लेखक: दिशा अरविंद मधू
अनुवाद: माधव केलकर
मारकाट प्रतिस्पर्धा के इस युग में सबसे आगे निकलने की दौड़ केवल परीक्षाओं तक ही सीमित नहीं है। इस सामाजिक रवैये पर तीखी टिप्पणी करता, लम्बी तैराकी के क्षेत्र से एक मज़ेदार व मार्मिक अनुभव।
दिशा तुम्हारा सब कुछ अच्छा है लेकिन ‘किलर इन्सटिंक्ट’ नहीं है तुम में।” हमारे शंकर सर रोज़ ही मुझसे यह बात कहते हैं। “अपने प्रतिद्वंद्वी को ज़ोरदार मात देने की भावना नहीं है।” यह भी मैं अक्सर सुनती हूं।
सच कहूं तो खुन्नस या किलर इन्सटिंक्ट क्या होती है मैं नहीं जानती। मैं तो सिर्फ दिल लगाकर तैरती हूं, अच्छा तैरती हूं, और हम आपस में काफी प्रतियोगिताएं भी करते हैं। लेकिन इन सबके बावजूद मुझ में हीन भावना निर्मित हो गई है। मैं सोचने लगी हूं कि दूसरों को हराने की जो खुन्नस होनी चाहिए वो मुझमें नहीं है। खैर, जब से मैंने छोटी दूरी की तैराकी छोड़कर लम्बी दूरी की तैराकी शुरु की तब से किलर इन्सटिंक्ट का मुद्दा ही एक सिरे से खत्म हो गया है। अब शंकर सर सिर्फ इतना कहते हैं कि “दिशा पिछली बार तैरते हुए तुमने कुछ ज़्यादा वक्त लिया था, इस बार तैराकी को कम वक्त में पूरा करना है।” सच कहूं तो मुझे खुद घंटों तैरना अच्छा लगता है। एक आनन्द मिलता है। किसी सागर या खाड़ी में तैराकी के बाद सुकून मिलता है। खुद के लिए प्यार उमड़ पड़ता है। लेकिन जब मैं किसी प्रतियोगिता में हिस्सा लेकर घर लौटती हूं तब कई लोगों के सवाल मुझे घेर लेते हैं -- “कितनी लड़कियां थीं? तुम्हारा कौन-सा स्थान रहा?” यदि मैं कहती हूं कि प्रथम तीन में जगह नहीं बनी, तो सबको लगता है कि “तो फिर तैरने का क्या फायदा?”
जब मैंने बंगाल की खाड़ी और हुगली नदी में पैंतीस किलोमीटर की दूरी तैरकर सात घंटे में पूरी की थी, तब स्कूल में प्रधानाध्यापिका ने भी वही सवाल पूछा था, “दिशा, कोई स्थान वगैरह पाया या नहीं? स्कूल का नाम बुलंद हुआ या नहीं?” मैंने उन्हें समझाने की काफी कोशिश की कि लम्बी दूरी की तैराकी में इस तरह की गलाकाट प्रतिस्पर्धा नहीं की जा सकती। जब मैंने धरमतर से गेट-वे ऑफ इंडिया की 40 किलोमीटर की दूरी तैरकर दस घण्टे में पूरी की थी, उसी समय बम्बई के एक अन्य प्रतिभागी सत्तू ने यह दूरी नौ घण्टे में पूरी की। उस समय मेरी उम्र थी सिर्फ आठ साल और सत्तू था बीस साल का। ऐसे में बराबरी से प्रतिस्पर्धा कैसे की जा सकती है।
दूसरी बात, आपकी स्पीड अन्य कई कारकों पर निर्भर करती है। मसलन, जब आप तैर रहे हैं तब पास से कोई मोटर-बोट गुज़र जाए तो उससे बनने वाली लहरें आपको 50-100 मीटर पीछे फेंक देती हैं। फिनिशिंग लाइन तक पहुंचने के लिए आपने कौन-सा रास्ता चुना है, उस रास्ते में लहरों और जलप्रवाह की कैसी स्थिति है, ऐसे ही कई कारक आपकी स्पीड को निर्धारित करते हैं। ये सभी बातें मैंने प्रधानाध्यापिका को भी बताई थीं लेकिन फिर भी स्कूल के वार्षिक उत्सव में उन्होंने मंच से बताया कि “अव्वल आने वाली दिशा हमारे स्कूल की ही है।”
लम्बी दूरी की तैराकी में प्रतिद्वंद्विता नहीं होती यह बात स्विमिंग पूल में सभी लोग जानते थे। लेकिन फिर भी प्रतिद्वंद्विता को उभारने की कोशिश ज़रूर होती थी, खासतौर पर प्रैक्टिस के समय। देश के हम बारह तैराक ‘अराउण्ड द बॉम्बे’ प्रतियोगिता की तैयारी में जुटे हुए थे। साथ में तैयारी कर रही रेखा के पिता तो प्रैक्टिस के दौरान ही इतने हलकान हो जाते थे कि उनकी ‘गो रेखा, गो रेखा’ की आवाज़ से स्विमिंग-पूल गूंज उठता था। जब कभी प्रैक्टिस में रेखा सबसे अव्वल रहती तो रात में उसके माता-पिता का फोन पक्के तौर पर आता था। कहते थे बस यूं ही फोन किया है लेकिन फोन पर रेखा की तारीफ के पुल बांध देते थे। लेकिन यदि रेखा प्रैक्टिस में पिछड़ गई तो उसकी पिटाई भी होती थी। एक दफा हम लोग एक बांध में तैराकी की तैयारी कर रहे थे। तैरते हुए रेखा सबसे पीछे रह गई। बस, फिर क्या था। रेखा के मां-बाप ने बाथरूम में जाकर उसे ज़ोरों का थप्पड़ जमाया और बोले, “हम लोग तुम पर जो रुपए खर्च कर रहे हैं उसका अहसास भी है तुम्हें?”
तैराकी के बाद या प्रैक्टिस के बाद एक और वाक्य जो हमेशा सुनाई देता था -- वो था मुंह लटकना। मसलन, “देखिए न! हमारी मोनिका ने पहले फिनिशिंग लाइन पार की तो रेहाना की मां का मुंह कैसे लटक गया।”
या, “हमारे सोहेल को जिब्राल्टर से कॉल-लेटर आया है। अब देखिएगा चित्कल के बाप का मुंह कैसे लटक जाएगा।”
मेरे लिए तो यह सारा एक खेल की तरह ही हो गया था। यदि कोई पालक ‘कोलगेट स्माइल’ देते हुए स्विमिंग-पूल के आसपास पोज़ देता हुआ टहल रहा है तो यकीनन उसका बेटा या बेटी बाकी प्रतिस्पर्धियों से आगे तैर रहा होगा, ऐसा मान लेना चाहिए। यदि कोई पालक गुमसुम-सा किसी कोने में बैठा दिखाई दे जाए तो समझ जाइए कि उसका बच्चा या बच्ची बाकी प्रतिभागियों से पीछे चल रहा है। अपने खाली समय में मैं सबके चेहरे ही देखती रहती थी।
एक और खेल था जिसमें ऐसा ही मज़ा आता था। वह था - बहाने बनाने का खेल। यदि किसी खाड़ी या सागर में लम्बी दूरी नापते हुए कोई प्रतिभागी पिछड़ जाए तो तुरन्त उसके मां-बाप पिछड़ने की कोई-न-कोई वजह ज़रूर गिना देते थे। जैसे “हमारा ओंकार तेज़ बुखार से तप रहा था, नहीं तो वही मैदान मार ले जाता।”
“हमारा शुभेन्दु चालीस किलोमीटर तक सबसे आगे चल रहा था। फिर उसे खांसी का दौरा पड़ा, वह ठीक से तैर ही नहीं सका और पीछे रह गया।”
“दिल्ली का योगेश डोपिंग करता है। वर्ना इतनी तेज़ी से तैर पाना सम्भव ही नहीं है।”
“उसमें क्या खास है? वह दूर-दराज़ की तैराकी के लिए हवाई जहाज़ से आना-जाना करता है। हमारी तरह ट्रेन नहीं बदलनी पड़ती। ऐसे में उसने बेहतर तैर लिया तो क्या खास है।”
कभी-कभी जब तैराकी में पिछड़ जाती थी तो मैं भी कोई बहाना गढ़ लेती थी। एक बार गोआ के समुद्र में तैराकी के दौरान एक प्रतियोगी पारितोष मुझ से काफी आगे निकल गया। सो मज़ाकिया लहज़े में मैंने कहा, “पारितोष तो दसवीं फेल है। वह सिर्फ-और-सिर्फ तैराकी पर ध्यान देता है। लेकिन मुझे तो तैराकी और पढ़ाई दोनों साथ-साथ लेकर चलना पड़ता है।” जब मैं यह सब कह रही थी तब भीष्मराज बाम सर सुन रहे थे। बाम सर सेवानिवृत्त डीआईजी पुलिस तो हैं ही, साथ ही स्पोर्ट्स सायकोलॉजिस्ट भी हैं। उन्होंने मुझ से कहा, “दिशा, अपने से बेहतर की इज़्ज़त करना सीखो, तभी तुम बेहतरी की ओर बढ़ सकती हो। जो तुमसे बेहतर है उसकी तारीफ करो। जो भी अच्छा है उसे पहचानना सीखना चाहिए। जो कुछ भी अच्छा हो रहा है वह क्यों हो रहा है इसका भी विश्लेषण करते रहना चाहिए।”
इन सभी बातों से मैं सहमत हुई। अब मैं काफी बेबाक होकर तारीफ भरे अंदाज़ में बताती हूं कि पारितोष अच्छा तैरता है, वो पानी में बेहतरीन ग्लाइड करता है। मैं भी उससे ग्लाइड करना सीखने वाली हूं।
बंग्ला देश के फरक्का बॉर्डर से भारत के बेहरामपुर तक 90 किलोमीटर का फासला तैरते हुए पूरा करना मेरी दिली तमन्ना थी। मैंने इस सिलसिले में दरख्वास्त भी दी और आसानी से मेरी अर्ज़ी मंज़ूर भी हो गई। लेकिन शंकर सर का कहना था कि, “इतनी हड्डी-तोड़ मेहनत की क्या ज़रूरत है। इस सफल तैराकी के बाद मिलने वाले प्रमाण पत्र की कोई अहमियत नहीं है। यदि रेलवे में भी नौकरी के लिए कोशिश करोगी तो यह प्रमाण पत्र काम न आएगा। इससे तो बेहतर होगा कि तुम कम दूरी की तैराकी प्रतियोगिताओं में हिस्सा लो। इससे तुम्हें सरकारी सुविधाओं का लाभ भी मिलेगा।” लेकिन मेरी ज़िद के आगे सर को भी झुकना पड़ा। आखिरकार मैंने फरक्का से बेहरामपुर तक की दूरी बारह घंटों में तैरकर पूरी की। फरारी घाट तक पहुंचना काफी जद्दोजहद भरा सफर था। लगभग 45 किलोमीटर का मुश्किल सफर पार करने वाली एकमात्र महिला तैराक होने का सम्मान भी मुझे मिला। इस सम्मान के बाद मैंने स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पास वज़ीफे के लिए अर्जी दी।
मैं आने वाले समय में श्रीलंका से भारत के बीच के सागर को तैरकर पार करना चाहती हूं। लेकिन ऐसा करने के लिए मेरी आयु 16 साल से ज़्यादा होना ज़रूरी है। इसी तरह इंग्लिश चैनल को पार करने के लिए भी उम्र का बंधन रखा गया है। मैं फिलहाल चौदह साल की हूं, यानी मेरे पास कम-से-कम दो साल का समय प्रैक्टिस के लिए उपलब्ध है। मैं भारत की सभी नदियों और समुद्रों में काफी तैराकी कर चुकी हूं। मुझे समुद्र में तैराकी की प्रैक्टिस के लिए काफी रुपयों की ज़रूरत होगी इसलिए मुझे छात्रवृत्ति की ज़रूरत होगी।
वज़ीफे के सिलसिले में मुझे मुलाकात के लिए बुलाया गया। वहां जो बातचीत हुई उससे मैं हतप्रभ रह गई। मुलाकात में मुझे बताया गया कि, “तुमने किसी को भी नहीं हराया है, फिर तुम्हें वज़ीफा कैसे दे सकते हैं?”
“सर, लेकिन आप मेरी गति को आसानी से नाप सकते हैं,” मैंने बताया। “वो सब तो ठीक है। लेकिन जब तक प्रमाण पत्रों पर प्रथम, द्वितीय या तृतीय स्थान पाने का स्पष्ट उल्लेख नहीं होगा हम तुम्हें छात्रवृत्ति नहीं दे पाएंगे।”
“लेकिन सर, आप अभी मेरा प्रदर्शन देख सकते हैं और मेरी काबिलियत को परख सकते हैं,” मैंने एक कोशिश और की।
“तुम जो कह रही हो, वो सब ठीक है। लेकिन हमारे लिए तो प्रमाण पत्रों पर लिखा गया क्रमांक ही महत्वपूर्ण है।”
“फिर मैं क्या करूं सर?” मैंने पूछा।
“एक रास्ता निकल सकता है। तुम इस साल कम दूरी की सभी तैराकी प्रतियोगिताओं में हिस्सा लो और उनमें प्रथम-द्वितीय-तृतीय स्थान प्राप्त करो। फिर उन प्रमाण पत्रों को लेकर हमारे पास आओ। हम लोग तुम्हारा नाम वज़ीफे के लिए आगे बढ़ाएंगे।”
मैं किसी भी हालत में छात्रवृत्ति से हाथ धोना न चाहती थी, इसलिए आखिर-कार कम दूरी की तैराकी प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया। राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम, द्वितीय,... स्थान पाया तब कहीं जाकर छात्रवृत्ति मिल पाई। संस्थान मेरी पढ़ाई के साथ-साथ उन प्रतियोगिताओं का खर्च भी वहन करेगा जिनमें मुझे प्रथम, द्वितीय या तृतीय... स्थान मिलेगा।
धरमतर से गेट-वे ऑफ इंडिया और गेट-वे ऑफ इंडिया से धरमतर तक वापस जाना था। यह 40 किलोमीटर की दूरी मैंने तैरकर पार की। इसके बाद जब मैं स्कूल आई तो मैंने स्कूल प्रशासन को साफ-साफ बताया कि इस बार इस प्रतियोगिता में मैं अकेली तैराक ही थी। क्योंकि इस बार इस तैराकी के लिए सिर्फ मुझे ही अनुमति मिली थी।
लेकिन स्कूल ऐसे मौके पर कहां पीछे रहने वाला था। उन्होंने तुरंत लोगों को सूचित किया, “सबसे कम उम्र में यह दूरी तैरकर पार करने का रिकॉर्ड बनाने वाली दिशा, हमारे स्कूल की है।”
दिशा अरविंद मधू: तैराकी एवं लिखने का शौक। अभी स्कूली पढ़ाई पूरी कर रही हैं। नासिक में रहती हैं।
मराठी से अनुवाद: माधव केलकर: संदर्भ पत्रिका से संबद्ध।
पुणे से प्रकाशित पत्रिका पालक नीति (मई 2006) से साभार।