उमा सुधीर
सन् 2005 की गर्मियों में भोपाल में शिक्षकों के लिए आयोजित आवासीय प्रशिक्षण में शिक्षकों ने खुद की रुचि के कुछ प्रोजक्ट्स पर भी काम किया। इन्हीं में से एक था ककड़ी के कड़वेपन से संबंधित - कड़वेपन का अंदाज़ लगाने व उसे दूर करने के बारे में प्रचलित धारणाओं को परखना। उस अनुभव का विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत किया गया है इस लेख में।
पिछले वर्ष की गर्मियों में एकलव्य संस्था ने भोपाल में शिक्षकों के लिए एक आवासीय प्रशिक्षण का आयोजन किया था। प्रशिक्षण की तैयारी के वक्त यह तय हुआ था कि सामान्य नियोजित सत्रों के अलावा शिक्षक खुद जांच पड़ताल करने के प्रोजेक्ट्स भी करें। ये प्रोजेक्ट्स ऐसे प्रश्नों से संबंधित थे जो रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हमारे सामने आते हैं; जैसे - भरपूर पकाने के बाद भी तुअर की दाल सदैव क्यों नहीं पक जाती? कुछ ककड़ियां कड़वी क्यों होती हैं? गेंद क्यों उछलती है? ऐसे बहुत से और सवाल भी थे।
इस प्रशिक्षण के पहले दिन सभी अध्यापकों के सामने कुछ सवाल रखे गए और उनसे कहा गया कि यदि उनके मन में भी ऐसे सवाल हों तो वे उन्हें भी इस सूची में शामिल करवा सकते हैं। ऐसे सवालों के किसी तार्किक हल तक पहुंचना हमारे प्रोजेक्ट्स का प्रमुख उद्देश्य था, या दूसरे शब्दों में यही प्रोजेक्ट था।
सवालों की सूची तय हो जाने के बाद शिक्षकों को उनकी रुचि के हिसाब से प्रोजेक्ट चुनने को कहा गया। हर प्रोजेक्ट के लिए एक-एक टोली बनाई गई। प्रत्येक टोली में शिक्षकों के साथ स्रोत दल के एक-दो लोग भी शामिल थे।
हर प्रोजेक्ट के बारे में सघन सामूहिक चर्चा हुई, जिसके कारण अपना-अपना प्रोजेक्ट चुनने के पहले प्रत्येक शिक्षक को अंदाज़ा था कि उस प्रोजेक्ट में जांच-पड़ताल किस तरह से की जा सकती है।
ककड़ी वाली टोली
मैं उस टोली का हिस्सा थी जिसने ‘ककड़ी कड़वी क्यों?’ विषय पर काम करने का मन बनाया था। सबसे पहले हम सबने इस प्रश्न पर चर्चा की और ककड़ी के कड़वेपन के बारे में जो प्रचलित धारणाएं होती हैं उनकी सूची बनाई। यह है उनकी सूची:
- कुछ अध्यापकों का दावा था कि वे ककड़ी के आकार, रंग-रूप के आधार पर बता सकते हैं कि कौन-सी ककड़ी कड़वी है और कौन-सी नहीं। सुंदरता के प्रति हमारे पूर्वाग्रह के अनुरूप जो ककड़ी बेढंगी, बदरंग या टेढ़ी-मेढ़ी होती है, वो ज़्यादातर कड़वी होती है यह आम प्रचलित धारणा थी।
— कुछ लोगों के मुताबिक पूरी ककड़ी सामान्यत: कड़वी नहीं होती, ककड़ी का छिलका या जो हिस्सा डंठल के सहारे बेल से जुड़ा होता है, वही कड़वा होता है।
— ककड़ी का कड़वापन कम करने के लिए लोग अक्सर यह तरीका अपनाते हैं - ककड़ी के एक या दोनों सिरों से एक-एक छोटा टुकड़ा काटकर उसे ककड़ी पर घिसते हैं। हम परखकर देखना चाहते थे कि यह कितना कारगर होता है।
— अगर ककड़ी कड़वी हो ही, तो कड़वेपन को दबाने/मारने के बहुत से नुस्खे सुझाए गए। हम इन सब तरीकों को परखना चाहते थे ताकि पता कर पाएं कि कौन-सी विधि कड़वेपन को खत्म करने में कारगर होगी।
— काफी सारे शिक्षक ग्रामीण पृष्ठभूमि के थे और उनका खेती-बाड़ी का खासा अनुभव था। ऐसे कई शिक्षकों का कहना था कि एक बेल की ककड़ी कड़वी निकले तो उस बेल की सभी ककड़ी कड़वी ही निकलेंगी। उन्होंने यह भी जोड़ा कि जब पता चल जाता है कि कोई खास बेल में कड़वी ककड़ियां ही लग रही हैं तो उसे उखाड़कर फेंक दिया जाता है। हमारे पास यह जांचने का कोई तरीका नहीं था कि ऐसी कुछ ही बेल होती हैं जिन पर केवल कड़वी ककड़ियां ही लगती हैं या किसी भी बेल पर सामान्य व कड़वी ककड़ी संभव है। अगर किसी ने इस धारणा की खोजबीन की हो तो मैं ज़रूर जानना चाहूंगी।
यहां तक चर्चा हो जाने के बाद हम सब सोचने लगे कि कड़वेपन पर और आगे काम करने के लिए हमें किन-किन वस्तुओं की ज़रूरत होगी। हमारी सूची में सबसे ऊपर थी - ककड़ी। अलग-अलग प्रकार की ककड़ियां। मसलन मोटी-पतली, बड़ी-मझौली, सीधी-तिरछी, अलग-अलग रूप-रंग, आकार (शेप-साइज़) की।
ककड़ियां हासिल करने के लिए बाज़ार-हाट जाना ज़रूरी था। इस काम में हंसी-मज़ाक के साथ सब शामिल हो गए। हाट पहुंचने के बाद यह मुस्कुराहट दुकानदारों के चेहरों पर दिखाई दी जिन्हें विभिन्न व विविध तरह की ककड़ियां ढूंढने व खरीदने की हमारी कोशिश अत्यन्त सनकी लग रही थी।
कड़वेपन की शिनाख्त
तरह तरह की खूब सारी ककड़ियां खरीद लेने के बाद फिर इन्हें अपने आसपास के बहुत-से लोगों को दिखाया गया और केवल देखकर भविष्यवाणी करने को कहा गया कि इनमें से कौन-सी कड़वी हैं। ज़्यादातर लोगों ने बेढंगी, धब्बेदार, मुड़ी-तुड़ी ककड़ियों के बारे में ही पक्के तौर पर यह दावा किया। इन सब भविष्य-वाणियों को लिख लिया गया।
फिर हमने हरेक ककड़ी के प्रत्येक भौतिक गुणधर्म को देखा और दर्ज किया।
— हमने धागे और स्केल की मदद से प्रत्येक ककड़ी की लंबाई, एवं अधिकतम व न्यूनतम घेरा मापकर लिखा।
— बालवैज्ञानिक किट में मौजूद तराज़ू एवं बाट के ज़रिए प्रत्येक ककड़ी का वज़न तोला।
— अब हम हरेक ककड़ी का आयतन पता करना चाहते थे। चूंकि कई ककड़ियां काफी बड़ी थीं इसलिए यह काम ज़्यादा ही पेचीदा बन गया। अनियमित आकृतियों का आयतन मापने के लिए मौजूद दोनों तरह के अप्लावी बर्तनों में ये ककड़ियां डूब नहीं पा रही थीं। अंत में हमने एक बड़ा मर्तबान लिया। उसे पानी से ऊपर तक भर कर एक ककड़ी को मर्तबान में डाला जिससे कुछ पानी छलक कर बाहर गिर गया। फिर ककड़ी बाहर निकालकर, हमने नापकर पानी मर्तबान में उड़ेला ताकि वह फिर से भर जाए।
इस आसान-सी दिखने वाली प्रक्रिया को हम कई बार करने के बाद ही ठीक से कर पाए क्योंकि एक शिक्षक ने इस बात की ओर सब का ध्यान आकर्षित किया कि पानी मर्तबान में से छलकने से पहले काफी ऊपर उठ जाता है। इस त्रुटि को दूर करने के लिए हमने यथासंभव प्रयास किया कि दोनों बार पानी का तल लगभग बराबर रहे।
— एक बार जब हरेक ककड़ी का भार और आयतन पता कर लिया तो हमने हर ककड़ी के घनत्व की गणना की। हम देखना चाहते थे कि क्या कड़वी ककड़ी का घनत्व अच्छी ककड़ियों के मुकाबले कम या ज़्यादा होता है? लेकिन हमें विभिन्न ककड़ियों के घनत्व के आंकड़ों में ऐसा कोई अंतर दिखाई नहीं दिया।
— हमने हरेक ककड़ी का आकार एवं रंग नोट किया। साथ ही ककड़ी की ऊपरी सतह का टेक्सचर कैसा है, यानी सतह चिकनी है या खुरदुरी है, वगैरह भी दर्ज किया।
— हमने यह पता लगाने की कोशिश की कि गंध से कड़वी ककड़ी पहचानी जा सकती है क्या? किसी भी ककड़ी के कड़वेपन का राज उसकी खुशबू से नहीं पता चला।
— हमारा यह अवलोकन रहा है कि लोग तरबूज खरीदने से पहले उसे धीरे-धीरे अंगुलियों से पीटकर आवाज़ सुनने की कोशिश करते हैं। हमने यही प्रयोग ककड़ी के साथ करके देखा। लेकिन हमारे अनाड़ी कान ऐसी किसी आवाज़ को पकड़ने में नाकाम रहे!
अगले परीक्षण के लिए हमने सब ककड़ियों को ठीक बीच से आड़ा काटकर दो-दो टुकड़े किए। फिर इन दो में से एक टुकड़े को एक सिरे से काटकर (जो तने के साथ जुड़ा होता है) या दोनों सिरों से काटकर घिसा गया। घिसने पर जो झाग पैदा हुई उसे चखा गया - किसी भी झाग में विशेष कुछ कड़वाहट नहीं पाई गई। इसके पश्चात ककड़ी या स्लाइस काटकर उसे चखा गया। जिस हिस्से को घिसा गया था उसकी दूसरे आड़े वाले आधे हिस्से से तुलना की गई। जिन लम्बे वाले टुकड़ों को एक या दोनों ओर से घिसा गया था उन्हें दोनों सिरों से चखकर देखा गया। अगर घिसा हुआ हिस्सा एक तरफ से कड़वा पाया गया तो उसके दूसरे सिरे को भी काटकर चखा गया। छिलके को चखकर उसकी कड़वाहट का भी परीक्षण किया गया।
कड़वापन किसकी वजह से कई दफा हम सोचते हैं कि यदि हमें किसी चीज़ का नाम पता है तो हम कुछ जान गए या ज्ञान पा गए हैं! चाहे वह नाम किसी इंसान, वस्तु या घटना का हो, हमें खुशी देता है। इसलिए मुझे उन घटकों के नाम बताने दीजिए, जो ककड़ी के कड़वेपन के लिए ज़िम्मेवार हैं। उनके नाम हैं - कुकरबिटासिन-बी और कुकरबिटासिन-सी। |
हमारे अवलोकन इस प्रकार थे -
— कुछ ककड़ियां लंबाई में एक सिरे से दूसरे सिरे तक पूरी तरह से कड़वी थीं। उनका छिलका भी कड़वा निकला।
— कुछ ककड़ियों में केवल डंठल के पास वाला सिरा ही कड़वा होता है।
— कुछ ककड़ियों में केवल छिलका ही कड़वा होता है, ककड़ी का गूदा कड़वा नहीं होता।
— यहां एक बात शीशे की तरह साफ हो गई कि ककड़ी के आकार, रूप-रंग और ककड़ी के कड़वेपन के बीच कोई संबंध नहीं है। इस संबंध में समस्त भविष्यवाणियां गलत साबित हुईं।
— ककड़ी का एक सिरा या दोनों सिरे घिसने से ककड़ी के कड़वेपन में कोई अंतर नहीं आया। परन्तु ऐसा ज़रूर महसूस हुआ मानो उसका कसैलापन कम हो गया हो।
कड़वापन दूर करने की कोशिश
जब एक बार हमने कड़वी ककड़ियों को पहचान लिया तो उनका कड़वापन दूर करने के जो उपाय सुझाए गए थे उनका परीक्षण करना शु डिग्री कर दिया। ज़्यादातर लोगों का सुझाव था कि कड़वी ककड़ी खाने लायक बनाने के लिए ककड़ी की स्लाइस में कोई खट्टी या नमकीन चीज़ मिलाई जाए। इसलिए हमने कड़वी ककड़ियों के टुकड़े काटे और अलग-अलग हिस्सों में नमक, काला नमक, नींबू-रस, अमचूर, इमली का पेस्ट एवं काली मिर्च का पाउडर मिलाया। कुछ मिनटों के बाद चखकर देखा लेकिन कड़वाहट अभी भी बरकरार थी। जब हम अपने इस प्रोजेक्ट में किए गए काम की जानकारी अन्य शिक्षक-समूहों के सामने रख रहे थे, तो सुझाया गया कि कड़वी ककड़ी के स्लाइस पर नमक, अमचूर वगैरह का असर होने में कम-से-कम आधा घंटा लग जाता है। हमने इसे भी करके देखा; ऐसा करने पर वे ढुलमुल ज़रूर हो गए लेकिन स्वाद पर कोई असर नहीं पड़ा।
अब हमने एक और बात पता लगाने की कोशिश की कि वह कौन-सा घटक है जिसकी वजह से ककड़ी में कड़वापन आ जाता है। चूंकि इस बात की जांच के लिए हमारे पास लाल और नीले लिटमस पेपर ही थे इसलिए हमने ककड़ियों के बहुत-से टुकड़ों का लिटमस से परीक्षण किया। हमने पाया कि कड़वी ककड़ी लाल लिटमस पेपर के रंग में हल्का-सा परिवर्तन लाती है। इसके आधार पर हमने निष्कर्ष निकाला कि ककड़ी के कड़वेपन के पीछे कोई तनु एल्कलाइन यानी क्षारीय घटक ज़िम्मेवार होना चाहिए।
इसके बाद इस कड़वे तत्व को प्राप्त करने के लिए हमने कड़वी ककड़ी के टुकड़ों को पानी से भरे मर्तबान में एक दिन के लिए रख दिया। कड़वी ककड़ी के छिलके भी एक अलग मर्तबान में पानी में डुबोकर रख दिए। दूसरे दिन पाया कि दोनों में काफी सारे बुलबुले दिखाई दे रहे थे, और तीव्र बदबू भी आ रही थी। (इस प्रयोग के दौरान हमने एक तथ्य भुला दिया था कि उन दिनों गर्मी के मौसम की वजह से तापमान काफी ज़्यादा था।) तीव्र बदबू के बावजूद दोनों मर्तबान के पानी की एक बार फिर लिटमस पेपर से जांच की गई। यह मिश्रण भी हल्का सा क्षारीय पाया गया। लेकिन अब हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था कि पता लगा पाएं - यह परिणाम ककड़ी में पहले से मौजूद पदार्थ की वजह से है या फरमेंन्टेशन यानी किंण्वन के कारण उत्पन्न हुए किसी पदार्थ की वजह से है।
इस प्रोजेक्ट के तहत हमने कुछ और खोजबीन की - सबसे पहले तो ककड़ी और खीरा का सही-सही अर्थ पता करना; क्योंकि कई दफा लोग इन्हें समान अर्थ में इस्तेमाल करते हैं तो कई दफा अलग-अलग चीज़ों के लिए। यह सब ढूंढते हुए हमें पता चला कि ककड़ी का वैज्ञानिक नाम Cucumis Melo variety of Utilissius है।
और जांच-पड़ताल से हमें यह भी जानकारी मिली कि ककड़ी के कड़वेपन के लिए ज़िम्मेवार घटक ककड़ी की बेल की पत्तियों में संश्लेषित यानी पैदा होता है, बाद में इसका स्थानांतरण ककड़ी यानी फल में होता है। इस जानकारी से इस अवलोकन का समाधान होता है कि कुछ ककड़ियों में केवल तने से जुड़ा हिस्सा ही क्यों कड़वा होता है।
इसलिए अगर अगली बार कोई दावा करे कि वो कड़वी ककड़ी को पहचान सकता है तो आप हमारे इस अध्ययन के आधार पर उसे पूरे आत्मविश्वास के साथ चुनौती दे सकते हैं। और अगर आप में से कोई ककड़ी उगाता है तो कृपया हमें यह ज़रूर बताइए कि क्या एक बेल की सब ककड़ियां कड़वी होती हैं।
उमा सुधीर: एकलव्य के विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़ी हैं। इंदौर में रहती हैं।
यह लेख मई 2005 में भोपाल में आयोजित शिक्षक-प्रशिक्षण के दौरान शिक्षकों द्वारा किए गए प्रोजक्ट की रिपोर्ट पर आधारित है।