सुशील जोशी

जैव विकास
आपने भी कई बार सुना होगा कि
फलाँ व्यक्ति की अकल दाढ़ निकल रही है और वह बहुत तकलीफ में है। यह सुनकर मन में प्रश्न उठता है कि यह अकल दाढ़ होती क्या है और किसी-किसी को ही क्यों निकलती है? यह भी सम्भव है कि यह निकलती सबको हो मगर तकलीफ कुछ ही लोगों को देती हो। और यह भी सवाल है कि इस दाढ़ का अकल से क्या सम्बन्ध है? इन सवालों को लेकर पढ़ना शु डिग्री किया तो समझ में आया कि अकल दाढ़ एक दिलचस्प चीज़ है और इसका सम्बन्ध मानव शरीर रचना, संस्कृति, जैव विकास, भाषा, खान-पान वगैरह कई चीज़ों से है।

क्या है अकल दाढ़?
दरअसल, इन्सानों में दाँत क्रम से आते हैं और दो बार आते हैं। पहली बार में कुल 20 दाँत निकलते हैं जिन्हें ‘दूध के दाँत’ कहते हैं। इनमें से कुछ दाँत गिर जाते हैं और उनका स्थान तथाकथित पानी के (स्थाई) दाँत ले लेते हैं। अन्तत: इन्सान के दोनों जबड़ों में कुल 32 दाँत होने चाहिए - प्रत्येक जबड़े में 2 जोड़ी इन्साइज़र्स, 1 जोड़ी कैनाइन्स, 2 जोड़ी अग्र दाढ़ और 3 जोड़ी दाढ़। बच्चों में अग्र दाढ़ और तीसरी सबसे अन्दर वाली दाढ़ नहीं होती, इसलिए उनमें 20 दाँत ही होते हैं।

बचपन के कुछ दाँत 4 वर्ष की उम्र में गिरते हैं और उनका स्थान स्थाई दाँत ले लेते हैं। कुछ दाँत नए ही आते हैं। अन्तत: प्रत्येक जबड़े में दोनों ओर 3-3 दाढ़ें होनी चाहिए। 2-2 दाढ़ें तो करीब 12 वर्ष की उम्र तक आ जाती हैं। हर जबड़े की तीसरी यानी सबसे किनारे वाली दाढ़ 18-25 वर्ष की उम्र में आती है। चूँकि ऐसा माना जाता है कि इस उम्र में व्यक्ति को अकल आती है, इसलिए इन तीसरी दाढ़ों को अकल दाढ़ या विज़डम टूथ कहते हैं। इससे साफ है कि अकल दाढ़ आने से पहले हमारे 32 दाँत नहीं होते। स्कूलों में जिस उम्र में 32 दाँत होना बताया जाता है, उस समय बच्चों में 28 दाँत ही होते हैं।

अकल दाढ़ की समस्या
यह तो स्पष्ट है कि अकल दाढ़ उम्र में काफी देर से आती है। इस समय तक बाकी दाँत पूरे जबड़े को घेर लेते हैं। तो अकल दाढ़ के लिए जगह ही नहीं बचती। इसलिए अधिकांश लोगों में एक या एक से अधिक अकल दाढ़ें मसूड़े में से बाहर ही नहीं निकल पातीं। यह बात थोड़ी विचित्र लगती है कि जब ये चार दाँत देर-सबेर निकलना ही हैं तो फिर प्रकृति ने इनके लिए जगह का इन्तज़ाम क्यों नहीं किया? इस सवाल का सम्बन्ध जैव विकास से है और हम उस पर थोड़ी देर में बात करेंगे। उससे पहले अकल दाढ़ की कुछ और दिक्कतों की बात कर लें।
होता यह है कि कई लोगों में अकल दाढ़ को मसूड़े से बाहर सिर उठाने का मौका ही नहीं मिलता। मगर वह दबाव तो डालती है। इस दबाव के कारण भयानक दर्द भी होता है और अन्य दाँतों पर असर भी पड़ता है। कभी-कभी तो ऑपरेशन करके अकल दाढ़ को निकालना पड़ता है। इसके अलावा यह भी हो सकता है कि जगह के अभाव में अकल दाढ़ थोड़ी-सी बाहर झाँके और रुक जाए। तब यह जगह संक्रमणों के लिए उपयुक्त स्थल बन जाती है।
एक तीसरी समस्या भी हो सकती है। अकल दाढ़ आड़ी-तिरछी निकल सकती है। ऐसा होने पर वह पास के दाँत के लिए दिक्कत पैदा करती है और दर्द होता है।
इन सारे कारणों से अकल दाढ़ का प्रकटीकरण एक दर्दनाक प्रक्रिया साबित होती है। अत: हम कह सकते हैं कि कई लोगों को अकल दाढ़ आती ही नहीं, कुछ लोगों को सहजता से आ जाती है जबकि कुछ लोगों को यह अकल काफी महँगी साबित होती है!

इलाज
इसके इलाज को लेकर काफी मत भिन्नता है। आजकल कुछ डॉक्टर्स कहने लगे हैं कि अकल दाढ़ के निकलने का इन्तज़ार किए बगैर ऑपरेशन करके उसे हटा देना चाहिए। कुछ डॉक्टर्स का मत है कि तकलीफ होने पर ही कुछ करने के विषय में सोचना चाहिए। कुछ और डॉक्टर्स कहते हैं कि मात्र दवाइयों से इस समस्या से निपटा जा सकता है। तो, इस मामले में अपने-अपने डॉक्टर की सलाह मानना ही उचित रहेगा।

जैव विकास से नाता
यह जानकर आश्चर्य होना स्वाभाविक है कि एक अकल दाढ़ का सम्बन्ध जैव विकास जैसी व्यापक प्रक्रिया से होगा। ऐसे मामलों का अध्ययन करने वाले जीव वैज्ञानिक इस बात पर विचार करते रहे हैं कि आखिर इन चार दाँतों को जबड़े में मुकम्मल जगह क्यों नहीं मिल पाती। विभिन्न किस्म के अध्ययनों के बाद इस सन्दर्भ में एक मोटी-मोटी समझ बनी है, जो यहाँ प्रस्तुत है।
जैसे, सबसे पहली बात तो यह समझ में आई है कि मानव सदृश प्राणियों का चर्वण तंत्र (यानी चबाने की व्यवस्था) उन प्राणियों से छोटा है, जिन्हें एप्स कहते हैं - जैसे बैबून्स, चिम्पैंज़ी वगैरह। इसके अलावा यह भी पता चला है कि विकास के दौरान मानव सदृश प्राणियों के दाँत छोटे होते गए हैं। यह बताया गया है किमानव के प्राचीन पूर्वज ऑस्ट्रेलो-पिथिकस से इन्सान के नवीनतम पूर्वज (होमो इरेक्टस) तक दाँत लगातार छोटे हुए हैं। पुराजीव वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चलता है कि करीब 35,000 वर्ष पूर्व से लेकर 10,000 वर्ष पूर्व तक मनुष्य के दाँतों का साइज़ हर 2000 वर्षों में 1 प्रतिशत की दर से छोटा हुआ है। इसके बाद यह रफ्तार और भी तेज़ हो गई और प्रति हज़ार वर्ष में ही 1 प्रतिशत की कमी आती गई। इसके साथ ही मनुष्यों का जबड़ा भी छोटा होता गया। आखिर क्यों? और यह क्यों इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ये परिवर्तन संसार भर में हुए। इस बात के प्रमाण हैं कि मज़बूत, बड़े दाँतों व जबड़ों का महत्व 50,000 वर्ष पूर्व लगभग समाप्त हो चुका था। मनुष्य ने खाना पकाने की शुरुआत शायद दो लाख वर्ष पहले की थी।

छोटा होता जबड़ा
इस छोटे होते जबड़े की व्याख्या के लिए जीव वैज्ञानिकों ने जो चित्र प्रस्तुत किया है उसके अनुसार जबड़े का इस तरह छोटा होना कई सारी बातों का मिला-जुला परिणाम था - मनुष्य द्वारा खाना पकाने की शुरुआत, दो पैरों पर चलने की शुरुआत, भाषा का विकास और भेजे के साइज़ में वृद्धि।

सबसे पहली बात तो यह है कि जब मनुष्य ने भोजन को पकाना शुरु किया तो उसे चबाना आसान हो गया। अत: मज़बूत जबड़े और बड़े व मज़बूत दाँतों के विकास का जो दबाव प्रकृति की ओर से था वह कम हो गया। भोजन पकाने के अलावा मनुष्यों ने पत्थर के औज़ारों का उपयोग भी शुरु कर दिया था - इसके कारण भी दाँतों और नाखूनों की मज़बूती का महत्व कम हो गया। अर्थात् मज़बूत व बड़े दाँत अब कोई बहुत बड़ा फायदा नहीं पहुँचाते थे। इसमें मिट्टी के बर्तनों ने भी अपनी भूमिका निभाई है - मिट्टी के बर्तनों में सूप बनाया जा सकता है, जिसे चबाना नहीं पड़ता, पीकर पेट भरा जा सकता है। अतीत में जिस दौर में मिट्टी के बर्तनों का चलन शुरु हुआ था, उस समय के ऐसे मानव अवशेष मिले हैं, जिनके दाँत न होने के बाद भी वे जीवित रहे थे। मगर यह तो इतनी ही व्याख्या हुई कि अब दाँतों व जबड़ों का साइज़ बढ़ेगा नहीं। सवाल तो यह है कि साइज़ कम क्यों हुआ।

इस मामले में सबसे पहली बात तो यह आती है कि मनुष्य के भेजे का साइज़ बड़ा होने लगा था। खोपड़ी में इसे समाने के लिए जगह पैदा करना ज़रूरी था। इसलिए यदि कोई अंग छोटा होता है तो भेजे के लिए जगह बनती थी। और भेजा बड़ा होने से प्राकृतिक चयन की दौड़ में फायदे मिलने लगे थे।
दूसरी बात यह है कि मनुष्य दो पैरों पर चलने लगे थे। इसकी वजह से सिर के पूरे आकार व सन्तुलन में परिवर्तन होना लाज़मी था।
तीसरा कारण भाषा का विकास बताया गया है। भाषा उच्चारण के लिए मुख गुहा का अत्यन्त लचीला होना आवश्यक है। इसके अलावा स्वर यंत्र में भी बेहतर नियंत्रण ज़रूरी है। शिकार के दौरान परस्पर संवाद के ज़रिए सामूहिक क्रिया का महत्व बताने की ज़रूरत नहीं है। इसलिए भाषा का विकास होना भी प्राकृतिक चयन में लाभदायक साबित हुआ होगा। और इसने पूरी मुख गुहा की संरचना पर अपना असर डाला।

कुल मिलाकर स्थिति यह बनी कि बड़े, मज़बूत जबड़े और दाँतों का प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया में महत्व कम हो गया तथा दूसरी ओर बड़े भेजे व लचीले मुँह का महत्व बढ़ता गया। परिणाम यह हुआ कि जबड़ा छोटा हो गया और तीसरी दाढ़ (अकल दाढ़) के लिए जगह नहीं बची। यानी पके हुए भोजन, बढ़ी हुई अकल और संवाद क्षमता ने अकल दाढ़ का दमन कर दिया।


सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान लेखन में रुचि।
यह लेख जून 2006 स्रोत से साभार।