लेखक : राजश्री राजगोपाल एवं प्रियदर्शिनी कर्वे [Hindi PDF, 1.6 MB]
अनुवाद: माधव केलकर
इलेक्ट्रॉनिक्स की दुनिया भाग:1
इन दिनों हमारे इर्द-गिर्द इलेक्ट्रॉनिक्स इस कदर बिखरा हुआ है कि हमें इस बात का अहसास तक नहीं होता। जब कभी भी हम रेडियो, टी.वी., कम्प्यूटर, वीडियो गेम, केल्कुलेटर या वॉशिंग मशीन चलाते हैं तो हमें ये सब सुविधाएं इलेक्ट्रॉनिक्स की बदौलत ही मिल पाती हैं। हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से ताल्लुक रखने वाले रेडियो, टी.वी., रेकॉर्ड प्लेयर जैसे शुरुआती इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से तरक्की करते हुए इस क्षेत्र में कई तकनीकी अचंभे सामने आए हैं मसलन रोबोट, मोबाइल, वीडियो संप्रेषण, पेसमेकर आदि। स्वास्थ्य से आरामतलबी तक, रोज़मर्रा के उपकरणों से रिसर्च में इस्तेमाल होने वाले खास उपकरणों तक, इलेक्ट्रॉनिक्स ने कई समस्याओं के हल सुझाए हैं। तो अब हम इसी तकनीक की आधारभूत बातों को समझनेे की कोशिश इस लेख में करेंगे।
इलेक्ट्रॉनिक्स के नट और बोल्ट
अपने आसपास की किसी भी मशीन या उपकरण मसलन सायकल, कार इंजन या ऐसा ही कुछ और.... को ध्यान से देखिए। इसमें नट-बोल्ट, धात्विक सलाखें, चेन, पुली, दांतेदार गियर, रोलर, खोखली नली जैसी कुछ सामग्री दिखाई देगी। इन सबको उस उपकरण के आधारभूत हिस्से कहा जाता है क्योंकि इन हिस्सों के बिना वह विशेष उपकरण तैयार नहीं किया जा सकता है।
इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में भी आधारभूत हिस्से यानी इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेस (Devices) में आकार, साइज़, बाह्यरूप के साथ-साथ कार्य के आधार पर भी विविधता होती है। इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेस के कुछ उदाहरण हैं - डायोड, ट्रांज़िस्टर, थायरिस्टर, रज़िस्टर, केपेसिटर आदि। इनमें ट्रांज़िस्टर सबसे महत्वपूर्ण है। लगभग सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में यह इस्तेमाल किया जाता है। जिस तरह अलग-अलग मशीनों में उद्देश्यों के हिसाब से फर्क आकार-प्रकार के नट-बोल्ट या स्क् डिग्री होते हैं उसी तरह ट्रांज़िस्टर भी अनेक प्रकार के होते हैं। (देखिए चित्र)
ट्रांज़िस्टर के दो महत्वपूर्ण काम हैं। कम्प्यूटर एवं कुछ अन्य डिजिटल उपकरणों के सूक्ष्म परिपथों में इसका इस्तेमाल स्विच के रूप में किया जाता है। तो कैसेट प्लेयर में आवाज़ को ऊंचा या कम करने वाली बटनों में ट्रांजि़स्टर का उपयोग एम्प्लीफायर के रूप में होता है। इन दो कार्यों की वजह से ट्रांज़िस्टर इलेक्ट्रॉनिक्स की दुनिया का सिरमौर बना हुआ है।
दूसरी महत्वपूर्ण इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस है - डायोड। ट्रांज़िस्टर की तरह ही डायोड में भी काफी विविधता है। यह विविधता बनावट में तो है ही साथ ही इस्तेमाल संबंधी भी है। डायोड के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं - रेक्टिफायर डायोड, हाई फ्रिक्वेंसी डायोड, टनल डायोड, ज़ेनर डायोड, लाइट-एमिटिंग डायोड (LED) और इंफ्रारेड डायोड।
इनमें ख्र्कक़् को आपने निश्चित तौर पर देखा होगा। रसोई में इस्तेमाल होने वाले इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, कम्प्यूटर, कैसेट प्लेयर, टी.वी., मोबाइल फोन आदि को शु डिग्री करने पर जलने वाली लाल-हरी लाइट ही लाइट-एमिटिंग डायोड है। पीली, नीली, नारंगी रोशनी देने वाले ख्र्कक़् भी आज उपलब्ध हैं। इंफ्रारेड डायोड से हमें दिखाई न देने वाली इंफ्रारेड किरणें निकलती हैं। इनका इस्तेमाल चोरी रोकने वाली घंटियों जैसी युक्तियों में किया जाता है। टी.वी. को चलाने वाले रिमोट में भी इस डायोड का इस्तेमाल होता है। हमारे हाथों में नाचने वाले रिमोट के बटनों को दबाने पर टी.वी. के चैनल किस तरह बदलते हैं इस बारे में आपने कभी सोचा है क्या?
ये नट-बोल्ट किससे बने हैं?
कुदरत में हरेक वस्तु का व्यवहार इस बात से तय होता है कि वह किस पदार्थ से बनाई गई है। उदाहरण के लिए लकड़ी की आरामकुर्सी के अलग-अलग हिस्सों को एक साथ जोड़े रखने की क्षमता साधारण गोंद में नहीं होती। लेकिन लोहे-स्टील या अन्य मिश्र धातुओं में जो मज़बूती होती है उसकी वजह से इन धातुओं से बने नट-बोल्ट, स्क् डिग्री वगैरह काफी वज़न सह सकने में सक्षम होते हैं। इसलिए कुर्सी के हिस्सों को जोड़ने के लिए इनका इस्तेमाल किया जाता है। इसी तरह इलेक्ट्रॉनिक्स के नट-बोल्ट यानी डायोड एवं ट्रांज़िस्टर जिस तरह अपना काम बखूबी करते हैं उनके पीछे सेमीकंडक्टर पदार्थों के गुणधर्म हैं जिनसे ये बने हैं।
जिस तरह मज़बूती पदार्थ का एक महत्वपूर्ण गुण है, उसी तरह एक और महत्वपूर्ण गुण है - विद्युत चालकता। इस गुण के आधार पर भी पदार्थों का वर्गीकरण किया जाता है। किसी पदार्थ में से इलेक्ट्रॉन कितनी सहजता से आवागमन कर सकते हैं यह विद्युत चालकता से समझा जा सकता है। जिन पदार्थों में से इलेक्ट्रॉन आसानी से प्रवाहित होते हैं उन्हें सुचालक कहा जाता है। इसके विपरीत कुचालक पदार्थ इलेक्ट्रॉन के प्रवाह में सबसे ज़्यादा अवरोध खड़ा करते हैं। अर्ध-चालक पदार्थों में यह विशेषता है कि ये काफी कम तापमान पर कुचालक की तरह व्यवहार करते हैं तो सामान्य तापमान पर सुचालक होते हैं।
इस तरह के विचित्र रवैए के पीछे कौन-से कारण हैं? सुचालक और कुचालक पदार्थों की अपेक्षा इनमें ऐसा क्या खास है - इस सवाल का जवाब पाने की कोशिश करते हैं।
ऊर्जा सोपान
मोटेतौर पर हम सभी जानते हैं कि किसी भी परमाणु में केन्द्रक और उसके इर्द-गिर्द अलग-अलग कक्षाओं में घूमने वाले इलेक्ट्रॉन होते हैं। जब हम किसी पदार्थ को गरम करते हैं तो हम प्रत्यक्ष रूप से उस पदार्थ में मौजूद परमाणु व इलेक्ट्रॉन जैसे अन्य परमाणविक कणों को ऊष्मा के रूप में ऊर्जा दे रहे होते हैं। ऐसे ही हम किसी पदार्थ को ठंडा करते हैं तो दरअसल वह पदार्थ ऊर्जा त्याग रहा होता है।
लेकिन इलेक्ट्रॉन, परमाणुओं व अन्य कुछ कणों की खासियत यह है कि ये कितनी भी मात्रा में ऊर्जा ले या छोड़ नहीं सकते। इलेक्ट्रॉन तयशुदा सीढ़ी के हिसाब से पायदान-दर-पायदान ऊर्जा लेते अथवा छोड़ते हैं।
इस बात को समझने के लिए एक सरल उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए आप सीढ़ियों से होकर ऊपर चढ़ने की कोशिश कर रहे हैं और कोई दोस्त आपको नीचे की ओर खींचने की कोशिश कर रहा है। अगर आप ज़्यादा ताकत लगाएं तो नीचे से खींचे जाने के बावजूद आप ऊपर की ओर चढ़ते रहेंगे। यदि नीचे से खींचने वाले दोस्त ने ज़्यादा ताकत लगाई तो आप नीचे की ओर खींचे जाएंगे। बहरहाल आप सीढ़ियों पर चढ़ें या नीचे की ओर खिसकें, किसी भी दिशा में आप एक-एक पायदान के हिसाब से ही जाएंगे। आप आधी-पायदान या डेढ़-पायदान पर नहीं रुक सकते। यानी आप दो लगातार पायदानों के बीच में नहीं खड़े रह सकते।
परमाणु में मौजूद इलेक्ट्रॉन की भी यही स्थिति होती है। इलेक्ट्रॉन पायदान-दर-पायदान के हिसाब से ऊर्जा का विनिमय करते हैं। साथ दिए चित्र से यह बात ज़्यादा बेहतर ढंग से समझ में आ सकती है। चित्र में ऊर्जा की सीढ़ी दिखाई गई है। यहां पांच इलेक्ट्रॉन n1 से n5 पांच ऊर्जा पायदानों पर फैले हुए हैं। इलेक्ट्रॉन A को n2 पायदान पर जाने के लिए (n2-n1) ऊर्जा की ज़रूरत होगी। लेकिन इलेक्ट्रॉन C को, इलेक्ट्रॉॅन B वाले पायदान पर आने के लिए दो पायदानों के बराबर ऊर्जा त्यागनी होगी दो छोटे चरणों में (n4-n3) और (n3-n2) या (n4-n2) के बराबर।
तो क्या चित्र-3 की तरह हर परमाणु में सीढ़ी बनी होती है जिस पर इलेक्ट्रॉन टिके रहते हैं? बिल्कुल नहीं! मोटेतौर पर हम सभी जानते हैं कि परमाणु के नाभिक के चारों ओर अलग-अलग कक्षाओं में इलेक्ट्रॉन नाभिक का चक्कर लगा रहे होते हैं। यह तस्वीर का सरलीकरण मात्र है, दरअसल इलेक्ट्रॉन नाभिक से विभिन्न दूरियों पर, नाभिक के चारों ओर लगातार गति कर रहे होते हैं। जो इलेक्ट्रॉन नाभिक से जितनी ज़्यादा दूरी पर होगा उसमें उतनी ज़्यादा ऊर्जा होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि ज़्यादा दूरी वाला इलेक्ट्रॉन, परमाणु के केन्द्र के बल (नाभिक में धन आवेश की वजह से) प्रतिरोध करते हुए नाभिक से इतनी दूर जा सका है। स्वाभाविक रूप से नाभिक से जिन-जिन दूरियों पर इलेक्ट्रॉन पाया जा सकता है उनका निश्चित ऊर्जा स्तर होता है, जो ऊर्जा उस दूरी पर उपस्थित इलेक्ट्रॉन में होगी। इन्हें चित्र-3 में परमाणु की ऊर्जा सीढ़ी द्वारा प्रदर्शित किया गया है।
चित्र:3 एक परमाणु के पांच ऊर्जा स्तरों पर बिखरे इलेक्ट्रॉनों को समझाने का एक मॉडल। जैसा कि देखा जा सकता है कि सभी ऊर्जा स्तर एक-दूसरे से समान दूरी पर नहीं हैं, साथ ही यह भी ज़रूरी नहीं कि सब ऊर्जा स्तरों पर बराबर संख्या में इलेक्ट्रॉन मौजूद हों। ऊर्जा की सीढ़ियों की मदद से इलेक्ट्रॉन द्वारा ऊर्जा लेने व ऊर्जा छोड़ने की क्रिया को दर्शाया जा रहा है। बाईं तरफ वाले चित्र में इलेक्ट्रॉन A, (n2-n1) ऊर्जा प्राप्त कर दूसरी पायदान पर पहुंच जाता है। दाईं ओर इलेक्ट्रॉन क्, (n4-n2) ऊर्जा त्यागकर दो पायदान नीचे उतर गया है। बीच में द1, द2, n3 .... n5 ऊर्जा स्तर दिखाए गए हैं, जिन पर पांच इलेक्ट्रॉन मौजूद हैं।
ऊर्जा की ये सीढ़ी कितनी लंबी हो सकती है? यानी परमाणु में इलेक्ट्रॉन केन्द्रक से कितनी दूरी पर हो सकता है। इस सवाल का जवाब खोजने के लिए हम एक बार फिर दो दोस्तों वाले उदाहरण पर लौटते हैं। इस बार मान लीजिए आपको नीचे खींचने वाले दोस्त ने आपकी कमर में एक रस्सी बांध दी है, रस्सी का एक छोर आपके दोस्त के हाथों में है। रस्सी को कसकर थामे सबसे नीचे की सीढ़ी पर आपका दोस्त अंगद की तरह पांव जमाकर खड़ा है। वो लगातार कोशिश कर रहा है कि आपको नीचे खींचकर ला सके। और आप हैं कि ताकत लगाकर ऊपर चढ़ने पर आमादा हैं। यदि आप पर्याप्त ताकत लगाने में सक्षम हैं तो आप दम लगाकर ऊपर चढ़ने लगेंगे और एक हद के बाद दोस्त के हाथों से रस्सी छूट जाएगी। रस्सी छूटते ही आप आज़ाद हैं। आप चाहें तो सबसे ऊपर की पायदान पर चढ़ सकते हैं, सिर्फ ऊपर ही क्यों आप कहीं भी जा सकते हैं।
इन्हीं बातों को परमाणु के संदर्भ में समझने की कोशिश करें तो तस्वीर कुछ इस तरह बनती है - परमाणु के भीतर धन आवेशित केन्द्रक और केन्द्रक के बाहर स्थित ऋण आवेशित इलेक्ट्रॉन के बीच लगने वाला बल कम दूरी का आकर्षण बल है। यानी नाभिक काफी कम दूरी तक ही इलेक्ट्रॉनों पर बल लगाकर उन्हें अपनी ओर खींच सकता है। एक बार यदि इलेक्ट्रॉन इस बल की सीमा को पार कर ले तो वह परमाणु से बाहर निकलने के लिए मुक्त हो जाएगा। लेकिन ऐसा तभी संभव है जब इलेक्ट्रॉन को ऐसा करने के लिए पर्याप्त ऊर्जा मिल जाए। इसलिए केन्द्रक से जितनी दूरी तक इलेक्ट्रॉन को आकर्षण महसूस होता है, एक परमाणु के अंदर ऊर्जा की सीढ़ी/पायदान वहां तक मौजूद होगी। प्रकृति में सभी तत्वों के परमाणुओं के लिए यह सही है। तो फिर चालक-कुचालक और अर्ध-चालक में इलेक्ट्रॉन प्रवाह अलग-अलग क्यों होता है?
ऊर्जा की पट्टियां
सबसे पहले इस बात पर गौर करना होगा कि चित्र में दिखाए ऊर्जा के पायदान में एक परमाणु की चर्चा की गई है। लेकिन जैसा कि हम जानते हैं कि व्यावहारिक रूप से हमारा आमना-सामना सिर्फ एक परमाणु से कभी नहीं होता। कोई भी ठोस, द्रव या गैस लीजिए, उन सबमें परमाणुओं के झुंड से ही हमारा वास्ता पड़ता है।
जब इस समूह के परमाणु एक-दूसरे के काफी करीब आ जाते हैं (जैसे ठोस में) तब कुछ खास घटित होता है। काफी पास आ चुके परमाणुओं की इलेक्ट्रॉन कक्षाएं एक-दूसरे में घुल-मिलकर समूहों में बंट जाती हैं जिसके कारण ऊर्जा की पट्टियां (Energy Bands) बन जाती हैं।
इस बात को समझने के लिए चित्र-4 देखिए। मान लीजिए किसी तत्व के स्वतंत्र परमाणुओं को एक-दूसरे के पास-पास लाना शु डिग्री किया जैसा कि ठोस पदार्थ में होता है। जैसे-जैसे उनके बीच की दूरी कम होती जाती है वैसे-वैसे उनकी बाहरी कक्षाओं के इलेक्ट्रॉन काफी करीब आ जाते हैं व एक-दूसरे को विकÐषत करते हुए दूर-दूर धकेलने लगते हैं। अपने आपको संतुलित करने के लिए वे अपनी मूल संरचना से थोड़ा-सा फैल जाते हैं। दूसरे शब्दों में, अलग-अलग परमाणुओं के ये इलेक्ट्रॉन जब एक-दूसरे के बहुत करीब लाए जाते हैं, तो उनके ऊर्जा स्तर थोड़े फैल जाते हैं। यानी कि वे सब पास-पास उपस्थित इलेक्ट्रॉन एक ही ऊर्जा स्तर पर होने की बजाय (विकर्षण के कारण), ये सब बाहरी इलेक्ट्रॉन बहुत ही पास-पास स्थित, अलग-अलग ऊर्जा स्तरों पर पहुंच जाते हैं। दरअसल, बाह्य इलेक्ट्रॉनों के ये ऊर्जा स्तर इतने पास-पास होते हैं कि उन्हें इलेक्ट्रॉन से भरी ऊर्जा पट्टियां कहा जा सकता है।
वैसे यहां स्पष्ट रूप से यह बता देना उचित होगा कि यह असर केवल परमाणु की बाहरी कक्षा पर देखा जाता है। परमाणु के केन्द्र के पास की (भीतरी) कक्षाएं सामान्यत: ज्यों-की-त्यों रहती हैं।
अब हम ऊर्जा की सीढ़ी के ज़रिए इस बदलाव को समझने की कोशिश करेंगे। ऊपर बताए अनुसार परमाणु के समूह की ऊर्जा की सीढ़ी, एक अकेले परमाणु की ऊर्जा सीढ़ी से तो फर्क दिखेगी ही, यह तो साफ तौर पर समझ में आता है। अकेले परमाणु की ऊर्जा की सीढ़ी की तुलना किसी स्टेडियम की दर्शक दीर्घा से की जा सकती है। यदि ऐसा मान लिया जाए तो दर्शक दीर्घा की हरेक पायदान पर इलेक्ट्रॉन मौजूद हैं और वे स्टेडियम के केन्द्रीय हिस्से से बंधे हुए हैं। केन्द्र यानी नाभिक के सबसे पास का इलेक्ट्रॉन सबसे नीचे की ऊर्जा सीढ़ी पर है और सबसे दूर का, एकदम ऊंची घेरे को छूती सीढ़ी पर। यदि इस तरह के दो परमाणु एक-दूसरे के पास लाए जाएं तो सबसे बाहरी और सबसे ऊपर की पायदान सबसे पहले एक-दूसरे से टकराएंगी। लेकिन इस टक्कर से सिर्फ दोनों पायदान अपनी-अपनी जगह से थोड़ा खिसककर एक-दूसरे के ऊपर एडजस्ट हो जाते हैं। नतीजतन, अत्यंत पास-पास स्थित पायदानों की एक पट्टी बन जाती है जिसमें इलेक्ट्रॉन भरे हुए हैं। इसे वैलेंस बैंड कहते हैं चूंकि यह वैलेंस इलेक्ट्रॉन यानी परमाणुओं की सबसे बाहरी कक्षा के इलेक्ट्रॉन से भरे होते हैं।
हमने पहले देखा था कि अगर परमाणु की बाहरी कक्षा में मौजूद इलेक्ट्रॉन यानी वैलेंस इलेक्ट्रॉन को पर्याप्त ऊर्जा दी जाए तो वो परमाणु से मुक्त जाता है। इस सीढ़ी या स्टेडियम की परिकल्पना को जारी रखते हुए अणु से मुक्त होकर ये इलेक्ट्रॉन कहां जाते होंगे? दरअसल इलेक्ट्रॉन ऐसे उच्च ऊर्जा स्तर पर चले जाते हैं जो एकल परमाणुओं से स्वतंत्र हो और जहां पर उनका हलन-चलन नाभिक के वैद्युतीय आकर्षण से प्रभावित न होता हो, बंधा हुआ न हो। ये उच्च ऊर्जा स्तर तभी तस्वीर में आते हैं जब इलेक्ट्रॉन को उनमें पहुंचने के लिए पर्याप्त ऊर्जा मिल गई हो।
और जब बहुत-से परमाणु पास-पास आ जाएं तो इन उच्च ऊर्जा स्तरों में भी वैलेंस बैंड की तरह एक और बैंड/पट्टा बन जाता है जिसे कंडक्शन बैंड या चालक पट्टा कहते हैं - अत्यंत पास-पास स्थित खाली उच्च ऊर्जा स्तरों का ऐसा पट्टा जिसमें मुक्त इलेक्ट्रॉन बह सकते हैं और विद्युत प्रवाहित कर सकते हैं।
इससे पहले कि हम आगे बढ़ें, दो महत्वपूर्ण बातें ध्यान में रखनी होंगी। पहली कि इस तरह के ऊर्जा के पट्टे बनना केवल बाहरी/अंतिम ऊर्जा स्तरों में ही होता है। प्रत्येक परमाणु के अंदरुनी ऊर्जा स्तर पहले की तरह अलग-अलग बने रहते हैं। दूसरा, कि अभी तक इलेक्ट्रॉन संरचना की हमने जो चर्चा की वो परम शून्य या उसके आसपास के तापमान के लिए ही सही है; जब इलेक्ट्रॉन व परमाणु न्यूनतम ऊर्जा स्तरों पर होने के कारण अत्यंत स्थिर (Stable) संरचना में पाए जाते हैं। अन्य तापमान, सामान्य तापमान पर भी तस्वीर एकदम अलग हो सकती है, जैसा कि हम आगे अर्ध-चालकों के संदर्भ में देखेंगे।
एनर्जी बैंड संरचना जिसकी हमने ऊपर चर्चा की है उसमें वैलेंस और कंडक्शन बैंड के ऊर्जा मान अलग-अलग पदार्थों के लिए अलग होंगे। यह भी एक कारक है जिससे पदार्थ के कई गुणधर्म तय होते हैं - जिसमें से विद्युत चालकता भी एक हैं। तो जैसा कि आपने शायद अब तक अंदाज़ा लगा ही लिया होगा कि चालक, कुचालक और अर्ध-चालक में ऊर्जा स्तरों की संरचना अलग होती है। यह अंतर चित्र-5 में दर्शाया गया है।
कुचालक और अर्द्ध-चालक पदार्थों में इलेक्ट्रॉन से पूरी तरह भरी हुई वैलेंस बैंड क1 है और पूरी तरह से खाली कंडक्शन बैंड क2 है। इन दोनों को एक-दूसरे से अलग करने वाले हिस्से को फोर्बिडेन एनर्जी बैंड यानी वर्जित क्षेत्र कहा जाता है। वर्जित इसलिए क्योंकि इलेक्ट्रॉन यहां आ सकें ऐसी ऊर्जा की एक भी पायदान यहां नहीं है। इलेक्ट्रॉन को वैलेंस बैंड से कंडक्शन बैंड की ओर जाने के लिए या छलांग लगाने के लिए इस वर्जित क्षेत्र को पार करना होगा। जब तक इलेक्ट्रॉन को इतनी बड़ी छलांग लगाने लायक ऊर्जा नहीं मिलती वह वैलेंस बैंड को नहीं छोड़ सकता। कुचालकों के बीच में वर्जित क्षेत्र काफी चौड़ा होता है लेकिन अर्धचालकों में यह अपेक्षाकृत रूप से संकरा होता है। अर्द्धचालकों में सामान्य तापमान (कमरे का तापमान) पर वैलेंस इलेक्ट्रॉन को इतनी ऊर्जा मिल जाती है कि वे E1 से E2 पर छलांग लगा सकते हैं। सुचालकों में ये दोनों एनर्जी बैंड एक-दूसरे पर पसरे होते हैं। इसलिए काफी कम तापमान पर भी इलेक्ट्रॉन वैलेंस बैंड में से जा सकते हैं।
विद्युत धारा यानी क्या? विद्युत धारा यानी एक खास दिशा में पदार्थ में से होकर बहने वाले विद्युत आवेश का प्रवाह है। आमतौर पर हम विद्युत धारा का यही अर्थ लगाते हैं कि वह ऋण आवेशित इलेक्ट्रॉन का प्रवाह है। लेकिन कभी-कभी विद्युत धारा धन आवेशों का बहाव भी हो सकता है। उदाहरण के लिए विद्युत लेपन या इलेक्ट्रोप्लेटिंग के समय इलेक्ट्रोलाइट में से विद्युत धारा बहती है तब धन आयन कैथोड (ऋण ध्रुव) की ओर जाते हैं और ऋण आयन एनोड (धन ध्रुव) की ओर। |
अब मान लीजिए किसी अर्द्धचालक में सामान्य तापमान पर एक इलेक्ट्रॉन वैलेंस बैंड में से कंडक्शन बैंड में जा पहुंचा। अब वो उस पदार्थ में से प्रवाहित होने के लिए मुक्त है। लेकिन इसका वैलेंस बैंड पर क्या प्रभाव पड़ेगा? वैलेंस बैंड में ऊर्जा की एक पायदान खाली हो गई है। इलेक्ट्रनिकी की भाषा में इसे ‘होल’ (Hole) कहते हैं। अब निचली पायदान का कोई इलेक्ट्रॉन, ऊर्जा पाकर उस ऊपरी पायदान पर चढ़ सकता है।
यदि इलेक्ट्रॉन पूर्व की ओर बह रहे हैं और होल्स पश्चिम की ओर जा रहे हैं तो विद्युत धारा किस दिशा में बह रही होगी? लेकिन जिस समय बिजली की खोज हुई उस समय लोगों की यह गलत-फहमी थी कि विद्युत परिपथ में जोड़े गए पदार्थ में से होकर बहने वाली बिजली विद्युत के स्रोत के धन सिरे से ऋण सिरे की ओर बहती है। यानी धन आवेश के प्रवाह की दिशा को ही विद्युत धारा की दिशा माना गया। इसी समझ को ध्यान में रखकर विद्युत धारा और विभवांतर संबंधी अनेक नियम खोजे गए। इसलिए आज भी विद्युत धारा की दिशा इसी तरीके से तय की जाती है - विद्युत परिपथ में जोड़े गए घटकों के एनोड से कैथोड (धन से ऋण ध्रुव) की ओर। इसे आजकल पारम्परिक विद्युत धारा (Conventional current) कहते हैं। तो इस बात को ध्यान में रखिए कि जब भी ‘विद्युत धारा’ कहते हैं तो हम पारम्परिक विद्युत धारा के बारे में बता रहे होते हैं। और इस धारा के प्रवाह की दिशा इलेक्ट्रॉन या ऋण आवेशों के प्रवाह की विरुद्ध दिशा में तथा होल्स या धनावेशों के प्रवाह की दिशा में होती है। |
होल यानी सुराख
इसे समझने के लिए एक आसान-सा उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए आप सिनेमा की टिकिट लेने के लिए कतार में खड़े हैं। यदि आप कतार से बाहर निकलते हैं तो आपके पीछे खड़ा व्यक्ति आपकी जगह ले लेता है। इसी तरह E1 से E2 में इलेक्ट्रॉन के जाने पर वैलेंस बैंड में खाली हुई जगह को ‘होल’ कहा जा रहा है; ऐसा ऊर्जा स्तर जो इलेक्ट्रॉन के चले जाने से खाली हुआ है।
चित्र में चालक, अर्द्धचालक और कुचालक पदार्थों के बीच के फोर्बिडेन बैंड को देखें तो साफ तौर पर समझ में आएगा कि सिर्फ अर्द्धचालक के इलेक्ट्रॉन के लिए ही ऐसे वर्जित क्षेत्र को पार करना संभव है। और इसलिए होल संकल्पना भी सिर्फ अर्द्धचालकों पर लागू होती है।
लेकिन हम इस होल को लेकर इस तरह परेशान क्यों हैं? जिस तरह इलेक्ट्रॉन की वजह से विद्युत का प्रवाह होता है उसी तरह ‘होल’ की वजह से विद्युत प्रवाह में मदद मिलती है। इसे समझने के लिए फिर एक बार सिनेमा टिकिट वाले उदाहरण को याद कीजिए। जब आप टिकिट लेकर कतार छोड़ते हैं तो क्या होता हैं? टिकिट खिड़की पर एक जगह खाली हो जाती है और उसे पीछे का व्यक्ति भर देता है। इस तरह लोग तो खिड़की की दिशा में आगे बढ़ते हैं। लेकिन खाली जगह कतार के आगे से पीछे के छोर की ओर खिसकती है। बस इसी तरह अर्द्धचालकों में भी वैलेंस बैंड में खाली हुई जगह (होल) को लेने के लिए इलेक्ट्रॉन एक के बाद एक खास दिशा में आगे बढ़ते हैं तो होल विरुद्ध दिशा में खिसकती जाती है।
होल के महत्व समझने के लिए सबसे पहले इस बात पर विचार करते हैं कि किसी भी पदार्थ की चालकता किस तरह बढ़ाई जा सकती है। एक आसान-सा उपाय तो यही हो सकता है कि बाह्य विद्युत क्षेत्र की मौजूदगी में खास दिशा में प्रवाहित हो सकने वाले मुक्त इलेक्ट्रॉन की संख्या में वृद्धि करना। अर्द्धचालकों के संदर्भ में एक और रास्ता है - होल की संख्या बढ़ाना। यानी इलेक्ट्रॉन्स को अतिरिक्त खाली जगह उपलब्ध करवाना और उन्हें पदार्थ में प्रवाहित होने के लिए बढ़ावा देना। चूंकि इलेक्ट्रॉन खाली ऊर्जा स्तर की ओर आकर्षित होकर छलांग लगाते हैं, इसलिए कई दफा होल को धन आवेश की तरह मान लिया जाता है।
इस तरह हम कह सकते हैं कि किसी अर्ध-चालक में विद्युत सुचालकता दो तरह से बढ़ा सकते हैं, ऋण आवेश या धन आवेश (यानी होल) बढ़ाकर।
इलेक्ट्रॉनिक्स में हम एक कदम और आगे बढ़ जाते हैं और अर्ध-चालक पदार्थ में ही इलेक्ट्रॉन या होल बढ़ा देते हैं। अर्ध-चालकों में विद्युत सुचालकता बढ़ाने की इस विधि को डोपिंग कहते हैं। इसमें अर्द्धचालक पदार्थों (सिलिकॉन, जर्मेनियम) में ध्यानपूर्वक मूल परमाणुओं को हटाकर उनकी जगह अन्य पदार्थ के परमाणुओं (उदाहरण फॉस्फोरस या इंडियम) को स्थापित कर देते हैं। इन्हें डोपेन्ट (Dopant) कहते हैं। इन मेहमान परमाणुओं में मूल अर्द्धचालक के परमाणुओं की अपेक्षा वैलेंस इलेक्ट्रॉनों की संख्या या तो ज़्यादा होती है या कम। इसलिए इनकी वजह से उस पदार्थ में या तो इलेक्ट्रॉन की संख्या बढ़ जाती है या होल की संख्या में वृद्धि होती है।
उदाहरण के लिए फॉस्फोरस की बात करते हैं। हरेक फॉस्फोरस परमाणु की बाहरी कक्षा में 5 इलेक्ट्रॉन होते हैं (यानी 5 वैलेंस इलेक्ट्रॉन)। वहीं अर्द्धचालक पदार्थ सिलिकॉन के परमाणु की बाहरी कक्षा में चार इलेक्ट्रॉन होते हैं (यानी 4 वैलेंस इलेक्ट्रॉन)। इसलिए सिलिकॉन में फॉस्फोरस की डोपिंग की जाए तो अर्ध-चालक पदार्थ में इलेक्ट्रॉन की संख्या में वृद्धि होगी। होगा यह कि फॉस्फोरस के चार इलेक्ट्रॉन तो अपने आसपास के सिलिकॉन के चार परमाणुओं से सहसंबंध बना लेंगे, लेकिन एक इलेक्ट्रॉन किसी बंधन में न होने से मुक्त रहेगा। फॉस्फोरस यहां इलेक्ट्रॉन देता है इसलिए उसे दाता (Donor) कहा जाता है। जिन अर्धचालकों में दाता परमाणुओं की डोपिंग की जाती है उसमें विद्युत प्रवाह प्रमुखत: ऋण आवेशित इलेक्ट्रॉन की वजह से होता है। इसलिए उन्हें एन टाइप (N Type) अर्ध-चालक कहा जाता है।
वहीं दूसरी ओर इंडियम जैसे डोपेंट को ग्राही (Acceptor) कहा जाता है। इंडियम की बाहरी कक्षा में सिर्फ तीन इलेक्ट्रॉन होते हैं। इसलिए सिलिकॉन पर इंडियम की डोपिंग की जाए तो होल का निर्माण होता है।
इस तरह के अर्धचालकों में सामान्य तापमान पर वैलेंस बैंड के होल्स की संख्या कंडक्शन बैंड के इलेक्ट्रॉन से ज़्यादा होती है। यानी ऐसे अर्धचालकों में विद्युत प्रवाह होल्स की वजह से होता है। इसलिए उन्हें पी टाइप (P Type) अर्द्धचालक कहा जाता है।
ऋण और धन प्रकार के अर्द्धचालकों को एक-दूसरे से विविध तरह से जोड़कर अनेक आधारभूत इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेस बनाए जाते हैं। इसमें सबसे आसान आधारभूत संरचना P-N जंक्शन है, जिसे पी-टाइप और एन-टाइप के अर्द्धचालकों को जोड़कर बनाया जाता है; और आमतौर पर डायोड कहा जाता है। डायोड की खूबियों के बारे में अगले अंक में बातें करेंगे।
राजश्री राजगोपाल: इलेक्ट्रॉनिक्स एंड टेलीकम्यूनिकेशन में बी.ई. किया है। शैक्षणिक संदर्भ से संबद्ध। पुणे में निवास।
प्रियदर्शिनी कर्वे: श्रीमति काशिबाई नवले कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, पुणे में पढ़ाती हैं। शैक्षणिक संदर्भ (मराठी) के संपादन समूह की सदस्य हैं।
हिन्दी अनुवाद: माधव केलकर: शैक्षणिक संदर्भ से संबद्ध।