एमिल ज़ोला 
[Hindi PDF, 217 kB]

एक दिन की बात है। चार बजे की रिसेस चल रही थी, तभी बड़ा मिचू मुझे स्कूल के खेल मैदान के एक तरफ कोने में ले गया। एक तो वह तगड़ा, कन्धे उसके चौड़े, घूँसा भी पड़ता उसका तो ढाई मन का, तिस पर उसकी मुद्रा गम्भीर, सो धुकधुकी तो मुझे होनी ही थी, और हुई। ऐसे में उससे बैर मोल लेना, ना रे बाबा ना...

मेरी बात सुन,” अपने जाने-पहचाने देहाती लहज़े में वह बोला, बोला क्या, पूछा, “तू तैयार है न हमारा साथ देने के लिए?”
मैं कहाँ चूकने वाला था, सो झट से बोल दिया, “हौ।” बड़े मिचू के साथ जुड़ने का कोई भी कारण बने, मेरे लिए तो खुशी की बात थी। मेरी ‘हौ’ पर उसने अपनी तिकड़म का खुलासा किया। वह मुझे अपना भागीदार बना रहा था, इस पर मुझे जो गुदगुदी हुई, वैसी तो फिर न हुई कभी। सो अब मैं भी राज़दार होने वाला था किसी कारनामे का; मैं भी जीवन के दुस्साहस का रोमांच लेने वाला था, और तो और, जिस तरह से मुझे इस जोखिम में शामिल किया जा रहा था उससे मेरे मन में उपजे अन्दरूनी डर ने तो उसका पिट्ठू बनने के चलते मेरे रोमांच को बढ़ाया ही।

बस फिर क्या था, इधर मैं मंत्रमुग्ध हो उसे सुन रहा था, उधर वह अपनी गुप्त योजना पर से पर्दा उठा रहा था। उसका अन्दाज़ एकदम कड़क था, ठीक उस अफसर की तरह जिसे अपने जबरिया रंगरूट के जज़्बे और जोश पर भरोसा न हो। लेकिन जिस उत्साह और लगन से मैं उसे सुन रहा था, उसके चलते मेरे बारे में उसकी राय अन्तत: बेहतर बनी होगी।

जैसे ही दूसरी घण्टी बजी और हम लोग कतार में अपने-अपने क्लास रूम में जाने लगे: “तो पक्का न,” उसने फुसफुसाते हुए मुझसे पूछा, “कि तुम भी हमारे साथ हो, और तुम डरोगे भी नहीं, पक्का? हमें धोखा तो नहीं दोगे?”
“अरे नहीं, तुम देखना...।”
एक सयाने बालिग की सारी संजीदगी समेटे अपनी सुरमई आँखों से मुझे घूरते हुए वह बोला, “वर्ना, तुम तो जानते ही हो कि मैं छोड़ूँगा नहीं तुम्हें। सबको बता दूँगा कि तुम गद्दार हो, और फिर कोई भी तुमसे बात नहीं करेगा।”
मैं आज तलक उसकी उस चेतावनी को नहीं भूला। उसने मुझे ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही बहादुर बना दिया था। “ओके,” मन ही मन मैं बोला, “2000 लाइनों का दण्ड भी वे मुझे दे दें तो भी मैं बुरा न मानूँगा। मिचू को जो मैं निराश करूँ तो लानत है मुझ पर।”
उसके बाद, मैं बड़े जोश और उतावली के साथ शाम के खाने के समय का इन्तज़ार करने लगा : उस शाम, डाइनिंग हॉल में हमारी क्रान्ति शुरू होने वाली थी।

2
बड़ा मिचू वार का रहने वाला था। उसके पिता एक छोटे किसान थे जिन्होंने 1851 में नेपोलियन-3 की क्रान्ति के खिलाफ हथियार उठाए थे। लड़ाई के दौरान उन्हें मृत मानकर छोड़ दिया गया था, और वे भूमिगत हो गए थे। फिर जब वे बाहर आए, तो उन्हेंे सेना से निकाल दिया गया। लेकिन इसके बाद, अफसर लोग, बड़े लोग, और अपनी एक अलग हैसियत रखने वाले सारे लोग उनका ज़िक्र ‘वो ठग मिचू’ के अलावा किसी और नाम से न करते।

इस ‘ठग’, इस नेक, अनपढ़ इन्सान ने अपने बेटे को पढ़ने के लिए एक्साप्रोवां (एक्स शहर) स्कूल भेजा था। निस्सन्देह उसी मकसद से शिक्षा पाने के लिए उसे स्कूल भेजा था जिस मकसद के लिए खुद उन्होंने कभी हथियार उठाए थे। स्कूल में हम लोगों को इसकी कुछ-कुछ भनक तो थी सो हम लोग मिचू को एक बड़े साहसी व्यक्ति के बतौर देखते थे।

बहरहाल, बड़ा मिचू उम्र में हम लोगों से काफी बड़ा था। लेकिन कमोबेश तेरह बरस का होने के बावजूद वह अभी तीसरी कक्षा में ही था। उसका दिमाग ऐसा बठ्ठर था कि जल्दी से कुछ घुसता ही नहीं था उसमें; लेकिन एकबारगी जो आ गया उसमें फिर आ ही गया समझो, हमेशा के लिए। बलूत के पेड़ की तरह विशालकाय और मज़बूत, बड़ा मिचू खेल के मैदान में सब पर हावी रहा आता था, हालाँकि व्यवहार में वह बड़ा शालीन था। केवल एक बार ही मैंने उसे अपना आपा खोते देखा था जब उसने एक सहायक अध्यापक का गला ही घोंट डाला था बस, वह भी इस बात पर कि वह अध्यापक हमें यह बता रहा था कि रिपब्लिकन सारे चोर होते हैं। तब बिग मिचू का स्कूल-निकाला होते-होते रहा।
वो तो बाद में, जब अपने सहपाठी से जुडीं अपनी स्मृतियों को मैंने पलट कर देखा तब जाकर मैं उसकी शक्ति व शालीनता के इस मिश्रण को समझ पाया : सज्जन पुरुष होने का पाठ उसके पिता ने निश्चित ही उसे कम उम्र में पढ़ाया होगा।|

3
हमें इस बात का भी आश्चर्य नहीं था कि बड़े मिचू को स्कूल में मज़ा आता था। केवल एक ही चीज़ उसे परेशान करती रहती थी, हालाँकि वह कभी इसका ज़िक्र करने की हिम्मत तो नहीं जुटा पाया : उसकी भूख कभी शान्त न होने पाती थी।
उसके समान पेटू मेरी याद में तो कोई और नहीं आता। हालाँकि इसका गुमान उसे ज़रूर था, पर फिर भी यदा-कदा रोटी के कुछ निवाले या फिर एक अदद भोजन ही सही, कबाड़ने के लिए वह कुछ करुणाजनक कहानियाँ गढ़ लिया करता था। एक तो वह मॉर्स की पहाड़ी हवाओं में पला-बढ़ा था और फिर वह हम बाकियों के मुकाबले अपर्याप्त स्कूली भोजन की निर्ममता झेल रहा था।

हमारे खेल मैदान की लम्बी दीवार की खुशनुमा छाँह में हमारी बातचीत का एक खास मुद्दा भोजन ही होता था। हममें से ज़्यादातर बच्चे नकचढ़े होते थे। मुझे जो खास तौर पर याद है, वह है, पिघले मक्खन में पकी एक किस्म की कॉड मछली और सफेद रंग के सालन वाली फ्रांसीसी फलियाँ, जो सामूहिक घृणा की विशिष्ट पात्र रहा करतीं। जिस दिन भी वे परोसी जातीं, हमारी बातचीत खत्म होने का नाम ही न लेती। औरों से अलग न दिखाई देने के चलते बड़ा मिचू भी हमारे शिकायती समूहगान में शामिल हो जाता, वर्ना वह खाने की हर मेज़ पर परोसे जाने वाली छहों खुराकें बड़े आराम और स्वाद से गटक जाने में कोई कोताही न बरतता।

उसे बस एक ही शिकवा लगभग लगातार रहा आता कि खाना पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलता। तिस पर उसकी खीज में एक प्रकार की खाज भी जुड़ चली थी, क्योंकि उसे एक ऐसे मुँहचढ़े सहायक अध्यापक के बगल में बैठाया गया था जिसने हमें हमारी एकान्त चहलकदमी के दौरान सिगरेट पीने की छूट दे रखी थी। तुर्रा यह कि भोजनकाल के दौरान नियम था कि मास्टर लोग दुगुनी खुराक ले सकते थे, सो सॉसेज परोसे जाते वक्त आप निरीह मिचू को अपने बगल में बिराजे सहायक की प्लेट में पास-पास रखीं सॉसेजिस पर अपनी ललचाई नज़रें डालते देख सकते थे।

“डीलडौल में मैं उससे डबल हूँ,” एक दिन वह मुझसे बोला, “और उसे मुझसे दुगुनी खुराक मिलती है खाने में। और पट्ठा एक भी टुकड़ा छोड़ता नहीं, सब हज़म कर जाता है। दो सॉसेज से कभी परहेज़ नहीं होती पट्ठे को।”

4
सो बड़े लड़कों ने तय किया कि अब समय आ गया है कि पिघले मक्खन में चुपड़ी कॉड और सफेद सालन वाली फली के खिलाफ हम इंकलाब करें।
इंकलाबियों ने भी सहज ही बड़े मिचू से लीडर बनने की कही। प्लान भी सादा ढंग से साहसभरा था -- उनके हिसाब से भूख हड़ताल पर जाकर तब तक कुछ भी खाने से इन्कार करना जब तक कि प्रधानाध्यापक आधिकारिक रूप से यह घोषणा नहीं कर देते कि स्कूल के भोजन को बेहतर बनाया जाएगा। मिचू द्वारा ऐसे प्लान की स्वीकृति मेरे हिसाब से अब तक की सर्वश्रेष्ठ व नि:स्वार्थ भावना की सबसे साहसी मिसाल थी। अपने गणतंत्र के लिए स्वयं की कुर्बानी देने वाले किसी प्राचीन रोमन की भाँति मिचू ने भी इस आन्दोलन का नेतृत्व करने जैसा सौम्य साहस दर्शाया था।

याद रहे कि आहार-सूची से कॉड मछली और फलियों के नौ-दो-ग्यारह हो जाने का उसे ज़रा भी मलाल न होता, उसे तो बस वे ज़्यादा मात्रा में चाहिए थे, इतने कि जितने वह डकार सकता! तिस पर तुर्रा ये कि उससे खाना ही त्यागने को कहा जा रहा था। वो तो बाद में उसने मुझसे अकेले में कुबूल किया कि उसके पिता द्वारा उसे सिखाए गए सारे लोकतांत्रिक मूल्य -- एकजुटता, समुदाय के हितों पर व्यक्ति द्वारा स्वयं के हितों का बलिदान -- कभी भी इससे कठोर परीक्षा से नहीं गुज़रे।

उस शाम डाइनिंग हॉल में कॉड और पिघले मक्खन की बारी थी, और हमारी हड़ताल एक ज़ोरदार हूटिंग से हुई। हमें सिर्फ सूखी ब्रेड ही खाना थी। सो परोसे गए तमाम व्यंजनों को अछूता छोड़ हमने बस अपनी रूखी-सूखी ब्रेड ही अपने हलक के नीचे उतारी। और यह सब हुआ पूरी संजीदगी के साथ, बिना हमारी रोज़ाना खुसुर-पुसुर के। हाँ, कुछ छोटे लड़कों की खी-खी ज़रूर सुनाई दे रही थी।

बड़ा मिचू तो लाजवाब था। उस शाम तो उसने अपनी सूखी ब्रेड तक को भी नहीं छुआ। वह तो खाने की मेज़ पर अपनी कोहनियाँ टिकाए ठूँस-ठूँस कर जीम रहे उस लालची सहायक अध्यापक को बस घूरे जा रहा था।

इस बीच, सीनियर टीचर जाकर प्राचार्य महोदय को अपने साथ लिवा लाए थे। प्राचार्य महोदय धड़धड़ाते हुए डाइनिंग हॉल में दाखिल हुए और आते ही उन्होंने एक ज़ोरदार भाषण झाड़ डाला। वे जानना चाहते थे कि भोजन में क्या कमी है जिसे उन्होंने खुद चखकर स्वादिष्ट घोषित कर दिया था।

इस पर बड़ा मिचू खड़ा हुआ। “सच्चाई तो यह है सर कि कॉड मछली ठीक नहीं है और हम इसे खा नहीं सकते।”
“अरे ये क्या बात हुई!” प्राचार्य कुछ बोलते इसके पहले ही वो सहायक अध्यापक कूद पड़ा। “उस शाम तो तुम लगभग सारी-की-सारी मछली खुद अकेले ही डकार गए थे। नहीं, क्यों?”

5
अगले दिन, बड़े मिचू ने तो कमाल ही कर दिया। सहायक अध्यापक महोदय के शब्द उसे चुभ गए थे। उसने हम सबको उकसाया और कहा कि अब अगर हम झुक गए तो कायर कहलाएँगे। अब उसने ठान ली थी, मामला उसके अहम् का हो चुका था और वह हमें दिखाना चाहता था कि बात अगर नाक पर आ टिके तो वह भूखा भी रहा आ सकता है।

यह एक असल यातना थी। हममें से जो-जो ऐसा कर सकते थे, वे चॉकलेट, जेम की बोतलें, और यहाँ तक कि हैम और सॉसेज अपनी-अपनी दराज़ों में छुपा-छुपा कर जमा करते जा रहे थे ताकि भूख लगने पर हमारी जेबों में ठूँस-ठूँस कर रखे गए ब्रेड के रूखे-सूखे टुकड़ों को उनकी संगत में अपने हलक से नीचे उतार सकें। लेकिन बड़े मिचू का शहर में तो कोई रिश्तेदार था नहीं, और वैसे भी वह इस तरह के भोग-विलास में लिप्त होने से इन्कार कर चुका था। वह तो बस ब्रेड के उन्हीं चन्द सूखे टुकड़ों पर टिका रहा जिन्हें वह जमा कर पाया था।

दूसरे दिन, प्राचार्य महोदय ने एलान किया कि चूँकि विद्यार्थी दिए जाने वाले खाने को न छूने की हद तक हठी हो चुके हैं सो वे ब्रेड की सप्लाई पर भी रोक लगाने जा रहे हैं। बस फिर क्या था, लंच आते ही विद्रोह का बिगुल बजने लगा। वह सफेद सालन में फली का दिन था।

बड़ा मिचू, जिसका दिमाग तब तक भूख के मारे भन्ना चुका होगा, अचानक उछलकर खड़ा हो गया, और लपककर उसने उस सहायक मास्टर की प्लेट छीन ली जो बिलकुल हमें जलाने के हिसाब से चटखारे ले-लेकर जीमे जा रहा था। कमरे के बीचों-बीच वह प्लेट फेंककर मिचू ज़ोर-ज़ोर से मार्से (फ्रांस का राष्ट्र गान) गाने लगा। यह सब यूँ हुआ जैसे बारूद में चौंधे चिंगारी। चहुँ ओर से, तश्तरियाँ, गिलास और बोतलें फर्राटे में उड़ते चले आए, सहायक सारे बिचारे, तमाम उस विध्वंस से बचते-बचाते पतली गली से निकल भागे, डाइनिंग हॉल की लगाम अब पूरी तरह से हमारे हाथों में थी। उधर जैसे ही हमारा वो मुँहचढ़ा सिर के बल भागने लगा, सफेद सालन में डूबी फलियों की तश्तरी सीधे उसके दोनों कन्धों की हड्डियों के ऐन बीचों-बीच आ टकराई और देखते-ही-देखते उसके गले में सफेद रंग की एक बड़ी-सी झालर झूलने लगी।

अब मुद्दा यह था कि हम अपने गढ़ को मज़बूत कैसे बनाएँ। बड़े मिचू को सेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया। उसने सारी मेज़ें उठवाईं और दरवाज़ों के आगे उनके ढेर खड़े करवा दिए। मुझे अच्छी तरह याद है कि हम सबने अपने-अपने चाकू अपने हाथों में ले रखे थे। और मार्से अपने चरम पे था -- विद्रोह क्रान्ति में तब्दील हो चला था। सौभाग्य से, वे सब हमें तीन घण्टे तक हमारी तिकड़मों के हवाले छोड़ पुलिस बुलाने चल दिए थे। वे तीन उपद्रवी घण्टे हमें शान्त करने के लिहाज़ से काफी थे।

डाइनिंग हॉल के आखिर में दो विशाल खिड़कियाँ थीं जो सामने पड़ रहे खेल के मैदान में खुलती थीं। हममें से कुछ जो ज़्यादा डरपोक थे, हमें मिल रही इस लम्बी राहत से घबराकर, उनमें से एक खिड़की खोल बाहर की ओर सटक लिए। धीरे-से कुछ और बन्दे भी यूँ ही चुपचाप सटक लिए। देखते-न-देखते, बड़ा मिचू गिनती में एक दर्ज़न से भी कम अपने सिपह-सालारों की टुकड़ी सहित बचा रहा। कड़क आवाज़ में उसने अपने इन बचे-खुचे वीर जवानों से कहा, “तुम लोग भी जाओ और जाकर अपने साथियों से जुड़ो, इल्ज़ाम अपने सिर लेने के हिसाब से हममें से एक से ज़्यादा बन्दे की ज़रूरत नहीं है।”

तिस पर मुझे झिझकता देख वह मुझी से मुखातिब हो बोला, “जाओ मैं तुम्हें तुम्हारे कौल से आज़ाद करता हूँ, ठीक है?”
जब मास्टरों ने आकर एक दरवाज़ा तोड़ा, तो उन्होंने मिचू को वहाँ अकेला पाया, चारों तरफ बिखरी टूटी-फूटी क्रॉकरी के बीच एक मेज़ के परले छोर पर चुपचाप बैठा। स्कूल-निकाला दे, उसे उसके घर वापस भेज दिया गया। जहाँ तक हम बाकियों की बात थी, तो हमें भी अपने इस विद्रोह से कुछ खास हासिल न हुआ। हाँ, हमारे स्कूल वालों ने कुछ हफ्तों तक भोजन में कॉड और फली न दिए जाने की सावधानी ज़रूर बरती। लेकिन कुछ ही हफ्तों बाद ये दोनों व्यंजन फिर प्रकट हुए, अब की बार अपने नए अवतार में -- कॉड मछली सफेद सालन में, और फली पिघले मक्खन में चिपुड़ी।

6
बहुत अर्से बाद मेरी मुलाकात मिचू से हुई। वह अपनी पढ़ाई जारी न रख पाया था और अब वह अपने पिता की मृत्यु के बाद उनके द्वारा उसके लिए छोड़ी गई थोड़ी ज़मीन पर खेती करने लगा था। “हो सकता है मैं कोई खराब वकील या डॉक्टर बनता,” वह बोला, “क्योंकि मैं थोड़ा ठस तो था ही। लेकिन एक किसान के बतौर मैं एक बेहतर इन्सान हूँ। यह मुझे भाता भी है। लेकिन कुछ भी कहो, तुमने ज़रूर मुझे निराश किया, तुम सबों ने। तिस पर तुर्रा ये कि मैं तो कॉड मछली और फलियों का दीवाना था।”


एमिल ज़ोला (1840-1902): जाने-माने फ्रांसीसी लेखक रहे ज़ोला साहित्यिक प्रकृतिवाद के समर्थक थे। वे फ्रांस के राजनैतिक उदारीकरण के बड़े समर्थकों में से एक रहे हैं। एमिल ज़ोला को साहित्य के पहले और दूसरे नोबल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था।
सभी चित्र: तनुश्री: आई.डी.सी., आई.आई.टी. बॉम्बे से एनीमेशन में स्नातकोत्तर। स्वतंत्र रूप से एनीमेशन फिल्में बनाती हैं और चित्रकारी करती हैं।