दिन-पर-दिन कम्प्यूटर और छोटे, और पतले होते जा रहे हैं। कुछ नवीनतम कम्प्युटर तो 150 पन्ने की कॉपी जितने पतले हो गए हैं। इन्हें इतना छोटा बनाने की तकनीक विकसित कर पाने के दो पहलू हैं। एक तो ज्यादा कार्यकुशल उपकरण बना पाना, खासतौर पर ऐसे उपकरण बनाना जो ज्यादा गर्म नहीं हो पाते हों - तीव्रतम गणनाओं के लिए, जानकरी के संग्रहण के लिए आदि। दुसरा ऐसी स्क्रीन बना पाना जो अत्यन्त पतली व चपटी हो पर साथ ही उच्च गुणवत्ता की तस्वीरें दिखा सके। इस लेख में हम दूसरे पहलु की चर्चा करेंगे जिससे यह संभव हो पाता है।
आपको शायद मालुम ही होगा कि इन 'नोट बुक कम्प्यूटर' या साधारण कम्प्यूटर की आधुनिक चपटी स्क्रीन L.C.D. कहलाती है यानी 'लिक्विड क्रिस्टल डिस्पले'। इसका अर्थ हुआ द्रवीय रवों से बनी हुई स्क्रीन। आपका इससे परिचय इलेक्ट्रॉनिक घड़ियों की वजह से ज़रूर होगा क्योंकि उनमें काले रंग में समय, तारीख व अन्य जानकारियां इसी के कारण दिखाई देती हैं। परन्तु इलेक्ट्रॉनिक घड़ियों की स्क्रीन तो द्रव जैसी बिल्कुल भी नहीं दिखती फिर 'लिक्विड क्रिस्टल डिस्पले' क्यों कहलाती है? अगर आप ऐसी स्क्रीन को धीरे से दबाकर देखें तो समझ में आएगा कि साधारण कम्यूटर मॉनीटर या टी.वी. स्क्रीन की तरह ये उतनी ठोस नहीं महसूस होती। (इलेक्ट्रॉनिक घड़ियों में आपको कांच के नीचे उपस्थित L.C.D. को छूकर देखना होगा। दरअसल इनमें दो पारदर्शी पट्टियों/परतों के बीच द्रवनुमा पदार्थ रखा जाता है। ये काम कैसे करती हैं इसे जानने से पहले आइए यह समझ लें कि 'द्रबीय रवे' यानी लिक्विड क्रिस्टल आखिर होते क्या हैं?
द्रवीय रवे यानी क्या?
‘लिक्विड क्रिस्टल' शब्द से आपको लगता है न कि अत्यन्त सूक्ष्म रवों से बना हुआ द्रव होगा यह? शायद पहली बार यह शब्द इसी रूप में इस्तेमाल हुआ था। इस शब्द का सबसे पुराना इस्तेमाल एलेक्जेंडर डूमा के एक उपन्यास में मिलता है जिसमें उसने एक महिला का वर्णन करते हुए लिखा है कि उसकी आंखें ‘द्रवीय रवों' की तरह चमक रही थीं। यह वर्णन पढ़ते ही ऐसी चमकीली आंखों की तस्वीर उभर आती है।
परन्तु L.C.D. में जो द्रबीय रबे इस्तेमाल किए जाते हैं वे इस वर्णन से बहुत ही अलग होते हैं। अगर आप उन्हें परखनली में डालें तो वे दुधिया नजर आते हैं! अगर उन्हें गर्म करें तो वे एकदम पारदर्शी हो जाते हैं।
यह सब पढ़ते हुए लग सकता है। कि उपरोक्त जुमला ही काफी भ्रामक है, है न? लिक्विड क्रिस्टल के संदर्भ में हमें यह ध्यान रखना होगा कि दरअसल यह शब्द पदार्थ की एक ऐसी अवस्था चिन्हित करता है जिसके प्रकाशकीय गुणधर्म ठोस पदार्थों जैसे होते हैं परन्तु वह बहता तरल की तरह है।
1888 में फ्रेडरिक रेनिटाइज़र ने बताया था कि जब उसने कोलेस्टेराइल बेन्जोएट को तैयार करके गर्म किया तो उसने दो मजेदार नई बातें देखीं। उसके मुताबिक 145 डिग्री सेंटीग्रेड ताप पर ठोस रवे दूधिया द्रव में परिवर्तित हो जाते हैं (पहला द्रवीय रवा था यह)। जब इसे और गर्म किया जाता था तो 179 डिग्री सेंटीग्रेड ताप पर यह द्रव एकदम पारदर्शी बन जाता था। जब उसने इसे ठंडा किया तो वहीं परिवर्तन उलटे क्रम में देखने को मिले।
विज्ञान के संदर्भ में 'लिक्विड क्रिस्टल' शब्द का इस्तेमाले पहली बार ऑटो लेहमेन ने सन् 1900 में किया। अब ‘लिक्विड क्रिस्टल' के सामान्य गुणधर्म सब पहचानते हैं कि पदार्थ की द्रवीय रवे वाली अवस्था में वह ठोस के प्रकाशकीय गुणधर्म व तरल जैसा बहाव प्रदर्शित करता है।
तरल की बहाब संबंधी विशेषताओं के बारे में तो हमें अच्छा खासा अहसास होता है कि हम उन्हें एक परखनली से दूसरी में उड़ेल सकते हैं, उनकी बूंदें बन सकती हैं, वे कुछ सतहों पर फैल जाते हैं आदि-आदि। परन्तु ठोस रवों के ऐसे कौन से प्रकाशकीय गुणधर्म हैं जो इन द्रवीय रवों में पाए जाते हैं? इनमें सबसे महत्वपूर्ण है जिसे प्रकाशकीय द्विअपवर्तन (Optical birefringence) कहा जाता है। इस गुणधर्म को प्रदर्शित करने वाले माध्यम में प्रकाश की गति अलग-अलग होगी - और वह इस बात पर निर्भर करेगी कि प्रकाश का पोलेराइजेशन यानी ध्रुवीकरण किस प्रकार का हो रहा है।
ऊपर का पोलेरॉयड एक दिशा विशेष को छोड़कर अन्य सब दिशाओं में कंपित हो रही प्रकाश की किरणों को रोक देता है। यानी कि हमें ध्रुवीकृत प्रकाश प्राप्त हो जाता है। ( अ ) अगर अब दूसरा पोलेरॉयड इस तरह से रखा गया है कि वह जिस दिशा में कंपित होने वाली किरणों को गुजरने देगा, वह आपतित किरणों के कंपन की दिशा के लंबवत है तो उसमें से ये प्रकाश किरणें गुजर नहीं पाएंगी। ( ब ) परन्तु अगर दूसरे पोलेरॉयड को घुमाकर ऐसे रखा गया है कि दोनों दिशाएं एक दूसरे के समानांतर हैं तो दूसरे पोलेरॉयड में से भी प्रकाश किरणे आर-पार निकल जाती हैं।
धुवीकृत प्रकाश
परन्तु प्रकाश का पोलेराइजेशन या ध्रुवीकरण होता क्या है? आपको मालूम ही होगा कि प्रकाश दरअसल एक विद्युत चुम्बकीय तरंग है जिसमें विद्युतीय क्षेत्र व चुम्बकीय क्षेत्र एक दूसरे की लम्बवत दिशा में लगातार कंपित होता रहता है। और इन दोनों क्षेत्रों के कंपन, प्रकाश तरंग जिस दिशा में गति कर रही है उसके लम्बवत होते हैं।
इसका अर्थ यह हुआ कि अगर प्रकाश किरण 'जेड' अक्ष की दिशा में जा रही है तो विद्युतीय क्षेत्र 'एक्स' या 'वाइ' सतह में कहीं भी पाया जा सकता है। अब आप अगर इस प्रकाश किरण के रास्ते में एक धुवित फिल्म या पट्ट्टी यांनी पोलेरॉयड रख दें तो उस फिल्म की संरचना के अनुसार एक दिशा को छोड़कर अन्य संब दिशाओं में कंपित होने वाली प्रकाश किरणें रुक जाएंगी, उस पट्टी में से गुज़र नहीं पाएंगी। इसलिए इस फिल्म में से गुजरकर दूसरी ओर बाहर निकलने वाले प्रकाश में केवल एक विशेष दिशा में कंपित होने वाली प्रकाश किरणें ही बचेंगी। इसे धुब्रीकृत प्रकाश कहते हैं - और इसमें विद्युतीय क्षेत्र के कंपन की दिशा और प्रकाश के गमन की दिशा, ध्रुवीकरण की सतह परिभाषित करते हैं। (चित्र-1)
द्रव में भी क्रमबद्धता
द्रवीय रवों की ओर लौटते हुए, उनके प्रकाशकीय गुणधर्म समझने के लिए हमें एक और जानकारी की जरूरत होगी। द्रवीय रवों में उपस्थित अणु लंबे होते हैं, यानी उनकी लम्बाई, चौड़ाई की तुलना में कहीं अधिक होती है। यहां की चर्चा के उद्देश्य से हम उन्हें छड़नुमा मान सकते हैं? चकतीनुमा अणुओं से बने द्रवीय रवे भी पाए जाते हैं परन्तु हम उनकी चर्चा यहां नहीं करेंगे।
ठोस रवे की अवस्था में ये छड़नुमा अणु एक ही दिशा में चिन्हित करते हुए व्यवस्थित रूप से जमे होते हैं। जब ये रवे पिघलते हैं तो अणु अपने स्थान से तो इधर-उधर हो जाते हैं परन्तु वे फिर भी इसी दिशा विशेष की तरफ चिन्हित करते रहते हैं। यही है रवे की द्रवीय अवस्था यानी 'लिक्विड क्रिस्टल फेज़'; अणुओं के इस विशेष दिशा में जमे हुए होने के कारण ही द्रवीय-रवे सामान्य द्रवों से फर्क गुणधर्म दर्शाते हैं। अगर आप इन्हें और गर्म करें तो अणुओं के अक्ष की दिशा में भी परिवर्तन होने लगते हैं जिससे उनका दिशाबद्ध क्रम बिखर जाता है और हमें समदिक द्रव (Isotropic liquid) मिल जाता है। (चित्र-2)
द्रवीय रवों में उपस्थित अणु लंबे अर्थात छड़नुमा होते हैं, यानी उनकी लम्बाई, चौड़ाई की तुलना में कहीं अधिक होती है। क. ठोस रवे की अवस्था में ये छड्नुमा अणु एक ही दिशा में चिन्हित करते हुए व्यवस्थित रूप से जमे होते हैं। ख. जब ये रवे पिघलते हैं तो अणु अपने स्थान से तो इधर-उधर हो जाते हैं परन्तु वे फिर भी इसी दिशा विशेष की तरफ चिन्हित करते रहते हैं। यही है रवे की द्रवीय अवस्था यानी 'लिक्विड क्रिस्टल फेज़' या 'नेमेटिक फेज'; अणुओं के इम विशेष दिशा में जमे हुए होने के कारण ही द्रवीय-रवे सामान्य द्रवों से फर्क गुणधर्म दर्शाते हैं।
ग. अगर इन्हें और गर्म करें तो अणुओं के अक्ष की दिशा में भी परिवर्तन होने लगते हैं जिससे उनका दिशाबद्ध क्रम बिखर जाता है और हमें समर्दिक या आइसोट्रोपिक द्रव मिल जाता है। जो कोई भी दिशा विशेष गुण प्रदर्शित नहीं करता।
द्विअपवर्तनः द्रवीय रवों में एक और गुणधर्म होता है कि यदि ध्रुवीकृत प्रकाश की दिशा, अणुओं के जमाव की दिशा के समानांतर या उसके लंबवत नहीं होती तो प्रकाश दो किरणों में बंट जाता है। बंटने वाली इन दो प्रकाश किरणों में से एक का ध्रुवीकरण अणुओं के जमाव की दिशा में होता है और दुसरी का ध्रुवीकरण उससे लंबवत दिशा में। यही द्वि अपवर्तन कहलाता है।
ध्रुवीकृत प्रकाश इन द्रवीय रवों में अलग-अलग गति से गमन करता है। गति कितनी होगी यह इस बात पर निर्भर करता है कि अणुओं के जमाव की दिशा क्या है। इस अवस्था में एक और गुणधर्म होता है कि यदि ध्रुवीकृत प्रकाश की दिशा, अणुओं के जमाव की दिशा के समानांतर या उसके लंबवत नहीं होती तो प्रकाश दो किरणों में (किरण पुंजों में) बंट जाता है। बंटने वाली इन दो प्रकाश किरणों में से एक का ध्रुवीकरण अणुओं के जमाव की दिशा में होता है और दूसरी का ध्रुवीकरण उससे लंबवत दिशा में किसी पदार्थ में इन दोनों गुणधर्मों का एकसाथ होना ही द्विअपवर्तन (birefringence) कहलाता है। (चित्र-3)
दिशा में घुमाव
अणु किस दिशा में क्रमबद्ध होंगे यह आप कैसे तय कर सकते हैं? इतना मुश्किल नहीं है यह। अगर आप एक कांच की साफ पट्टी लें, उसे कपड़े या कागज़ से किसी दिशा विशेष में घिस लें और फिर उस पर द्रवीय रवों की एक बूंद टपकाएं - तो द्रवीय रवों के अणु उस दिशा में जम जाएंगे जिस दिशा में आपने पट्टी को घिसा/रगड़ा था। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि घिसने से कांच की पट्टी पर अत्यन्त बारीक खांचे बन जाते हैं, और अणु उनमें आसानी से जम जाते हैं, बैठ जाते हैं। एक बार अणुओं की एक तह इस तरह दिशा-विशेष में जम गई तो उनके ऊपर की परतें भी उसी दिशा में क्रमबद्ध होने लगती हैं और ऐसा कई परतों तक चलता रहता है। यह भी द्रवीय रवों की एक खासियत है।
अब अगर आप एक और घिसी हुई कांच की पट्टी लें और उसे इस बूंद के ऊपर इस तरह रग्व दें कि घिमाव की दिशा पहली पट्टी की घिसाव की दिशा के लंबवत हो तो हमें एक तरह की रस्मी की घुमावदार सीढी जैसी रचना मिल जाती है। अब अगर आप दो ध्रुवीकृत पट्टियां इनके ऊपर और नीचे रखें जिनका अक्ष कांच की पट्टियों के घिसाब की दिशा से मेल खाता हो तो हमें एक ऐसा उपकरण मिलता है जिसे 'घुमावदार नेमेटिक सैल' (twisted nematic cell) कहते हैं।
इस व्यवस्था में एक तरफ से घुसने वाले प्रकाश का ध्रुवीकरण पहली कांच की पट्टी से चिपके हुए अणुओं की दिशा में होगा। अगर द्रवीय रवों की परत में अणुओं का घुमाव कम है। यानी उस सीढ़ीनुमा संरचना में घुमाव कम है तो घुसने वाला ध्रुबीकृत प्रकाश भी इनके साथ-साथ मुड़ता जाएगा; और दूसरी कांच की पट्टी में से निकलते हुए ध्रुवीकृत प्रकाश का अक्ष दुसरे पोलेरॉयड के अक्ष के समान्तर होगा। यानी कि इस व्यवस्था में से प्रकाश बिना किमी समस्या के गुज़र सकता है।
यह ऐसी व्यवस्था है जिसमें एक तरफ से घुसने वाले प्रकाश का ध्रुवीकरण पहली कांच की पट्टी से चिपके हुए अणुओं की दिशा में होगा। चूंकि दोनों पट्टिओं के बीच मौजूद द्रवीय रवों की परत में अणुओं का घुमाव कम है यानी सीडीनुमा संरचना में घुमाव कम है इसलिए घुसने बाला ध्रुवीकृत प्रकाश भी इनके साथ-साथ मुड़ता जाएगा; और दूसरी कांच की पट्टी में से निकलते हुए ध्रुवीकृत प्रकाश का अक्ष दुसरे पोलेरॉयड के अक्ष के समान्तर होगा। यानी कि दोनों पोलेरॉयड का अक्ष एक दूसरे के लंबवत होने के बावजूद, इस व्यवस्था में में प्रकाश बिना किसी समस्या के गुजर सकते हैं।
लिक्विड क्रिस्टल डिस्प्ले
आपको याद होगा कि कोई ध्रुवीकृत पट्टी अपने से लंबवत दिशा में ध्रुवीकृत प्रकाश को गुज़रने नहीं देती। चूंकि ऊपरी व्यवस्था में (उपकरण में) ऐसा नहीं हो रहा इसलिए अगर आप इस सैल कोष को देखेंगे तो यह चमकदार नज़र आएगा। (चित्र-4)
अगर हम द्रवीय रवों की एक और विशेषता समझ लें तो फिर उसके बाद हम समझ सकते हैं कि L.C.D. स्क्रीन काम कैसे करती है। समझना यह है कि अगर इन दोनों पट्टियों के बीच विद्युत विभवांतर (Electric potential difference) पैदा कर दिया जाए तो उसका क्या असर होगा? लिक्विड क्रिस्टल डिस्पले स्क्रीन में इस्तेमाल की जाने वाली पट्टियों पर मेटल ऑक्साइड की महीन परत चढ़ा दी जाती है। यह इतनी महीन होती है। के इसके बावजूद पट्टियां पारदर्शी बनी रहती हैं।
किसी बैटरी या सैल के दोनों ध्रुवों से स्विच के ज़रिए परिपथ बनाकर इन दोनों पट्टियों को जोड़ देते हैं। अब अगर आप स्विच चालू कर दें तो इस उपकरण में दोनों पट्टियों के बीच एक विद्युत क्षेत्र स्थापित हो जाएगा। अगर विभवांतर एक हद से ज्यादा है। तो अणु इस विद्युत क्षेत्र की दिशा में जम पाएंगे, क्रमबद्ध हो जाएंगे।
याद रखिए कि यह विद्युत क्षेत्र कांच की पट्टी के लंबवत है। ऐसी हालत में चूंकि कांच की पहली पट्टी में से गुजरने वाला प्रकाश अणुओं के जमाव की दिशा में कोई घुमाव नहीं पाता (वे सब ध्रुवीकरण की दिशा के लंबवत हैं। इसलिए शुरुआती ध्रुवीकरण की दिशा बनाए रखते हुए यह प्रकाश दुसरी कांच की पट्टी तक पहुंचता है। वहां पर इसे दूसरा पोलेरॉयड मिलता है जिसकी ध्रुवीकरण की दिशा प्रकाश के ध्रुवीकरण की दिशा से लंबवत है। - इसलिए प्रकाश उसमें से गुज़र नहीं पाता और यह उपकरण प्रकाश के प्रति अपारदर्शी हो जाएगा।
अगर आप विद्युत परिपथ बंद कर दें ऑफ कर दें), तो अणु फिर से शुरुआती घुमावदार सीढ़ी जैसी ध्रुवीकृत अवस्था में व्यवस्थित हो जाते हैं और यह उपकरण फिर से चमकने लगता है! इस तरह हमने पटिटयों के इस उपकरण को अपारदर्शी और पारदर्शी बनाने का तरीका ढूंढ लिया है। इसके आधार पर हम ऐसे बहुत सारे ‘कोष' साथ-साथ जमा सकते हैं और ऐसी विद्युत परिपथ व्यवस्था बना सकते हैं जिससे उनमें से प्रत्येक में, स्वतंत्र रूप में विद्युत क्षेत्र को चालू या बंद करना हम नियंत्रित कर सकें। इसमें सेल के पीछे प्रकाश की व्यवस्था करना भी जरूरी नहीं है, क्योंकि उसके बजाए हम एक दर्पण रखकर काम चला सकते हैं, जिससे हमें सेल से गुज़रने के बाद परावर्तित प्रकाश किरणें दिखेंगी।
इस सब जानकारी के आधार पर सोचने की कोशिश कीजिए कि 'लिक्विड क्रिस्टल डिस्प्ले' काम कैसे करता होगा? अपने आसपास पाई जाने वाली ज्यादातर घड़ियों और केल्क्युलेटर में अंक व अन्य प्रदर्शित करने के लिए ऐसी ही व्यवस्था होती है।
किसी भी L.C.D. स्क्रीन में इस तरह के अनेकों कोष व्यवस्थित रूप से जमे होते हैं। सेल को स्वतंत्र रूप से ऑन/ऑफ किया जा सकता है। रंगीन दृश्य प्राप्त करने के लिए हमें हर कोष को तीन हिस्सों में विभाजित करना होगा, जिसमें से हरेक हिस्से में एक प्राथमिक रंग होगा। जब भी कोष के किसी हिस्से को ऑन किया जाए तो उसके पीछे का रंग दिखाई देगा। प्रत्येक कोष में पाए जाने वाले इन तीन रंगों के मिश्रण से हम जो भी चाहें वो रंग मिल सकता है। आजकल कम्युटर मॉनीटर या टी.वीं, स्क्रीन में पाई जाने वाली L.C.D. डिस्प्ले इससे और भी ज्यादा जटिल होती है। उसकी चर्चा फिर कभी।
सुनील कुमार: आई आई टी चैन्नई में पढ़ाते हैं।
हिन्दी अनुवाद: राजेश बिंदरी।
यह लेख जंतर-मंतर पत्रिका के जुलाई-अगस्त, 2003 अंक से साभार