ईशा भट्ट [Hindi PDF, 323 kB]

मैं कुछ लिखना चाहती हूँ। असल में मैं एक किस्सा आप सभी के साथ साझा करना चाहती हूँ पर समझ में यह नहीं आ रहा कि मैं इस कहानी की शुरुआत कहाँ से करूँ। अक्सर कहानियों की शुरुआत ‘पुराने समय की बात है, एक था...’ से होती है पर यह शुरुआत इस बार नहीं चुनी जा सकती। यह बात है ही ऐसी, चाहे कितनी पुरानी हो जाए, हर समय कोई-न-कोई नया चेहरा कहानी को आगे बढ़ाता रहेगा।
यह कहानी या किस्सा एक बच्चे और इन्सानी फितरतों से रचा गया है। इन्सानी फितरत, हर चीज़ को नाम देने की आदत। नाम देने की इस आदत की आज़माइश सिर्फ चीज़ों पर ही नहीं इन्सानों पर भी होती है। कोई कैसा दिखता है, कैसे चलता है; उसके उठने-बैठने, बोलने-हँसने, खाने-गाने, रूठने-मनाने, यहाँ तक कि सोने के तरीके और भी न जाने क्या-क्या... के तौर-तरीकों के आधार पर हम जाने-अनजाने इन्सानों को नए-नए नाम दे देते हैं।
मेरा यह अनुभव उस समय का है जब मैं अध्यापिका के रूप में पहली बार कक्षा में गई थी। सभी बच्चों के साथ जान-पहचान का दौर चल रहा था। हम सभी एक-दूसरे को अपने नाम और अपनी पसन्दीदा चीज़ों, अपनी आदतों के बारे में बता रहे थे। घेरे में बैठे सभी बच्चों में एक बच्चा वो भी था। वह बार-बार खड़ा होकर कक्षा में टहलने लगता। मैं हर बार कहती, “आप अपना नाम तो बताओ” और वह मुस्कुराता-लहराता आता और हँसकर बैठ जाता। वह बार-बार एक ही बात कहता, “मैं न, अब नहीं करूँगा।” सभी बच्चों की बातें सुनने में और अपनी कहने में मैं बस ये ही नहीं सुन पाई, “अब नहीं करूँगा।” हर बार इस तरह कक्षा में दौड़ने और बात करने पर बच्चे उसे किसी-न-किसी नाम से पुकारते -- पतलू, इलेक्ट्रीफाइड, मैगनेट, फास्ट-फॉरवर्ड आदि। मैं हर बार इन नामों का विरोध तो करती पर मुझे बार-बार यह एहसास भी होता कि मैं इस कक्षा में नई हूँ।

157  
यहाँ मैं उसे कृष्णा कहकर पुकारूँगी। कृष्णा के चरित्र को इस कक्षा में और हमारी स्कूली व्यवस्था में, एक नहीं कई पहलुओं से पढ़ा गया था। इन्हीं पहलुओं को टटोलते हुए, कुछ विचारों की उधेड़-बुन में, बच्चों से बातचीत करते हुए एकदम ही कुर्सी पलटने की ज़ोरदार आवाज़ आई और बच्चे बोले, “वन फिफ्टी सेवन।” असल में कृष्णा अपनी कुर्सी से नीचे फर्श पर गिर गया था। जितनी देर में मैं मदद के लिए पास पहुँचती वह अपने स्थान पर वापिस था, एकदम सहज! जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं। उसके बाद जब मैंने ‘157’ के बारे में पूछा तो मुझे पता चला कि यह कृष्णा के कुर्सी से गिरने की संख्या है। मैंने कृष्णा की तरफ देखा और कृष्णा ने मेरी तरफ। मैं अभी भी उसी को देख रही थी पर उसकी नज़रें इधर-उधर इतनी तेज़ी से घूम रहीं थीं, मानो आधी दुनिया घूम आई हों। 

कृष्णा मेरी कक्षा का एक बच्चा है। उसके बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण उसे कई सारे नाम मिल गए हैं। आज जब मैं आप सभी के साथ यह लेख साझा कर रही हूँ तो कृष्णा के साथ एक लम्बा अरसा बिता चुकी हूँ। उसने मुझे अपने हर नाम का कारण समझाया है पर मैं उसे वापिस लाई हूँ, उसके अपने पसन्द के नाम ‘कृष्णा’ के साथ।

असीम ऊर्जा का धनी
इस अरसे में मैंने पाया कि वह एक स्थान पर नहीं बैठ सकता। यहाँ तक कि गाड़ी में सफर के दौरान भी वह खड़ा ही रहता है। वह कुर्सी पर बैठे-बैठे गिर जाता है। कक्षा में पढ़ते समय उसकी मेज़ पर किताबों का ढ़ेर बना रहता है, वह कभी कोई किताब खोलता है तो कभी कोई कॉपी, और जितनी देर में वह सही कॉपी-किताब चुनता है कक्षाई गतिविधियाँ कहीं और पहुँच चुकी होती हैं। दीवारों-मेज़ों पर चढ़ना उसके बाएँ हाथ का खेल है। उसकी किताबें-कॉपियाँ देखने पर हैरानी होती है क्योंकि उसके काम में बहुत विविधता है। कभी उसका काम एकदम स्वच्छ होता है तो कभी ऐसा कि मानो कोई मॉडर्न आर्ट। जिस तरफ से देखो एक नई बात समझी जा सकती है। बोलते समय वह इतनी तेज़ी से बातें बोल जाता है कि आप सुन तो लेते हो पर समझने के लिए कुछ क्षण रुककर उसकी कही बात दिमाग में दोहरानी पड़ती हैे। उसे अपने पैरों में जूते बिलकुल पसन्द नहीं इसलिए वह उन्हें उतारकर, नंगे पाँव दौड़ना पसन्द करता है। यदि आप उसे चलने-दौड़ने से रोको तो शरीर की असीम ऊर्जा उसे एक स्थान पर खड़े-खड़े लहराने या तेज़ी से पैर चलाने (जैसे खड़े-खड़े दौड़ लगा रहा हो) पर मजबूर कर देती है।

अपनी कक्षा के शुरुआती हफ्ते में मुझे लगा कि कृष्णा कक्षा में बैठकर पढ़ने के लिए नहीं बना है। जब मैं कृष्णा के साथ स्कूली-भ्रमण के लिए अमृतसर गई तो मुझे समझ आया कि वास्तव में कक्षा या स्कूली व्यवस्था कृष्णा के कौशलों के लिए उपयुक्त नहीं है। बात यह है कि कृष्णा के पास इतनी ऊर्जा है कि कक्षाई गतिविधियाँ उसको पूर्णत: इस्तेमाल ही नहीं कर पातीं। भ्रमण के दौरान जहाँ एक ओर अन्य बच्चे थकने और धूप से परेशान होने की शिकायत कर रहे थे वहीं दूसरी ओर कृष्णा स्वर्ण मन्दिर, जलियाँवाला बाग और वाघा-अटारी बॉर्डर की दीवारें, मिट्टी और लोगों को टटोल रहा था। रास्ते में आई दुकानों के नाम पढ़ रहा था। दोस्तों से झगड़ा भी कर रहा था और समस्याओं को सुलझा भी रहा था। एक बार तो बड़ी समझदारी भरे स्वर में उसने अन्य बच्चों से कहा, “ज़रा सोच-समझकर हरकतें करो, हम कोई स्कूल में नहीं हैं। गॉट इट?”

गड़बड़ियाँ और बिखराव
हाँ, तैयार होने में उसने एक नहीं कई गड़बड़ियाँ कीं - कमीज़ के बटन ऊपर-नीचे लगा दिए, जींस उलटी पहनी, दोनों जूतों के फीतों को आपस में बाँध दिया और जूतों के मामले में कहा, “चलो बढ़िया हुआ अब ये साथ रहेंगे, नहीं तो खुद भी भागते हैं और मुझे भी भगाते हैं, बिना मतलब डाँट मुझे पड़ जाती है।” बोलते-बोलते फीते खोले और बिना बाँधे जूते के अन्दर डाल दिए। जूते के फीते बाँधकर, मतलब दोनों पैरों के फीते आपस में बाँधकर चलने का प्रयोग कृष्णा यूँ भी करता रहता है। इन सब बातों के परे स्वयं तैयार होने की चमक उसके चेहरे पर साफ दिख रही थी। इस बार उसे कोई मदद नहीं चाहिए थी, न मैंने की! उसने अपना बैग खुद बिखेरा और रात को सभी के सो जाने के बाद स्वयं ही उसे समेटा भी। होटल के हर कमरे और हर मंज़िल की खबर थी कृष्णा को। उसकी समृद्ध जानकारी ने चाबी कमरे के अन्दर बन्द हो जाने पर जल्द-से-जल्द कमरा खुल जाने में मदद की। मुझे तो पता भी तब चला जब कृष्णा सब ठीक कर चुका था।

एकाग्रता नियोजन
पिछले कुछ सालों में ADHD (Attention Deficit Hyperactivity Disorder) के बारे में काफी कुछ सुना व पढ़ा है। जब मैं कृष्णा को देखती हूँ और उसके बारे में सोचती हूँ तो मुझे बार-बार लगता है कि कहीं कृष्णा ADHD ग्रस्त तो नहीं है। लक्षणों के आधार पर कृष्णा के साथ कुछ प्रयोग किए गए, जिनका सफल परिणाम भी मिला। कृष्णा के साथ खास तौर पर एकाग्रता पर काम किया गया। 
कृष्णा की कुर्सी न पलटे इसलिए एक लम्बे समय तक उसकी कुर्सी को मेरी मेज़ के पास ऐसे स्थान पर लगाया गया जहाँ पीछे दीवार थी। वैसे अब तक आप इतना तो समझ ही गए होंगे कि कृष्णा भागने-दौड़ने का कोई मौका नहीं छोड़ता और उसके लिए बेहतर भी यही है कि उसे अधिक-से-अधिक शारीरिक श्रम का मौका दिया जाए। इस बात को ध्यान में रखते हुए मैं उसे ऐसे मौके देने का प्रयास करती हूँ। कृष्णा को कार्य के महत्व तथा समय की माँग के अनुसार काम चुनने में दिक्कत होती है तो सभी अध्यापिकाओं ने एक प्रयास किया कि काम शु डिग्री करवाने से पहले चुनिन्दा सामान उसके सामने रखवा दिए ताकि उसका ध्यान कम-से-कम भटके। मेज़ खाली रखना यानी उस पर कम-से-कम सामान रखना कृष्णा की एकाग्रता प्राप्त करने में एक और सफल प्रयोग था। समय-समय पर दिया गया प्रोत्साहन तथा कार्य और समय नियोजन के विभिन्न तरीकों पर बातचीत करते रहना, स्कूली क्रियाकलापों के अलावा खेल-कूद में भागीदारी आदि ऊर्जा नियंत्रण में लाभदायक साबित हुए।

जीने का अपना तरीका
मैं कृष्णा के साथ कुछ समय अकेले बातचीत करने के लिए ज़रूर सुनिश्चित करती हूँ। उसके अनुभव, ज़िन्दगी जीने का तरीका, समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण हम सभी से काफी अलग हैं। अक्सर लोग उसे लापरवाह समझते हैं पर वह किसी मामले में कम नहीं है। एक दिन ‘रुस्तम’ की लिखी कुछ पंक्तियों पर चर्चा के दौरान कृष्णा ने कहा था कि, “यदि मैं किसी को नुकसान नहीं पहुँचा रहा तो कोई मेरे जीने के तरीके पर रोक-टोक क्यों करे?”

“पत्थरों को पड़ा रहने दो।
उन्होंने हिलना नहीं सीखा है।
यूँ ही पड़े रहना”

जीवन जीने का यह भी एक तरीका है। कृष्णा से बात करके मुझे समझ आता है कि ऐसा नहीं है कि वह लिखना नहीं चाहता या समझ में कोई कमी के कारण लिखते वक्त गलती करता है। बात सिर्फ इतनी है कि उसके दिमाग में विचार इतनी तेज़ी से चलते हैं कि जब तक वह पहली बात कागज़ पर उकेरता है उसका दिमाग दसवें पर होता है। तो वह दसवीं बात लिख देता है और हम सोचते हैं कि बीच की आठ बातें उसे पता ही नहीं। शायद इसी कारण से उसके बोलने की गति भी बहुत तेज़ है। मुझे उसके एक स्थान पर शान्ति से न बैठ पाने के कारण में भी उसकी असीम ऊर्जा नज़र आती है। आपने कृन्तक प्राणियों के बारे में तो सुना ही होगा, रोडेंट या कुतरने वाले जानवर जैसे गिलहरी, चूहा आदि। यदि वे चीज़ें न कुतरें तो उनके दाँत बढ़ते रहेंगे जो कि उनकी परेशानी का सबब बन जाएगा। ठीक उसी प्रकार यदि कृष्णा या उसके जैसे बच्चे अपनी ऊर्जा का प्रयोग नहीं करेंगे तो उनकी ऊर्जा उन्हें परेशान करेगी। आप इन्हें रोक नहीं सकते। आप यदि कुछ कर सकते हैं तो वो है इन बच्चों की ऊर्जा को थोड़ी-बहुत नियंत्रित तथा प्रयोग करने के लिए अलग-अलग तरीकों की आज़माइश।

‘ये तो वो चमत्कारी जिन्न हैं जिन्हें काम दो तो कमाल करेंगे और न दो तो जो होगा उसके ज़िम्मेदार आप स्वयं हैं।’
हम कक्षा या घर में जब भी किसी बच्चे से मिलते हैं तो हर क्षण उसको न जाने कितने मापदण्डों पर परखते रहते हैं और कृष्णा या उसके जैसे कई अनुभवी बच्चे उन सभी मापदण्डों में से इक्के-दुक्के पर ही खरे उतरते हैं, बाकी सभी के लिए उनको तानों या सुझावों का पुलिन्दा सुनना पड़ता है। इतने तनाव में भी यदि वे अपनी ज़िन्दगी जी पाने के काबिल हैं तो इनसे ज़्यादा समझदार कौन होगा? और हम कहते हैं ये बच्चे कुछ नहीं समझते।

मैं दावा करती हूँ कि जितना बेहतर तनाव प्रबन्धन और जीवन कौशल ये बच्चे आपको सिखा सकते हैं उतना आप किसी मनोवैज्ञानिक की कार्यशाला या चिकित्सक को पैसा देकर भी नहीं सीख सकते। जिस प्रकार तैरना पानी में जाए बिना नहीं सीखा जा सकता, साइकिल चलाना बिना साइकिल पर बैठे नहीं सीखा जा सकता या सड़क पर उतरने के बाद ही गाड़ी चलाना या सड़क पार करना आएगा, उसी तरह बिना तनाव महसूस किए तनाव प्रबन्धन नहीं आएगा। ये बच्चे तनाव से जूझते हैं, उसे जीतकर जीते हैं इसीलिए अच्छे प्रबन्धक भी होंगे।
कोई-न-कोई कृष्णा आपकी जान-पहचान में या कक्षा में भी ज़रूर होगा जो अपनी पहचान, अपने नाम के बिना जी रहा होगा। थोड़ी-सी कोशिश ज़रूर कीजिए उसे पहचानने की!


ईशा भट्ट: मिरांडा हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.एल.एड. किया है। दिल्ली के एक गैर-सरकारी विद्यालय के माध्यम से बच्चों के साथ काम करते हुए उनकी ज़िन्दगियों से जुड़ी हुई हैं।

सभी चित्र: तनुश्री: आई.डी.सी., आई.आई.टी. बॉम्बे से एनीमेशन में स्नातकोत्तर। स्वतंत्र रूप से एनीमेशन फिल्में बनाती हैं और चित्रकारी करती हैं।