के. आर. शर्मा
जब भी पक्षियों का जिक्र होता है तो प्रवासी पक्षियों का मुद्दा प्रमुखत उठता है। पक्षियों की चर्बी में प्रवा का मसला काफी अहमियत रखता है। ठंड आते ही प्रवासी पक्षियों के बारे में खबरें देखने पढ़ने को मिलती हैं। आमतौर पर जितनी भी खबरें आती हैं उनसे अक्सर ऐसा लगता है कि प्रवासी पक्षी कुछ खास स्थानों पर ही आते हैं। यदि आप प्रवासी पक्षियों को देखने के लिए भरतपुर अभ्यारण्यें नहीं जा पा रहे हों, तो भी निराश मत होइए। क्योंकि प्रवासी पक्षी सिर्फ अभ्यारण्यों को ही अपना बसेरा नहीं बनाते। सच्च तो यह है कि आप अपने आसपास या किसी दूरदराज़ के गांव में भी प्रवासी पक्षियों के दर्शन कर सकते हैं। बस जरूरत है उन्हें पहचानने का प्रयास करने की। यहां ऐसे कुछ प्रवासी पक्षियों के बारे में बताया जा रहा है, जो इन दिनों आसानी से दिखाई दे जाते हैं।
रवंजन (White Wagtail)
यह पक्षी घरेलू चिड़िया से कद काठी में थोड़ा-सा बड़ा होता है। दशहरे के बाद खंजन अपने यहां के मैदानी इलाकों में दिखाई देने शुरू हो जाते हैं। बरसात के बाद शरद ऋतु का पैगाम लेकर आते हैं ये परिंदे।
खंजन को आप सितंबर से मार्च और कभी-कभी अप्रैल तक अपने यहां देख सकते हैं। खंजन की पीठ और पूंछ का ऊपरी हिस्सा काला, कंठ और छाती वाला हिस्सा सफेद होता है। जब यह मैदान में चल रहा हो तो इसकी पूंछ ऊपर-नीचे हिलती रहती है। अंग्रेजी नाम 'वेगटेल' के अनुसार अपनी पूंछ को तेज़ी से ऊपर-नीचे हिलाते रहने के कारण, काले-सफेद रंग का यह पक्षी अलग ही पहचान में आ जाएगा।
वास्तव में यह पंछी आपको घने जंगलों में दिखाई नहीं देगा। इसको आप नदी, तालाब या पोखरों के किनारे या खुले मैदानी इलाकों में और जमीन पर आसानी से देख सकते हैं। एक बात और, इस पक्षी को देखने के लिए कोई खास प्रयास भी नहीं करना पड़ता क्योंकि ये हमारे आसपास ही रहते हैं। जैसे, कारखानों या शहर के मल-जल से बने डबरों व नालों के आसपास की हरियाली में खंजन को कीड़े-मकोड़े। ढूंढते हुए आसानी से देखा जा सकता है।
हालांकि खंजन से मिलता-जुलता एक पक्षी बारहों मास अपने यहां पर निवास करता है। यह नदी-नालों के किनारे रहता है। इसका नाम है। धोबिन और अंग्रेजी में यह Pied Wagtail के नाम से जाना जाता है। वैसे खंजन को भी धोबिन कहा जाता है। पाइड बेगटेल प्रवास नहीं करता। इसका सिर थोड़े बड़े आकार का होता है। और इसका सिर पूरा काला होता है, केवल भौंहें सफेद होती हैं।
खंजन के साथ ही कुछ इसी तरह के लेकिन फर्क रंग वाले पक्षी भी आते हैं। खंजन से मिलता-जुलता एक पक्षी है जिसका सिर पीले रंग का होता है, इसे पीला खंजन कहा जाता है। हालांकि जब यह हमारे इलाके में प्रवास पर आता है तब इसमें पीला रंग नहीं दिखाई देता। एक और पक्षी को धूसर खंजन के नाम से जाना जाता है क्योंकि इसका शरीर धूसर यानी ग्रे रंग का होता है।
खंजन अपने प्रवास में कितनी नियमितता बरतते हैं इसे समझने के लिए कुछ खंजन पक्षियों की टांगों में छल्ला पहना कर नियमित अवलोकन किए गए। आमतौर पर पक्षियों के प्रवास संबंधी अध्ययन और अवलोकन के लिए उनकी टांग में छल्ला पहना दिया जाता है। और उस छल्ले पर, छल्ला पहनाने वाले का नाम-पता आदि ब्यौरा लिख दिया जाता है। इन पक्षियों को कहीं भी देखे जाने पर पक्षी - अवलोकक या पक्षी -प्रेमी छल्ला पहनाने वाले को खबर करता है कि उसने अमुक-अमुक पक्षी को किस समय, कहां देखा है।
खैर, मुंबई में एक खंजन पक्षी की टांग में छल्ला पहनाकर किए गए अवलोकनों से पता चला कि वो लगातार पांच सालों तक हिमालय में प्रजनन करता था और हर साल मुंबई के एक बगीचे में सितंबर महीने की एक खास तारीख को पहुंचता था। पक्षी प्रवास संबंधी अन्य अध्ययन भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि पक्षियों में प्रवास का मामला काफी नियमित होता है। ये एक ही स्थान पर और नियत समय पर पहुंचते हैं।
थिरथिरा (Red Start)
हो सकता है कि आप खंजन को देखने की कोशिश कर रहे हों और पूंछ को कंपकंपाता हुआ, घरेलू चिड़िया के आकार का पक्षी दिखाई दे जाए। नाम के अनुसार ये अपनी पूंछ को कंपकंपाते रहता है। इसीलिए इसका नाम थिरथिरा पड़ा। इनमें नर और मादा एक समान नहीं होते।
नर धिरधिरा - इसकी पहचान करना आसान है। ऊपर से काला भूरा होता है। पेट और पूंछ नारंगी-लाल होते हैं। जब एक ही स्थान पर खड़ा हो या चल रहा हो तब पूंछ को लगातार कंपकंपाते रहता है।
मादा थिरथिरा - मादा थिरथिरा भूरी-पीली होती है। छाती और पूंछ का रंग नारंगी-लाल होता है; पर यह नारंगी-लाल रंग कम चमक वाला होता है।
ये पक्षी शीतऋतु में हिमालय से चलकर भारत के पठारी हिस्सों में आते हैं। शीतऋतु बिताने के बाद प्रजनन के लिए ये वापस हिमालय के इलाकों में लौट जाते हैं। हिमालय में ये 2400 मीटर से 5200 मीटर की ऊंचाई पर देखे जाते हैं।
थिरथिरा को हम अपने आसपास के बाग-बगीचों में, झाड़ियों में, पेड़ों की नीची डालियों पर, खलिहानों या घर की मुंडेर पर आसानी से देख सकते हैं।
चुपका (Wood Sandpiper)
नदी, तालाब या पोखर के किनारों पर जहां पर थोड़ा कीचड़ हो वहां अनेक पक्षियों को देखा जा सकता है। मसलन सफेद बगुले, गजपांव, टिटहरी वगैरह। इन्हीं पक्षियों के झुंड में आपको चुपका भी दिखाई दे सकता है।
यह बटेर के समान होता है। ऊपर से राख के रंग का, नीचे से हल्की सफेद चित्तियां होती हैं। इसकी गर्दन हल्की पीली-भूरी होती है। यह काफी शर्मिला पक्षी है और अकेले रहना पसंद करता है। रेल या बस में सफर करते समय आप दाएं-बाएं नजर दौड़ाइए; बरसाती डबरों के आसपास यह कीड़ों को खाने में मशगूल दिखेगा।
सामान्य बाटन (कॉमन सेंड पाइपर) - यह भी बटेर के आकार का होता है। यह पक्षी चुपचाप ही कीड़े-मकोड़े चुगता रहता है। पीठ का रंग धूसर, जैतुनी-भूरा और छाती वाला हिस्सा सफेद होता है। चुपका और सामान्य बाटन में फर्क थोड़ा मुश्किल हो जाता है, इसलिए भी क्योंकि इन दोनों का रहवास लगभग समान होता है।
यह बरसात के मौसम में यानी अगस्त में ही भारत के मैदानी भागों में आ जाता है। और मई-जून के महिने में प्रजनन के लिए नम, घासवाले, इलाकों की ओर वापस लौटता है।
रोजी पैस्टर (Rosy Pastor/ Rose coloured Starling) मैना के आकार से काफी मिलती-जुलती यह चिड़िया शीतऋतु से पहले ही प्रवास करती हुई जुलाई-अगस्त में आ जाती है। इसका रंग हल्का गुलाबी होता है और सिर, गर्दन, ऊपरी बक्ष, पंख तथा पूंछ । चमकीली काली होती है। इसे गुलाबी मैना भी कहा जाता है। नर और मादा एक समान होते हैं। रोजी ज्यादातर बरगद, पीपल, गूलर या खेतों के आसपास के पेड़ों पर देखी जाती है। आमतौर पर यह खेतों में खड़ी फसलों को नुकसान पहुंचाती है। यह झुंड में रहना पसंद करती है। कभी-कभी तो इसके सौ या इससे भी बड़े झुंड देखे गए हैं।
रोजी पैस्टर अप्रैल में यहां से विदा ले लेती हैं, और अपने मूल निवास युरोप व पश्चिम एशिया में चली जाती है। रोज़ी पैस्टर की एक दिलचस्प बात है कि भोजन के हिसाब से उसकी आंतों की लंबाई में घट-बढ़ होती है। रोजी पैस्टर का भोजन अपने मूल स्थान यानी कि पश्चिम एशिया और यूरोप में कीट पतंगे आदि होता है। रोज़ी अपने प्रवास के दौरान भारत में जाड़ा बिताने आती है, तब यहां भोजन के लिए शाकाहार उपलब्ध होता है।
रोजी पैस्टर के खान-पान संबंधी अध्ययनों से मालूम हुआ कि भोजन की आदत में बदलाव के साथ ही इसकी आंत की लंबाई में भी बदलाब होते हैं। जब यह बीजों को अपना आहार बनाती है तब इसकी आंत की लंबाई में बढ़ोतरी हो जाती है। और जब इसका आहार कीटपतंगें होता है तब इसकी आंत की लंबाई कम हो जाती है।
अबाबील (Swallow)
अबाबील को तो आप जानते ही होंगे। ठंड के दिनों में सुबह के समय कुछ नीले-सफेद रंग के पक्षी देखने को मिल जाएंगे। सुबह की गुनगुनी धूप सेंकते हुए दो-तीन तरह के, थोड़े अंतर लिए, अबाबील देखने को मिलेंगे। इनमें से एक अबाबील है जिसकी पुंछ में से दो लंबे तार जैसे पंख निकले होते हैं। यह प्रवास नहीं करती। इसका नाम है। वायर टैल्ड स्वैलो।
हमारे यहां प्रवास करने आने वाली अबाबील के पंख नीला-बैंगनी रंग लिए होते हैं और इनके सिर और कंठ लाल-भूरे रंग के होते हैं। इनकी छाती मटमैली सफेद रंग की होती है। इन्हें कॉमन स्वैलो के नाम से जाना जाता है।
कॉमन स्वैलो हिमालय में अप्रैल से जुलाई तक प्रजनन करता है। यदि आप उन दिनों कभी हिमालय की सैर पर जाएं और नैनीताल, कौसानी या रानीखेत में घूम रहे हों तो सुबह या शाम को शहर में ही इनको बड़ी तेजी से उड़ते हुए देखा जा सकता है। ऐसा ही एक अवलोकन हमने रानीखेत में किया था। मैं अपने एक पक्षी प्रेमी मित्र के साथ रानीखेत में दवाई की दुकान में खड़ा था। कुछ अबाबील तेजी से उस दुकान में से आ-जा रहे थे। जिज्ञासावश मैंने दुकानदार से पूछा तो उसने बताया कि इन पक्षियों ने दुकान के अंदर घोंसला बना रखा है। ये बाहर से अपने बच्चों के लिए भोजन लेकर आते हैं। हमने देखा कि अबाबील अपने मुंह में कुछ कीट-पतंगे दबाकर ला रहे थे। थोड़ी देर बाद पता चला कि ये तो वहीं पंछी हैं जो ठंड के दिनों में अपेक्षाकृत गर्म स्थानों पर चले जाते हैं।
अबाबील अपना घोंसला मिट्टी से बनाता है। मिट्टी को ये अपनी चोंच में भरकर लाते हैं, और उसमें अपनी लार मिलाते हैं। यह देखा गया है कि प्रजनन काल में इनमें लार ग्रंथियां बड़ी हो जाती हैं। ज़ाहिर है कि इस दौरान इनको घोंसला बनाने के लिए मिट्टी में लार काफी मात्रा में जो मिलानी पड़ती है। अंडों और बच्चों की परवरिश नर और मादा दोनों मिलकर करते हैं।
के. आर. शर्माः विद्याभवन सोसायटी, उदयपुर में कार्यरत।
चित्रकारः कालं डी सिल्वा।