जे. बी. एस. हाल्डेन
शरीर की व्यवस्थाएं : भाग-12
अब तक मैंने वृद्धि के बारे में कुछ नहीं कहा है। यह किस्सा भी बहुत ही दिलचस्प है क्योंकि एक अकेली कोशिका से पुरे वयस्क इंसान का विकास इस बात पर निर्भर है कि विभिन्न हिस्सों की वृद्धि दर फर्क होती है। उदाहरण के लिए, जब आप करीब तीन महीने के थे, यानी जन्म से लगभग 6 महीने पहले, तब आपके न हाथ थे, न पैर जबकि सिर, धड़ और एक पूंछ जरूर थी। उस समय आपके धड़ के चार बिन्दुओं की कोशिकाएं अपनी पड़ोसी कोशिकाओं के मुकाबले कहीं तेजी से विभाजित होने लगती हैं। इसी के फलस्वरूप आपकी भुजाएं कलिकाओं के रूप में नज़र आने लगती हैं। इसके बाद आपकी पूंछ की वृद्धि धीमी पड़ जाती है, और अंततः यह आसपास की कोशिकाओं की वृद्धि से ढक जाती है। पुंछ तो आपके शरीर में अब भी है, कंकाल की जांच करने पर इसे देखा जा सकता है। आपके जन्म के बाद से आपका सिर बहुत ज्यादा नहीं बढ़ा है। इसके विपरीत आपका धड़ काफी बढ़ा है और हाथ-पैर तो और भी ज्यादा बढ़े हैं। यदि सारे अंग एक-सी गति से बढ़ते तो एक बड़े सिर और इंठ जैसे हाथ-पैर वाले राक्षस का रूप बन जाता।
वृद्धि: ज़रूरतें अलग-अलग
अलबत्ता अन्य जंतुओं में मामला थोड़ा अलग होता है। मसलन, शरीर की तुलना में देखें तो किसी नवजात बछड़े या अश्वशावक (टट) की टांगें तुलनात्मक रूप से गाय या घोड़े की अपेक्षा ज्यादा लंबी होती हैं। इसका मतलब यह है कि आने वाले समय में इनमें टांगों की वृद्धि धड़ की अपेक्षा धीमी होती है। जाहिर है कि यह बात ऐसे जानवरों के लिए फायदेमंद होगी जिन्हें जन्म के कुछ ही दिनों बाद दौड़भाग शुरू कर देना पड़ती है। पहेली तो यह पता लगाने की है कि यह फायदेमंद स्थिति हासिल किस तरह होती है।
यदि आप वयस्क हैं तो आपके कुछ ही अंगों की कोशिकाएं विभाजित हो रही हैं। आपकी चमड़ी, बालों और नाखूनों समेत, लगातार नई बनती रहती है। यही स्थिति आंतों जैसे अंदरूनी अंगों में भी होती है। और खून की कोशिकाएं भी लगातार नई-नई बनती रहती हैं। शायद आपको लगे कि शरीर के शेष भागों में वृद्धि की क्षमता नहीं बची है। ऐसा नहीं है। आपकी कोई भी चोट ठीक हो जाती है सिर्फ चमड़ी की ही नहीं बल्कि अधिकांश आंतरिक अंगों की चोट भी ठीक हो जाती है। टूटी हड्डियां जुड़ जाती हैं। हां इतना ज़रूर है कि बच्चों की अपेक्षा वयस्कों में ज्यादा समय लगता है।
कभी-कभी चमड़ी पर या शरीर के अंदर कोई फंसी हो जाती है। कभी-कभी कुछ कोशिकाएं बेलगाम वृद्धि करने लगती हैं और शरीर के अन्य अंगों में पहुंचने लगती हैं। यदि इन कोशिकाओं को हटाया न जाए या एक्स-रे या रेडियम की मदद से न मारा जाए, तो हो सकता है कि आपको कैंसर हो जाए जो जानलेवा भी हो सकता है। कैंसर की समस्या का समाधान तब हासिल होगा जब हम यह समझ लें कि शरीर की अधिकांश कोशिकाएं निर्धारित समय पर विभाजन क्यों बंद कर देती हैं। हमें यह भी समझना होगा कि वृद्धि का नियमन कैसे होता है; कि एक शिशु के शरीर का प्रत्येक अंग एक विशेष दर से बढ़ता है और एक सामान्य वयस्क तैयार होता है। मेंढ़क, न्युट व अन्य जंतुओं के अंडों पर किए प्रयोगों से इसके बारे में हमें थोड़ा-बहुत तो पता है। इन जंतुओं के अंडों में वृद्धि की सामान्य प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना अपेक्षाकृत आसान होता है। मसलन, हम जानते हैं कि भूणावस्था में चमड़ी की कुछ कोशिकाएं, आसपास के अंगों द्वारा बनाए गए कुछ रसायनों के प्रभाव से, तंत्रिका तंत्र की कोशिकाओं में तब्दील हो जाती हैं। यदि न्यूट के विकासमान अंडे की चमड़ी के नीचे कुछ रसायन इंजेक्ट कर दिए जाएं तो चमड़ी तंत्रिका तंत्र में तब्दील हो जाती है। हम यह भी जानते हैं कि किमी घाव के ठीक होने वक्त कोशिकाओं का जो तेजी से विभाजन होता है, वह कुछ हद तक घाव के आसपास की मृत कोशिकाओं द्वारा बनाए रसायनों की वजह से होता है। इस प्रक्रिया पर तंत्रिका तंत्र का नियंत्रण नहीं होता क्योंकि ऐमी भुजा के घाव भी ठीक हो जाते हैं जिसकी तंत्रिकाएं काट दी गई हैं। फिलहाल मैं इस समस्या के छोटे-से हिस्से पर काम कर रही हूँ। मैं यह समझने की कोशिश कर रहा हूं कि मापन के ज़रिए दो अलग-अलग अंगों की वृद्धि दर की तुलना करने का अच्छा तरीका क्या होगा?
शरीर को जानना क्यों जरूरी
बदकिस्मती से, इंसानों की शरीर क्रिया को व्यवस्थित अध्ययन सिर्फ मेडिकल छात्र करते हैं और इस विषय की सारी किताबें उन्हीं के लिए लिखी गई हैं। मुझे लगता है कि सब लोगों को मानव शरीर रचना और शरीर क्रिया के बारे में थोड़ा-बहुत सीखना चाहिए। इसके कई कारण हैं, पहला तो यह है कि इसके बगैर हम प्राथमिक चिकित्सा या स्वच्छता की बातें नहीं समझ सकते जबकि ये तो सबके लिए ज़रूरी है। दूसरा कारण यह है कि जीव-विज्ञान का यही सबसे प्रत्यक्ष तरीका है। आखिर खुद के बारे में जानने से पहले बच्चे पेड़-पौधों और कीड़े-मकोड़ों का अध्ययन क्यों करें?
तीसरा कारण यह है कि (यदि हम कुछ न सीखें तो) यह ज्ञान चिकित्सा व्यवसाय का एकाधिकार बन जाएगा और उत्पादन पर एकाधिकार की तरह ज्ञान पर एकाधिकार भी बुरी बात है। मुझे चिकित्सा-विज्ञान पर बहुत भरोसा है, मगर मैं कदापि नहीं चाहूंगा कि डॉक्टर लोग समाज में वह स्थान हथिया लें जहां मध्य युग में पुरोहित काबिज थे। सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति कुछ डॉक्टरों का रवैया मुझे 600 साल पहले के पुरोहितों (clergy) के रवैये की याद दिला देता है।
चौथा कारण यह है कि बड़े होते-होते हम सभी प्रजनन की क्रिया के बारे में सीखते ही हैं। मगर इसमें से अधिकांश अंधविश्वास होते हैं, वह भी गंदे किस्म के अंधविश्वास। इस संदर्भ में स्कूलों के विशेष पाठ असंतोषप्रद हैं। अलबत्ता हम इसके बारे में शरीर व मस्तिष्क के सामान्य अध्ययन के दौरान सीख सकते हैं। जन्म से पूर्व और जन्म के उपरान्त एक शिशु की वृद्धि एक ही प्रक्रिया के दो पहलू हैं। तो दोनों की बात बराबर सहजता से करने में कोई अड़चन नहीं होना चाहिए और जन्म से पूर्व भी शिशु की देखभाल उतनी ही मुस्तैदी से करने में क्या परेशानी है, जितनी जन्म के बाद की जाती है।
अंतत: स्वयं का अध्ययन विज्ञान के दार्शनिक नज़रिए का एक अमूल्य परिचय भी है। शायद ही कोई सोचता हो कि वह एक मशीन है। मगर एक मायने में हम मशीन ही हैं, और एक उतने ही अहम मायने में हम मशीन नहीं भी हैं। अठारवीं सदी के एक पदार्थवादी दार्शनिक डाइडेरॉट और ला मेट्रिक के कई कथन बहुत सही थे, और कई तरह से हम उनके विचारों से भी ज्यादा मशीन हैं। मगर उनका नज़रिया बहुत एकतरफा था। एक अन्य दार्शनिक हेगल दुसरी अति पर चले गए। माक्र्स और उनके साथ एंजेल्स ने मशीनी और भाववादी मतों को जोड़ने की कोशिश की। हालांकि उनका दर्शन अस्सी साल पुराने विज्ञान पर टिका है। और इसमें सुधार की जरूरत है, मगर उनके विचार आज भी विज्ञान; खासतौर से जीवन से संबंधित विज्ञान; को समझने का एक कीमती साधन हैं।
जे. बी. एस. हाल्डेनः ( 1892-1961) प्रसिद्ध अनुवांशिकी विज्ञान एवं विख्यात विज्ञान लेखक। प्रस्तुत निबंध 1949 में प्रकाशित 'वॉट इज लाइफ' संकानन से लिया गया है।
अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य की स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं।