लेखक : अनिल पी. गोरे और एस. ए. परांजपे
अनुवाद - सुनील कुमार
वन्य जीवों की गणना एक खासा मुश्किल काम है। इसमें सामान्य जनगणना की तरह घर-घर जाकर नाम-पते और अन्य ब्यौरे इकट्ठे नहीं किए जा सकते। प्राणियों की गिनती में बहुत ही फर्क किस्म के तरीके अपनाने पड़ते हैं -- प्राणियों को प्रत्यक्ष देखना, निशान लगाना, गोबर या पद-चिन्हों के आधार पर अनुमान लगाना जैसी कई कवायदें। तब कहीं जाकर किसी एक इलाके में वन्य जीवों की संख्या के बारे में कुछ कहा जा सकता है। ऐसी कई प्रणालियों का प्राथमिक वर्णन दिया गया है इस लेख में -- बिना सांख्यिकी के सूत्रों में उलझे।
साख्यिकी की विभिन्न तकनीकों का इस्तेमाल इकॉलोजी यानी पारिस्थितिकी के अलावा प्राणि-शास्त्र, मानव-शास्त्र (नृविज्ञान) जैसे विषयों में भी किया जाता है। इनका प्रयोग उद्योग, कृषि, समाज-शास्त्र तथा व्यवसाय में भी होता है। इसी कारणवश हमने लेखों की इस ाृंखला का नाम ‘सांख्यिकी सबके लिए’ रखा है। आगे कभी, हम इनमें से कुछ क्षेत्रों में सांख्यिकी के इस्तेमाल के बारे में चर्चा करेंगे। लेकिन कुछ तकनीकों को विशेष रूप से पारिस्थितिक समस्याओं के लिए विकसित किया गया है। हम संक्षेप में इनमें से कुछ तकनीकों को देखेंगे।
वन्य जीवन जनगणनाएं
मान लो कि ऐसी शिकायतें आ रही हैं कि चित्तीदार हिरन वन्य जीवन आरक्षित क्षेत्र से बाहर निकलते हैं, फसलों को नष्ट करते हैं और नुकसान पहुंचाते हैं। एक सम्भावना यह है कि वहां बहुत अधिक हिरन हैं और उनमें से कुछ जानवरों को पकड़ कर मारना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में यह अति आवश्यक है कि जानवरों की जनसंख्या का आकलन किया जाए।
वनरक्षक ये दावा करते हैं कि ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ सफल रहा है और बाघों की संख्या में नियमित वृद्धि हुई है। इसकी पुष्टि के लिए आकलन प्रक्रिया, जिसे प्राय: ‘जनगणना’ कहते हैं, ज़रूरी है।
वन्य-जीव जनगणना के लिए कई तरीके हैं। हम संक्षेप में कुछ का वर्णन करेंगे। प्रणाली के साथ ही हम प्रणालियों की सीमाओं के बारे में भी चर्चा करेंगे। इन सीमाओं के भीतर, ये प्रणालियां आमतौर पर व्यक्तिनिष्ठ अनुमानित मूल्यांकन से बेहतर अनुमान देती हैं।
पानी के स्रोतों द्वारा जनगणना
ग्रीष्म ऋतु में, एक संरक्षित वन्य-जीव क्षेत्र में पानी के स्रोतों की संख्या बहुत कम हो जाती है। जानवरों को पानी पीने के लिए वहां जाना पड़ता है। अत: परिवेक्षक प्रत्येक जलाशय की लगातार चौबीसों घंटे निगरानी करते हैं; सभी स्रोतों की एक साथ निगरानी होती है। प्रत्येक जल-स्रोत पर देखे गए जानवरों की संख्या को जोड़ा जाता है। इसी प्रकार गिर के जंगलों में शेरों की संख्या, जो कि लगभग 240 थी, का आकलन किया गया था। यहां दो बातों का ख्याल रखना पड़ेगा कि जंगली भैंसे (बाइसन) जैसे कुछ जानवर दिन में दो बार पानी पीने आते हैं। दूसरा, कुछ जानवर उसी दिन कई जलाशयों पर पानी पीने जा सकते हैं, या कुछ (जैसे काले हिरण) जब तक परिवेक्षक चला न जाए, तब तक पानी पीना टाल सकते हैं।
पकड़ना व पुन: पकड़ना
इस तरीके में कुछ जानवरों को पकड़ा जाता है, उन्हें चिन्हित किया जाता है तथा छोड़ दिया जाता है। एक उचित अन्तराल के बाद जानवरों को पुन: पकड़ा जाता है। अगर जनसंख्या बड़ी है तो पुन: पकड़े जाने वाले जानवरों (अर्थात उन जानवरों का पकड़ा जाना जिन्हें पहले से चिन्हित किया गया है) की दर कम होती है। अगर जनसंख्या छोटी है, तो पहले से पकड़े गए कई जानवर, पुन: पकड़े जाने की प्रक्रिया में फिर से दिखाई देते हैं। उचित सूत्रों का इस्तेमाल कर, पकड़े तथा पुन: पकड़े गए जानवरों की संख्या की मदद से जनसंख्या का आकलन किया जाता है। उदाहरण के लिए मान लीजिए 100 चिन्हित मछलियों को एक तालाब में छोड़ा जाता है। अगली बार 200 मछलियां पकड़ी गईं, जिसमें 20 मछलियां चिन्हित पाई गईं। अत: हम अनुमान लगाते हैं कि तालाब में 10 प्रतिशत मछलियां चिन्हित हैं। दूसरे शब्दों में मछलियों की कुल जनसंख्या चिन्हित मछलियों की संख्या की दस गुनी होनी चाहिए। इसलिए हमारे आकलन के अनुसार उस तालाब में मछलियों की अनुमानित संख्या 1000 है।
जबकि एक धारणा के रूप में यह तरीका सरल लगता है पर पकड़ना और पुन:-पकड़ना को कार्यान्वित करना काफी जटिल हो सकता है। जानवरों को चिन्हित कैसे करेंगे? मछलियों के मीनपक्ष यानी फिन में छेद करके तार का छल्ला पहनाया जा सकता है। पक्षियों के मामले में, एक पतली धातु या प्लास्टिक की पट्टी पैर में बांधी जा सकती है। कीटों पर रंग से निशान लगा सकते हैं। चिन्ह मिटने नहीं चाहिए अन्यथा आकलन बढ़ जाते हैं यानी दरअसल जितनी उनकी संख्या है, अनुमान या गणना में उससे ज़्यादा लगती है। जानवरों को पकड़ने में उन्हें चोट नहीं पहुंचनी चाहिए। कुछ जानवरों को उनके प्रिय खाद्य पदार्थ का इस्तेमाल करके लगाए गए फन्दों से पकड़ा जाता है। कुछ जानवर फन्दों के प्रति आकर्षित होते हैं, और कुछ उनसे दूर भाग जाते हैं। इससे आकलन में किसी-न-किसी ओर झुकाव आ जाता है।
बाघों और शेरों को कैसे पकड़ा जाए? गुजरात के गिर जंगल के शेर शर्मिले नहीं होते हैं और दिन में उनका फोटो लिया जा सकता है। ऐसा पाया गया है कि उनके गलमुच्छों के पैटर्न अतुलनीय होते हैं और इसलिए उन्हें पकड़ना और पुन: पकड़ना, काल्पनिक तौर पर, कुछ अंतराल पर दो बार खींचे गए फोटोग्राफ के ज़रिए किया जाता है।
पूर्वनिर्धारित रास्ते पर चलते हुए लाइन ट्रान्सेक्ट सैम्पलिंग
इस तरीके में परिवेक्षक एक पहले से चुने हुए रास्ते पर चलता है और देखे गए जानवरों की संख्या और रास्ते से उन जानवरों की लगभग सही लम्बवत् दूरियों को अंकित करता जाता है। अगर जानवरों की सघनता अधिक है, जानवर अधिक दिखते हैं। अगर विज़िबिलिटी यानी दृश्यता अधिक है, जानवर अधिक दूरी तक भी दिखते हैं। इन आंकड़ों से जानवरों के घनत्वों की गणना करना अपेक्षाकृत जटिल मसला है।
इस तरीके को इस्तेमाल करते समय पारिस्थितिकीय वास्तविकताओं के धरातल को हरगिज़ नहीं भूलना चाहिए। एक छोटे राष्ट्रीय उद्यान के एक अध्ययन में, बरसात के मौसम में मादा चीतल की संख्या बहुत अधिक पाई गई जबकि सूखे मौसम में नरों की संख्या अधिक थी। स्पष्ट रूप से इतनी छोटी-सी समयावधि में लिंग-अनुपात इतनी तेज़ी से घट-बढ़ नहीं सकता। इस विसंगति का स्पष्टीकरण नर के बदलते व्यवहार में निहित है। मदकाल (यौन-उत्तेजित मौसम) में नर अधिक निडर हो जाते हैं और कम दूरी पर भी देखे जा सकते हैं जिससे आंकी गई संख्या में बढ़ोत्तरी हो जाती है।
सबसे नज़दीकी व्यक्तिगत दूरियां (नियरेस्ट इन्डीविजुअल डिस्टेन्सिस)
इस तरीके का इस्तेमाल मुख्यत: अचल वस्तुओं जैसे पेड़, घोंसले, दीमक की बांबी आदि के लिए होता है। जंगल में बेतरतीब यानी रेंडम बिन्दु चुने जाते हैं और प्रत्येक बिन्दु से सबसे पास की उस वस्तु की दूरी नापी जाती है (उदाहरण के लिए बिन्दु से सबसे नज़दीक के नीम के पेड़ की दूरी, अगर हम नीम के पेड़ों का घनत्व माप रहे हैं)। अगर घनत्व अधिक है, तो सबसे नज़दीकी दूरियां कम होंगी, अगर नापी नज़दीकी दूरियां अधिक हैं तो इसका अर्थ है कि घनत्व कम है।
मल के ढेर (डंग पाइल्स) के ज़रिए अप्रत्यक्ष जनगणना
इसमें प्रति इकाई क्षेत्र में मल के ढेर की संख्या के आकलन का प्रयास किया जाता है (उदाहरण के लिए हाथी या चीतल के)। प्रत्यक्ष निरीक्षणों से पता लगाया जा सकता है कि एक जानवर द्वारा प्रतिदिन औसतन कितनी बार विष्ठा या टट्टी की जाती है। तमिलनाडु के मदुमल्लाई के जंगलों में हाथियों का घनत्व पता लगाने के लिए यह तरीका अपनाया गया है। यह भी पता लगाना सम्भव है कि जंगल की सतह पर विष्ठा, मल या गोबर का ढेर कितने दिनों तक टिकता है, जिसके बाद ये मिट्टी में तब्दील हो जाता है। प्रति इकाई क्षेत्र में गोबर के ढेरों की संख्या को गोबर के ढेर के जीवन काल से तथा प्रतिदिन प्रति जानवर के गोबर करने की औसतन संख्या से भाग देने पर, हमें उस जानवर के घनत्व का पता चलता है।
पंजों के निशान का इस्तेमाल कर बाघों की जनगणना
कुछ वनकर्मी यह विश्वास करते हैं कि मिट्टी में एक बाघ के पंजे का निशान दरअसल उस जानवर के हस्ताक्षर जैसा होता है। अत: पंजे के निशान को ढूंढ़ा जाता है, उन्हें ट्रेसिंग कागज़ पर उकेरा जाता है और फिर आपस में तुलना की जाती है। एक प्रकार के पदचिन्ह उसी एक जानवर को सूचित करते हैं। भिन्न पदचिन्ह बाघों की संख्या का एक अनुमान देते हैं।
बहुत से परिस्थिति-विज्ञानी उपरोक्त तरीके को सन्देह की दृष्टि से देखते हैं। हाल के वर्षों में उल्लास कारंथ द्वारा एक और तरीके का इस्तेमाल किया गया है। इसमें छुट्टा घूमते हुए बाघ और बाघिनों की स्वचालित तरीके से ली गई तस्वीरों का इस्तेमाल करके उनकी धारियों के पैटर्न से बाघों की पहचान की जाती है। लेकिन बड़े पैमाने पर इस तरीके को व्यवहार रूप में लाना अभी बाकी है। साधारणत: जानवरों की संख्या का अनुमान लगाना काफी मुश्किल काम सिद्ध हुआ है।
ए. पी. गोरे: वर्तमान में पूना विश्वविद्यालय के सांख्यिकी विभाग के विभागाध्यक्ष हैं। इन्होंने पूना में पारिस्थितिक सांख्यिकी में शिक्षण तथा अनुसंधान की शुरुआत की। कई सालों से जीवविज्ञानियों और सांख्यिकीविदों के बीच सम्पर्क बढ़ाने में भी सक्रिय रहे हैं।
एस. ए. परांजपे: पूना विश्वविद्यालय के सांख्यिकी विभाग में रीडर हैं। इन्हें पोषण, वानिकी, पारिस्थितिकी, कृषि तथा स्वास्थ्य के क्षेत्रों में सांख्यिकी के प्रयोग का दीर्घकालीन अनुभव है।
अंग्रेज़ी से अनुवाद - सुनील कुमार: प्राकृतिक संसाधनों के संबंध में काम करते रहे हैं। ऑटोमोबाइल्स व कम्प्यूटर्स में रुचि। गाज़ियाबाद में निवास।
मूल लेख रेज़ोनेन्स पत्रिका के मई 2000 अंक से लिया गया है।