रिचर्ड पी. फायनमेन [Hindi PDF, 413 kB]
बीसवीं शताब्दी के एक सबसे खोजी भौतिक विज्ञानी माने जाने वाले रिचर्ड फायनमेन (1918-1988), विज्ञान के बारे में जीवंत तथा आडम्बरहीन तरीके सेे बात करने के लिए जाने जाते थे। यह अंश कैलीफोर्निया इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में पहले तथा दूसरे वर्ष के स्नातक छात्रों के बीच 1961-62 में दिए उनके एक प्रस्तावनात्मक व्याख्यान से लिया गया है।
यदि किसी महाप्रलय में सारा वैेज्ञानिक ज्ञान नष्ट हो जाता और अगली पीढ़ी के जीवों को देने के लिए केवल एक वाक्य बचता, तो किस कथन में कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक जानकारी आ जाती? मेरी समझ में वह वाक्य परमाणविक अभिकल्पना (या परमाणविक तथ्य, या आप इसे जो भी नाम देना चाहें) है कि समस्त चीज़ें परमाणुओं से बनी हैं - ऐसे छोटे कण, जो निरन्तर गतिशील रहते हैं, थोड़ी-सी दूरी होने पर एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं पर एकदम सटा दिए जाने पर एक-दूसरे कोे प्रतिकर्षित करने लगते हैं। अगर ज़रा-सी कल्पना और सोेच का इस्तेमाल किया जाए तो आप देखेंगे कि इस एक वाक्य में दुनिया के बारे में असाधारण मात्रा में सूचना भरी है।
इस परमाणविक विचार की ताकत समझने के लिए मान लीजिए कि हमारे पास चौेथाई इंच आकार की कोेई पानी की बंूद पड़ी है। यदि हम इसे बहुत नज़दीक से देखें तोे हमें पानी के अलावा कुछ ओैेेर नहीं दिखाई देेेगा - चिकना अविरत पानी। यदि हम सर्वोत्तम उपलब्ध प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी द्वारा इसे परिवर्द्धित करें, तब भी। लगभग 2000 गुना परिवर्द्धित करने के बाद पानी की बूंद लगभग 40 फीट की हो जाएगी, करीब एक बड़े कमरे जितनी बड़ी। औेर इसेे भी ध्यान से देखने पर हमें अब भी तुलनात्मक रूप से चिकना पानी ही दिखाई देगा। पर इसमें यहां वहां छोेटी फुटबॉल जैसी चीज़ें आगे-पीछे तैेरती दिखाई देंगी - बहुत मज़ेदार। ये पैेरामीशियम हैं।
हो सकता है, तुम इस बिन्दु पर रुककर हिलते-डुलते सीलिया (बाल जैसी रचना) और ऐंठते शरीर वाले पैरामीशियम के बारे में इतने जिज्ञासु हो जाओ कि आगेे बढ़ने की बजाय शायद केवल पैरामीशियम को औेर अधिक परिवर्द्धित कर उसके भीतर देखने लगो। परन्तु यह जीव-विज्ञान का विषय है और फिलहाल हम इसे पीछे छोड़कर पानी कोे औेर नज़दीक से देखते हैं और इसलिए इसे फिर 2000 गुना परिवर्द्धित करते हैं।
अब पानी की बूंद लगभग 15 मील की हो गई हैे, औेर यदि हम इसे गौर से देखें तो यहां एक प्रकार की भीड़ जैेसी दिखने लगती है, बूंद अब पहले की तरह चिकनी नहीं दिखती। अब यह ऐसी लगती है मानोे बहुत ज़्यादा दूर से देखेे जाने पर फुटबॉल मैेदान की भीड़। यह देखने के लिए कि यह भीड़ किस चीज़ की है, हमें इसे 250 गुना और परिवर्द्धित करना होगा औेर तब हमें चित्र-1 जैेसा दिखाई देगा।
यह एक अरब गुना परिवर्द्धित पानी का चित्र है पर इसे कई प्रकार से आदर्शीकृत कर दिया गया है। पहली बात, कणों को सरल रूप से पैने व स्पष्ट किनारों वाला चित्रित कर दिया गया है, जो गलत है। दूसरे, सरलता के लिए, उन्हें लगभग योजनाबद्ध तरीके से द्वि-आयामी व्यवस्था में बना दिया गया है जबकि वास्तव में वे तीनों आयामों में घूमते हैं। गौेर करें, यहां ऑक्सीजन (काले) औेर हाइड्रोजन (सफेद) परमाणुओं का प्रतिनिधित्व करने वाले दो प्रकार के वृत्त या ‘गोले’ हैं औेर प्रत्येक ऑक्सीजन के साथ दो हाइड्रोजन जुड़े हैं। (एक ऑक्सीजन के साथ दो हाइड्रोजन वाले प्रत्येक छोेटे समूह को एक अणु कहते हैं।)
चित्र इस प्रकार से भी आदर्शीकृत है कि प्रकृति में असली कण लगातार हिलतेे-डुलतेे व उछलते रहते हैं तथा एक-दूसरे के चारों ओर मुड़ते औेर घूमते रहते हैं। यही नहीं, आपको स्थिर चित्र की बजाय इसकी गतिशील कल्पना करनी होगी। चित्र में एक चीज़ और नहीं दिखाई जा सकती है, ये कण ‘आपस में चिपके हुए हैं’ - वे एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं, इसने उसको खींचा, आदि। कहा जाए तो पूरा समूह ‘आपस में चिपका हुआ है’। दूसरी ओर, कण एक-दूसरे से एकदम सट नहीं जाते। यदि आप उन्हें एक-दूसरे के बहुत नज़दीक सटाने की कोेशिश करें तो वे एक-दूसरे को विकर्षित करते हैं।
परमाणुओं की त्रिज्या 1 या 2 न् 10-8 सेंटीमीटर होती है। 10-8 सेंटीमीटर को एक एंगस्ट्रॉम (सिर्फ एक अन्य नाम) कहा जाता है, अत: हम कहते हैं कि उनकी त्रिज्या 1 या 2 एंंगस्ट्रॉम (ॠ) होती है। उनके आकार को याद रखने का दूसरा तरीका यह है कि यदि एक सेब को परिवर्द्धित कर धरती के आकार का कर दिया जाए तब सेब के परमाणु लगभग असली सेब के बराबर होंगे।
ऊष्मा यानी
अब पानी की इस विशाल बूंद की कल्पना करें जिसमें हिल-डुल रहे ये सब कण एक-दूसरे से चिपके हुए हैं और साथ-साथ ही इधर-उधर जाते हैं। परमाणुओं के एक-दूसरे के प्रति आकर्षण के कारण पानी अपना आकार बनाए रखता है, वह बिखर नहीं जाता। यदि बूंद एक ढलान पर हैे, जहां वह एक जगह से दूसरी जगह तक जा सकती है तो पानी बहेगा, पर वह बिखरकर गायब नहीं हो जाएगा। परमाणविक आकर्षण के कारण चीज़ें एकदम से बिखर नहीं जातीं। परमाणुओं के हिलने-डुलने की इस गति को ही हम गर्मी या ऊष्मा के रूप में देखते हैं। जब हम तापमान बढ़ाते हैं तो इस गति को बढ़ा देते हैं। यदि हम पानी को गरम करें तो परमाणुओं का हिलना-डुलना बढ़ जाता है और उनके बीच स्थान बढ़ जाता है। यदि गरम करना जारी रखें तो ऐसा समय आ जाता है कि परमाणुओं के बीच खिंचाव उनको एक साथ बांधे रखने के लिए काफी नहीं रह जाता, वे दूर हट जाते हैं औेर एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं। हां, इसी तरह तापमान बढ़ाकर हम पानी से भाप बनाते हैं। तापमान बढ़ाने से गति बढ़ने के कारण कण एक-दूसरे से दूर भाग जाते हैं।
चित्र-2 में भाप का चित्र है। यह चित्र एक मामले में त्रुटिपूर्ण है, साधारण वायुमंडलीय दाब पर पूरे कमरे में भाप के केवल कुछ अणु हो सकते हैं औेर निश्चित रूप से चित्र जितनी जगह में तो तीन नहीं ही होंगे। इस आकार के अधिकांश चौखानों में कुछ नहीं होगा। पर यहां संयोग से चित्र में भाप के ढाई या तीन अणु आ गए हैं (ताकि यह पूरी तरह खाली न रहे)। अब, भाप के मामले में हम पानी के मुकाबले विशिष्ट अणु को अधिक साफ तरीके से देख रहे हैं। सरलता के लिए, अणुओं को इस तरह चित्रित किया गया है कि उनके बीच 1200 का कोण है। वास्तविकता में यह कोण 10503’ होता है और हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन के केन्द्रों के बीच दूरी 0.957 एंगस्ट्रॉम होती है। यानी कि इस अणु को हम बहुत अच्छी तरह से जानते हैं।
गैस के गुणधर्म
आइए पानी की भाप या अन्य गैसों के कुछ गुणों को देेखें। एक-दूसरे से अलग हुए अणु दीवारों पर टक्करें मारेंगे। निरन्तर गतिशील, उछलती टेनिस गेंदों (सौे या उससे अधिक) से भरे एक कमरे की कल्पना करें। जब वे दीवार पर टक्करें मारती हैं तो दीवार दूर हट जाती है (निश्चित रूप से हमें दीवार को धकेल कर वापस लाना पड़ेगा)। इसका मतलब है कि गैस अणुओं के धक्के के रूप में बल लगाती है। जिसे हमारे अपरिष्कृत संवेदन (क्योंकि स्वयं हम एक अरब गुना परिवर्द्धित नहीं हुए) केवल एक औसत धक्के के रूप में महसूस करते हैं। इसलिए गैस को सीमित रखने के लिए हमें दबाव डालने की आवश्यकता होती है। चित्र-3 में (सभी पाठ्य पुस्तकों में प्रयुक्त) गैस रखने वाला मानक बर्तन यानी पिस्टन सहित एक सिलिंडर दिखाया गया है।
अब, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पानी के अणुओं की शक्ल क्या है, सरलता के लिए हम इन्हें टेनिस की गेंदों या छोटे बिन्दुओं के रूप में प्रदर्शित करेंगे। ये चीज़ें सभी दिशाओं में निरन्तर गतिशील हैं। अत: इनमें से बहुत-से अणु ऊपर के पिस्टन पर लगातार इतनी चोट करते रहते हैं कि इन निरन्तर टक्करों से पिस्टन को सिलिंडर के बाहर निकल जाने से बचाने के लिए हमें उसे एक निश्चित बल से नीचे दबाए रखना पड़ता है। इसे हम दबाव कहते हैं (वास्तव में दबाव गुणा क्षेत्रफल बल होता है)। स्पष्ट रूप से, बल क्षेत्रफल के समानुपाती होता है, क्योंकि यदि हम क्षेत्रफल बढ़ा दें पर प्रति घन सेंटीमीटर परमाणुओं की संख्या वही रखें तो पिस्टन पर पड़ने वाली कुल टक्करों की संख्या क्षेत्रफल बढ़ने के अनुपात में बढ़ जाएगी।
आइए, अब हम बर्तन में पहले से दुगुने अणु भर दें ताकि उनका घनत्व दुगुना हो जाए और उनकी गति वही रखें, यानी तापमान वही रखें। तब, एक मोटे अनुमान से, टक्करों की संख्या दुगुनी हो जाएगी और चूंकि प्रत्येक टक्कर पहले जितनी ही ‘शक्तिशाली’ होगी अत: दबाव घनत्व के समानुपाती होता है। यदि हम परमाणुओं के बीच शक्ति की सही प्रकृति पर गौर करें तब, परमाणुओं के बीच आकर्षण के कारण दबाव में हल्की-सी कमी तथा उनके द्वारा घेेरे जाने वाले निश्चित स्थान के कारण, दबाव में थोड़ी बढ़ोत्तरी की आशा करेंगे। इसके बावजूद, एक बेहतरीन अनुमान के लिए, यदि घनत्व इतना कम हो कि बहुत अधिक परमाणु न हों, दबाव घनत्व के समानुपाती होता है।
हम कुछ और भी देख सकते हैं। यदि गैस का घनत्व बदले बिना हम तापमान बढ़ा दें, यानी परमाणुओं की गति बढ़ा दें, तो दबाव का क्या होगा? तेज़ गति के कारण परमाणु ज़्यादा तेज़ टक्कर मारेंगे और इसके अलावा टक्करें अधिक होंगी जिससे दबाव बढ़ जाएगा। आपनेे देखा, परमाणविक सिद्धान्त का विचार कितना सरल है।
आइए, दूसरी स्थिति पर गौर करें। अनुमान लगाइए कि पिस्टन भीतर की ओर खिसकता है जिससे परमाणु धीरे-धीरे तुलनात्मक रूप से छोटी जगह में दबा दिए जाते हैं। परमाणु द्वारा खिसकते पिस्टन पर टक्कर मारने से क्या होगा? निश्चित रूप से टक्कर से उसकी गति बढ़ जाएगी। उदाहरण के लिए, आगे की ओर आ रहे किसी पटिए पर टेबिल टेनिस की गेंद मार कर उछालने से आप इसे देखने की कोशिश कर सकतेे हैं। आपको पता चलेगा कि यह जिस गति से फेंकी गई थी उससे तेेज़ गति से वापस आती है। (विशेेष उदाहरण: यदि एक परमाणु स्थिर है और पिस्टन उसे टक्कर मारता है तो वह निश्चित रूप से गतिशील होे जाएगा।) अत: परमाणु पिस्टन से टकरा कर वापस लौेटते समय, उससे टकराने के पहले की तुलना में अधिक ‘गर्म’ हो जाते हैं। इस प्रकार बर्तन में रखे सारे परमाणुओं की गति बढ़ गई होगी। इसका मतलब यह है कि जब हम गैेस को धीरे-धीरे दबाते हैं तो गैेस का तापमान बढ़ जाता है। अत: धीमेे कम्प्रेशन यानी संपीड़न से गैेस का तापमान बढ़ जाएगा और धीमे फैलाव से उसका तापमान घट जाएगा।
द्रव से ठोस की ओर
अब हम पानी की बूंद पर वापस लौेटतेे हैं और दूसरी दिशा में देखते हैं। अनुमान लगाइए कि हम अपनी पानी की बूंद का तापमान कम कर देते हैं। मान लीजिए कि पानी में परमाणुओं से बने अणुओं का हिलना-डुलना धीरे-धीरे कम हो रहा है। हम जानते हैं कि परमाणुओं के बीच आकर्षण शक्ति होती है अत: कुछ समय बाद वे उतनी अच्छी तरह से हिल-डुल नहीं सकेंगेे। अत्यन्त कम तापमान पर क्या होगा, इसे चित्र-4 में दर्शाया गया है। अणु एक नए तरीके से जुड़ जाते हैं जो बर्फ है।
बर्फ की संरचना का यह चित्र द्विआयामी होने के कारण गलत, पर गुणात्मक रूप से सही है। मज़ेदार बात यह है कि इस पदार्थ में प्रत्येेक परमाणु का एक निश्चित स्थान होता हैे, और आप आसानी से समझ सकते हैं कि यदि किसी तरह हम बूंद से जमी बर्फ में एक खास क्रम में जुड़े परमाणुओं का एक सिरा पकड़ सकें तो दृढ़ अंंतरसंबंधों वाले ढांचे के कारण (हमारे परिवर्द्धित पैमाने पर) मीलों दूर स्थित दूसरा सिरा खास स्थान पर ही होगा। अत: यदि हम बर्फ की सुई का एक सिरा पकड़ें तो दूसरा सिरा हमारे दबाने पर भी इधर-उधर नहीं हटता, जबकि पानी के मामले में परमाणुओं के अधिक हिलने-डुलने के कारण वे विभिन्न दिशाओं की ओर बढ़ लेते हैं औेर संंरचना टूट जाती है। अत: ठोस औेर द्रवों में यह अन्तर है कि ठोस पदार्थों में परमाणु एक प्रकार सेे व्यवस्थित रहते हैं जिसे क्रिस्टलीय व्यवस्था कहते हैं और लम्बी दूरी के बाद भी उनकी स्थिति अनियमित नहीं होती है। इसलिए क्रिस्टल के एक सिरे पर परमाणुओं की व्यवस्था क्रिस्टल के दूसरे सिरे पर करोड़ों परमाणुओं की दूरी पर स्थित दूसरे परमाणुओं की व्यवस्था द्वारा निर्धारित होती है।
चित्र-4 में बर्फ की एक काल्पनिक व्यवस्था दर्शाई गई है और हालांकि इसमें बर्फ के कई लक्षण सही दिखाए गए हैं फिर भी यह असली व्यवस्था नहीं है। एक सही लक्षण यह है कि यहां षटकोेणीय सममिति (सिमिट्री) का एक हिस्सा है। आप देख सकते हैं कि यदि हम तस्वीर को 1200 घुमा दें तो यह पहलेेे वाली स्थिति में वापस आ जाती हैे। इस प्रकार बर्फ में सममिति होती है जिसके कारण इसके हिमलव (स्नोेफ्लेक्स) छ: पहलू वाले होते हैं। चित्र-4 से हम दूसरी चीज़ यह देख सकते हैं कि बर्फ पिघलने पर सिकुड़ क्यों जाती है। बर्फ की सही संरचना की तरह यहां दिखाई बर्फ की क्रिस्टलीय संरचना में बहुत-से ‘छेद’ हैं। जब यह संरचना टूटती है तो इन छेदों में भी अणु समा जाते हैं। पानी तथा टाइप मैटल। को छोेड़कर अधिकांश सामान्य चीज़ें पिघलने पर फैलती हैं, क्योंकि ठोेस क्रिस्टल में परमाणु नज़दीकी से सटे होते हैं और पिघलने पर उनको हिलने-डुलने की ज़्यादा जगह की ज़रूरत होती है; पर एक खुली विरल संरचना सिकुड़/ढह जाती है जैसा कि पानी के मामले में होता है।
हालांकि बर्फ का ‘दृढ़/कड़ा’ क्रिस्टलीय रूप होता है पर इसका तापमान बदल सकता हैे। बर्फ में ऊष्मा होती है। यदि हम चाहें तो ऊष्मा की मात्रा बदल सकते हैं। बर्फ के मामले में ऊष्मा क्या होती है? बर्फ में भी परमाणु स्थिर नहीं पड़े रहते, वे कंपन करते रहते हैं। अत: क्रिस्टल में निश्चित व्यवस्था - निश्चित संरचना - के बावजूद सभी परमाणु ‘अपने स्थान पर’ कंपन करते रहते हैं। जब हम तापमान बढ़ाते हैं तो उनके कंपन का आयाम बढ़ता, और बढ़ता जाता है, जब तक वे हिल-डुल कर उस स्थान से अलग नहीं हट जाते हैं। हम इसे पिघलना कहते हैं। जब हम तापमान घटाते हैं तब कंपन घटता, और घटता जाता है, परम शून्य तक, जहां परमाणुओं में कंपन न्यूनतम हो जाता है - पर शून्य नहीं होता। हीलियम के एक अपवाद को छोड़कर, परमाणुओं की यह न्यूनतम गति किसी पदार्थ को पिघलाने के लिए काफी नहीं होती। हीलियम में भी तापमान घटने के साथ-साथ परमाणविक गति घटती जाती है, परन्तु परम शून्य पर भी उनकी इतनी गति रहती है जो इसे जमने से बचाती है। हीलियम परम शून्य पर भी जमती नहीं है जब तक इतना दबाव न डाला जाए कि परमाणु एक-दूसरे से सट जाएंं। यदि हम दबाव बढ़ा दें तो इसे ठोेस बना सकते हैं।
द्रव-गैस की सीमा पर
परमाणविक दृष्टिकोण से ठोस, द्रव और गैस के बारे में इतना वर्णन काफी है। परमाणविक परिकल्पना में प्रक्रियाओं का वर्णन भी शामिल है और अब हमें इस दृष्टिकोण से कुछ प्रक्रियाओं पर नज़र डालनी चाहिए। पहली प्रक्रिया जो हमें देखनी चाहिए वह पानी की सतह से जुड़ी है। पानी की सतह पर क्या होता है? यह कल्पना करें कि यह सतह हवा में है, हम तस्वीर को अधिक पेेेचीदा तथा अधिक वास्तविक बनाते हैं। चित्र-5 में हवा में पानी की सतह दिखाई गई है।
पहलेे की तरह हम पानी के संघटक अणुओं को देखते हैं पर अब पानी की सतह को भी देखते हैं। सतह के ऊपर हमें कई चीज़ें दिखाई देती हैं, पहली चीज़ भाप के रूप में पानी के अणु हैं। यह जल वाष्प है जो हमेशा द्रव पानी के ऊपर पाई जाती है (पानी तथा उसकी वाष्प में हमेशा एक संतुलन रहता है, जिसकी चर्चा हम बाद में करेंगे)। हमें कुछ दूसरे अणु भी दिखाई देते हैं। यहां दो ऑक्सीजन परमाणु आपस में चिपक कर ऑक्सीजन अणु बनाते हैं, वहां दो नाइट्रोजन परमाणु भी आपस में चिपक कर नाइट्रोजन अणु बनाते हैं। हवा में मुख्यत: नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, कुछ जल वाष्प औेर थोेड़ी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड, आर्गन तथा अन्य चीज़ें होती हैं। अत: पानी की सतह के ऊपर हवा यानी एक गैस होती है जिसमें कुछ जल वाष्प मिली रहती है।
अब, चित्र में क्या हो रहा है? पानी में अणु हमेशा हिलते-डुलते रहते हैं। कभी-कभार सतह के पास वाले अणु पर आम अणुओं के मुकाबले थोड़ी ज़्यादा टक्करें लगती हैं औेर वह बाहर धकेल दिया जाता है। तस्वीर में यह देखना मुश्किल है क्योंकि यह एक स्थिर तस्वीर है। पर हम कल्पना कर सकते हैं कि सतह के पास वाले एक अणु को अभी-अभी टक्कर लगी है और वह बाहर उड़ रहा है, या शायद अब दूसरे को टक्कर लगी हैे और वह बाहर निकल आया है। इस प्रकार एक-एक अणु निकलते-निकलते पानी गायब हो जाता है। वह वाष्पित हो जाता है। पर यदि हम बर्तन को ऊपर से ढंक दें तो थोड़ी देर में हमें हवा के अणुओं के बीच बड़ी संख्या में पानी के अणु मिलेंगे। कुछ-कुछ समय में इनमें से वाष्प का एक अणु उड़ता हुआ पानी की ओर जाता है और वहां फिर से चिपक जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि जो चीज़ हमें बेजान औेर बिना किसी दिलचस्पी वाली दिखाई पड़ती है - ढक्कन से ढंका एक गिलास पानी जो पिछले 20 साल से इसी तरह रखा है, वह वास्तव में निरन्तर जारी गतिशील औेर दिलचस्प परिघटना हो सकती है। हमारी आंखों के लिए, हमारी मोटी नज़र के लिए कुछ भी बदल नहीं रहा है, पर यदि हम इसे एक अरब गुना परिवर्द्धित कर देख सकें तो हम पाएंगे कि अपने हिसाब से इसमें लगातार परिवर्तन हो रहा है, अणु सतह छोड़कर जाते हैं, अणु वापस आते हैं।
हमें परिवर्तन क्यों नहीं दिखाई देता? क्योंकि जितने अणु सतह छोड़ते हैं उतने वापस आते हैं! लम्बे समय में ‘कुछ नहीं’ होता है। अब, यदि हम ऊपर का ढक्कन हटा दें और नम हवा को फूंक कर हटा कर इसकी जगह सूखी हवा आने दें तो बाहर जाने वाले अणुओं की संख्या पहले जैसी रहेगी क्योंकि यह पानी के अणुओं के हिलने-डुलने पर निर्भर है, पर वापस आने वालों की संंख्या काफी कम हो जाएगी क्योंकि पानी के ऊपर बहुत कम पानी के अणु होंगे। इस प्रकार बाहर जाने वाले अणुओं के मुकाबले भीतर आने वाले अणु कम होंगेे और पानी वाष्पित हो जाएगा। अत: यदि आप पानी वाष्पित करना चाहते हों तो पंखा चला दें!
इसके अलावा एक और मसले पर विचार करते हैं, कौन-से अणु बाहर जाते हैं? जब कोई अणु बाहर जाता है तो ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि संयोगवश यह सामान्य ऊर्जा के मुकाबले थोड़ी अधिक ऊर्जा संग्रह कर चुका होता है, जिसकी ज़रूरत इसे पड़ोेसियों का आकर्षण तोड़ने के लिए होती है। चूंकि जो अणु बाहर जाते हैं उनके पास औसत से अधिक ऊर्जा होती है, इसलिए जो बचते हैं उनकी औेसत गति पहले के मुकाबले कम होती है। अत: यदि वाष्पन हो रहा है तो द्रव धीरे-धीरे ठंंडा होता है। निश्चित रूप सेे, जब वाष्प का कोेई अणु हवा से नीचे पानी की ओर आता है तो सतह के पास आनेेे पर अणु पर भारी आकर्षण काम करता है। इससे आने वाले अणु की गति बढ़ जाती है तथा गर्मी पैेदा होती है। अत: जब अणु बाहर जाते हैं तो गर्मी ले जाते हैं और जब वापस आते हैं तब गर्मी पैदा करते हैं। हालांकि जब कुल मिला कर वाष्पन नहीं होता तो परिणाम भी कुछ नहीं होता है। पानी का तापमान नहीं बदलता है। यदि हम पानी पर निरन्तर फूंक मार कर वाष्पित होने वाले अणुओं की प्रचुरता बनाए रखते हैं तो पानी ठंडा होता है। अत: शोेरबा ठंडा करने के लिए उस पर फूंक मारें!
निश्चित रूप से, आपको अहसास होना चाहिए कि अभी वर्णित प्रक्रियाएंं हमारे वर्णन से ज़्यादा पेचीदा हैं। न केवल पानी हवा में उड़ता है, बल्कि समय-समय पर ऑक्सीजन या नाइट्रोजन का एक अणु भीतर आता है और पानी के अणुओं के बीच ‘खो जाता’ है और पानी में अपनी जगह बना लेता है। इस प्रकार हवा पानी में घुल जाती है, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन अणु पानी में अपनी जगह बना लेते हैं और हवा पानी में बनी रहती है। यदि हम बर्तन के ऊपर से अचानक हवा हटा दें तो हवा के अणु पानी में आने के मुकाबले ज़्यादा तेज़ी से उससे बाहर जाएंगे और ऐसा करने में पानी में बुलबुले बनेंगे। हो सकता है आप जानते हों, यह गोताखोरों के लिए अत्यंत घातक हो सकता है।
द्रव-ठोस की सीमा पर
अब हम दूसरी प्रक्रिया पर गौर करते हैं। चित्र-6 में हम पानी में घुलते ठोस को परमाणविक नज़र से देेखते हैं।
यदि हम पानी में एक क्रिस्टल नमक (लवण) डालें तो क्या होगा? नमक ठोस, एक क्रिस्टल यानी ‘नमक परमाणुओं’ की संगठित व्यवस्था है। चित्र-7 में साधारण नमक, सोडियम क्लोराइड की त्रिआयामी संरचना दिखाई गई है।
एकदम सही तरह से व्यक्त करें तो क्रिस्टल परमाणुओं का नहीं, आयनों का बना है। आयन एक ऐसा परमाणु है जिसके पास या तो अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन हैं या वह कुछ इलेक्ट्रॉन खो चुका है। नमक के क्रिस्टल में हमें क्लोरीन आयन (एक अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन वाले क्लोरीन परमाणु) और सोडियम आयन (एक इलेक्ट्रॉन खो चुके सोडियम परमाणु) मिलते हैं। ठोस नमक में सभी आयन विद्युतीय आकर्षण के कारण आपस में चिपके रहते हैं पर जब हम उसे पानी में डालते हैं तब ऋणात्मक ऑक्सीजन और धनात्मक हाइड्रोजन के आकर्षण के कारण कुछ आयन ढीले हो जाते हैं। चित्र-6 में हम एक क्लोरीन आयन को ढीला होते और दूसरे परमाणुओं को आयन के रूप में पानी में तैरता देखते हैं।
यह चित्र काफी ध्यान से बनाया गया है। उदाहरण के लिए, गौर करें कि पानी के अणुओं के हाइड्रोजन वाले सिरों के क्लोेरीन आयन के पास होने की संभावना अधिक है, जबकि सोडियम आयन के ऑक्सीजन सिरे के पास पाए जाने की संभावना अधिक है, क्योंकि सोडियम धनात्मक और पानी का ऑक्सीजन सिरा ऋणात्मक है और उनमें विद्युतीय आकर्षण होता है। क्या इस चित्र से हम बता सकते हैं कि नमक पानी में घुल रहा है या क्रिस्टलीकरण होकर वह पानी से बाहर आ रहा है? निश्चित रूप से हम यह नहीं बता सकते, क्योंकि जहां कुछ परमाणु क्रिस्टल को छोेड़ रहे हैं वहीं कुछ और उसमें फिर से जुड़ रहे हैं। यह प्रक्रिया ठीक वाष्पीकरण की तरह गत्यात्मक यानी डायनेमिक है और इस बात पर निर्भर करती है कि पानी में नमक, संतुलन बनाए रखने वाली मात्रा से कम है या ज़्यादा है। संतुलन से हमारा मतलब उस स्थिति से है, जहां छोड़ने वाले परमाणुओं की दर वापस लौटने वाले परमाणुओं की दर से ठीक-ठीक मेल खाती हो। यदि पानी में नमक लगभग नहीं है तो वापस आने वाले परमाणुओं की तुलना में छोड़ने वाले परमाणु अधिक होंगे और नमक पानी में घुल जाएगा। यदि दूसरी तरफ, पानी में ‘नमक परमाणु’ बहुत अधिक हैं तो छोड़ने वालों के मुकाबले वापस ज़्यादा आएंगे और नमक का क्रिस्टलीकरण होगा।
लगे हाथ यह भी बता दें कि किसी चीज़ के अणु की अवधारणा केवल एक अनुमान है और केवल कुछ खास श्रेणी के पदार्थों पर ही लागू होती है। पानी के मामले में साफ है कि तीन परमाणु वास्तव में एक साथ चिपके हैं। ठोस सोडियम क्लोराइड के मामले में यह इतना साफ नहीं है। यहां बस घनाकार रूप में सोडियम और क्लोरीन आयनों की एक व्यवस्था होती है। इनका नमक के अणुओं के रूप में समूह बनाने का कोई प्राकृतिक या स्वाभाविक तरीका नहीं है।
विलयन तथा अवक्षेपण (प्रेसीपिटेशन) की चर्चा पर वापस लौटें, यदि हम नमक के घोल का तापमान बढ़ा दें तो बाहर आने वाले परमाणुओं की संख्या बढ़ जाती है और इसी तरह वापस जाने वाले परमाणुओं की दर भी। आमतौर से यह अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है कि यह कौन-सा रास्ता अख्तियार करेगा, ठोस कम घुलेगा या ज़्यादा। तापमान बढ़ने पर आमतौर पर चीज़ें ज़्यादा घुलती हैं पर कुछ चीज़ें कम।
साथी बदलते परमाणु
अब तक बताई गई सभी प्रक्रियाओं में परमाणु और आयन ने अपने साथी नहीं बदले थे, पर निश्चित रूप से कुछ ऐसी परिस्थितियां होती हैं जिनमें परमाणु संयोजन बदलते हैं और नए अणु बनाते हैं। इसे चित्र-8 में दिखाया गया है।
जिस प्रक्रिया में परमाणविक संयोजनों की व्यवस्था बदलती है उसे हम रासायनिक अभिक्रिया कहते हैं। अब तक बताई अन्य प्रक्रियाओं को भौतिक अभिक्रियाएं कहते हैं पर इनके बीच कोई स्पष्ट अन्तर नहीं है। (प्रकृति चिन्ता नहीं करती कि हम उसे क्या कहते हैं, वह तो बस उसे करती रहती है)। यह चित्र ऑक्सीजन में कार्बन जलने को प्रदर्शित करने का प्रयास करता है। ऑक्सीजन के मामले में दो ऑक्सीजन परमाणु बहुत मजबूती से एक-दूसरे से चिपके रहते हैं। (तीन या चार एक साथ क्यों नहीं चिपकते हैं? यह ऐसी परमाणविक प्रक्रियाओं की एक बहुत खास विशेषता है। परमाणु बहुत विशिष्ट होते हैं, वे कुछ खास साझेदार, कुछ खास दिशाएं, आदि पसंद करते हैं। यह विश्लेषण करना भौतिकी का काम है कि प्रत्येक परमाणु जो चाहता है, वह क्यों। हर हाल में, ऑक्सीजन के दो परमाणु संतृप्त और ‘प्रसन्न’ अणु का निर्माण करते हैं।)
कार्बन परमाणु ठोस क्रिस्टल रूप में पाए जाते हैं (जो ग्रेफाइट या हीरा। हो सकता है)।।। उदाहरण के लिए, एक ऑक्सीजन अणु एक कार्बन के पास आता है और प्रत्येक परमाणु एक कार्बन अणु के साथ नए संयोजन ‘कार्बन-ऑक्सीजन’ के रूप में बना कर उड़ लेता है, जो कार्बन मोनोऑक्साइड गैस का अणु है। इसे रासायनिक नाम क्ग्र् दिया जाता है। यह बहुत सरल है, अक्षर ‘क्ग्र्’ प्रायोगिक रूप से उस अणु का एक चित्र है। पर कार्बन ऑक्सीजन को बहुत ज़्यादा आकर्षित करता है, बजाय ऑक्सीजन-ऑक्सीजन या कार्बन-कार्बन के। अत: संभव है कि इस प्रक्रिया में ऑक्सीजन बहुत थोड़ी ऊर्जा के साथ आए, पर ऑक्सीजन और कार्बन एक दूसरे से इतने भीषण उग्र रूप और खलबली के साथ मिलते हैं कि उनके आसपास की हर चीज़ ऊर्जा से भर जाती है। इस प्रकार भारी मात्रा में गतिज ऊर्जा पैदा होती है। इसे ही दहन या जलना कहते हैं। हमें ऑक्सीजन और कार्बन के संयोजन से गर्मी मिलती है। सामान्यत: गर्मी, गर्म गैस कीे परमाणविक गति के रूप में होती है पर कुछ परिस्थितियों में यह इतनी अधिक हो सकती है कि प्रकाश पैदा होने लगे। इस प्रकार हमें ज्वालाएं दिखती हैं।
इसके अलावा, कार्बन मोनोऑक्साइड पूरी तरह संतृप्त नहीं होती है। इसके लिए दूसरे ऑक्सीजन से जुड़ना संभव होता है और इस प्रकार एक बहुत अधिक पेचीदा अभिक्रिया होती है जिसमेंें ऑक्सीजन कार्बन के साथ संयोजन करती हैे और साथ-साथ इसकी टक्कर कार्बन मोनोऑक्साइड अणु के साथ भी होती है। ऑक्सीजन का एक परमाणु क्ग्र् के साथ जुड़कर आखिरकार एक अणु बना सकता है जिसमें एक कार्बन व दो ऑक्सीजन हों, जिसे क्ग्र्2 लिखा तथा कार्बन डाईऑक्साइड कहा जाता है। यदि हम कार्बन का बहुत थोड़ी ऑक्सीजन के साथ बहुत तेज़ अभिक्रिया में दहन करें (उदाहरण के लिए ऑटोमोबाइल इंजन में, जहां विस्फोट इतना तेज़ होता है कि कार्बन डाईऑक्साइड बनने के लिए समय नहीं होता), तो काफी मात्रा में कार्बन मोनोऑक्साइड पैदा होती है। इस प्रकार अनेक मामलों में, संयोजनों की व्यवस्था बदलने से, विस्फोट, ज्वालाएं आदि रूप में बहुत भारी मात्रा में ऊर्जा मुक्त होती है। रसायनज्ञों ने परमाणुओं की व्यवस्था का अध्ययन कर यह पता लगाया है कि सभी पदार्थों में परमाणुओं की एक खास व्यवस्था होती है।
परमाणुओं की जमावट का खेल
इस विचार को समझने के लिए आइए एक और उदाहरण लें। यदि हम छोेटे वायोलेट्स यानी नीलपुष्पों के एक मैेदान में जाएं तो पता चल जाता है कि यह ‘क्या खुशबू’ है। यह किसी प्रकार के अणु यानी परमाणुओं की व्यवस्था है जो हमारी नाक तक पहुंच जाते हैं। पहले तो, ये नाक में कैसे घुस जाते हैं? यह बहुत आसान है। यदि खुशबू हवा में कंपन करते, इधर-उधर भागते किसी प्रकार के अणु हैं तो ये संयोगवश हमारी नाक में पहुंच सकते हैं। निश्चित रूप से, हमारी नाक में घुसने की इनकी कोई खास इच्छा नहीं होती है। यह केवल अणुओं की धकियाती भीड़ का एक असहाय हिस्सा होता है और निरुद्देश्य घूमते हुए पदार्थ का यह टुकड़ा अपने आप को नाक के अंदर पाता है।
अब रसायनज्ञ वायोलेट्स की खुशबू जैसेे विशेष अणुओं का विश्लेषण कर हमें परमाणुओं की ठीक-ठीक व्यवस्था बता सकतेे हैं। हम जानते हैं कि कार्बन डाईऑक्साइड अणु सरल और सिमेट्रिक/सममित (ग्र्-क्-ग्र्) होता है। (इसका पता भौतिक विधियों द्वारा भी आसानी से लगाया जा सकता है)। परन्तु रसायन शास्त्र में मौजूद इससे भी कहीं ज़्यादा पेचीदा अणुओं की व्यवस्थाओं के बारे में भी, लम्बे व विशिष्ट खोजी काम के ज़रिए पता लगाया जा सकता है। चित्र-9 में नीलपुष्प के पास की हवा को दिखाया गया है।
यहां हम फिर हवा में नाइट्रोजन, ऑक्सीजन तथा जल वाष्प को पाते हैं। (यहां जल वाष्प क्यों है? क्योंकि नीलपुष्प गीले हैं। सभी पौेधेे वाष्पोत्सर्जन करते हैं।) यहां हमें कार्बन अणुओं, ऑक्सीजन अणुओं तथा हाइड्रोजन अणुओं का एक ‘महाकाय’ दिखाई देता है जिसमें एक खास प्रकार की व्यवस्था है। कार्बन डाईऑक्साइड के मुकाबले यह व्यवस्था बहुत अधिक पेेचीदा है, वास्तव में यह असाधारण पेचीदा व्यवस्था है। दुर्भाग्य से, इसके बारे में रासायनिक रूप से ज्ञात सभी चीज़ों को हम चित्र में नहीं दिखा सकते हैं क्योंकि इसके अणुओं की ठीक-ठीक व्यवस्था त्रिआयामी होती है जबकि हमारी तस्वीर केवल द्विआयामी है। छ: कार्बन जो छल्ला बनाते हैं वह चपटा नहीं बल्कि ‘उठा हुआ, शिकनभरा’ होता है। इसके सभी कोण और दूरियां ज्ञात हैं। अत: रासायनिक फॉर्मूला ऐसे अणु की केवल एक तस्वीर होती है। जब रसायनज्ञ ऐेसी चीज़ ब्लैकबोर्ड पर लिखते हैं तो वे मोटे तौर से इसे द्विआयामी रूप से ‘बनाने’ की कोेशिश कर रहे होते हैं। उदाहरण के लिए, हमें छ: कार्बन का एक ‘छल्ला’तथा एक सिरे से लटकते कई कार्बन की एक ‘जंज़ीर’ दिखाई देती है। इस जंज़ीर में आखिरी से दूसरे नम्बर पर एक ऑक्सीजन, कार्बन से बंधे तीन हाइड्रोजन तथा एक जगह चिपके हुए दो कार्बन और तीन हाइड्रोजन, आदि दिखाई देते हैं।
रसायन शास्त्रियों का कमाल
रसायनज्ञ कैसे पता लगाते हैं कि व्यवस्था सचमुच कैसी है? वे चीज़ों से भरी बोतलों को आपस में मिलाते हैं औेर यदि वह लाल हो जाए तो हमें बता देतेे हैं कि इसमें एक हाइड्रोजन और दो कार्बन आपस में जुड़े हैं, दूसरी ओर यदि वह नीला हो जाए तो ऐसी व्यवस्था बिल्कुल नहीं होगी। यह अब तक किया गया सबसे विलक्षण खोजी कार्य है - कार्बनिक रसायन। इन अत्याधिक पेेचीदा व्यवस्थाओं में परमाणुओं की व्यवस्था खोजने के लिए रसायनज्ञ दो भिन्न चीज़ों को आपस में मिलाकर देखते हैं कि क्या हुआ। भौतिकविज्ञानी शायद कभी पूरी तरह विश्वास नहीं कर सके कि परमाणुओं की व्यवस्थाओं का वर्णन कर रहे रसायनज्ञ वे चीज़ें जानते थे। पिछले बीस सालों में भौतिक विधियों द्वारा, कुछ मामलों में, इन अणुओं (इसकी तरह पेचीदा नहीं बल्कि इसके कुछ हिस्सों जैसे) को देखना और रंगों की बजाय, नापजोख कर प्रत्येक परमाणु की स्थिति पता लगाना संभव हो सका है। और आश्चर्य की बात है कि रसायनज्ञ हमेशा सही पाए गए।
पता चला कि वास्तव में वायोलेट्स की खुशबू में तीन प्रकार के थोड़े भिन्न अणु थे जो केवल हाइड्रोजन अणुओं की व्यवस्था के मामले में अलग थे।
रसायन शास्त्र की एक समस्या चीज़ों को नाम देने की है ताकि हम जान सकें कि किस चीज़ की बात हो रही है।
इस आकार का नाम बताइए! न केवल नाम से आकार का पता चलना चाहिए बल्कि उससे यह भी जानकारी मिलनी चाहिए कि एक ऑक्सीजन परमाणु यहां और एक हाइड्रोजन परमाणु वहां है यानी अणु में ठीक-ठीक कहां क्या है। आप देखिए कि इस चीज़ (चित्र-10) की संरचना कोेे बताने वाला पूरा नाम 4 है और इससे पता चलता है कि यह व्यवस्था है। हम रसायनज्ञों की मुश्किलें व इतने लम्बे नामों की वजह भी समझ सकते हैं। ऐसा नहीं कि वे चीज़ों को दुरूह बनाना चाहते हैं बल्कि उनके सामने अणुओं को शब्दों में वर्णन करने की अत्यन्त कठिन चुनौती है।
कैसे मालूम हमें?
हम कैसे जानते हैं कि परमाणु हैं? पहले बताई एक तरकीब के ज़रिए। हम कल्पना करते हैं कि परमाणु हैं औेर एक के बाद एक हमारे अनुमान के अनुसार नतीजेे आते हैं, जैसे कि सभी चीज़ें परमाणुओं की बनी हों। इसके कुछ सीधे प्रमाण भी हैं जिसका एक अच्छा उदाहरण यह है: परमाणुओं को प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी से नहीं देखा जा सकता, वास्तव में उनको इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से भी नहीं देखा जा सकता है। (प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी से आप वही चीज़ें देख सकते हैं जो बहुत बड़ी हों)। यदि परमाणु निरन्तर गतिशील रहते हों, जैसे पानी में और हम पानी में एक बड़ी गेंद डालें जो परमाणुओं से बहुत बड़ी हो - तो गेंद हिलती-डुलती रहेगी जैेसे एक खेल में, जहां एक बड़ी गेंद बहुत से लोगों द्वारा मैदान में इधर-उधर धकाई जाती है। लोग इसे विभिन्न दिशाओं में धक्का देते हैं और गेंद मैेदान में अनियमित रूप से घूूमती रहती है। इसी तरह यहां भी ‘बड़ी गेंद’, एक ओर और दूसरी ओर पड़ने वाली टक्करों में, एक क्षण से दूसरे क्षण के बीच आने वाले अन्तर के कारण घूमती रहेगी। अत: यदि हम बहुत अच्छे सूक्ष्मदर्शी द्वारा पानी में अत्यन्त सूक्ष्म कणों (कोलॉयड्स) को देखें तो कणों का लगातार हिलना-डुलना दिखाई देगा, जो परमाणुओं की टक्करों का नतीजा है। इसे ब्राउनी गति या ब्राउनियन मोशन कहते हैं।
क्रिस्टलों की संरचना में हम परमाणुओं के और प्रमाण देख सकते हैं। बहुत से मामलों में एक्स-रे विश्लेषण से प्राप्त संरचनाओं में उसी तरह के ‘आकार’ दिखाई देते हैं जैसे वास्तव में क्रिस्टल प्राकृतिक रूप से प्रदर्शित करते हैं। क्रिस्टलों के अनेक ‘तलों’ के बीच के कोेण वृत्तांशों के सेकेंडों तक, उन कोणों से मिलते हैं जो इस आधार पर बनाए जाते हैं कि क्रिस्टल परमाणुओं की अनेक ‘पर्र्तों’ के बने होते हैं।
प्रत्येक चीज़ परमाणुओं की बनी होती है। यह मुख्य परिकल्पना है। उदाहरण के लिए जीवविज्ञान की सबसे महत्वपूर्ण परिकल्पना यह है कि जीव जो कुछ करते हैं, परमाणु करते हैं। दूसरे शब्दों में, जीवित चीज़ें ऐसा कुछ नहीं करती हैं जिसे इस तरह न समझा जा सके कि वे परमाणुओं से बनी हैं औेेेर भौतिकी के नियमों के अनुसार काम करती हैं। यह शुरुआत से ज्ञात नहीं था। इस परिकल्पना तक पहुंचने के लिए कई प्रयोग किए गए, परिकल्पनाएं बनाई गईं, पर आज इसे स्वीकार कर लिया गया है, और अब जीव-विज्ञान के क्षेत्र में नए विचारों को पैदा करने वाला यह सर्वाधिक लाभदायक सिद्धान्त है।
परमाणुओ का एक और कमाल - अजूबे हम!
अगर अगल-बगल लगे परमाणुओं से बने, लोहे और नमक के टुकड़े में इतने दिलचस्प गुण हैं; अगर ज़मीन पर मीलों-मील फैला पानी, जो इन छोटी-छोटी गोलियों के अलावा और कुछ नहीं, लहरें और झाग पैेदा कर सकता है, पत्थरों और सीमेंट से टकराने पर आश्चर्यजनक आवाज़ें और आकृतियां पैदा कर सकता है; यदि यह सब कुछ, पानी के झरने का सारा जीवन, परमाणुओं के ढेर के अलावा औेर कुछ नहीं हैे तो कितना कुछ और संभव है? यदि बार-बार दुहराई गई, कुछ खास आकृतियों में व्यवस्थित करने, बार-बार यही काम करने या फिर इससे कहीं जटिल वायोलेट्स की खुशबू के छोेटे-छोटे टुकड़े बनाने की बजाय हम परमाणुओं को विभिन्न तरीके से व्यवस्थित कर, निरन्तर परिवर्तनशील, बिना दुहराव, एक जगह से बिल्कुल अलग व्यवस्था दूसरी जगह बना सकें तो चीज़ें और कितने आश्चर्य-जनक तरीके से व्यवहार कर सकती हैं? क्या यह संभव है कि आपके सामने चहलकदमी करने वाली, आपसे बात करने वाली ‘चीज़’ बहुत पेचीदा तरीके से व्यवस्थित परमाणुओं के ढेर के अलावा कुछ नहीं है, जिसकी पेेचीदगी, इसमें मौजूद संभावनाएं कल्पना तक को हिला देती हैं? जब हम कहते हैं कि हम परमाणुओं के ढेर हैं तो हमारा मतलब यह नहीं होता कि हम सिर्फ परमाणुओं के ढेर हैं, क्योंकि बिना दुहराव वाले परमाणुओं के ढेर में शायद वे सब संभावनाएं मौजूद हैं जो अपने आपको देखते हुए आपको शीशे में दिखती हैं।
रिचर्ड फायनमेन: (1918-1988) प्रख्यात भौतिकशास्त्री एवं नोबल पुरस्कार विजेता। अपने विभिन्न शोधकार्यों के साथ-साथ उन्हें पढ़ाने का भी शौक था। कॉलेज के विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान संबंधी उनके लेक्चर्स का संकलन ‘फायनमेन लेक्चर्स’ किसी भी भौतिकी पढ़ने वाले के लिए एक बेजोड़ किताब है।
अंग्रेज़ी से अनुवाद - के. बी. सिंह। अनुवाद, लेखन एवं संपादन के क्षेत्र में कार्यरत। लखनऊ में निवास।
यह लेख ‘द वर्ल्ड ट्रेज़री ऑफ फिज़िक्स, एस्ट्रोनॉमी एंड मैथेमेटिक्स’, संपादक - टिमोथी फेरिस, प्रकाशक: लिटिल बूवन एंड कम्पनी, 1991, किताब से लिया गया है।
सभी मनुष्यनुमा आकृतियां आमोद कारखानिस द्वारा बनाई गई हैं।