सुरेश कुमार शुक्ला
सातवीं कक्षा में हमें त्रिवेदी सर हिन्दी विषय पढ़ाते थे। भाषा सीखने को लेकर वे थोड़ी अलग सोच रखते थे। वे सिर्फ पाठ्य-पुस्तकों तक सीमित नहीं रहते थे बल्कि लड़कों को कहानी, लेख-निबंध लिखने, तुकबंदी करने आदि के लिए लगातार प्रोत्साहित करते रहते थे। वे अक्सर कहते भी थे कि पाठ्य-पुस्तक पढ़ने से भाषा नहीं सीखी जा सकती।
त्रिवेदी सर कक्षा में काफी रोचक गतिविधियां करवाते थे। कभी खुद दो पंक्तियों की तुकबंदी करते, और फिर उसे आगे बढ़ाने के लिए हमसे कहते। तो कभी 'यदि मैं स्कूल का चपरासी होता' विषय पर निबंध लिखने के लिए कहते। वैसे उनकी कोशिश होती थी कि कक्षा के हरेक विद्यार्थी को लिखने के लिए अलग-अलग विषय दिए जाएं।
वे एक और तरीका अपनाते थे - विद्यार्थियों से जानकारी खोजकर लाने के लिए कहा जाता था। इस गतिविधि में होता यह था कि विद्यार्थी को विविध विषय दिए जाते थे जैसे - मिश्रा सर संस्कृत के शिक्षक कैसे बने, स्कूल का चपरासी रामलाल इस स्कूल में कैसे आया, किसी टाकीज़ का, मोहल्ले का, स्कूल का इतिहास, किसी दुकानदार का इंटरव्यू, स्कूल की समस्याओं के बारे में किसी शिक्षक से बातचीत, शहर में गिर रहे खेल स्तर के संबंध में खेल शिक्षक से बातचीत। यह ज़रूरी नहीं था कि प्रत्येक छात्र उस जानकारी को मालूम करने में सफल हो ही पाएगा। बहुत संभब था कि स्कूल का स्टाफ त्रिवेदी जी की इन गतिविधियों को गहराई से न समझ रहा हो, जिसकी वजह से कई बार अन्य शिक्षक छात्रों से सहयोग भी नहीं करते थे।
ऐसे ही एक अभ्यास में मुझे 'शहर के एक टाकीज़ का इतिहास' पता करना था। मैं शहर के एक टाकीज़ पहुंचा, डोर-कीपर मुझे टाकीज़ के मैनेजर के पास ले गया। मैनेजर काफी सहृदय व्यक्ति थे। उन्होंने मेरे आने का मकसद जानने के बाद कहा, “तुम सवाल पूछो, जितना मुझे मालूम है मैं बताता जाऊंगा।'' मैंने अपनी समझ के हिसाब से टाकीज़ कब बनी, इसके मालिक कौन थे, वर्तमान मालिक कौन हैं। इसमें सबसे पहले कौन-सी फिल्म प्रदर्शित हुई थी, टाकीज़ में किन-किन श्रेणियों में कितने दर्शकों के बैठने की व्यवस्था है, वर्तमान टिकिट दर, टाकीज़ में कितने कर्मचारी काम करते हैं, वगैरह जैसे खूब सारे सवालात किए। इनमें से कुछ सवालों के जवाब मैनेजर के पास भी नहीं थे क्योंकि वे भी इस टाकिज़ में कुछ साल पहले ही आए थे।
फिर भी मेरे लिए यह अनोखा अनुभव था। मैंने जानकारी को सिलसिलेवार जमाकर टाकीज़ का इतिहास कक्षा में प्रस्तुत किया। इसी तरह मेरे एक सहपाठी ने 'मिश्रा सर संस्कृत के शिक्षक कैसे बने इस संबंध में जानकारी प्रस्तुत की। एक अन्य साथी ने 'मेवालाल बढ़ई अपनी रोजी-रोटी कैसे चलाता है' इस बारे में जो भी जानकारी इकट्ठी की थी, उसे सबके सामने रखा।
आज मैं सोचता हूं कि भाषा सीखने के इस तरीके के कारण मुझमें काफी आत्मविश्वास आ गया जो मात्र पाठ्यपुस्तकों को पढ़ने से शायद ही आ पाता। पाठ्य-पुस्तकों के विषयों से हटकर अपनी बात को कहने का तरीका भी पता चला। मुझे अभी भी यह महसूस होता है कि पाठ्य-पुस्तकों में इस तरह की गतिविधियों की गुंजाइश होनी चाहिए या शिक्षकों को ऐसी गतिविधियों के लिए समय निकालना चाहिए, ताकि बच्चे एक तयशुदा ढरे से बाहर निकलकर अपनी अभिव्यक्ति को सशक्त बना सकें।
सुरेश कुमार शुक्लाः जबलपुर की एक शाला में शिक्षक।