संकलित
स्वीडन के प्रकृति वैज्ञानिक कार्ल लीनियस का सन् 2007 में तीन सौवाँ जन्म दिन मनाया गया। लीनियस ने वनस्पतियों और जीव-जन्तुओं के वर्गीकरण का पहला सुव्यवस्थित प्रयास किया। प्रकृति विज्ञान में उनका एक और अहम काम माना जाता है कि उन्होंने वनस्पति विज्ञान को लोकप्रिय बनाने की कोशिश की।
वेसे शताब्दियों, अर्द्धशताब्दियों आदि का जश्न मनाने का प्रचलन हमारे देश में भी खूब है, पर स्वीडी लोगों के लिए लीनियस आज भी एक ज़िन्दा स्मृति हैं। उनके तईं वे एक वैज्ञानिक, चिकित्सक, लेखक आदि होने से पहले एक महान खोजी और यात्री थे। वो भी खुद अपने ही देश के। और बाद में जब वे प्रोफेसर बने, पढ़ाने लगे, तो उन्होंने अपने कई छात्रों को वैज्ञानिक छानबीन करने, जानकारियाँ इकट्ठा करने हेतु विभिन्न देशों की यात्राओं पर भेजा था।
आज के वनस्पतिशास्त्री और प्राणिशास्त्री जिनकी वर्गीकरण में रुचि है, उन्हें अँग्रेज़ी के अक्षर ‘एल’ के रूप में जानते हैं। यह अक्षर कार्ल लीनियस का संक्षिप्त रूप है और परम्परागत रूप से उन तमाम महत्वपूर्ण जीवों के सामने लिखा जाता है जिन्हें लीनियस ने पहचाना और वर्गीकृत किया था।
लीनियस किसी सामन्त या सम्पन्न व्यापारी के बेटे नहीं थे (हाँ, सन् 1757 में उन्हें उनके कार्य के लिए सम्मानित करते हुए एक सामन्त का दर्ज़ा ज़रूर दिया गया था और तब वे कार्ल फॉन लिने कहलाने लगे थे)। बहरहाल, उनके दादा एक साधारण किसान थे और पिता लूथरन चर्च के पादरी, जिनकी वनस्पतिशास्त्र में खूब रुचि थी। अपनी सामान्य पृष्ठभूमि के बावजूद लीनियस ने शुरुआत एक चिकित्सक के रूप में की। बाद में एक प्रोफेसर बने। अन्तत: उन्हें उनके योगदान के कारण नोबेलिटी का सदस्य भी बनाया गया।
लीनियस अपनी आत्मकथा (उन्होंने अपनी एक-दो नहीं चार आत्मकथाएँ लिखी थीं) में कहते हैं कि “एक महान इन्सान एक छोटी-सी कुटिया से भी निकल सकता है।” आप सोच सकते हैं कि लीनियस बड़बोला या घमण्डी इन्सान रहा होगा जिसे अपने मुँह मियाँ मिट्ठू कहा जाए। पर सच यह है कि लीनियस ने अपनी जो उपलब्धियाँ गिनवाईं वे सौ-फी-सदी सच हैं।
चिकित्सा की ओर झुकाव
राशुल्ट के एक पादरी परिवार में जन्मे लीनियस पाँच बच्चों में सबसे बड़े थे। उनका जन्म उस समय हुआ जब वसन्त अपने चरम पर था और पपीहा ग्रीष्मकाल के आने की सूचना दे रहा था। उनकी तीन बहनें और एक भाई था। लीनियस की शिक्षा-दीक्षा पास ही वैक्सजो स्थित ग्रामर स्कूल में प्रारम्भ हुई। यहाँ उन्हें योहान रॉथमान भौतिक विज्ञान पढ़ाते थे। रॉथमान एक चिकित्सक भी थे। रॉथमान ने कार्ल में छिपी प्रतिभा को पहचाना और पेड़-पौधों के जीवन के अध्ययन के लिए आवश्यक सहयोग दिया जो उस समय खास उपयोगी विषय नहीं माना जाता था। रॉथमान ने ही उनके चिन्तित माता-पिता को समझाया कि उनके बड़े बेटे को धर्म का अध्ययन करने के बदले चिकित्साशास्त्र की पढ़ाई करनी चाहिए। एक रोचक बात यह है कि पुराने ज़माने के स्कूलों में प्रतिभावान छात्रों को अक्सर रॉथमान जैसे मार्गदर्शक मिल जाया करते थे।
वैक्सजो ग्रामर स्कूल के बाद लीनियस तुलनात्मक रूप से नए विश्वविद्यालय, लुण्ड विश्वविद्यालय में दाखिल हुए। यहाँ भी उन्हें प्रोफेसर किलिअन स्टोबियस के रूप में एक मार्गदर्शक और हितैषी मिले। यहाँ लीनियस मात्र एक ही वर्ष रहे और सन् 1728 में उप्पसाला चले गए जहाँ का विश्वविद्यालय अधिक प्राचीन और बड़ा था। यहाँ उन्हें चिकित्सा के दो प्रोफेसर मिले - ओलोफ रुडबैक (जूनियर) तथा लार्स रोबर्ग। ये दोनों ही सेवा निवृत्ति की आयु के आस-पास थे।
लैपलैण्ड और दालानी की यात्राएँ
लीनियस उप्पसाला में अगले सात वर्षों तक रहे। हाँ, इस दौरान उन्होंने लैपलैण्ड (सन् 1732) और दालानी (सन् 1734) की अध्ययन यात्राएँ भी कीं। सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से यह परिपाटी पड़ गई थी कि चिकित्साशास्त्र में डॉक्टरेट करने वाले स्वीडी लोगों को अपना डॉक्टरल शोध-पत्र हॉलैण्ड में जाकर लिखना होगा। सो लीनियस ने तीन वर्ष नीदरलैण्ड में बिताए। इसी यूरोप प्रवास के दौरान वे कुछ समय फ्राँस और इंग्लैण्ड के दौरे पर भी गए। और अन्तत: 1738 में स्वीडन लौटे।
अपनी आत्मकथा में लीनियस लिखते हैं कि वे सीधे फालून गए जहाँ उनकी प्रेमिका सारालीस मोरेइया पिछले चार वर्षों से उनका इन्तज़ार कर रही थीं। विवाह के बाद उन्होंने कुछ सालों तक स्टॉकहोम में एक चिकित्सक के रूप में काम किया। और तब 1741 में वे उप्पसाला में चिकित्सा के प्रोफेसर बने। उनकी ज़िम्मेदारियों में पवय विज्ञान (डाएटेटिक्स), औषधि विज्ञान (मटीरिया मेडिका) तथा प्राकृतिक इतिहास (नैच्यूरल हिस्ट्री) पढ़ाना शामिल था। विभिन्न कठिनाइयों से जूझने के बावजूद वे वहाँ के बॉटेनिकल गार्डन की भी देखभाल करते रहे। कई बार उन्हें उप-कुलपति के रूप में काम करना पड़ा। वे ‘रॉयल-स्वीडिश अकादमी ऑफ साइन्सेज़’ के अध्यक्ष, तथा सन् 1744 में उप्पसाला साइन्टिफिक सोसायटी के सचिव भी रहे। साथ ही वे स्वीडी राजा व रानी के दरबारी प्रकृति वैज्ञानिक के रूप में अपनी सेवाएँ देते रहे।
वनस्पतिशास्त्र के क्षेत्र में लीनियस ने जो योगदान किया वह कल्पनातीत है। नीदरलैण्ड प्रवास के दौरान उनके प्रकाशनों में फण्डामेन्टा बॉटैनिका (1736), बिब्लिओथेका बॉटैनिका (1736), जेनेरा प्रैन्टैरम (1737), क्लॉसेस प्रैन्टैरम (1738) तथा सचित्र कृति हॉर्टस क्लिफॉर्टिअनस (1737) थीं।
उनकी कृति ‘सिस्टेमा नैचुरे’ (1735), जिसकी पाण्डुलिपि वे स्वीडन से नीदरलैण्ड लेकर गए थे, उस युग की अभूतपूर्व कृति थी जिसने न केवल उन्हें व्यक्तिगत ख्याति दिलाई वरन् स्वीडन के लोगों की प्रकृति में गहरी रुचि पैदा की। वे प्राकृतिक जगत की व्यवस्था को पाठकों के समक्ष रखने की चेष्टा करते रहे।
वर्गीकरण के आधार
पेड़-पौधों के विभाजन के लिए लीनियस ने जो मानक चुने वह थीं उनकी यौन-विशेषताएँ। सत्रहवीं शताब्दी के अन्त में इन्हें वर्गीकरण का आधार बनाया जाने लगा था लेकिन यह विचार सबको स्वीकार्य नहीं था।
पशुओं का विभाजन उन्होंने भिन्न मानक के आधार पर किया - चतुष्पादों या जिन्हें लीनियस ने स्तनधारी (मैमेलिया) का नाम दिया - उन्हें स्तनों की संख्या और उनके स्थान के आधार पर बाँटा।
लीनियस ने इसी प्रकार खनिजों या ‘पत्थरों’ को उनकी रासायनिक संरचना का कोई उल्लेख न करते हुए बाहरी विशेषताओं के आधार पर बाँटा।
‘सिस्टेमा नेच्यूरा’ अपने आकार में धीरे-धीरे बढ़ता गया। इसके पहले संस्करण में (1735) इसके केवल 12 फोलियो यानी पृष्ठ थे। इसके बारहवें संस्करण में (1766-68) यह बढ़ते-बढ़ते 2,300 हो गए; जिसमें 15,000 खनिज, पौधों व पशु प्रजातियों को शामिल कर लिया गया। अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक आते-आते यह अनुमान लगाया जाने लगा कि धरती पर तकरीबन दस लाख प्रजातियाँ हैं। आजकल यह माना जाता है कि प्रजातियों की संख्या 3 से 4 करोड़ है।
लीनियन विज्ञान, डिविज़िओ (विभाजन) तथा डिनॉमिनाशियो (नामकरण) पर आधारित था। मतलब प्रकृति को बड़े-छोटे भागों में बाँटने और प्रत्येक जीव-जन्तु, वृक्ष-पौधों का नामकरण करने के बाद उन्हें उनके सही स्थान पर रखने का काम लीनियस ने किया।
अठारहवीं शताब्दी में एक विचार बेहद लोकप्रिय था जिसे ‘चेन ऑफ बीइंग’ (जीवों की कड़ी) कहा जाता था। लीनियस को यह अवधारणा महत्वपूर्ण लगी। वे सृष्टि के पदानुक्रम में इन्सान को सबसे ऊपर रखते थे। उन्होंने ही सन् 1758 में मानव को बन्दरों की श्रेणी ‘प्राइमेटस’ में रखते हुए ‘होमो सेपियन्स’ का नामकरण किया जो आज भी चला आ रहा है।
इस कड़ी को जोड़ने की कोशिश में उन्होंने ‘अन्तर्वर्ती मानव’ (ट्राँज़िशनल ह्यूमन बीइंगस) की खूब छान-बीन की। जब एक बार यह अफवाह फैली कि कहीं कोई ‘मरमेड’ (मत्स्य कन्या) पकड़ी गई है, तो वे इसे सच मान बैठे और उसे जाँचने की सम्भावना पर भी कुछ लिखा।
लीनियस के विश्वास
लीनियस ने प्रकृति को समझने के दौरान अपनी कई तरह की धारणाएँ बना ली थीं। लीनियस का मानना था कि जीवों की संख्या स्थिर रहती है, यानी जितनी संख्या जीवन के शुरुआती समय में थी उतनी ही अब भी है। हालांकि उन्होंने जीवों में पाई जाने वाली विशाल विविधता का अध्ययन किया था, लेकिन इसके बावजूद उन्हें इस बात का अहसास नहीं हुआ कि प्रजातियों की उत्पत्ति होती रहती है। वे इस बात को भी नहीं समझ पाए कि किसी एक प्रजाति से कई अलग-अलग प्रजातियों के जीवों का विकास हो सकता है। साथ ही कुदरत में प्रजातियों का विलुप्त होना और नई प्रजातियों का विकास एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है।
इस प्रकार लीनियस कुछ ऐसी चिकित्सा सम्बन्धी मान्यताओं पर भरोसा करते थे, जिन्हें आज अवैज्ञानिक कहा जाएगा। मसलन, एक बार घर लौटने पर उन्होंने पाया कि उनकी बहन को शीतज्वर हुआ है। उसका इलाज लीनियस ने एक भेड़ को कटवा कर उसकी ताज़ी चमड़ी में रोगी बहन को लपेट कर किया था। इसकी वजह यह थी कि उस समय परम्परागत चिकित्सा विज्ञान में रोग का यह उपचार बताया गया था।
अपने भाषणों में वे छात्रों से कहते कि अगर पिल्ले पर कुछ चिमटियाँ (स्नैप्स) लगा दी जाएँ तो उसका आकार छोटा रहेगा। उनका यह भी मानना था कि श्वेत स्त्री और अश्वेत पुरुष का कोई लड़का हो तो उसका शिश्न काला होगा। उनका विश्वास यह भी था कि सर्दियों में अबाबील पक्षी दक्षिण की ओर पलायन नहीं करता बल्कि तालाबों के तल में शीतनिद्रा करता है, मानो मछलियों की तरह उनके भी फिन और गलफड़े हों।
इस तरह की भ्रान्तियाँ शर्मनाक लग सकती हैं - पर, दरअसल, ये एक ऐसी संस्कृति की द्योतक हैं जिसकी अनेक सतहें थीं।
यह लेख स्वीडिश इंस्टीट्यूट द्वारा सन् 2006 में प्रकाशित पुस्तक - कार्ल लीनियस, लेखक गुन्नार ब्रोबर्ग में दी गई सामग्री पर आधारित है। लेख में अन्य स्रोतों से भी सामग्री ली गई है।
गुन्नार ब्रोबर्ग: गुन्नार लुण्ड विश्वविद्यालय के हिस्ट्री ऑफ साइन्स एण्ड आयडिया विभाग में प्रोफेसर हैं।
हिन्दी अनुवाद: पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा: वर्तमान में एकलव्य के प्रकाशन समूह से सम्बद्ध हैं। लेखन एवं अनुवाद कार्य में मशरुफ हैं। जयपुर में निवास।