अरुण कुमार सिंह
जीवनी
वैज्ञानिकों के बारे में यह आम व धारणा है कि उन्हें अपने काम, के अलावा बाकी दुनिया के बारे में बहुत कम जानकारी होती है। वे अपनी सामाजिक-राजनैतिक वास्तविकताओं से बेखबर रहते हैं। लेकिन होल्डेन के बारे में ऐसी धारणाएं फिट नहीं बैठतीं। वे न सिर्फ अपने क्षेत्र में आला दर्जे के थे, बल्कि राजनैतिक और सामाजिक स्तर पर भी काफी सक्रिय थे; और यह सक्रियता भी । इतनी थी कि राजनैतिक मतभेदों के कारण अपना देश इंग्लैंड छोड़कर भारत आ बसे।
जे. बी. एस. डोल्डेन का जन्म 5 नवंबर 1892 को इंग्लैंड में। ऑक्सफोर्ड में हुआ था। उनके पिता जॉन स्कॉट हाल्डेन विख्यात शरीर विज्ञानी थे। पिता की प्रयोगशाला । ही हाल्डेन का खेलने का आंगन थी। छोटी उम्र से ही उनके व्यवहार में बौद्धिक परिपक्वता, तेज़ याद्दाश्त और जल्दी ही आपा खो बैठने का डायनामाइट झलकने लगा था।
स्कूली उम्र से ही हाल्डेन में अकादमिक प्रतिभा के साथ-साथ जबर्दस्त व्यवस्था विरोधी प्रवृत्ति थी, जो आगे चलकर अक्सर नाफरमानी का रूप धारण कर लेती थी। वे सही मायनों में बहुआयामी व्यक्ति थे और एक गणितज्ञ, क्लासिकल विद्वान, दार्शनिक, पत्रकार, एक कल्पनाशील लेखक या वैज्ञानिक, किसी भी तरह सफल हो सकते थे। और कमोबेश वे इनमें से सब थे। लेकिन जैसा कि उनके बाद के जीवन से हमें देखने को मिलता है, व्यवहार कुशल न होने के कारण वे राजनेता और प्रशासक तो कतई नहीं हो सकते थे। हां, वे अपने समय के एक उम्दा जीव-वैज्ञानिक ज़रूर साबित हुए।
उनके समकालिक जीव-शास्त्री सर पीटर मेदावर के शब्दों में, “बहुत जल्दी ही मुद्दों की जड़ तक पहुंचने की और एकदम अनूठे तरीके से उन्हें जोड़ पाने की उनकी क्षमता की वजह से कह सकता हूं। कि मुझे उन जैसा होशियार आदमी आज तक नहीं मिला। जिस किसी भी वैज्ञानिक मुद्दे की ओर वे मुखातिब हुए, उन्होंने उस बाबत कुछ-न-कुछ नई बात ज़रूर कही। फिर चाहे वह एंजाइम क्रियाओं की बात हो या जीवों के विकास के। दौरान एक कारक के रूप में रोगों की भूमिका, ऐंटीजन व जीन्स के बीच के संबंध की बात हो या फिर लंबे समय तक कार्बन डाइऑक्साइड की अत्याधिक मात्रा के संपर्क में। आने से निर्णय लेने की क्षमता के ह्रास का मामला।''
हाल्डेन ने ही सबसे पहले सामान्य तौर पर जीव-जगत में आनुवंशिकीय सहलग्नता (लिंकेज) तथा खासतौर पर मनुष्य में उत्परिवर्तन की व्याख्या की थी। लेकिन उनका सबसे अहम काम तो 1920 के दशक में शुरू हुआ - मेंडल की आनुवंशिकीय अवधारणाओं के आधार पर डार्विन के विकासवाद की नए सिरे से। जांच-पड़ताल। अपने काम के संबंध में अपने ही शरीर पर विभिन्न परीक्षण करने के कारण उन्हें काफी शोहरत मिली और वे लोगों के अचंभे का विषय बने। जो प्रयोग वे खुद पर नहीं कर सकते थे, वह दूसरे किसी पर कभी नहीं करते थे। कई बार उन्होंने अपने खून में ही कार्बन डाइऑक्साइड या हाइड्रोक्लोरिक एसिड मिश्रित करके उसके प्रभाव को देखा और विभिन्न ‘परीक्षणों के दौरान कीड़े-मकोड़ों को अपने शरीर पर रेंगने और खून चूसने की इजाजत दी। वे वैज्ञानिक परीक्षणों के लिए जीव-जंतुओं को उत्पीड़न पहुंचाने के सख्त खिलाफ थे। उनका कहना था, “यदि आप एक प्राचीन भारतीय शब्द का इस्तेमाल करना चाहें तो, ये परीक्षण वह तपस है, जो किसी और जरिए से हासिल न हो सकने। वाले ज्ञान के लिए जरूरी होती है।''
इस तरह के प्रयोगों से मानव शरीर कैसे काम करता है?' जैसे। सवालों पर थोड़ी बहुत रोशनी तो। पड़ी ही। फिर होल्डेन जैसे व्यक्ति का तो कहना ही था, "जब तक आप। अपने खुद के और अपने साथियों के शरीर को उतने रोमांच से नहीं देखते, जितने रोमांच से आप। सितारों भरे आसमान को देखते हैं, और जब तक आप उसका इस्तेमाल थका देने वाली हद तक नहीं करते, तब तक आप एक अच्छे शरीर विज्ञानी नहीं हो सकते।''
यही नहीं, विज्ञान को एकदम सरल और सहज बनाकर प्रस्तुत करने की असाधारण क्षमता भी हाल्डेन में थी। विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के अपने उम्दा काम के लिए वे सदा याद किए जाते रहेंगे। इस काम में उन्हें अपनी पहली पत्नी शार्लट से काफी सहयोग मिला। दरअसल आगे चलकर अपने लोकप्रिय विज्ञान-लेखन के जरिए उन्होंने काफी पैसा कमाया।
लेकिन इससे यह कहना तो गलत होगा कि सिर्फ पैसा ही उनके उन सारे लेखों और निबंधों के पीछे का प्रेरक तत्व था, जो उन्होंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए अविरत लिखे। उनके इस सारे लेखन के पीछे का वास्तविक कारण उनके शब्दों में, “बहुत से वैज्ञानिकों का विश्वास है कि उन्हें अपना लेखन सिर्फ पांडित्यपूर्ण जर्नलों तक ही सीमित रखना चाहिए, लेकिन मेरे ख्याल से आम लोगों को यह जानने का पूरा-पूरा हक है कि उन सारी प्रयोग शालाओं में क्या होता है जिनके लिए वे अपना पैसा देते हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि जहां तक संभव हो, धर्म और राजनीति पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण लागू किया जाना चाहिए।'
आज के संदर्भ में उनके इन विचारों की प्रासंगिकता और भी उभर कर आती है। हाल्डेन के मुताबिक विज्ञान की अवधारणाओं से ज्यादा महत्वपूर्ण, उसका वह पहलू है जो समाज पर विज्ञान के असर को रेखांकित करता है। विज्ञान के प्रति उनके इस उपयोगितावादी रवैये को एक संबल मिला जब वे अपने ही समकालिक महान वैज्ञानिक निकोलाई वैविलोव के निमंत्रण पर सोवियत रूस गए। अपनी इस यात्रा के दौरान हाल्डेन और उनकी पत्नी शार्लट, वैज्ञानिकों और उनके काम को राज्य द्वारा मिलने वाले सहयोग से काफी प्रभावित हुए और फिर अपनी नास्तिक विचारधारा के कारण वे वैसे भी कम्युनिस्ट सोच के काफी करीब थे। हिटलर और फासिज्म के उद्भवे पर तो हाल्डेन ने अंततः कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने का फैसला कर ही लिया, क्योंकि इसी को वे पूंजीवाद और फासीवाद की बुराइयों से लड़ने का सबसे उम्दा हथियार मानते थे। उन्होंने बहुत-से मुद्दों और बहुत-सी चीजों पर मार्क्सवादी नजरिया अपनाते हुए काफी कुछ लिखा।
लेकिन हाल्डेन ने मार्क्सवाद को कभी भी कठमुल्लों की तरह स्वीकार नहीं किया। वे विचार और तर्क की स्वतंत्रता के हिमायती थे। इसलिए आगे चलकर स्तालिन के क्रिया -- कलापों और लाइसेंको के मामले ने उनके विचारों को काफी कुछ बदल डाला। हालांकि वे कम्युनिस्ट विचारधारा को अपना समर्थन देते रहे लेकिन पार्टी के सदस्य वे कुल आठ साल तक ही रहे। पार्टी छोड़ने के बाद भी वे हमेशा साम्राज्यवादी नीतियों का विरोध करते रहे। इसीलिए 1957 में स्वेज नहर को लेकर मिस्र पर ब्रितानी और फ्रांसीसी हमले के खिलाफ उन्होंने अपनी मातृभूमि ब्रिटेन तक को ‘अपराधियों का देश' कहकर अलविदा कह दिया।
इसके बाद वे भारत चले आए और यहीं के नागरिक बनकर बस गए। पी. सी. महालनवीस के बुलावे पर उन्होंने कलकत्ता के ‘इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टिट्यूट' में काम करना शुरू कर दिया। लेकिन यहां भी अपने तेज़-तर्रार व्यक्तित्व के कारण उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा और अंततः उतने ही तेज़ और प्रखर व्यक्तित्व वाले पी. सी. महालनवीस से न निभ पाने के कारण हाल्डेन को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा।
इसके बाद उन्हें वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (काउंसिल फॉर सांइटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च, सी.एस.आई.आर.) द्वारा एक प्रयोगशाला स्थापित करने का निमंत्रण मिला। लेकिन यहां भी नौकरशाही के कारण उन्हें हताशा ही मिली। और इस हताशा में उन्होंने इसे नाम दिया, सी.एस.आई.आर. यानी काउंसिल फॉर सप्रेशन ऑफ इंडिपेंडेंट रिसर्च। आखिरकार बीज पटनायक के कहने पर उन्होंने भुवनेश्वर में ‘जेनेटिक्स एंड बायोमिट्टी लैबोरेटरी' की स्थापना की। भुवनेश्वर में 1 दिसंबर 1964 को रेक्टम के कैंसर के कारण उनकी मौत हुई।
अपनी मौत में भी होल्डेन, हाल्डेन ही रहे। अंततः उनके शव को चिकित्सकीय अनुसंधान और शिक्षण के लिए काकीनाडा के । रंगरैय्या मेडिकल कॉलेज भेजने का निर्णय लिया गया। अपनी वसीयत में हाल्डेन ने लिखा, “मेरे पूरे जीवन भर मेरे शरीर का इस्तेमाल इन दोनों ही उद्देश्यों के लिए हुआ है। और मेरी मौत के बाद, मेरा अस्तित्व रहे या न रहे, मेरे लिए इसका कोई उपयोग नहीं होगा। इसलिए मेरी इच्छा है कि अब इसका इस्तेमाल औरों के द्वारा हो।'
अरुण कुमार सिंहः फिलहाल दिल्ली में रहते हुए फ्रीलांस काम करते हैं।
यह लेख स्रोत' से साभार। ‘स्रोत' एकलव्य की विज्ञान एवं तकनालॉजी की फीचर सेवा है।