किशोर पंवार
बात उन दिनों की है जब मैं सेंधवा के कॉलेज में पढ़ाता था। कॉलेज के पास मंदिर परिसर में पीपल का बड़ा पेड़ था। एक दिन मैंने पाया कि इस पेड़ के पत्ते हरे की बजाय काले दिख रहे थे। मैंने अनुमान लगाया कि यह काला पदार्थ या तो किसी मिल की चिमनी का काला धुंआ होगा या फिर सड़क से गुज़रने वाले ट्रक-बस से निकला धुंआ हो सकता है।
जल्द ही मेरे दोनों अनुमान दूर की कौड़ी साबित हुए। दूर-दूर तक नज़र दौड़ाने पर भी कहीं कोई चिमनी नहीं दिखाई दी और मंदिर सड़क से काफी दूर था। अब मैंने पेड़ के पास जाकर ध्यान से देखा तो पाया कि नीचे से ऊपर तक की सभी पत्तियां काली हैं। और-तो-और पीपल के नीचे लगे रामफल और चांदनी के पत्ते भी काले थे। मुझे लगा मामला कुछ गंभीर है। पत्तियों को हाथ लगाया तो कालापन हाथ पर चिपक गया। पत्तियों को तुरंत तोड़कर जब माइक्रोस्कोप के नीचे देखा तो पता चला कि यह तो कोई कवक (फफूंद) है जो पत्तियों पर उग रही है।
घर जाकर किताबें टटोलने पर सारा माजरा साफ हो गया। पता चला कि पत्तियों पर यह कालिख ‘सूटी मोल्ड’ नाम की फफूंद ने पोती है। ये केपनोडीऐसी कुल के सदस्य हैं और उपरिरोही (Epiphytes) हैं। यानी जैसे ऑर्किड के पौधेे अन्य पेड़ों की शाखाओं पर चिपके रहते हैं। इनका संबंध पेड़ों से केवल आश्रय प्राप्त करने तक ही सीमित होता है क्योंकि अधिकांश ऑर्किड अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। ये सूटी मोल्ड भी उपरिरोही हैं परंतु ऑर्किड की तरह स्वयं-पोषी नहीं, बल्कि मृतोपजीवी (Saprophytes) हैं। कवक स्वयं-पोषी हो ही नहीं सकते क्योंकि इनके पास भोजन बनाने वाला हरा पदार्थ - क्लोरोफिल होता ही नहीं है। अत: भोजन प्राप्त करने के लिए ये विभिन्न तरीके आज़माते हैं, जैसे किसी अन्य जीव से भोजन चुरा लेना। ऐसे कवक रोगकारी होते हैं और परजीवी कहे जाते हैं, जैसे गेहंू में गेरूआ रोग फैलाने वाला पक्सीनिया। दूसरे प्रकार के कवक मरे हुऐ सड़े-गले जीवों या उनसे प्राप्त रासायनिक पदार्थों से अपना पोषण ग्रहण करते हैं, जैसे तरह-तरह के कुकरमुत्ते और अचार-मुरब्बे पर उगने वाली फफूंद। इन्हें मृतोपजीवी कहते हैं।
सूटी मोल्ड तीसरा तरीका अपनाती हैं। ये पत्तियों और तने पर सिर्फ रहती हैं। अपना पोषण ये पत्तियों पर गिरने वाले हनी-ड्यू या पत्तियों से स्रावित होने वाले कार्बनिक पदार्थों से प्राप्त करते हैं। ऐसे कवक उपरिरोही कहलाते हैं। हालांकि सूटी मोल्ड में जो कवक शामिल हैं वे मृतोपजीवी किस्म के हैं। परंतु यहां मामला कुछ अलग है, जो और भी पेचीदा हो जाता है जब ऐसे पेड़ों के नीचे की दीवारों, ईंटों व लोहे से बने टैंक तक पर यह कालिख पनपने लगती है। अब बतलाइए इन्हें क्या कहेंगे परजीवी या मृतोपजीवी? अत: इन्हें उपरिरोही-उपरजीवी कहना ही ठीक है - जो पत्ती हो या दीवार, हर कहीं अपना डेरा जमा लेते हैं, ऊपर वाले के भरोसे।
पर ये ऊपर वाला है कौन? दरअसल, ये ऊपर वाला नहीं, ऊपर वाले हैं जिन्हें रस-चूषक कीट कहते हैं। जैसे माहू या ब्राउन स्केल, मीली बस, सफेद मक्खियां और लीफ हॉपर्स आदि। ये हनी-ड्यू उत्पादक कीट कहलाते हैं। ये चूषक कीट अक्सर अतिरिक्त जलीय पदार्थ उत्सर्जित करते हैं जो शर्करा-युक्त होता है। यही मीठा द्रव हनी-ड्यू कहलाता है, जो नीचे की पत्तियों, तनों, फूलों और जो भी इन पेड़ों के नीचे होता है, उस पर छोटी-छोटी बूंदों के रूप में टपकता या झरता रहता है। यही वह ऊपर वाले का प्रसाद है जिस पर सूटी मोल्ड उगती है। दरअसल, सूटी मोल्ड को अपना पोषण इसी मीठे द्रव से मिलता है। कई बार ऐसा भी होता है कि जिन पेड़ों पर कीटों का आक्रमण नहीं होता है परंतु यदि वे ऐसे पेड़ों के नीचे उग रहे हैं तो वे भी इस कालिख से पुत जाते हैं।
हालांकि कुछ पेड़ ऐसे भी होते हैं जो बिना किसी कीट संक्रमण के अपनी पत्तियों से ऐसा द्रव स्रावित करते हैं जैसे आम। ऐसा अधिकांशत: गर्मियों के दिनों में होता है और इन्हीं दिनों में हमें पत्तियों पर कालिख पुती नज़र आती है। बारिश में ऐसा क्यों नहीं होता यह सोचने की बात है। क्या बारिश पत्तियों की धुलाई तो नहीं करती?
सूटी मोल्ड एक व्यापक शब्द है जिसमें लाकुलोऐस्कोमाइसीटिडीनी के अलावा भी अन्य कुल शामिल हैं। इन कवकों का शरीर पूर्णत: काला, शाखित और बहुकोशिकीय कवक सूत्रों से बना होता है जो पत्ती की पूरी सतह को ढक लेता है। वैसे तो सूटी मोल्ड की ‘समस्या’ सौंदर्य बोध से जुड़ी है परंतु बहुत ज़्यादा कालापन हो जाने पर पत्तियों को पर्याप्त प्रकाश नहीं मिल पाता और ऐसे में उनकी प्रकाश संश्लेषण की क्रिया बाधित होती है। ऐसी स्थितियों में पत्तियां, फल, नई शाखाएं छोटी या हल्के रंग की हो जाती हैं। मोल्ड के कारण स्टोमेटा बंद हो जाने से श्वसन क्रिया भी प्रभावित होती है। सूखे के दिनों में ऐसे पौधे अन्य पौधों की तुलना में जल्दी मुरझाते हैं। इस कालिख से छुटकारा पाने के दो उपाय हैं - पहला, कीटों का नियंत्रण करें। और दूसरा, ऐसे पेड़-पौधों को पानी में हल्का-सा डिटरजेंट डाल कर तेज़ धार से धोते रहें। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी (यानी पत्तियों पर न जमेगी शक्कर और न उगेगी फफूंद)। अत: कुल-मिलाकर पीपल के पत्तों पर कालिख पुतने, पोतने वाले और हटाने की यही कहानी है।
किशोर पंवार: होल्कर साइंस कॉलेज, इंदौर में वनस्पति विज्ञान पढ़ाते हैं। विज्ञान लेखन में रुचि।