आमोद कारखानीस

मैं ने कई बार यह महसूस किया ना है कि यदि आपकी शिक्षा किसी नामी-गिरामी संस्थान से हुई हो तो लोग आपको लेकर कई तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो जाते हैं। जैसे मैंने आई.आई.टी. से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। चूंकि आई.आई.टी. जैसा नाम जुड़ा है सो लोग सोचते हैं कि मेरी विज्ञान पर खासी पकड़ होगी: फिर स्कूली साइंस मेरे लिए किस खेत की मूली है! बच्चों को समझाना, उनके सवालों के जवाब देना एकदम मेरे बाएं हाथ का खेल होगा। क्या आपको भी यही लगता है? खैर, पहले किस्सी पढ़ लीजिए, फिर आप तय कीजिए।
तो भाई साहब, एक दिन मेरे एक शिक्षक मित्र मेरे घर आए। उनके स्कूल में विज्ञान दिवस के कार्यक्रम में प्रमुख अतिथि की कमी पड़ रही थी, और उन्हें मेरा नाम याद आ गया। सो न्योता लेकर घर आए और बताने लगे, “विज्ञान दिन के मौके पर स्कूल में एक कार्यक्रम का आयोजन किया है। आप किसी भी पसंदीदा विषय पर भाषण दे सकते हैं!''

मैं पिछले कई वर्षों से इस बात का हिमायती रहा हूं कि स्कूलों में विज्ञान पढ़ते समय बच्चों को प्रयोग करने के भरपूर मौके मिलने चाहिए। ऐसे ही एक स्कूली कार्यक्रम होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से मैं जुड़ा रहा हूं। सो सिर्फ भाषण-प्रवचन से काम कैसे चला पाता, इसलिए मैंने उन्हें बताया कि हम भाषण-वाषण तो नहीं देंगे, पर विज्ञान के कुछ मजेदार प्रयोग जरूर करके देखेंगे और उन्हें विद्यार्थियों से भी करवाएंगे।
मेरे विचार सुनकर शिक्षक ने तुरंत चिंता व्यक्त की, “पर इतने सारे विद्यार्थियों से प्रयोग करवाने के लिए तो हमारे पास कोई प्रयोग शाला ही नहीं है!"
मैंने उन्हें समझाया कि हमारी यह अवधारणा ही गलत है कि विज्ञान के प्रयोगों के लिए बड़े-बड़े उपकरणों और समृद्ध प्रयोगशाला की ज़रूरत है। “हम विद्यार्थियों से ऐसे प्रयोग करवाएंगे जो उनके आसपास या घर में आसानी से उपलब्ध चीजों से किए जा सकते हैं। आप निश्चित रहिए, प्रयोगों के लिए साधन-सामग्री भी मैं जुटाकर ले आऊंगा।"

इस बातचीत के कुछ दिनों बाद मैं विज्ञान दिवस की बात को भूल चुका था। अचानक एक दिन जब उस शिक्षक मित्र ने फोन किया कि कल विज्ञान दिवस पर स्कूल आना है तो मुझे सब कुछ याद आ गया। लेकिन अब तो काफी कम समय बचा था। मैंने किसी तरह जल्दी से प्रयोगों के लिए ज़रूरी कुछ सामान जुटा लिया। मैं सोच रहा था कि सरल प्रयोग हैं, आसानी से कर दिखाएंगे और थोड़ी बहुत अतिरिक्त जानकारी दे देंगे। दो या तीन घंटे के प्रोग्राम में कोई खास दिक्कत नहीं होनी चाहिए!

प्रकाश के प्रयोग  
मैंने तय किया था कि प्रकाश के प्रयोगों से शुरुआत करेंगे। पहला प्रयोग था पिनहोल कैमरे से सूरज का बिम्ब बनाकर दिखाना। जब विज्ञान दिवस का कार्यक्रम शुरू हुआ तो काफी देर तक अध्यक्षीय भाषण और स्वागत भाषण चलता रहा। ये सब खत्म होते-होते सूरज आसमान में काफी ऊपर चढ़ आया था। मैं ढूंढने लगा कि कक्षा में धूप कहां से आती है? तीसरी मंज़िल पर स्थित इस कक्षा में धूप आने के लिए सिर्फ एक बरामदा था, वो भी जाली लगाकर बंद किया हुआ था।
चूंकि सूरज काफी चढ़ चुका था इसलिए सूरज की किरणों तक पहुंचने के लिए मुझे बरामदे में एक स्टूल पर खड़े होकर, अपना एक हाथ जाली से बाहर निकालना पड़ रहा था। इन प्रयासों के बावजूद कागज़ की छाया तो कहीं और ही पड़ रही थी। अब क्या अवलोकन करें। हां, बाहर बहुत तेज धूप थी पर यह बम्बई का स्कूल है, न इस स्कूल की छत तक पहुंचने का कोई रास्ता था, न नीचे कोई खुली जगह। स्कूल की बिल्डिंग तो सड़क से एकदम सटाकर बनाई गई थी -- जहां कार और ट्रकों की भीड़ लगी रहती है। प्रयोग करने वाले विद्यार्थियों के लिए कोई जगह थी ही नहीं।

जाहिर है प्रकाश के प्रयोगों की योजना काफी मुसीबत में पड़ गई। पर हम हार मानने वालों में से तो हैं। नहीं। हमने तय किया कि लैंस वाले प्रयोग न हों तो कोई बात नहीं, हम बच्चों से पिनहोल कैमेरा ज़रूर बनवाएंगे। सो मैंने काला कागज़, बटर पेपर, सेलो टेप, कैंची आदि सामान अलग-अलग समूहों में बांट दिया।
बच्चों ने पिनहोल कैमेरे के बारे में हाल ही में कक्षा में पढ़ा था। अतः सभी को इसके बारे में अच्छी तरह याद था। ब्लैक बोर्ड पर चित्र बनाने को कहा तो बिल्कुल सही चित्र बना दिया। और बिंब क्यों और कैसे दिखेगा इसका सिद्धांत भी एक तोते की तरह झट से सुना दिया। पर हाथ से पिनहोल कैमेरा बनाते समय काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था। कुछ बच्चों को यह समझ नहीं आ रहा था कि बटर पेपर किस तरह लगाना है। किसी ने तो बटर पेपर पर ही छेद बना दिया। जिन बच्चों का डिब्बा सही बना था उन्होंने पिनहोल का छेद इतना बड़ा बना दिया कि कोई बिम्ब ही नहीं बन पा रहा था। इस बीच जब मैंने आयोजकों से मोमबत्ती के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि मोमबत्ती तो है नहीं, टयुब लाईट को ही प्रकाश स्रोत की तरह इस्तेमाल कर लीजिए। यानी कि अब कोई भी विद्यार्थी जांच भी नहीं कर सकता था कि उनका पिनहोल कैमेरा ठीक बना है कि नहीं, या कि उसमें बिंब दरअसल दिखता कैसा है।
वैसे मुझे गुमान था कि इस तरह की दिक्कतें आ सकती हैं, इसलिए मैंने कुछ अन्य प्रयोगों के बारे में भी सोच रखा था।

अम्ल और क्षार   
मेरे पास अम्ल और क्षार पाठ के प्रयोगों से संबंधित कुछ सामग्री थी। मैंने बड़े इत्मीनान के साथ बच्चों को इमली, नींबू, नमक का अम्ल और साबुन, कास्टिक सोडा आदि के घोल थमा दिए।
कास्टिक सोडा का घोल बनाते समय टेस्ट ट्यूब बहुत गर्म हो गई और मेरी मदद के लिए आए विज्ञान शिक्षक का हाथ जल गया। बच्चों को मैंने लाल और नीला लिटमस भी थमा दिया और दिए गए घोल अम्लीय हैं या क्षारीय यह पता कर अपने अवलोकन नोटबुक में लिखने के लिए कहा।
थोड़ी देर बाद जब सभी अवलोकन ब्लैक बोर्ड पर उतार रहा था तो मैं भौंचक्क रह गया। कुछ बच्चों ने तो पानी का परीक्षण कर अपने अवलोकन व तालिका के आधार पर निष्कर्ष भी निकाल लिए थे। ‘जो चीज़ अम्लीय या क्षारीय नहीं है उससे नीला लिटमस लाल हो जाता है। अब उनको कैसे समझाएं कि नल का पानी जो नगर पालिका के क्लोरीनेशन प्लांट से होकर आता है, आसुत जल नहीं है।

चर्चा के दौरान किसी ने सुझाव दिया -- नल का पानी शायद 'अशुद्ध' है: हो सकता है बिसलरी के पानी से ‘अच्छे/ठीक' परिणाम आ जाएं। उपस्थित शिक्षकों में से दो शिक्षक नजदीक के होटल से बिसलरी की बोतल लाने के लिए चल दिए। वो शिक्षक गए तो ऐसे गए कि कार्यक्रम खत्म होने तक भी नहीं लौटे।

घरेलू सामान से प्रयोग  
अब हम घरेलू चीजों में से कौनसी चीजें सूचक या इंडीकेटर की तरह इस्तेमाल की जा सकती हैं इसके बारे में चर्चा कर रहे थे। मैंने आयोजकों से कुछ फूल लाने के लिए कहा। जल्दबाज़ी में 'रंगीन फूल चाहिए' यह बताना भूल गया था।नतीजा यह हुआ कि कोई शिक्षक पूजा में चढ़ाई जाने वाली फूल की पुड़िया ले आया। इस पुड़िया में थे बहुत सारे सफेद फूल! अब क्या करें?  
इतने में मेरी नज़र ब्लैक बोर्ड के पीछे छिपाकर रखे एक गुलदस्ते पर पड़ी। यह शायद इस प्रोग्राम के बाद मुझे देने के लिए लाया गया था। मैंने उसमें से सभी रंगीन फूल निकाल लिए। दुर्भाग्यवश वे सभी गुलाब के फूल थे। इनसे प्रयोग करने पर बच्चों ने अपनी नोट बुक में लिखा - फूलों को रगड़कर बने कागज पर अम्लीय और क्षारीय घोल का कोई असर नहीं होता।

घोल का नाम   लाल लिटमस नीला लिटमस
नींबू का रस कोई असर नहीं लाल
ईमली का घोल कोई असर नहीं लाल
साबुन का पानी नीला कोई असर नहीं
नल का पानी कोई असर नहीं लाल

प्रयोगों की इन ‘सफलताओं' से प्रेरित होकर एक शिक्षक ने यह बताना शुरू किया कि कक्षा में उन्होंने कौन - कौन से प्रयोग कर के दिखाए हैं। उसमें से एक था ‘प्रकाश का पृथक्करण' जो प्रिज्म के साथ किया जाता है। बच्चों ने यह तो मालूम कर लिया था कि प्रकाश सात रंगों से बनता है। सवाल यह उभर कर आया कि क्या सात रंग मिलाने से सफेद प्रकाश प्राप्त किया जा सकता है? बच्चों के पास जो रंग थे उनसे उन्होंने सात रंग के त्रिकोण आकार के कागज रंग दिए। मेरी थैली से उन्हें एक लट्टू मिला। इस लट्टू की ऊपरी सतह समतल थी। उस पर ये कागज़ चिपका दिए गए और लटू को ज़ोर से घुमाया- और सभी सात रंग एक-दूसरे में घुल गए और उसमें से उभरकर आया अच्छा खासा गाढ़ा धूसर (ग्रे) रंग। अबे समस्या यह थी कि उन्हें यह कैसे समझाएं कि हर रंग का त्रिकोण समान साईज़ का नहीं होना चाहिए। रंगों के प्रकीर्णन (डिस्परशन), प्रकाश तरंगों की संकल्पना आदि पर कक्षा में अभी तक कोई चर्चा नहीं हुई थी।
मैं जो कुछ करवा सका था और जो मेरी मूल योजना थी, उसमें अब तक काफी फासला आ चुका था। जिन प्रयोगों को मैं आसान मानकर चल रहा था उन्हें इस तीसरी मंजिल वाली स्कूल में करवा पाना कठिन था। कुछ समस्याएं मेरी तैयारी की कमी और सहयोगी शिक्षकों को स्पष्ट निर्देश न दे पाने की वजह से भी आई थीं।

खैर, साढ़े बारह बज चुके थे, शायद भोजन का वक्त हो चुका था, या अगले वक्ता आ चुके थे। आयोजकों ने आंखों-ही-आंखों में इशारे करना शुरू कर दिया था। और इस तरह मेरा बच्चों को प्रयोग के द्वारा विज्ञान पढ़ाने का कार्यक्रम ‘सफलता पूर्वक संपन्न हुआ।


आमोद कारखानीस: पेशे से कम्प्यूटर इंजीनियर हैं, बंबई में रहते हैं। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम में सक्रिय जुड़ाव रहा है।
चित्रः अशोक चंचलः अशोक चंचल शौकिया चित्रकार हैं, भोपाल में रहते हैं।