लेखक:   रिनचिन
अनुवाद: सुशील जोशी  [Hindi PDF, 265 kB]

कहानी
जब जनसंहार एक खेल बन गया हो, तो जीत के जुलूस को तबाही की टुकड़ी बनने में कितनी देर लगती है?अब बदला होगा...साले उनकी तो..., सब तरफ लोग दोपहर बाद बन्द करने की तैयारी कर रहे हैं...आज तो हम जीतेंगे...मुर्गे कटेंगे...उनको हलाल...उनकी तो औलादें भी खेलना भूल जाएँगी...साले कट...योजना पर योजना बनती है...लड़के बड़े मैच की तैयारी कर रहे हैं।ट्रक के दूसरी ओर खड़ा रफीक चेहरे पर से ग्रीस पोंछते हुए ट्रक में तेल डालने में जुटा रहता है। एक पल घड़ी को देखता है, थोड़ा सुस्ताने को जी कर रहा है, मगर फिर कोई-न-कोई उसे बातचीत में घसीट लेगा... नहीं, काम करते रहना ही ठीक है। वह गैरेज के दरवाज़े के पास स्टूल पर रखा जग उठा लेता है।
गलियों में भगवा झण्डे लग गए हैं, संख्या में तिरंगों के बराबर ही हैं, खेलकूद में एकजुट राष्ट्र का प्रतीक है क्या? रफीक कुल्ला करके वापिस काम में भिड़ जाता है, “मैं ज़रा-सा शोएब की गेंदबाज़ी के बारे में कुछ कह दूँ, फिर देखेंगे एकता।”
बस यह दिन गुज़र जाने दो...कुछ नहीं होगा।...बस हिन्दुस्तान जीत जाए, मगर यदि जीत ने जोश और बढ़ा दिया तो...यदि जीत का नशा, जीत का आक्रामक तेवर चलता ही गया तो...वह सिहर गया। और यदि ये हार गए...तो इसका इल्ज़ाम किसी-न-किसी के मत्थे मढ़ने का बहाना न बन जाए। उसने अपना सिर हिलाया। वह ज़्यादा ही डर रहा है। गैरेज के पीछे की लाइन पर कोई ट्रेन गुज़री, वह थरथराहट महसूस कर सकता है...दोपहर वाली इंटरसिटी होगी।

सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ने उसे क्या बताया था, पैरानोइया?
“सब भूल जाओ, वह बीत चुका है, शहर वापिस सामान्य हो गया है, सब तरफ शान्ति है, दोनों समुदायों के बीच सम्बन्ध सामान्य हो गए हैं।” डॉक्टर अपनी कुर्सी पर आराम-से टिककर बैठ गया था और रफीक को देख रहा था। रफीक मरीज़ के लिए रखे स्टूल के किनारे पर टिका हुआ था। “हम हिन्दुस्तानियों का दिल हमेशा से बहुत बड़ा रहा है, सब होने के बाद भी हम चलते रहते हैं। यह बहुत बड़ा एकजुट देश है।” रफीक के कुछ बड़बड़ाने पर डॉक्टर ने तीखी आवाज़ में कहा था, “बीती बातों को बार-बार याद करके क्या मिलेगा तुम्हें? यदि तुम लोग फिर से गर्मागरमी की कोई वजह पैदा नहीं करोगे, तो क्यों होगा फिर से कुछ? भगवान सब ठीक ही करता है, जो भी होता है किसी कारण से होता है।”

रफीक ने सिर्फ सिर हिलाया था, कुछ बोलने के लिए उसे यकीन नहीं था अपनी आवाज़ पर। पर्ची उठाकर वह निकल आया था। बस में बैठकर रफीक की इच्छा हुई थी कि कुल्ला कर ले, निगले हुए गुस्से और ज़लालत का कसैला स्वाद थूक दे।
ढाई बज रहे हैं, डेढ़ घण्टा और, फिर वह घर में होगा। वह ट्रक के नीचे घुस गया।

ट्रक के दूसरी ओर काम कर रहे लड़के भी जल्दी-जल्दी काम खत्म कर रहे हैं, पूरी मज़दूरी के लिए एक घण्टे का मैच छोड़ने में क्या बुराई है। मगर पैसे के लिए वे सिर्फ यही एक घण्टा कुरबान कर सकते हैं। आखिरकार वह देशभक्ति का दिखावा जो था। खूब ठहाके और...उम्मीदें... आज हम जीतेंगे! हर हर महादेव। कत्ल शु डिग्री करो। हर बॉल पे एक डाउन।
बस्ती में लड़के व्यस्त थे, कुछ ने काम से छुट्टी ले ली थी और कुछ के पास काम था ही नहीं। अँग्रेज़ी बीयर की बोतलें जमा कर ली गई थीं रात के लिए, झण्डे ऊँचे थे, चेहरे रंगे हुए थे, सिर पर भगवा पट्टे बाँधेे, जश्न की तैयारी पूरी थी।

साढ़े चार, रफीक घर लौट रहा है, हर दुकान जिसमें टीवी हो, वहाँ छोटी-मोटी भीड़ जुटी है। ग्राहक थोड़ी देर एक विकेट की उम्मीद में ठिठक जाते हैं। सड़क पर वह किसी से आँखें मिलाने से कतराता है, पूरा ध्यान गली के अन्तिम छोर पर पहुँचने पर है, वहाँ से बस बाएँ मुड़ा और महफूज़ हो जाएगा। कम-से-कम एक घेटो जितनी हिफाज़त दे सकता है। ठीक एक साल पहले वह ‘चार मोहल्ला’ में शिफ्ट हुआ था, एक साल पहले जब पहले से ही बँटे हुए शहर को दहशत और मौत ने और बाँट दिया था। उसे यह बस्ती एक तन्दूर जैसे लगती है, दिमाग और रूह दहशत से झुलस गए हैं, फक्त बेखबर राख या सुलगते अंगारे बचे हैं जिनमें बस इतनी गर्मी है कि इन्सान को धीमे-धीमे जलाते रहते हैं। अखबारों के सम्पादकों से लेकर बैंक मेनेजरों तक सभी यहाँ आकर बस गए हैं, एक पुलिस अफसर भी यहाँ मकान बनवा रहा है, रिटायरमेंट के बाद के लिए। ज़मीन के दाम किस कदर बढ़ गए हैं। यहाँ सस्ती ज़मीन खरीदने के लिए दुगने दाम देने पड़े थे...और सबको अपनी पुरानी ज़ायदाद औने-पौने दाम पर बेचना पड़ी थी या वैसे ही छोड़ देनी पड़ी थी। रफीक ने सुना था कि सड़क किनारे की कुछ दुकानें तो बगैर पैसा दिए, वैसे ही ले ली गई थीं।

कोई सौदेबाज़ी नहीं, कोई करार नहीं, ले लो या छोड़ दो।
जो भी मिले, उसे मंज़ूर करना रफीक जैसे परिवारों के लिए कोई समझौता नहीं था, घुटने टेकना था। और चारा भी क्या था। जब उसकी फूफी का परिवार कैम्प से अपने गाँव लौटा था, तो उन्हें अपने पड़ोसियों से खटिया और नसैनी वापिस खरीदनी पड़ी थीं, वही चीज़ें जो उनके घर छोड़कर भाग जाने के बाद लूट ली गई थीं। यह बात बताते हुए उनके आँसू बह रहे थे, और एक रूखी हँसी थी, “पर अब क्या करेंगे, इनके साथ ही जीना है एक गाँव में।” रफीक के परिवार को अपनी जायदाद के बारे में ऐसी कोई समस्या नहीं आई थी। उनके पास जो कुछ था उसे जलाने या लूटने का काम अजनबियों ने किया था। वापिस खरीदने की कोई गुंजाइश नहीं थी, चाहे वह खानदानी जायदाद ही क्यों न रही हो।
पिछला महीना काफी तनाव का रहा, मार्च के सौम्य दिनों को अप्रैल की चिलचिलाती दोपहरों तक धकेलते हुए अनगिनत अनकहे शब्द और खदकती भावनाएँ।

जनसंहार की बरसी...
और इस साल यह क्रिकेट है। रफीक को समझ नहीं आता कि क्या कहे, हिन्दुस्तान हार जाए तो आलोचना करते हुए डर लगता है। क्या पता चन्द असावधान लफ्ज़ क्या तूफान खड़ा कर दें। हाँ, सिर पर भगवा पट्टी बाँधे बाकी के लड़के टीम के बाप-दादाओं तक को गाली दे सकते हैं। उन्हें यह हक जन्मजात मिला है।

सुबह जब लड़कों ने ब्रेक लिया था, तब भागेश ने रोज़ की तरह खबरची की भूमिका निभाते हुए हरीभाई के टी स्टॉल से माँगे हुए अखबार से खबरें पढ़कर सुनाई थीं। एक खबर थी कि कैसे एक भीड़ ने कुछ क्रिकेट खिलाड़ियों के घरों पर धावा बोल दिया था, पता नहीं कैफ था कि ज़हीर था, या द्रविड़ या गांगुली था। और घर को काला पोत दिया था। यह तब की बात है जब टीम पिछला मैच हार गई थी...साले उनकी तो...पर ये सही नहीं किया...क्यों वो खराब खेलेंगे तो लोग तो नाराज़ होंगे ना, पर बाद में...पूरी भारतीय टीम ने निकलकर अपील की थी कि लोग यह पागलपन बन्द करें। खिलाड़ी भी उनकी ही तरह इन्सान हैं। जब वे अपने घर से इतनी दूर देश के लिए खेलते हैं, तो यह सही नहीं है कि उनके परिवार खतरे में रहें। अपील कारगर रही थी, भारतीय टीम के खिलाड़ियों के परिवार अब महफूज़ हैं।

दूसरी ओर खड़े-खड़े रफीक ने सब सुना मगर चुप रहा, आम तौर पर गैरेज में वह इस सबसे दूर ही रहता था। उसने एक साये की तरह जीना सीख लिया था, हमेशा मौजूद मगर आँखों से ओझल। गोया वह वहाँ हो ही नहीं। और वह यह कमाल बहुत अच्छे से करता होगा क्योंकि आजकल मुस्लिम विरोधी टीका-टिप्पणी करते हुए लोग आवाज़ धीमी नहीं करते थे। धीरे-धीरे वह औरों का अक्स बनता जा रहा था। एक आइना जो आपका अक्स खींचता है। हूबहू वही, अलग नहीं। एक जिस्म जिससे आँखें नहीं मिला सकते...और काँच उतनी आसानी से जलता भी तो नहीं जितनी आसानी से मांस जलता है।
यह नौकरी आसानी से नहीं मिली थी और वह इसे खोना नहीं चाहता।

वह दो नौकरियाँ गँवा चुका था। पहली नौकरी तब छूट गई थी जब उन्हें रातों-रात अपना घर और बस्ती छोड़कर भागना पड़ा था। शहर थोड़ा सामान्य होते ही वह लौटकर गया था, मगर उसे बताया गया था कि वहाँ दूसरा आदमी रख लिया गया है। “हम कितने दिन तुम्हारी राह देखते, हमें भी तो कामकाज शु डिग्री करके अपना नुकसान कम करना था।” सेठ ने कहा था, “और अब तुम लोगों को रखने में खतरा है। तुम्हें अपने मोहल्ले में ही नौकरी ढूँढ़ना चाहिए, तुम लोगों के ज़्यादातर गैरेज वहीं तो चले गए हैं, वहाँ काम होगा, तुम सबके लिए खूब काम होगा।”
उसके इलाके का कोई गैरेज उसे काम नहीं दे सकता था, इतना नुकसान हुआ था कि ज़्यादातर गैरेज छोटी-छोटी पारिवारिक इकाइयों के रूप में सिमट गए थे, खुद अपनी नौकरियाँ खोकर बेटे-भाई इनमें जुड़ गए थे। सबको अपना पेट पालना था।

आखिरकार उसे नौकरी मिल गई थी, गैरेज में नहीं, खेलकूद के सामान की दुकान में। तनखा प्रशिक्षित मेकेनिक के रूप में जितनी मिलती थी उससे आधी थी। मज़दूरी का काम था। यहाँ जब से लगा था, तब से तीन बार दुकान पर ही वह बदहवासी का शिकार हो चुका है, एकदम सुन्न पड़ गया था, न खड़ा रह सका न जवाब दे सका। मालिक ने उसे घर भेज दिया था। दो दिन तक वह बिस्तर में पड़ा रहा था, उठ ही नहीं पाया था। तीसरे दिन अब्बा उसे अस्पताल ले गए थे। पाँचवे दिन काम पर लौटा था। नौजवान मालिक काफी हमदर्द था, मगर दुकान उसकी नहीं, उसके पिता की थी और पिता बहुत बेरहमी से पेश आया था। “आखरी मौका दे रहा हूँ, यदि और छुट्टी ली तो घर पर ही रहना। वह तो लड़के के कहने पर मैं तुम्हें रखने का खतरा मोल ले रहा हूँ।” मगर फिर कई बार ऐसा हुआ कि रफीक खुद को तैयार ही नहीं कर पाता था काम पर जाने के लिए। सेठ आग-बबूला हो गया था, “हम कैसे यह बर्दाश्त कर सकते हैं?” रफीक ने कुछ नहीं कहा, आखिर जब उसने आँखें उठाईं तो सेठ चीख पड़ा था, “ऐसे आँखें मत तरेरो, और दूसरों को दोष देने से क्या मिलेगा? तुम तो ऐसे बता रहे हो जैसे हम सब तुम्हें नौकरी से बाहर रखने की साज़िश कर रहे हैं।” उसने दुकान में दो अन्य कर्मचारियों की ओर देखा, उनकी तुलना उससे करते हुए। “किसी का धर्म कुछ भी हो, मेहनत तो करनी पड़ेगी, तुम लोग तो हमेशा रियायत चाहते हो। यदि तुम इतनी छुट्टियाँ लोगे, तो हम तुम्हें निकालेंगे नहीं तो क्या करेंगे।” इस बीच बाकी दोनों नौकर सेठ के आजू-बाजू खड़े हो गए थे। “और तुम्हारा बहाना क्या है - कि तुममें ताकत नहीं है। अरे हमने भी शहर में बुरा वक्त देखा है। मैं तो सदमे का बहाना नहीं बना रहा हूँ। तुम सब नौजवान लड़के हो। तुम सबको तो ईमानदार और मेहनती होना चाहिए, कामचोर और रुआँसे नहीं।” इतना कहकर वह उठा और दुकान से निकल गया, रफीक वहीं खड़ा रहा। उसकी आँखें फर्श पर टिकी हुई थीं।


सेठ ने रफीक को उतने दिन की तनखा दे दी थी जितने दिन वह काम पर आया था। गैर-हाज़री के दिनों का पैसा काटकर। वह ईमानदार आदमी था।
उसकी तीसरी नौकरी इस गैरेज में लगी थी। किस्मत अच्छी थी उसकी। पिछले चार महीनों में उसने कभी अपनी समस्या का ज़िक्र नहीं किया, न ही पिछले एक साल के बारे में कोई बात की। कभी कोई मेहरबानी नहीं चाही। वह अपना काम अच्छे से करता है और उसकी तारीफ होती है। उसकी इच्छा थी कि ऐसे ही चलता रहे।

गली में घुसते हुए रफीक को कई रेडियो और टीवी की आवाज़ें सुनाई पड़ीं, सारी आवाज़ें मिलकर अजीब-सी खिचड़ी बन रही थी। उसे पता नहीं कि उसकी खोपड़ी में क्या है और वह क्या सुन रहा है। “खून से रंगे एक साल के बाद आज देश फिर से एक जुनून की गिरफ्त में है। एक जुनून-सा फिर छाया है सब पर।” जुनून और जश्न का वक्त है।
और रफीक सहमा हुआ है, फिर से।

रफीक के अब्बा ने सबको घर पर ही रहने की हिदायत दी है। उसका भाई तौफीक चिड़चिड़ा-सा बैठा है, वह इस बात पर नाराज़ है कि उसे शाहिद के घर जाकर टीवी देखने की इजाज़त नहीं मिली। जब से कप शु डिग्री हुआ है, मोहल्ले के उसके सारे दोस्त किसी एक घर में इक्ट्ठे होकर मैच देखते हैं। जिस घर में वे इकट्ठे होते हैं उसकी माँ को मजबूर होकर उन्हें खिलाना भी पड़ता है। मगर आज उसके अब्बा की आवाज़ सख्त थी। “बस चुपचाप ये दिन निकल जाने दो, फिर कल से मैच देखना। अभी इंडिया और ऑस्ट्रेलिया का भी तो मैच होगा ना!” यह कहते हुए उनकी आँखें एक पल के लिए भी पर्दे से नहीं हटतीं। हर गेंद पर ध्यान है उनका।

रफीक टीवी को अनदेखा करके पीछे के आंगन में चला गया। बड़ी टंकी में से पानी लेकर हाथ, मुँह, पैर धोए और सिर पर पानी डालकर बालों में उंगलियों से ही कंघी जैसी कर ली। धूप में उसके बाल चमक रहे हैं। आखरी में उसने कुल्ला करके नाली में थूका और खाना खाने रसोई की ओर चल दिया।
पहले बैटिंग करते हुए पाकिस्तान बढ़िया खेला। हर गेंद के साथ खूब हल्ला होता और वह बस्ती पर छा जाता। गली के मुहाने पर रशीद भाई की पान की दुकान पर तिरंगा थोड़ा हिचकते हुए लहरा रहा था, गोया डर रहा हो कि कोई उसके फरेब को ताड़ न ले।
“दिन गुज़रने दो, भारत मैच जीतेगा। जय हो।”
गैरेज में राणा ने लड़कों को एक और खबर पढ़कर सुनाई थी - शहर के कुछ बड़े-बड़े मण्डलों ने आज विशेष प्रार्थनाएँ आयोजित की हैं। जीत के लिए मंत्रोच्चार के साथ यज्ञ में शुद्ध घी की आहुति दी गई है।
अग्नि सफाई करती है, अनचाही चीज़ों का नाश करती है।

अब भारत बैटिंग कर रहा है। आज सचिन धमाका कर रहा है और उसके साथ टीवी और गलियों में नगाड़े भी। और हर ओवर के साथ बैटिंग बढ़िया होती जा रही है और गलियों में जश्न का शोर भी बढ़ता जा रहा है। साढ़े दस बजे इंडिया जीत चुकी थी और शहर में पटाखे फूटने लगे थे। फिज़ा में विजयी धुआँ और बारूद की महक भर गई, ज़्यादा खुश, ज़्यादा उन्मादी। विजय का प्रसन्न अहंकार। मोहल्ले में भी किसी ने पटाखे छोड़े, फिर और पटाखे फूटे, बाहर लड़के ठहाके लगा रहे थे। सारे शोरगुल में उसे समीर की आवाज़ अलग से सुनाई दे रही थी, तेरह साल की फटी-सी आवाज़, उत्साह में और तीखी हो गई थी। “क्या लास्ट ओवर था। इन्शा अल्ला, अब तो हम कप जीतेंगे।” रफीक मुस्कुरा दिया, एक वक्त था जब उसे क्रिकेट से मुहब्बत थी।

नगाड़ों की आवाज़ें बढ़ती जा रही थीं, पास आ रही थीं और साथ में नारे लग रहे थे, हिन्दुस्तान हमारा है, पाकिस्तान की तो...भारत माता की जय। अचानक उसका सबसे छोटा भाई रोने लगा। ये नगाड़े, नारे और मशालें कौन-सी यादों को कुरेद देते हैं? अम्मी उसे तसल्ली देती हैं, पीठ थपथपाती हैं, बुद्धू यह तो जीत का जुलूस है, वे लोग जीत का जश्न मना रहे हैं। वे खुश हैं, हम सब खुश हैं। चल चुप हो जा, आ मेरे पास सो जा।
एक साल पहले इन्हीं नगाड़ों की ताल पर मौत और नफरत का नाच हुआ था, इन चीखों से उत्तेजित होकर तलवारों और लिंगों के नफरत भरे आक्रमण हुए थे, जलती बोतलें फेंकी गई थीं, ज़िन्दा लोग जलाए गए थे।
ये लोग एक बार फिर नगाड़ों की ताल पर नाचे थे, जब वोटों की फसल काटने के बाद जीत का जश्न हुआ था। खून और नफरत से वोटों की पैदावार अच्छी हुई थी।

एक बार फिर पटाखों की एक लड़ी फूटी, रफीक को दम घुटता-सा लग रहा था। वह दरवाज़े की ओर बढ़ा, चलते-चलते वह पैकेट उठा लेता है जो वह लेकर आया था। “कहाँ जा रहे हो?” उसके पिता ने तेज़ आवाज़ में पूछा।
“कहीं नहीं...थोड़ा बाहर तक।”
“पागल हुए हो, तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता, सब नशे में हैं, बस कोई बहाना ढूँढ़ रहे हैं।”

“मुझे पता है, सब ठीक है। मैं तो दरवाज़े पर ही खड़ा हूँ।” रफीक दरवाज़े के पास खड़ा रहा, नगाड़े नज़दीक आ गए थे, बस्ती में और पटाखे छूटने लगे। “पक्का पता चल जाए कि हम भी जश्न मना रहे हैं,” रफीक ने सोचा। उसका सिर नगाड़ों की आवाज़ से धड़क रहा है। उसने पैकेट में से कुछ पटाखे निकालकर दरवाज़े पर जला दिए...जीत के लिए...इस महान देश की एकता के लिए।

उसने कमीज़ की जेब में से गुटके का अधखाया पाउच निकाला, सिर पीछे की तरफ करके उंगली से धक्का मारकर गुटका अपने मुँह के हवाले किया। थोड़ी देर तक उसे चबाता रहा और फिर कत्थई पीक दरवाज़े के पास लगे मोगरे पर थूक दी। गुटका खाने की आदत उसे कुछ महीनों से ही पड़ी है। इससे मुँह का स्वाद बदल जाता है। खाली पाउच हवा के साथ उड़ गया, वैधानिक चेतावनी इतनी बारीक है कि शायद ही किसी को दिखती हो।


रिनचिन: बच्चों व बड़ों के लिए कहानी लिखती हैं। मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में जन संगठनों के साथ जुड़ी हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
चित्र: शेफाली जैन: चित्रकार हैं। महाराजा सयाजीराव युनिवर्सिटी ऑफ वडोदरा से पढ़ाई। वर्तमान में अम्बेडकर युनिवर्सिटी, दिल्ली में सहायक प्रोफेसर हैं।
सौम्या शुक्ला: सेंट जोसफ कॉन्वेंट स्कूल, भोपाल से हाल ही में 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की है। स्वतंत्र रूप से चित्रकारी करती हैं।