कमलेश चंद्र जोशी

प्राथमिक विद्यालय के बच्चों से बातचीत करना सीखने और सीखी हुई बातों को सुदृढ बनाने का एक माध्यम है। परन्तु वास्तविकता यह है कि हमारी प्राथमिक कक्षाओं में बच्चों से खुलेपन से बातचीत करना या बच्चों को बातचीत का माहौल देना बहुत ही कम दिखाई पड़ता है। यह सोच मुश्किल इसलिए भी दिखाई देती है क्योंकि अधिकतर शिक्षकों का यह दृष्टिकोण ही नहीं बन पाता कि कक्षा में बच्चों से बातचीत करना क्यों ज़रूरी है? या बच्चों से बातचीत का अर्थ क्या है? फिर कक्षा में पहुंचने पर वे यह तय ही नहीं कर पाते कि बच्चों से क्या बातचीत की जाए, कैसे बातचीत की जाए? और इस बातचीत को सीखने-सिखाने के माध्यम में कैसे परिवर्तित किया जाए? ये सब बातें शिक्षकों के बच्चों के प्रति दृष्टिकोण, उनकी रचनात्मकता आदि पर भी निर्भर करती हैं। लेकिन हमें इस बात की खुशी है कि हम उत्तर प्रदेश के सुदूर ग्रामीण इलाके के एक प्राथमिक सरकारी विद्यालय में बच्चों से हुई बातचीत को नोट कर पाए।

इस बातचीत का खुलासा यहां किया जाए, इससे पहले ज़रूरी है कि इसकी थोड़ी पृष्ठभूमि बता दी जाए। हुआ यह कि पिछले महीनों हम उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में प्राथमिक कक्षाओं के अवलोकन संबंधी एक अध्ययन से जुड़े थे। इस दौरान उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के एक प्राथमिक विद्यालय की कक्षा -2 में बैठकर मैं कक्षा की प्रक्रियाओं को देख रहा था। यह उस दिन का चौथा पीरियड़ था तथा दिन के 12 बजे थे। यह कक्षा विद्यालय के प्रधानाध्यापक, जिन्हें सुविधा के लिए हम बड़े गुरुजी कहेंगे बे ले रहे थे। तो देखते हैं कि बड़े गुरुजी ने इस कक्षा में क्या बातचीत की? कैसे बातचीत की? फिर अंत में इस बातचीत के आधार पर कुछ समझ बनाने की कोशिश करेंगे।

बातचीत ऐसे शुरू हुई   
गुरुजी बड़े मृदुभाषी और बच्चों के बीच आसानी से घुल-मिल जाने वाले प्रतीत हो रहे थे। यह बात आगे सही भी साबित हुई। बातचीत की शुरुआत करते हुए उन्होंने बच्चों से पूछा, "कौन-कौन से जानवर दुध देते हैं?'' इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए कई बच्चे उत्सुक थे। 'भैंस' एक बच्चे ने कहा। दुसरे बच्चे ने कहा 'गैय्या', एक बच्ची ने कहा 'बकरी', यह सब सुनकर गुरुजी ने कहा, “एक नाम और बताओ, जो तुम्हारे मन में नहीं आ रहा है। तुम उसे घर में पालते भी हो।'' फिर कई बच्चे एक साथ बोलने लगे, 'काडरो' (काडरो माने भेड़) "तुम जानत हो, काडरो दूध देती है, पर वह और क्या काम आवत है?'' गुरुजी ने स्थानीय लहजे में पूछा। बच्चों ने उसी तरह से जबाब देते हुए कहा ‘बाका शिकार बनत है', 'भेड़ बच्चा देत है', 'भेड़ लेंडी करत है।' इस पर कक्षा में हंसी का माहौल छा गया। इसके उपरांत एक-दो बच्चों ने बताया, 'भेड़ का ऊन कतरा जाता है', 'इसका कम्बल बनता है। इसके बाद बड़े गुरुजी ने आगे बातचीत शुरू की, “अब जे बताओ, कौन-कौन जानबर मांस खात हैं?' तब बच्चे एक-एक कर बताने लगे - कुत्ता, भेड़िया, शेर आदि। इसके बाद बड़े गुरुजी ने चर्चा को और आगे बढाया, "कौन-कौन से जानवर घर में पाले जाते हैं?"बच्चों ने जवाब दिए, “मुर्गी-मुर्गा, तोता, बिल्ली, गाय, बकरी, भेड़, हाथी।'' गुरुजी ने पूछा, "कौन-कौन से पक्षी जमीन की सफाई करते हैं? जैसे तुमने कुछ पक्षियों को मरे हुए ढोरों को खाते हुए देखा होगा। कौन-कौन से पक्षी उन्हें खाते हैं?" इस पर बच्चों ने बताया, “गिद्ध व कौआ।''

यहां ध्यान देने की बात यह है कि उक्त चर्चा में अधिकतर बच्चों की काफी भागीदारी थी और गुरुजी सभी को बोलने का मौका दे रहे थे और बच्चे कक्षा में सक्रिय रूप से भाग ले रहे थे। कक्षा को जीवंत बनाए रखने के लिए शिक्षक बीच-बीच में इस तरह की बातें भी जोड़ रहे थे जैसे - मिट्टू सफेद होता है तो सभी ने कहा हरा। मिठू किस-किस के यहां पला हुआ है? वह क्या-क्या बोलता है? क्या-क्या खाता है? इसके बाद उन्होंने पूछा, "और कौन-कौन से पक्षी पाले जाते हैं?'' किसी ने कहा - परेवा। तो गुरुजी ने बताया कि परेवा को कबूतर भी कहते हैं। पुराने ज़माने में कबूतरों का उपयोग पोस्टमेन के रूप में भी किया जाता था। उसके पैर में चिट्ठी बांध दी जाती थी और वह चिट्ठी को पाने वाले तक पहुंचा देता था जैसे कि आजकल डाकिया काम करता है। “तुम जानते हो कि डाकिया क्या काम करता है?'' तो बच्चों ने बताया कि चिट्ठी लाता है। हां, राजघाट से जो चिट्ठी आती है उसे वह लाता है। इसी तरह से उन्होंने बताया कि मैना भी पाली जाती है। वह काले रंग की होती है। फिर उन्होंने मुर्गा-मुर्गी पालने के बारे में बताया। आगे उन्होंने बच्चों से बातचीत जारी रखते हुए पूछा, "अंडा कौन देता है? मुर्गा या मुर्गी।'' तो बच्चों ने बताया 'मुर्गी।' इस पर उन्होंने कक्षा को सक्रिय बनाने के लिए एक सवाल और पूछा, “एक तालाब है। उसमें एक खम्बा है। उस पर एक मुर्गा बैठा हुआ है। बताओ, मुर्गा अंडा कहां देगा?" रामकिसन ने बताया, “पानी में।" तब गुरुजी ने आश्चर्य जताते हुए पूछा, "मुर्गा अंडा पानी में देगा?'' तब तक राम किसन समझ गया कि उसने कुछ गलती की है। मुर्गा अंडा देता ही नहीं है।

यहां देखने की बात यह है कि गुरुजी कक्षा में गति बनाए रखने के लिए इस तरह की बातें भी करते रहे जिससे बच्चों का ध्यान कक्षा में बना रहा। इसके बाद उन्होंने कहा, "तुम लोगों ने अंडा खाया होगा लेकिन हमें तो कभी नहीं खिलाया। और तुम सबने टी. वी. पर अंडे का विज्ञापन भी देखा होगा 'संडे के संडे खूब खाओ अंडे'।" फिर उन्होंने नई बात शुरू की कि कौन-से जानवर जमीन पर रहते हैं? जवाब में बच्चों ने बताया कि शेर, हाथी, भैंस, गाय, बकरी। बातचीत को एक नया मोड़ देते हुए गुरुजी ने कहा, “अब तुम्हें एक खेल खिलाते हैं।  - चिड़िया उड़, ..........।"

चिड़िया उड़ .....   
फिर गुरुजी ने खेल के बारे में समझाया कि कोई चीज़ उड़ने वाली होगी तो उसे दोनों हाथ उठाकर उड़ाना है और जो जीव-जंतु ज़मीन पर रहते हैं उनके लिए अपने हाथ नीचे ही रखना है। जिन्होंने जमीन पर रहने वाले जानवरों को उड़ा दिया, उन्हें गाना सुनाना पड़ेगा। उन्होंने पांच मिनट तक कक्षा में बैठे-बैठे ही यह खेल खिलवाया। बच्चों ने इस खेल का भरपूर आनन्द लिया। इस खेल के उपरांत गुरुजी ने पालतू जानवरों पर बातचीत शुरू की - कौन-कौन से जानवर पाले जाते हैं। बच्चों ने गाय, भैंस, बकरी, भेड़ आदि के बारे में बताया। फिर उन्होंने पूछा, "भैस किस रंग की होती है? उससे हमें क्या-क्या मिलता है? गाय किम रंग की होती है? उससे हमें क्या-क्या मिलता है? उसका दूध किस-किस काम में आता है?'' बच्चों ने बताया, "गाय के दूध से मठा बनता है, घी बनता है, दही बनता है, रसगुल्ला बनता है आदि।'' इस तरह बच्चों के विचार आते रहे और गुरुजी बात को आगे बढ़ाते रहे। इसके बाद उन्होंने गाय-भैंस के गोबर पर भी बात की कि गोबर हमारे क्या-क्या काम आता है? बच्चों ने बताया, "उसके कंडे बनते हैं, कंडे जलाने के काम में आते हैं। गोबर से हमें खाद मिलती है जो खेतों में डाली जाती है।'' इसके बाद एक बच्चे ने कहा कि स्कूल के पेड़-पौधों में भी खाद डाली जाती है। इस पर गुरुजी ने पूछा, "पेड़-पौधों में खाद डालने से क्या-क्या होता है?" बच्चों ने बताया, “इससे पौधे बढ़ते हैं।' तब गुरुजी ने बताया कि जिस तरह से हम दूध, दही, दाल, सब्ज़ी आदि चीजें खाते हैं तो उससे हमारा शरीर तंदुरुस्त बनता है, वैसे ही खाद से पौधे तंदुरुस्त बनते हैं। फिर उन्होंने कुछ और छुट-पुट सवालों का दौर जारी रखा, "बैल किस काम में आता है? बैल किसके-किसके यहां पला हुआ है?'' बच्चों ने बताया, "बैल हल जोतने के काम में आता है?" गुरुजी ने पूछा, “कुत्ता किस काम में आता है, कुत्ता किस-किस के यहां पला हुआ है?" कुछ बच्चों ने बताया, उनके यहां कुत्ता पला हुआ है। फिर गुरुजी ने कुत्ते के आज्ञाकारी होने की बात बताई। और बच्चों से पूछा, "आज्ञाकारी माने जानते हो?'' बच्चों की तरफ से चुप्पी रही तो उन्होंने बताया, “अगर मैं तुमसे कहूं, जाओ तुम पानी ले आओ या स्कूल की क्यारी में पानी डाल दो तो तुम हमारा काम कर देते हो, इसका अर्थ हुआ कि तुम आज्ञाकारी हो।'' इसके बाद उन्होंने कुत्तों के काटने और उसके इलाज के रूप में सुई लगाने के बारे में चर्चा की और बच्चों को बताया कि अगर कोई पागल कुत्ता काट ले तो उसके लिए सुई लगानी पड़ती है। उन्होंने पूछा, सुई कहां पर लगाई जाती है?" तो कुछ बच्चों ने कहा, बांह पर। कुछ ने कहा, कूल्हे पर। एक बच्चे ने कहा, पेट पर। तो गुरुजी ने कहा, "हां, इसने सहीं बताया।'' गुरुजी ने उसे शाबाशी भी दी।*

बातचीत के बहाने    
इस दौरान बहुत-सी बातों को याद रखने में हमें दिक्कत तो आ रही थी क्योंकि उनकी बातें इतनी गति से हो रही थीं कि पूरी बातचीत को नोट कर पाना मुश्किल लग रहा था। कई बार लगता था कि बातचीत दिशा भटक रही है या गुरुजी फालतू बातें भी कर रहे हैं, लेकिन इस सब से एक बात साफतौर पर उभरकर आ रही थी कि शिक्षक इस पीरियड के दौरान सभी बच्चों को बातचीत करने का खुलकर मौका दे रहे थे। बच्चों ने अपने परिवेश में जो कुछ भी देखा है, समझा है उसे शिक्षक बातचीत के जरिए कक्षा में बच्चों से बुलवा पा रहा था। बच्चे अपने अनुभवों के आधार पर, अपने अवलोकनों के आधार पर शिक्षक से बातचीत कर रहे थे। गुरुजी ने भी बच्चों से बातचीत के दौरान एक तारतम्य बनाए रखा था।

आमतौर पर शिक्षकों के सामने यह समस्या होती है कि 5-10 मिनट तक बच्चों से बातचीत करने के बाद उसे आगे कैसे बढ़ाया जाए या चर्चा को क्या दिशा दी जाए। कई बार तो


*आजकल रीज से बचाव के लिए ऐसे टीके भी मिलते हैं जिन्हें पेट पर लगाना शरूरी नहीं है


हमें यह भी नहीं सूझता कि विषय को आगे कैसे बढ़ाएं? क्या बात करें जिसमें सारे बच्चे शामिल हों? लेकिन यहां पर बड़े गुरुजी की तारीफ करनी होगी कि गुरुजी बातचीत को संतुलित ढंग से आगे बढ़ा रहे थे और बच्चों से पशु-पक्षियों पर भी आसानी से बात करते जा रहे थे।

इस पूरी चालीस मिनट की बातचीत में कहीं से यह नहीं लगा कि कक्षा का वातावरण नीरस हो रहा हो और बच्चों को कक्षा में आनन्द नहीं आ रहा हो। बच्चे जोश के साथ बातचीत में हिस्सा ले रहे थे। इस पूरे पीरियड के दौरान कोई बच्चा बाहर पानी पीने, पेशाब करने नहीं गया, न ही कक्षा में बोरियत के लक्षण दिखाई दिए। जबकि यह देखा जाता है कि नीरसता होने पर बच्चे कक्षा से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढते हैं। इसी तरह बातचीत में रुचि बनाए रखने हेतु बड़े गुरुजी ने बच्चों को बीच-बीच में कविता सुनाने के मौके भी दिए। मजेदार बात यह रही कि इस पूरी बातचीत के दौरान गुरुजी कुर्सी पर बैठे रहे, लेकिन फिर भी इस कक्षा को हम एक अच्छी कक्षा कह सकते हैं क्योंकि इसमें बच्चे सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे और अपने अनुभवों को व्यक्त कर रहे थे। वे खुलकर अपनी बात रख रहे थे, उनमें कोई हिचकिचाहट नहीं थी। इस पूरी प्रक्रिया से यह बात स्पष्ट होती है। कि एक शिक्षक के पास बच्चों से बातचीत करने का, घुलने-मिलने का कौशल होना चाहिए तभी वे बच्चों के साथ कक्षा की पूरी प्रक्रिया को जीवंत बना सकते हैं - जैसा कि बड़े गुरुजी की इस कक्षा से हुआ था।


कमलेश चंद्र जोशी: प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े हैं। इन दिनों लखनऊ में प्राथमिक शिक्षा के संदर्भ केन्द्र नालंदा में कार्यरत हैं।