गौतम आई. मेनन

कुछ चीजें बहती हैं जबकि कुछ नहीं बहती। एक पत्थर नहीं बहता, पर पानी बहता है। कुछ दूसरी चीजें बहती हैं लेकिन धीमी गति से। वैसे तो एक हिमनद यानी ग्लेशियर इतना सख्त होता है कि आप उस पर चल सकते हैं परन्तु फिर भी वह अपनी एक धीमी रफ्तार से बहता है - एक साल में चंद सेंटीमीटर। इसी तरह शीशी में से शहद बहता है परन्तु पानी जितनी तेज़ी से नहीं, क्योंकि वह काफी गाढ़ा होता है। तारकोल तो, ठोस बन जाने से पहले, और भी धीमी गति से बहता है।
अब जरा टूथपेस्ट के बारे में सोचिए। जिस ट्यूब में उसे रखा गया है उसे दबाने पर टूथपेस्ट बना चाहिए। इतना ही नहीं, आसानी से बहना चाहिए। लेकिन यह कोई अनोखी बात नहीं है, क्योंकि अगर ट्यूब में टूथपेस्ट की जगह पानी भरकर दबाएंगे तब भी ऐसा ही होगा। परन्तु पेस्ट में एक खासियत यह है कि एक बार टूथब्रश पर आ जाने के बाद वह बहना बंद कर देता है (पानी के साथ ऐसा कभी नहीं होगा)। इसलिए टूथपेस्ट अपने आसपास पाया जाना वाला एक अनोखे तरल का उदाहरण है जो कभी बहता है और कभी नहीं बहता। अब हमें यह पता लगाना है कि तरल पदार्थ किन परिस्थितियों में ऐसा अनोखा व्यवहार करते हैं।

टूथपेस्ट ऐसा कैसे करता है? जब आप टूथपेस्ट के एक छोर को दबाते हैं तो ट्यूब के दोनों छोरों पर दबाव में अंतर निर्मित हो जाता है। जिसकी वजह से टूथपेस्ट एक बल महसूस करता है और कम दबाव वाले सिरे की ओर बहने लगता है। और जब यह ट्यूब में से बहता है, टूथपेस्ट के अणु जो ट्यूब के करीब होते हैं लगभग स्थिर बने रहते हैं, जबकि जो ट्यूब के केन्द्र की ओर होते हैं वे तीव्रतम गति करते हैं। यानी कि जैसे-जैसे आप ट्यूब के केन्द्र से दीवारों की तरफ जाएं, जिस गति से टूथपेस्ट आगे बढ़ रहा है वह लगातार बदलती जाती है, कम होती जाती है। सब तरल पदार्थ इसी तरह का व्यवहार करते हैं।
अब तरल पदार्थ को यह पसंद नहीं है कि अलग-अलग हिस्से अलग-अलग रफ्तार से गति करें, तरल पदार्थ इस तरह की सापेक्ष गति का प्रतिरोध करते हैं और इस प्रतिरोध की एक नाप उसकी विस्कोसिटी या श्यानता है। जब हम कहते हैं कि शहद पानी से ज्यादा श्यान है, तो हमारा आशय होता है कि अगर शहद व पानी में भरी ट्यूब पर एक जितना दबाव डालें तो शहद धीमी गति से बहेगा।
टुथपेस्ट व अन्य कुछ अनोखे तरल पदार्थों में एक विशेष गुण होता है कि जब उनके विभिन्न हिस्सों की गति में अंतर ज्यादा हो - इस उदाहरण में ट्यूब की दीवारों के पास और ट्यूब के केन्द्र में बह रहे टूथपेस्ट की गति में - तो ऐसी स्थिति में ये तरल ज्यादा आसानी से बहने लगते हैं। ऐसी स्थिति में टूथपेस्ट ऐसा व्यवहार करता है मानों कि उसकी श्यानता कम हो। जब इन गतियों में अंतर कम हो तो टूथपेस्ट जैसे तरल पदार्थ बहुत ही धीमे बहते हैं या फिर पोचे ठोस (सॉफ्ट सॉलिड) जैसा बर्ताव भी दर्शा सकते हैं।

आइए मोटे-मोटे तौर पर इसका कारण समझने की कोशिश करते हैं। टूथपेस्ट में लंबे-लंबे अणु पाए जाते हैं जिन्हें पॉलिमर्स या बहुलक कहते हैं। जब इस तरह के पॉलिमर्स बहते हैं। तो वे या तो बहुत ही अस्त-व्यस्त गुंथे हुए तंतुओं के रूप में आगे बढ़ सकते हैं, या फिर बहाव की दिशा में जमे हुए अणुओं के रूप में। जब भी अणु इस तरह से व्यवस्थित जमे होंगे, अस्तव्यस्त स्थिति की तुलना में वे आसानी से आगे बढ़ पाएंगे, तरल आसानी से बह पाएगा। जब बहाव धीमा हो तो अणु हर किसी दिशा में पाए जाते हैं: परन्तु जब गति ज्यादा हो तो उनकी कुंडलियां खुल जाती हैं व वे बहाव की दिशा में व्यवस्थित हो जाते हैं। इससे तरल आसानी से बह पाता है। क्योंकि अणुओं का आपसी प्रतिरोध कम हो जाता है।
टूथपेस्ट में ऐसे कण भी होते हैं जो दांतों को घिसकर उन्हें साफ रखें। उसमें ऐसे कई विशेष रसायन होते हैं जो दांतों का सड़ना या उन पर टार्टर का जमना व मसूड़ों का संक्रमण आदि रोकें। ऐसे रसायन भी होते हैं जो मुंह को सूखने से रोकते हैं और मुंह में अच्छा-सा स्वाद बनाए रखते हैं। परन्तु ये सब पदार्थ एक साथ कैसे रह पाते हैं? इन्हें एक साथ बांधकर रखने के लिए इनमें कुछ अन्य उपयोगी रसायन मिलाए जाते हैं जिन्हें बाइंडर्स यानी बंधनकर्ता कहते हैं। इन्हीं की वजह से टूथपेस्ट को वैसा आकार व स्वरूप मिलता है और साथ ही वे टूथपेस्ट में मौजूद तरल और विभिन्न पदार्थों को अलग होने से रोकते हैं, जैसे कि तेल और पानी।
पिछले कुछ वर्षों में कुछ कंपनियों ने ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए बहुरंगी टूथपेस्ट तैयार किए हैं। आप ही सोचिए कि ये सब रंग ट्यूब के अंदर आपस में मिल नहीं जाएं इसके लिए कितनी नवाचारी तकनीकें अपनानी पड़ती होंगी, ताकि वे टूथब्रश पर सुंदर दिखाई दें। ऐसा लग सकता है कि आखिर टूथपेस्ट में रखा ही क्या है, बस सही किस्म के रसायनों को आपस में मिला देना भर है - परन्तु अब तक आपको भी समझ में आ गया होगा कि मामला इतना सरल भी नहीं है!

है कोई गोंद का सानी?  

चलिए अब एक और अनोखे तरल यानी गोंद की बात करते हैं। गोंद से हम लिफाफे आदि चिपकाते हैं। बोतलों और ट्युब में आने वाली गोंद तरल होती है जबकि ग्लु-स्टिक ठोस होती है। इन सब से आमतौर पर कागज़ को कागज़ से चिपकाने का काम लिया जाता है। वैसे इनसे और कई चीजें भी चिपकाई जा सकती हैं।
सभी प्रकार की गोंद विभिन्न प्रकार की चीजों को चिपकाने में एक जैसी प्रभावकारी नहीं होती हैं। उदाहरण के तौर पर एक गोंद जो कागज़ के कई टुकड़ों को चिपकाने में काफी कारगर होती है, वही गोंद दो साफ-सुथरे धातु के टुकड़ों को चिपका पाने में अक्सर नाकामयाब रहती है। इससे पता चलता है कि 'चिपकाना' उन अणु व परमाणुओं का गुण है जिससे चिपकने वाली सतह बनी हुई है।
अभी तक मिली सबसे पुरानी, लगभग आठ हजार साल पुरानी गोंद कोलाजन मज्जा से बनी हुई थी। यह मज्जा एक बहुलक यानी पॉलिमर होता है जो खाल और उपास्थियों (कार्टिलेज) में पाया जाता है। यह पुरानी गोंद जानवरों की खाल से बनाई जाती थी। इस गोंद का उपयोग रस्सी की बनी टोकरियों, अन्य बर्तनों व कढ़ाई किए गए कपड़ों पर जलरोधी परत चढ़ाने के लिए किया जाता था। इसके अलावा बर्तनों की जुड़ाई में भी गोंद उपयोगी थी। काफी समय बाद तक, पिछली सदी के दौरान भी विभिन्न चीज़ों को चिपकाने के लिए प्रोटीन आधारित गोंद इस्तेमाल की जाती थी जिसे दुध, जानवरों की हड्डियों और खून से बनाया जाता था। लेकिन इन दिनों रसायन विज्ञान की करामातों के ज़रिए सस्ती और असरदार गोंद काफी कम दाम में तैयार हो जाती है।

अपने आसपास घर के अंदर नज़र दौड़ाएं तो ताज़ा पका हुआ चावल भी गोंद का एक अच्छा उदाहरण है जिससे हममें से बहुत से लोग लिफाफे चिपकाते हैं। ऐसे स्टार्च से बने हुए गोंद का इस्तेमाल हजारों सालों से हो रहा है। वैसे स्टार्च में खुद चिपकाने का कोई गुण नहीं होता। उसे पानी में उबालना पड़ता है, जिससे वह फूल जाए और पानी के अणुओं के साथ एक बंधन बना ले। ऐसा करने पर वह एक चिपकाने वाले पेस्ट की तरह कार्य करता है।
एक अच्छी गोंद जिस सतह पर लगा रहे हों, उस पर तेजी से व ठीक से फैल जानी चाहिए जिससे वह पूरी सतह को अच्छी तरह से गीली कर दे। अच्छी तरह से गीला करने से मजबूत बंध बनते हैं। जबकि अगर सतह ठीक से गीली नहीं हुई हो तो हवा व नमी से भरी हुई खाली जगह छूट जाती है, जो बंधन को कमज़ोर बना सकती है। । यहां इस बात का ध्यान भी रखना होगा कि चिपकाने के लिए सतह को अच्छी तरह से गीला कर देना भर पर्याप्त नहीं है। अगर ऐसा होता तो पानी भी गोंद की तरह काम करता। चिपकाने की प्रक्रिया में दो सतहों पर फैलाई गई तरल गोंद धीरे-धीरे एक ठोस परत के रूप में तब्दील होती जाती है और दोनों सतहें एक-दूसरे से स्थाई रूप से चिपक जाती हैं। एक मोटा अनुमान यह भी है कि यह बंधन इसलिए भी हो पाता है क्योंकि गोंद संपर्क में आने वाली सतह के कुछ सौ ऊपरी अणुओं के साथ घुलमिल जाती है। इस सब से समझ में आता है कि गोंद एक विलक्षण द्रव है - जो तरल पदार्थ की तरह बह सकता है और पूरी सतह को गीला कर सकता है, परन्तु दूसरी ओर दो सतहों को एक साथ, जितना संभव हो उतनी ताकत से, चिपका सकता है। इस तरह से मानो कि वे एक ठोस के द्वारा आपस में जोड़ दी गई हों।

आइसक्रीम यानी हवा, पानी ....  
अब बारी आती है तीसरे पदार्थ यानी आइसक्रीम की। आइसक्रीम बनाने के लिए जरूरी हैं दूध, वसा (आमतौर पर मक्खन या मलाई), गैर-वसीय दुग्ध ठोस (दूध पावडर), मीठा स्वाद लाने वाले पदार्थ और स्वाभाविक है। कि पानी। इसके अलावा इसमें काफी कम मात्रा में कुछ ऐसे रसायन मिलाए जाते हैं जिन्हें स्टेबलाइजर और इमल्सीकारक कहा जाता है। ये पदार्थ आइसक्रीम में (भार के हिसाब से) काफी कम मात्रा में होते हैं लेकिन आइसक्रीम को बनाने में महती भूमिका निभाते हैं। आगे चलकर हम इनकी भूमिका पर गौर करेंगे।
वसा पदार्थों को मिलाने से आइसक्रीम की खुशबू और टेक्सचर बेहतर हो जाता है। गैर-वसीय दुग्ध ठोस खुशबू के साथ उसकी बनावट के निर्धारण में भी योगदान देते हैं। यह घटक आइसक्रीम की हवा को संजोए रखने की क्षमता भी बढ़ा देता है, जो बहुत ज़रूरी है क्योंकि किसी भी अच्छी आइसक्रीम में ज्यादातर तो हवा ही होती है।
शर्कराएं आइसक्रीम को मिठास देती हैं, साथ ही वे पानी के हिमांक को कम कर देती हैं, जिससे काफी कम तापमान होने पर भी आइसक्रीम में कुछ बिना जमा हुआ, बिना बर्फ में तब्दील हुआ पानी मौजूद रहता है। इस तरह के बिन-जमे पानी के बिना आइसक्रीम इतनी सख्त बन जाती कि उसे चम्मच से उलीच पाना या स्कूप कर पाना बहुत ही मुश्किल हो जाता।
आइसक्रीम के अंदर मौजूद इस बिन-जमे पानी को गाढ़ा बनाने के लिए स्टेबलाइज़र जिम्मेदार होते हैं, जिससे कि यह पानी आइसक्रीम के अंदर आसानी से इधर-उधर न हिलडुल सके। स्टेबलाइजर के बिना आइसक्रीम बर्फ के गोले की तरह बन जाती क्योंकि यह बिन-जमा पानी आपस में मिलकर बर्फ के रवे यानी क्रिस्टल बना लेता, और उनमें वृद्धि होने के कारण बर्फ के दाने बन जाते। ये बर्फ के रवे जितने छोटे होंगे, जीभ को उनकी मौजूदगी का पता लगाना उतना ही मुश्किल होगा। (अगर आइसक्रीम बहुत अच्छी नहीं हो तो बर्फ के रवों की उपस्थिति तुरंत समझ में आ जाती है, आइसक्रीम चाटने पर ये क्षण भर के लिए चुभते हैं, परन्तु फिर तुरंत पानी में तब्दील हो जाते हैं।)

रेफ्रीजरेटर से निकालकर परोसने पर बची हुई आइसक्रीम थोड़ी-सी पिघल जाती है और फिर से रेफ्रीजरेटर में रखने पर, तापमान कम हो जाने पर जम जाती है। हर बार ऐसा करने पर वह थोड़ी-थोड़ी बर्फ जैसी लगने लगती है। स्टेबलाइजर ऐसा होने से रोकते हैं।
शुरुआत में स्टेबलाइजर के रूप में जिलेटिन इस्तेमाल किया जाता था जिसे प्राणियों की हड्डियों से बनाया जाता था। परन्तु आजकल पौधों से मिलने वाले रसायनों का स्टेबलाइज़र के रूप में अधिकतर प्रयोग होता है।
इमल्सिकारक वसा और तैलीय पदार्थों को आइसक्रीम में ठीक से मिला देते हैं। वे यह भी सुनिश्चित करते हैं कि आइसक्रीम में पर्याप्त मात्रा में हवा उपलब्ध रहे। दरअसल इमल्सिफायर इस तरह के अणु होते हैं जो अपना एक सिरा तैलीय पदार्थों में और दूसरा सिरा पानी में रखना पसंद करते हैं। इसलिए जहां भी तैलीय पदार्थों या वसा व पानी को अलग करने वाली सतह मौजूद हो इमल्सिफायर के अणु वहां रहना चाहते हैं।

आमतौर पर तेल (या वसा) और पानी आपस में नहीं घुलते-मिलते। तो फिर आइसक्रीम के अलग-अलग हिस्सों से दूध की वसा को एक साथ आ जाने से कौन रोकता है? वही इमल्सिफायर! चूंकि ये अणु वसा और पानी के बीच उपस्थित रहना चाहते हैं इसलिए वे चाहते हैं कि तेल को ज्यादा-से-ज्यादा सतह यानी क्षेत्रफल मिले, यानी कि छोटी-छोटी बूंदों के रूप में। इससे इमल्सिफायर का महत्व समझ में आता है। शुरुआत में आइसक्रीम में इमल्सिफायर के रूप में अंडे की जर्दी का इस्तेमाल किया जाता था, परन्तु अब उसके बजाए अन्य रसायनों का उपयोग किया जाता है।
आइसक्रीम में खूब सारी हवा होती है - लगभग उसका आधा आयतन। इसी वजह से आइसक्रीम इतनी हल्की होती है। हवा के बिना आइसक्रीम जमे हुए बर्फ के टुकड़े जैसी होगी। दरअसल आइसक्रीम जमी हुई झाग है (जैसे कि दाढ़ी बनाने वाली झाग जिसमें खूब सारी हवा होती है) जिसमें बर्फ के अत्यंत छोटे क्रिस्टल रवे और हवा के बुलबुले ज्यादातर जगह घेरे रहते हैं।
आइसक्रीम को कभी-कभी इमल्शन या तैलोद भी कहते हैं क्योंकि इसमें वसा के छोटे-छोटे कण पानी में मौजूद रहते हैं। वसा के ये कण हवा के बुलबुलों को घेरे रहते हैं।  शेष आइसक्रीम में प्रमुखतः बिना जमा हुआ शर्करा का गाढ़ा घोल होता है।

हमारा खून   
अब जो हमारी रुचि का आखिरी तरल पदार्थ है, वह है प्राकृतिक खुन। हमारे शरीर के अंदर लगभग चार लीटर खून हर समय बहता है। यह खून शिराओं-धमनियों से होकर बहते हुए कोशिकाओं को ज़रूरी तत्वों की पूर्ति करता है और नुकसानदायक पदार्थों को वहां से हटाता है। खून के बिना तो शरीर का काम ही ठप्प पड़ जाए।
 
चोट लगने पर खून बहने लगता है और चोट वाली जगह पर खून के थक्के जमने लगते हैं ताकि ज्यादा खून न बह सके। ऐसा माना जाता है कि खून में मौजूद प्लाजमा प्रोटीन फिबिनोजेन - फिन्निन में तब्दील हो जाता है। खून के विभिन्न घटक फिब्रिन के नेटवर्क (जाल) में उलझ जाते हैं। यहां इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप के जरिए थक्के को दिखाया जा रहा है।
हमारे खून का 55 प्रतिशत हिस्सा तो प्लाज़मा होता है - पीले रंग का एक तरल पदार्थ। प्लाजमा अपने साथ ठोस कोशिकाओं और प्लेटलेट्स को लिए होता है जो खून के धक्के को बनाने में मदद करते हैं। आमतौर पर प्लाज़मा कई किस्म के कामों को अंजाम देता है जैसे - रक्त के दबाव और मात्रा को व्यवस्थित रखना, खून में थक्का जमाने और रोगों से लड़ने के लिए प्रोटीन की पर्याप्त मात्रा में सप्लाई करना आदि। यह सोडियम और पोटेशियम जैसे महत्वपूर्ण खनिज पदार्थों के आदान-प्रदान के लिए माध्यम का भी काम करता है, ताकि शरीर में इन खनिजों का सही संतुलन बना रहे।

लाल रक्त कोशिकाएं हमारे खून का सबसे ज्यादा परिचित घटक है। लाल रक्त कोशिकाओं में हिमोग्लोबिन मौजूद होता है। हिमोग्लोबिन एक ऐसा अणु है जिसमें लौह उपस्थित रहता है। जो पूरे शरीर को ऑक्सीजन पहुंचाता है। हिमोग्लोबिन की वजह से ही खून हमें लाल दिखता है। हमारे खून का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा लाल रक्त कोशिकाओं से ही बना हुआ है। खून में लाल रक्त कोशिकाओं की संख्या का एक मोटा अनुमान लगाना हो तो कुछ इस तरह कह सकते हैं कि खून की 2-3 बूंद में लगभग एक अरब लाल रक्त कोशिकाएं होती हैं। हर 600 लाल रक्त कोशिकाओं के लिए खून में 40 प्लेटलेट्स और 1 सफेद कोशिका होती है। लाल रक्त कोशिकाएं तकरीबन 120 दिनों तक जीवित रहती हैं। अपनी आयु पूरी कर रही कोशिकाओं को रक्त के बहाव से बाहर निकाल लिया जाता है।
गौरतलब है कि खून एक ऐसा तरल है जिसमें कुछ ठोस पदार्थ तैर रहे हैं। यह भी कहा जा सकता है कि जिस तरह बहती हुई नदी में मिट्टी के कण, गाद वगैरह तैरते हैं कुछ वैसे ही। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि खून एक जीवित तरल है, क्योंकि उसमें जीवित कोशिकाएं हैं। हवा के संपर्क में आने पर खून जम जाता है और एक ठोस जैसा व्यवहार करता है। परन्तु शरीर के अंदर यह बहने वाले तरल की तरह व्यवहार करता है। ज़रूरी है कि यह न सिर्फ चौड़ी धमनियों में से बह पाए, परन्तु उतना ही महत्वपूर्ण होता है कि खून अत्यंत महीन केश नलिकाओं में से भी बह सके। दिल खून को लगातार इन सब नलिकाओं में पंप करता रहता है और बहाब को लगातार बनाए रखता है। यह एक ऐसा तरल है जिसका आदर किए बिना नहीं रहा जाता।

हम ऐसे चार प्रकार के तरल पदार्थ देख चुके हैं जिनसे हम हर रोज़ रूबरू होते हैं। उनके विलक्षण गुणों के बारे में एक बार भी सोचे बिना हम इन्हें इस्तेमाल करते रहते हैं - लिफाफे चिपकाते वक्त, टूथब्रश पर टूथपेस्ट लगाते हुए, आइसक्रीम के कोन को चाटते हुए या फिर यह सोचते हुए कि जख्म से बहता हुआ खून कब थमेगा?
इसी तरह अन्य तरल पदार्थों के गुणों के बारे में सोचना भी इतना ही रुचिकर हो सकता है कि किस तरह ये अपने-आप में अनोखे हैं जैसे - नारियल का तेल, गन्ने का रस, छाछ, इंजन ऑइल, टार, सांभार आदि। क्या आप ऐसे और पदार्थों के बारे में सोच सकते हैं?


गौतम आई. मेननः इंस्टीट्यूट ऑफ मेथेमेटिकल साइंसेज, चैन्नई।
यह लेख जंतर-मंतर पत्रिका के नवंबर-दिसंबर 2002 अंक से साभार।