लगा लेने भर से वैज्ञानिकों का काम समाप्त नहीं हो जाता। उनके सामने कई प्रश्न अभी भी खड़े थे जैसे:
- इतनी तकलीफ, इतने खतरे उठाकर इतनी लम्बी यात्राएं करने से इन जंतुओं को आखिर क्या लाभ होता है?
- प्रवास की प्रथा का प्रचलन कुछ ही जंतुओं में क्यों हुआ और कैसे हुआ?
- इतनी लम्बी यात्राओं के दौरान ये सही रास्ता कैसे ढूंढ पाते हैं; और वह भी अचूक ढंग से कि साल-दर-साल उसी स्थान पर पहुंचते हैं?
तो आइए, पहले लाभ की चर्चा करें। यह तो स्पष्ट है कि प्रवासी जंतुओं को स्थान परिवर्तन की भारी कीमत चुकानी पड़ती है। हर साल इतनी लम्बी-लम्बी यात्राएं करने में, चाहे उड़कर की जाए या तैरकर या ज़मीन पर चलकर, बहुत अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है। अधिकतर जंतु यात्रा से पहले कई महीनों तक पर्याप्त भोजन लेकर इस ऊर्जा का संचय करते हैं; जैसा कि हम ईल और सॅमन मछलियों के बारे में देख चुके हैं। वर्षों तक भोजन ले कर ऊर्जा इकट्ठी करने के बावजूद प्रवास के दौरान वे इतनी थक जाती हैं कि आखिरी पड़ाव पर उनकी मृत्यु निश्चित होती है। प्रवास के दौरान प्रवासी जंतुओं पर कई खतरे भी मंडराते हैं। कई मांसाहारी जंतु तो थके हुए प्रवासी जंतुओं पर ही भोजन के लिए निर्भर रहते हैं।
भूमध्य सागर के दक्षिणी किनारे पर जाए जाने वाले एक प्रजाति के बाज़ पक्षी का मुख्य भोजन थके-हारे प्रवासी पक्षी ही हैं। यहां तक कि यह बाज़ प्रजनन उन्हीं दिनों में करता है जब छोटे प्रवासी पक्षी उस इलाके में पहुंचने लगते हैं ताकि इन्हें वह अपने बच्चों को खिला सके।
बीमारी या थकान के कारण झुंड से पिछड़ने वाले प्रवासी हिरणों की ताक में भेड़िए, जंगली कुत्ते और अन्य मांसाहारी जंतु हमेशा रहते हैं। प्रवास के दौरान आंधी-तूफान में फंस जाने पर भी बड़ी संख्या में प्रवासी जंतु मारे जाते हैं।
प्रवासी जंतुओं में विकास के दौरान ऐसी क्षमता विकसित हो गई है जो प्रवास में सही रास्ता खोजने में उनकी मदद करती है। कौआ, गौरैया, गाय आदि अप्रवासी जंतुओं में यह क्षमता होती ही नहीं है या बहुत ही सीमित होती है। समुद्र या हिमालय की चोटियों पर से रास्ता खोज पाना एक चमत्कारी क्षमता है। यहां कोई पहचान के निशान तो होते नहीं हैं। इन स्थानों पर जहाज़ भी कई बार भटक जाते हैं।
भोजन और जीवन का सवाल
इतनी भारी कीमत (अपनी जान तक की) चुकाकर जंतुओं के प्रवास करने के दो कारण हैं: पोषण और प्रजनन। ठंडे प्रदेशों में जाड़े के मौसम में कड़ाके की ठंड या बर्फ पड़ने से भोजन की एकदम कमी हो जाती है। इस मौसम में पौधे न उगने से छोटे जंतु मर जाते हैं या फिर शीतनिद्रा के लिए बिलों में घुस जाते हैं। फलस्वरूप शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के जंतुओं के लिए जीवन-यापन कठिन हो जाता है।
प्रजनन से भी कुछ जंतु ऐसे स्थान ढूंढते हैं जहां उनके बच्चों को पर्याप्त भोजन तो मिल जाता है किन्तु उनके अंडे और बच्चे वहां सुरक्षित नहीं होते। उन्हें प्रजनन के लिए सुरक्षित स्थान पाने के लिए प्रवास करना पड़ता है। अधिकांश प्रवासी पक्षियों को प्रवास के द्वारा पोषण और प्रजनन दोनों के लाभ मिल जाते हैं। उन्हें अपनी यात्रा के दोनों छोरों पर अच्छी परिस्थितियां मिल जाती हैं। ठंड के मौसम में वे जिन प्रदेशों में आते हैं वे या तो मैदानी इलाके होते हैं। या फिर भूमध्यरेखा के काफी करीब होते हैं। यहां पक्षियों का बचाव उस कड़ाके की ठंड और बर्फ से हो जाता है जिनका सामना उन्हें ऊपरी अक्षांशों पर करना पड़ता। इन प्रदेशों में इस मौसम में भोजन भी पर्याप्त मात्रा में मिलता है। गर्मी के दिनों में वे जब ऊपरी अक्षांशों की ओर लौटते हैं तब उन्हें फिर अच्छा मौसम और पर्याप्त भोजन उपलब्ध हो जाता है। इन प्रदेशों में ही प्रजनन करते हैं। साथ ही वे मैदानी प्रदेशों में पड़ने वाली गर्मी और पानी व भोजन की कमी से भी बच जाते हैं।
समुद्र में रहने वाले विशालकाय स्तनधारी व्हेल भी प्रवास के द्वारा दोनों प्रकार की परिस्थितियों का लाभ उठाते हैं। धुव्रीय प्रदेशों में गर्मी के मौसम में इनके भोजन के रूप में बहुत मात्रा में सूक्ष्मजीव उपलब्ध होते हैं। इन्हें खाकर व्हेल अपने शरीर में पर्याप्त चर्बी इकट्ठी कर लेती है। धुव्रीय प्रदेशों में जाड़े का मौसम शुरू होने के पहले ये शीतोष्ण और उष्ण कटिबंधों के समुद्रों की ओर चल देते हैं। जहां का मौसम इनके शिशुओं के लिए सुविधाजनक होता है।
किन्तु पेंगुइन पक्षी की स्थिति कुछ भिन्न होती है। इनकी मादाएं समुद्र के किनारे पर बिल्कुल खुले स्थानों में अंडे देती हैं। ज़ाहिर है कि इसके लिए उन्हें ऐसे निर्जन प्रदेशों की तलाश होती है जहां उनके अंडे व बच्चे सुरक्षित रह सकें। अत- वे चुनती हैं अंटार्कटिक क्षेत्र के बिल्कुल निर्जन समुद्र तट जो उनके सामान्य निवास स्थान और भोजन प्राप्त करने के स्थान से बहुत दूर होते हैं। ईल, सॅमन मछलियां, समुद्री कछुए और सामान्य सील भी ऐसी जंतुओं के उदाहरण हैं जो भोजन प्राप्त करने के सामान्य स्थानों को छोड़कर प्रजनन के लिए अधिक सुरक्षित स्थान खोजते हैं।
अधिकांश प्रवासी जंतु झुंडों में प्रवास करते हैं, ठीक उसी तरह जैसे पुराने ज़माने में लोग काफिले बना कर चला करते थे। एक झुंड में जितने अधिक सदसय होते हैं हमला होने पर मौत के खतरे की संभावना उतनी ही बराबर बंट जाती है।
भारत में उत्तर से आने वाले कुछ पक्षी प्रवास के दौरान अधिक ऊंचाई पर उड़ने से बचने के लिए नदियों की घाटियों और दर्रों में से होकर आते हैं, किन्तु इसमें इन्हें अधिक लंबा रास्ता तय करना पड़ता है।
कुछ अन्य पक्षी शॉर्टकट लेते हुए हिमालय की ऊंची चोटियों पर से उड़कर आते हैं। गोल्डन प्लवर जैसे समुद्र पर बिना रुके लगातार उड़ने वाले पक्षियों का भी यही उद्देश्य होता है कि कम-से-कम दूरी तय करनी पड़े।
. . . लंबी यात्राएं?
लंबी यात्राओं को लेकर यह प्रश्न अभी भी बरकरार है कि आखिर इतनी लंबी यात्राओं का विकास कैसे हुआ? इसके बारे में एक सोच तो यह है कि ये जंतु प्रारंभ में बेहतर स्थानों की तलाश में छोटी-छोटी दूरियों का प्रवास करने लगे (जैसा कि कुछ जंतु अभी भी करते हैं) और लाखों वर्षों के विकास (Evolution) के दौरान इनके प्रवास का दायरा बढ़ता गया। इस तारतम्य में मोनार्क तितलियों का उदाहरण महत्वपूर्ण है। हम देख चुके हैं कि ये तितलियां संयुक्त राज्य अमेरिका से उड़कर मेक्सिको पहुंचती हैं। किन्तु रोचक बात यह है कि इस प्रजाति की सभी तितलियां प्रवास नहीं करतीं। ये तितलियां मिल्कवीड नामक पौधे पर ही अंडे देती हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के जिन भागों में रहने वाली मानार्क तितलियां प्रवास नहीं करतीं। फिर सवाल यह उठता है कि जहां मिल्कवीड पौधे नहीं होते वहां की तितलियां सैकड़ों किलोमीटर दूर मेक्सिको जाने के बजाए आसपास के उन क्षेत्रों में क्यों नहीं चली जाती जहां ये पौधे उत्तर शायद हमें प्रवासी मोनार्क तितलियों के विकास (Evolution) के इतिहास में खोजना होगा कि वे ऐसा क्यों करती हैं।
तरह-तरह की क्षमताएं
जंतुओं के प्रवास से जुड़ा हुआ तीसरा प्रश्न यह हे कि इन लंबी यात्राओं के दौरान ये सही रास्ता कैसे ढूंढ पाते हैं? यह प्रश्न जंतु-जगत की सबसे अद्भुत पहेलियों में से एक है। लगातार प्रयासों के बावजूद वैज्ञानिक इस पहेली को पूरी तरह से सुलझा नहीं पाए हैं। अय अवश्य मानना पड़ेगा कि इस संबंध में किए गए वैज्ञानिक प्रयोग मानव जाति के धैर्य और कल्पनाशीलता की मिसाल हैं। इन प्रयोगों से मुख्य निष्कर्ष यही निकला है कि अलग-अलग प्रजातियों के जंतु दिक्चालन (रास्ता खोजना) के लिए अलग-अलग तरीके अपनाते हैं।
शुरूआत सॅमन मछली से करते हैं। हम देख चुके हैं कि नदियों में जन्म लेने के बाद सॅमन के बच्चे समुद्र में जाते हैं और समुद्र में कई वर्ष बिताने के बाद फिर उसी नदी में, उसी स्थान पर प्रजनन करने के लिए आते हैं। जहां उनका जन्म हुआ था।
कैनेडा के वैज्ञानिकों ने एक नदी के उद्गम के पास जन्मी लगभग पांच लाख सॅमन मछलियों पर पहचान के लाख सॅमन मछलियों पर पहचान के निशान लगाए।। कई वर्षो बाद इनमें से 11,000 मछलियां प्रजनन के लिए इसी नदी में आई, किन्तु निशान लगी हुई एक भी मछली अन्य किसी नदी में नहीं पाई गई।
सॅमन की गंध क्षमता : सॅमन मछली का प्रवास काफी समय तक वैज्ञानिकों के लिए एक गुत्थी बना हुआ था कि ये सही रास्ता कैसे खोज लेती हैं? सॅमन पर किए गए प्रयोगों में से एक प्रयोग डी.हशलर ने किया और पाया कि सॅमन में अत्यंत संवेदनशील रासायनिक रिसेप्टर होते हैं जो अलग-अलग जलधाराओं में गंध के आधार पर अंतर कर सकते हैं।
सॅमन मछलियों पर किया गया प्रयोग कुछ इस तरह था - एक तालाब में करीब 26,000 मछलियां रखी गई। इस पानी में एक हल्की गंधवाला मॉरफीलिन मिलाया गया। इस तालाब में तीस दिन तक रखने के बाद बाद इन मछलियों को मिशिगन झील में छोड़ दिया गया। कुछ महीनों बाद झील की मछलियां प्रजनन के लिए सफर पर निकल पड़ीं। प्रयोगकत्र्ताओं ने अल्ट्रासोनिक तरंगों की मदद से इन मछलियों पर नज़र रखी और एक नदी की जलधारा में मॉरफीलिन घोल दिया। सफर पर निकली मछलियों में से जो मॉरफीलिन की गंध से परिचित थीं वे उस जलधारा की आरे मुड़ गर्इं और बाकी मछलियां आगे के सफर पर रवाना हो गई।
इस आधार पर वैज्ञानिकों ने यह अनुमान लगाया कि संभवत: इन मछलियों के बच्चों के मस्तिष्क में उस नदी के पानी की गंध की ऐसी अमिट छाप बन जाती है कि वे उसे ज़िन्दगी भर नहीं भूलते और प्रजनन के समय इसी गंध को ढूंढती हुई ये मछलियां सही स्थान पर पहुंच जाती हैं।
वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि जिन मछलियों की गंध ढूंढने की शक्ति नष्ट कर दी गई वे बड़े होने पर सही स्थान पर नहीं पहुंच सकीं।
इसकी पुष्टि के लिए एक अन्य रोचक प्रयोग किया गया। सॅमन के लगभग सहायता से उन्हें यह धोखा दिया गया कि सूर्य अपनी असली स्थिति में न हो कर आकाश में कहीं और है, तब पक्षी भी उसी के अनुसार गलत दिशा में उड़ने का प्रयास करने लगे।
तारों से दिशा: पक्षी आकाश में तारों की स्थिति से भी दिशा पहचान सकते हैं। ‘इंडिगो बंटिग’ पक्षी के साथ किए एक प्रयोग में उसे एक प्लेनेटेरियम में रखकर अलग-अलग समय पर आकाश में पाई जाने वाली तारों की स्थितियां दिखाई गई।
प्लेनेटेनियम में दिखाए गए तारों की स्थिति गर्मी मौसम की हो या जाड़े के, ये पक्षी उत्तर दिशा बखूबी पहचान पाए। इससे पता चलता है कि जब तक आकाश में ध्रुव तारे और उसके आपपास के प्रमुख नक्षत्रों की आपसी तुलनात्मक स्थिति बनी रहती है, वे उन्हें पहचान पाते हैं और उनसे दिशा का पता लगा लेते हैं।
चित्र 1 और 2 में दिखाया गया है कि चाहे रात के नौ बजे हों या सुबह के तीन, इंडिगो बंटिग उत्तर की ओर ही उड़ते थे। फिर इन्हें प्लेनेटेरियम में बंद करके सुबह तीन बजे का आकाश दिखाया गया जबकि उस समय रात के नौ बजे थे - फिर भी वे उत्तर की तरफ ही उड़े (चित्र-3)
एक अन्य प्रयोग में एक विशाल पिंजड़े की पूरी गोलाई में कटोरियां रखी गई किन्तु भोजन सिर्फ उत्तरपश्चिम की ओर वाली कटोरी में रखा गया। धीरे-धीरे पक्षियों को यह पता चल गया कि भोजन सिर्फ उत्तरपश्चिम वानी कटोरी में रखा जाता है। पिंजड़े को किसी भी स्थान पर ले जाने पर या दिन के किसी भी समय पक्षियों को पिंजड़े में छोड़ने पर वे ठीक उत्तर-पश्चिम वाली कटोरी के पास ही पहुंचते थे।
इसका मतलब यह हुआ कि सूर्य आकाश में कहीं भी हो, पक्षी किसी तरीके से दिशा पता कर लेते हैं।
26,000 बच्चों को ऐसे पानी से भरे तालाब में एक महीने तक रखा गया जिसमें बहुत हल्की गंध वाला एक रसायन मिलाया गया था। लगभग इतने ही बच्चों को, इतने ही समय के लिए ऐसे दूसरे तालाब में रखा गया जिसके पानी में यह रसायन नहीं मिलाया गया था1 इसके बाद इन्हें मिशिगन नामक विशाल झील में छोड़ दिया गया। जब इन मछलियों के प्रजनन का समया आया तो झील में गिरने वाली कई नदियों में से एक के पानी में रसायन की बहुत थोड़ी मात्रा मिलाई गई। रसायन मिले पानी में पली अधिकांश मछलियां इस नदी में आ गई जबकि दूसरे समूह की इक्का-दुक्का मछली ही इस में पहुंची।
सूर्य और तारे भी दिशासूचक
पक्षियों का द्किचालान भी लंबे समय तक पहेली बना रहा। प्रवासी पक्षी पहाड़ों पर से या समुद्र पर से उड़ते हैं जहां पहचान के कोई निशान नहीं होते। फिर वे अपना रास्ता कैसे ढूंढ लेते हैं? प्रवासी पक्षियों के बच्चे अपने माता-पिता के साथ ही प्रवास पर निकलें यह ज़रूरी नहीं। फिर भी वे पहली बार ही अपने गंतव्य पर कैसे पहुंच जाते हैं।
वैज्ञानिकों के अनुमान लगाया कि पक्षी सूर्च की स्थिति से दिशा का पता लगाते हैं। यही नहीं, सूर्योदय के बाद सूर्य आकाश में हर घंटे में 15 डिग्री आगे बढ़ता है, इस आधार पर भी पक्षी दिशा निर्धारण करते हैं। हर पक्षी के शरीर में एक जैविक घड़ी होती है। समय की गति के साथ शरीर की गतिविधियों में होने वाले परिवर्तनों को ही ‘जैविक घड़ी’ कहते हैं। उदाहरण के लिए, जैसे-जैसे ठंड का मौसम समाप्त होता है रात की लंबाई घटना शुरू होती है और दिन की लंबाई बढ़ने लगती है। दिन की इस बढ़ती लंबाई के परिणाम स्वरूप कई जंतुओं के शरीर में प्रजनन से संबंधित प्रक्रियाएं शुरू हो जाती हैं। इस प्रकार के परिवर्तन जैविक घड़ी का भाग हैं। इस जैविक घड़ी का उपयोग कर के पक्षी यह हिसाब लगा लेते हैं कि सूर्योदय के बाद कितने घंटे हो चुके हैं और सूर्य की वर्तमान स्थिति के अनुसार उन्हें किस दिशा में जाना चाहिए।
जर्मनी में वैज्ञानिकों ने सबसे पहले पक्षियों की जैविक घड़ी के साथ छोड़छाड़ कर यह पता लगाने का प्रयास किया कि सूर्य की सहायता से पक्षी अपना रास्ता कैसे ढूंढ पाते हैं। कुछ प्रवासी पक्षियों को पिंजड़ों में बंद करके ऐसे स्थान पर रखा गया जहां से वे सूर्य को देख सकते थे। जब इन पक्षियों के वार्षिक प्रवास पर रवाना होने का समय आया तो वे उसी दिशा में उड़ने का प्रवास करने लगे जिस दिशा में उन्हें प्रवास करना था। जब दर्पणों की सहायता से उन्हें यह धोखा दिया गया कि सूर्य अपनी असली स्थिति में न हो कर आकाश में कहीं और है, तब पक्षी भी उसी के अनुसार गलत दिशा में उड़ने का प्रयास करने लगे।
एक अन्य प्रयोग में एक विशाल पिंजड़े की पूरी गोलाई में कटोरियां रखी गई किन्तु भोजन सिर्फ उत्तर-पश्चिम की ओर वाली कटोरी में रखा गया। धीरे-धीरे पक्षियों को यह पता चल गया कि भोजन सिर्फ उत्तर-पश्चिम वाली कटोरी में रखा जाता है। पिंजड़े को किसी भी स्थान पर ले जाने पर या दिन के किसी भी समय पक्षियों को पिंजड़े में छोड़ने पर वे ठीक उत्तर-पश्चिम वाली कटोरी के पास ही पहुंचते थे।
इसका मतलब यह हुआ कि सूर्य आकाश में कहीं भी हो, पक्षी किसी तरीके से दिशा कर लेते हैं।
वैज्ञानिकों ने इस प्रयोग को और आगे बढ़ाया। पक्षियों को चार से छह दिन तक बिलकुल अंधेरे कमरे में रखा गया और फिर उन्हें एक कृत्रिम सूर्य दिखाया, जो वास्तविक सूर्य के 6 घंटे बाद उदय होता था।
दिन का तारा ही ज्यादा महत्वपूर्ण: सूरज, चांद या तारों की मदद से पक्षी दिशा पहचान लेते हैं। यह ब सान लगती है
बादलों से घिरे आसमान में पक्षी दिशा कैसे पहचानते हैं? इस संबंध में एक विचार रखा गया कि पक्षी पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के आधार पर भी दिशा पहचानने की क्षमता रखते हैं। इस बात की सच्चाई को जानने के लिए वैज्ञानिकों ने पक्षियों को चुंबकीय टोपी पहनाकर उनके आसपास पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के प्रभाव क्षेत्र को बदल दिया। यह देखा गया कि पक्षी दिक्भ्रमित हो गए। लेकिन साफ आसमान में पक्षियों पर चुंबकीय टोपी वगैरह का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे बड़ी आसानी से सूर्य के सहारे दिशा का पता लगा लेते हैं यानी पक्षी दिशा ज्ञान के लिए एक से अधिक क्षमताओं का इस्तेमाल करते हैं। इससे यह भी पता चलता है कि अगर पक्षियों के पास दोनों जानकारियां उपलब्ध हों, तो वे आसमानी सितारों को ज्यादा महत्व देते हैं बजाए चुंबकीय क्षेत्र के - इसलिए दिन में वे चुंबकीय टोपी पहने होने के बावजूद दिक्भ्रमित नहीं हुए।
कुछ दिनों तक इस सूर्य को देखते रहने पर पक्षियों की जैविक घड़ी 6 घंटे पीछे हो गई और उनका दिशा-निर्धारण गड़बड़ा गया। जब उन्हें पुराने पिंजड़े में छोड़ा गया तो वे उत्तर-पश्चिम के बजाए उत्तर-पूर्व में स्थित कटोरी के पास पहुंचे जहां भोजन था ही नहीं।
जो पक्षी दिन-रात उड़कर अपना सफर तय करते हैं वे रात में तारों की सहायता से दिशा का पता लगाते हैं। किन्तु तारों की सहायता से दिक्चालन करते समय उन्हें तारों की बदलती स्थिति का हिसाब नहीं लगाना पड़ता। नक्षत्रों में तारों की जमावट से उन्हें दिशा का पता चल जाता है।
इन सब जानकारियों के बावजूद प्रश्नों का अंत नहीं होता। जब आकाश में घने बादल हों, न सूर्य को देख पाना संभव हो और न तारों को, फिर भी पक्षी सही दिशा में पता कैसे लगा लेते हैं?
अमेरिका में किए गए प्रयोगों से इस धारणा को बल मिला है कि पक्षियों में ऐसी क्षमता होती है जिसकी सहायता से वे पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का उपयोग करते हुए दिशाओं का पता लगाते हैं। वैज्ञानिकों ने इस बात की भी पुष्टि की है कि सूर्य या तारे दिखाई पड़ने पर तो पक्षी दिक्चालन के लिए इन्हीं का उपयोग करते हैं, किन्तु बादल छाए होने पर पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की सहायता से दिक्चालन करते हैं। कई कीटों और मछलियों में भी दिक्चालन के लिए पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के उपयोग के प्रमाण मिले हैं।
इटली में वैज्ञानिकों ने प्रयोगों से ऐसे प्रमाण जुटाए हैं कि पक्षियों, कम-से-कम कुछ पक्षियों, के द्वारा दिक्चालन के लिए सूंघने की शक्ति का उपयोग भी किया जाता है, ठीक उसी प्रकार जैसे सॅमन मछली करती हैं। संसार के विभिन्न भागों में हो रहे प्रयोगों के फलस्वरूप जंतुओं की दिक्चालन क्षमता का रहस्य धीरे-धीरे उजागर तो हो रहा है, किन्तु पूरी तस्वीर साफ होने में अभी काफी समय लगेगा।
आनुवांशिक स्मृति की बदौलत
अंत में एक बात स्पष्ट करना ज़रूरी है। दिशा का पता लगाने के लिए जंतु सूर्य, तारों, चुंबकीय क्षेत्र आदि की सहायता लेते हैं, किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि इनमें वैसे ही बुद्धि होती है जैसी मनुष्य में। वे ऐसा अपनी सहज प्रवृत्ति (Instinct)के कारण कर पाते हैं जो इन्हें विरासत में मिलती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि ये क्रियाएं इन जंतुओं की आनुवांशिक स्मृति (Genetic Memory) का भाग बन गई हैं, इन्हें सीखने की आवश्यकता नहीं होती।
आनुवांशिक स्मृति और वुद्धि के बीच अंतर को इस उदाहरण से बेहतर तरीके से समझा जा सकेगा। भारत में शीत ऋतु में आने वाले पक्षी फरवरी-मार्च में अपने ग्रीष्मकालीन मुकाम की ओर लौटने लगते हैं। यहीं ये प्रजनन भी करते हैं। जब फिर से शीतकालीन मुकाम पर जाने का समय होता है तब यह ज़रूरी नहीं होता कि बच्चे अपने माता-पिता के साथ ही प्रवास पर वापस जाएं।
उनकी आनुवांशिक स्मृति से न केवल उन्हें उड़ाने की दिशा मालूम रहती है किन्तु सूर्य, तारों और पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की सहायता से दिक्चालन की कला भी आती है। यही स्थिति ईल के बच्चों की भी होती है। क्या मानव के बच्चे के साथ ऐसा होना संभव है? मनुष्य में बुद्धि का विकास, सीखने की प्रक्रिया से होता है और आनुवांशिक स्मृति की भूमिका शायद ज़्यादा नहीं होती है।
आनुवांशिक स्मृति और बुद्धि में एक और महत्वपूर्ण अंतर होता है। आनुवांशिक स्मृति के कारण जंतु यंत्रवत किसी क्रिया को करते हैं और उसमें परिवर्तन की गुंजाइश बहुत कम होती है।
मान लीजिए एक पक्षी गर्मी का मौसम काश्मीर में अनंतनाग के पास और ठंड का मौसम मध्य प्रदेश के झाबुआ ज़िले के किसी गांव में बिताता है तो उसमें यह क्षमता ही नहीं होती कि वह गर्मी के अगले मौसम में अनंतनाग के बजाए श्रीनगर या पहलगाम चला जाए या काश्मीर की मशहूर वूलर झील के किनारे जा कर रहे। उसे तो यंत्र के समान अनंतनाग के पास उसी स्थान पर जाना पड़ता है जहां उसके पूर्वज हज़ारों वर्षो से जाते रहे हैं। इसी प्रकार ठंड का मौसम झाबुआ के बजाए किसी अन्य ज़िले में बिताने की बात तो छोड़िए, उसमें अक्सर यह क्षमता भी नहीं होती कि वह अन्य किसी पेड़ पर भी बसेरा करे।
अमेरिका और यूरोप दोनों महाद्वीपों से ईल मछलियां प्रजनन के लिए अटलांटिक महासागर में लगभग एक ही स्थान पर आती हैं और इनके बच्चे उसी महाद्वीप की ओर लौटते हैं जहां से उनके माता-पिता आए थे। इसका कारण यह है कि अमरीकी ईल के बच्चों की आनुवांशिक स्मृति में यह समाहित है कि उन्हें अपने जन्मस्थान से पश्चिम की ओर जाना है और यूरोप की ईल के बच्चों की आनुवांशिक स्मृति में यह संकेत समाया हुआ है कि उन्हें पूर्व दिशा में पाई गई और न कोई यूरोप की ईल अमेरिका में!
आपने बया पक्षी का सुंदर घोंसला देखा होगा। आनुवांशिक स्मृति से ही ये पक्षी घोंसला बनाते हैं, किन्तु इसी कारण वे उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन भी नहीं कर सकते, न ही कोई अन्य पक्षी बया की नकल करके इस प्रकार का घोंसला बना सकता है।
आनुवांशिक स्मृति के विपरीत बुद्धि की विशेषता यह होती है कि एक बार कोई चीज़ सीख लेने पर उसमें परिवर्तन की गुंजाइश होती है।
अरविंद गुप्ते - प्राणी शास्त्र के प्राध्यापक, होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़ाव, प्रशासन अकादमी भोपाल में कार्यरत।