श्रीदेवी वेंकट [Hindi PDF, 500 kB]
कक्षा में काम करते हुए शिक्षक केवल बच्चों के साथ सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं से ही नहीं जूझते बल्कि कई बार उनके सामने ज़्यादा व्यापक सवाल भी उठ खड़े होते हैं। ऐसा ही एक चिन्तन शाला भ्रमण के दौरान एक शिक्षक साथी से हुई बातचीत में सामने आया।
प्राथमिक शाला बगदेही। में भाषा की कक्षा का अवलोकन करने के उद्देश्य से मैं कक्षा-4 में दाखिल हुई, इतने में कक्षा के शिक्षक नारायण दास आए। इस विद्यालय में नियमित ही मेरा आना-जाना है इसीलिए बच्चे भी मुझे पहचानते हैं। हर बार की ही तरह आज भी मैं कक्षा में पीछे की तरफ बच्चों के बीच बैठ गई। शिक्षक ने प्ाढ़ाने से पहले बच्चों से पूछा, “आज आप लोग क्या करना चाहते हैं?”
बच्चों ने कहा कि पढ़ने से पहले उन्हें दो-तीन कविताएँ सुनानी हैं।
शिक्षक ने कहा, “ठीक है, हम सब पहले कविता बोलेंगे। आज कौन बोलेगा?”
बच्चों ने कहा, “मैडम बोलेंेगी।”
अब तक मैंने भी एक कविता सोच ली, “लड्डू भाई गोल मटोल।”
सारे बच्चे इस कविता में साथ जुड़ गए। दो-तीन बार दोहराया भी।
मैंने बच्चों से कहा, “कोई एक छत्तीसगढ़ी कविता आप लोग सुनाओ।”
बच्चों ने ‘अटकन-मटकन दही चटाका, लौहा लाटा बन में काँटा’ कविता सुनाई।
एक और बच्ची जिसका नाम लेखनी है उसने कोयल पर एक कविता सुनाई जिसे शिक्षक ने ड्रॉइंग शीट पर लिखकर कक्षा में चिपका दिया और फिर कविता के बारे में कुछ बातचीत भी की।
कोयल कैसे बोलती है? कब बोलती है? कहाँ-कहाँ गाती है? इन सब प्रश्नों पर बात करते हुए बच्चों ने बताया कि कोयल जंगल में भी गाती है। शिक्षक ने जंगल शब्द पर बात की, “आपने जो कहानी पढ़ी है उसमें भी जंगल के बारे में बताया है, तो जंगल में क्या-क्या होता है?”
इस बार बच्चों ने कुछ जानवरों के नाम बताए जो कहानी में भी थे। एक बच्चे ने कहा, “जंगल में बहुत सारे पेड़ होते हैं। जानवर नहीं होंगे तब भी चलेगा पर पेड़ ज़रूर होंगे। और पेड़ नहीं होंगे तो वह जंगल नहीं होगा और हम सब लोग भी नहीं रह सकते।”
शिक्षक ने पूछा, “जंगल में क्या-क्या होता है?” इस बार बच्चों ने जानवरों के नामों की सूची बताई, पानी के बारे में बताया कि जंगल में नदी, तालाब और पहाड़ होते हैं। पेड़ के बारे में कहा कि उसमें पत्ते, फल, जड़ और घोंसला होता है। इन सबको शिक्षक ने श्यामपट्ट पर लिखकर छोड़ दिया।
बच्चों को कुछ सुनने और समझने के लिए मानसिक रूप से तैयार करने के बाद शिक्षक ने अपनी शिक्षण प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए बच्चों से पूछा, “कालही हमन कोन पाठ ला पढ़े रहेन?” बच्चों ने कहा, “कोलिहा खोलेस चश्मा दुकान।”
शिक्षक ने कहा, “इस पाठ की कहानी कौन बताएगा?” इस बार चार बच्चों ने अपने हाथ उठाए। शिक्षक ने एक बच्ची को उस पाठ की कहानी सुनाने के लिए कहा। बच्ची को जितना भी याद था, सुना दिया। उसने जितनी भी बातें बताईं, शिक्षक ने उन्हें देवनागरी लिपि का उपयोग करते हुए छत्तीसगढ़ी भाषा में श्यामपट्ट पर लिख दिया। कहानी में बीच की कुछ घटनाएँ छूट रहीं थीं, उन घटनाओं को बच्चे याद कर सकें इसके लिए शिक्षक ने कुछ प्रश्न पूछते हुए कहानी की छूटी हुई घटनाओं को साथ जोड़कर पूरी कहानी को पिरो दिया।
कहानी पर आगे की बातचीत शुरू करने से पहले शिक्षक ने एक छात्र को बुलाकर उसे कहानी का नाम श्यामपट्ट पर लिखने के लिए कहा। बच्चे ने पाठ का नाम कुछ इस प्रकार लिखा, ‘कलीह खालेस चश्म दाकन’। इसमें कुछ मात्रात्मक त्रुटियाँ थीं। शिक्षक ने कहा, “अब आप अपनी किताब में देखो और जो आपने लिखा है उसे जाँच लो।” बच्चे ने कुछ मात्राओं को ठीक किया। इस बार उसने ‘कोलिह खोलिस चश्मा दुकन’ लिखा। शिक्षक ने इस बार भी छूटी हुई मात्राओं को ठीक नहीं किया। इस लिखे हुए को शिक्षक ने पढ़कर सुनाया। पर जब शिक्षक ने पाठ का नाम बच्चे से पूछा तब उसने उच्चारण करते समय उसे ‘कोलिहा खोलिस चश्मा दुकान’ कहा। इस बार शिक्षक ने लिखकर दिखाया। बच्चे ने इस बार बाकी की दो छूटी हुई मात्राओं को भी ठीक कर दिया।
शिक्षक ने पाठ के एक हिस्से को स्वयं पढ़ा। इसके बाद सब बच्चों से समूह में पठन करवाया। बच्चे वाक्य को अर्थ में न तोड़ते हुए केवल शब्द तोड़ रहे थे, “एक, जंगल, मा, एक, ठन, कोलिहा, रहत, रीहीस।” जैसे एक शब्द और अगले शब्द के बीच कोई सम्बन्ध ही न हो। बच्चों के इस पठन में पढ़ना तो हो रहा था पर इसका मुख्य उद्देश्य, पढ़कर समझना नहीं हो पा रहा था। इस बात को समझने के बाद शिक्षक ने दो-तीन बार पुन: उस हिस्से को पढ़ने की कोशिश की पर बच्चे इस बार भी उसी प्रकार पढ़ रहे थे। तब शिक्षक ने अपने पठन में वाक्य के अर्थ को केन्द्र में रखकर पढ़ने की प्रक्रिया को अपनाया। कुछ इस प्रकार, “एक जंगल मा एक ठन, कोलिहा रहत रीहीस।” तो इस बार कुछ बच्चों ने वैसा ही पढ़ा जैसा शिक्षक ने पढ़ा, ऐसे बच्चों की संख्या महज़ चार या पाँच ही थी। अब भी कक्षा के 80 प्रतिशत बच्चे एक-एक शब्द ही पढ़ रहे थे। शिक्षक को लगा कि यह काम बच्चों के साथ रोज़्ा करना होगा तब कहीं जाकर बच्चों को अर्थ के साथ पढ़ने की आदत बन पाएगी।
कहानी को पढ़ते समय शिक्षक उनसे कुछ प्रश्न पूछ रहे थे जैसे हाथी के नाप का चश्मा क्यों नहीं मिला? और ऐसा कौन-सा जानवर होगा जिसके नाप का चश्मा नहीं मिला होगा? बच्चों ने दोनों प्रश्नों के जवाब दिए।
पढ़ने की इस प्रक्रिया के पश्चात् शिक्षक ने जंगल के बारे में शुरुआत में हुई बातचीत की ओर इंगित किया और कहा कि जंगल से जुड़ी जिस भी चीज़ का चित्र बनाने का मन हो उसका चित्र बनाएँ और उसके बारे में दो वाक्य लिखें। सब बच्चों को कागज़ और पेंसिल भी उपलब्ध कराई गई। बच्चे चित्र बनाने में लग गए। एक बच्चे ने घोंसले का चित्र बनाया और उस पर दो लाइन छत्तीसगढ़ी में लिखी-
‘पेड़ मा चिरई के कुरिया होथे, जे मे चिरी चिरा आऊ ओकर लाईका घालोक रहथे। मोर घर के छिन पेड़ मा तीन ठन चिरई के घोसला हाबे, बिहनिया चिरई मन भाग जाथे साँझ कन वापस आके अब्बाड कन गोठियाथे।’
अन्य बच्चों ने भी जंगल से चुनी किसी एक वस्तु का चित्र बनाया और उसके बारे में दो-तीन वाक्य लिखे। कक्षा के बहुत सारे बच्चों ने हिन्दी में लिखा पर एक बच्चे ने सारी बात छत्तीसगढ़ी में लिखी। शिक्षक ने इस पूरी बात को कक्षा में पढ़कर सुनाया। सभी चित्रों को जिनके बारे में बच्चों ने दो-तीन वाक्यों में लिखा था, कक्षा के डिसप्ले बोर्ड पर लगा दिया। “अब कल हम इस पाठ के प्रश्न-उत्तर लिखेंगे, आप लोग भोजन करने के लिए जाएँ,” कहकर मध्याह्न भोजन की छुट्टी कर दी गई।
कक्षा समाप्त होने के बाद शिक्षक से मेरी कुछ बातचीत हुई।
प्रश्न: स्वतंत्र लेखन का काम जो बच्चों ने किया है, इसका उपयोग आप कैसे करते हैं?
शिक्षक: अधिकतर इस लिखित सामग्री का उपयोग मैं खुद के लिए करता हूँ। विशेष रूप से यह जानने के लिए कि कौन-सा बच्चा लिखने में कैसा है। पिछली बार कैसा लिखा और इस बार कैसा लिखा। कई बार बच्चे पिछली बार से अच्छा भी लिखते हैं और कई बार पिछली बार का लेखन कहीं बेहतर होता है। मुझे लगता है कि कभी-कभी बच्चे लिखने के लिए जब कोई ऐसी विषय-वस्तु चुन लेते हैं जो उनके अनुभव में नहीं है तब वे पुस्तकालय या पाठ्यपुस्तक में उससे सम्बन्धित सन्दर्भ-सामग्री को खोजते हैं और वैसा ही लिख देते हैं। और ऐसी विषयवस्तु जिसके बारे में उन्हें पता होता है, उसके बारे में वे जिस भाव से लिखने की कोशिश करते हैं वह बहुत ही जीवन्त होता है। बच्चों के इन चित्रों और लिखित विषयवस्तु को बाल अखबार और विषय आधारित पोस्टर या कार्यक्रमों के दौरान भी उपयोग किया जाता है।
प्रश्न: कक्षा में छत्तीसगढ़ी कहानी को पढ़ाते समय आपको कैसा लगा?
शिक्षक: हमने जब पढ़ाई की तब छत्तीसगढ़ी को लिखा हुआ नहीं देखा था। आज जब हम छत्तीसगढ़ी में लिखा हुआ देखते हैं तो पढ़ने में मुश्किल होती है, पर बच्चे इसे बहुत आसानी से पढ़ लेते हैं। मुझे लगता है एक उम्र के बाद जब कुछ नया देखते हैं तो उसे स्वीकार करने में समय लगता है, शायद हमारे कुछ पूर्वाग्रह बन जाते हैं जिनसे हम छूट नहीं पाते। बच्चों के साथ ऐसा नहीं है, नई चीज़ों को वे बहुत सहजता के साथ स्वीकार करते हैं और कोई बात जिसे वे पहले से जानते हैं उसके विरुद्ध कोई बात आती है तो वे सवाल करते हैं। कई बार इस तरह के सवालों के जवाब खोजने में मुझे भी समय लग जाता है। आम तौर पर भाषा की कक्षा जिस प्रकार से सम्पन्न होती है उसमें स्थानीय भाषा के लिए बहुत कम जगह होती है।
शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग आज भी छत्तीसगढ़ी को भाषा नहीं मान पा रहा है। उन्हें लगता है छत्तीसगढ़ी तो तब भी वही थी और आज भी वही है। पहले जब इसे बोली कहा जाता था तब इसके पास क्या नहीं था जो आज है? सवाल बहुत गहरा है और इसके कारणों को भी समझना चाहिए।
कक्षा की इस पूरी प्रक्रिया में बच्चों के साथ काम करने के शिक्षक के खुद के प्रयास दिखे तो वही शिक्षक भाषा की राजनीति और सत्ता के कारण उठ खड़े होने वाले प्रश्नों के साथ उलझते हुए भी दिख रहे थे। मेरा उद्देश्य भी उनके जवाब देना नहीं था।
इस कक्षा में भाषा पढ़ाने वाले शिक्षक राज्य सरकार द्वारा संचालित दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रम से डी.एड. कर रहे थे। हम दोनों ने तय किया कि डी.एड. की भाषा और भाषा-शिक्षण, प्रथम वर्ष की पुस्तक से ‘भाषा और समाज का तानाबाना’ पढ़ने के बाद आगे बातचीत करेंगे।काम करते हुए शिक्षक केवल बच्चों के साथ सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं से ही नहीं जूझते बल्कि कई बार उनके सामने ज़्यादा व्यापक सवाल भी उठ खड़े होते हैं। ऐसा ही एक चिन्तन शाला भ्रमण के दौरान एक शिक्षक साथी से हुई बातचीत में सामने आया।
श्रीदेवी वेंकट: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, धमतरी, छत्तीसगढ़ में कार्यरत।
सभी चित्र: गुरुचरण: आई.डी.सी., आई.आई.टी. बॉम्बे से एनीमेशन में स्नातकोत्तर। स्वतंत्र रूप से एनीमेशन फिल्में बनाते हैं और चित्रकारी करते हैं।