महेश झरबड़े

आज  से  कुछ  साल  पहले  जब मैंने सूखीसेवनियाँ स्थित एक स्कूल में काम करना शुरू किया तो उन दिनों पुस्तकालय में अखबार नहीं आता था। ग्रामीण क्षेत्र होने के कारण समाचार पत्र जैसी सुविधा कुछ गिने-चुने परिवारों में ही थी पर बच्चों की पहूँच तो अखबार तक बिलकुल भी नहीं थी। जब पुस्तकालय में अखबार शुरू करने की बात आई, तो सोचा अखबार लें या न लें। अन्तत: ‘जो होगा देखा जाएगा’ सोचकर अखबार लेना शुरू किया। अखबार तो शुरू हो गया लेकिन पढ़ने वाले बहुत ही कम थे।
पुस्तकालय में समाचार पत्र की शुरुआत करने के हमारे उद्देश्य बहुत स्पष्ट थे:
* बच्चे अखबार पढ़ेंगे, किताबों के अलावा एक अन्य पाठ्य सामाग्री से रूबरू होंगे।
* अखबार से नई-नई जानकारियाँ और खबरें मिलेंगी।
* बच्चों का भाषाई कौशल बढ़ेगा और उनका सामान्य ज्ञान भी बेहतर होगा।

जब अखबार आना शुरु हुआ तो बहुत कम बच्चे इसका उपयोग करते थे। कुछ 3-4 किशोर कभी कभार आकर अखबार के पन्ने पलटते, उसमें से खेल पृष्ठ निकालकर क्रिकेट खिलाड़ियों के बारे में बात करते। एक और समूह जिसमें 2-3 बच्चे थे, वे अखबार में देखते कि आज किस टॉकीज़ में कौन-सी फिल्म लगी है। बच्चों का एक और समूह आकर पूछता, “हीरो-हीरोइन वाला पन्ना किधर है?” यह समूह इस पन्ने में छपे चित्रों में नायक, नायिकाओं, खलनायकों की बात करता। ऐसा ही एक बहुत छोटा समूह था जो कभी कभार आकर अपना राशिफल पढ़ लेता।
कभी-कभी अखबार के पन्नों पर किसी घटना या दुर्घटना का फोटो छपा देखकर बच्चे पूछते, “यहाँ क्या हो रहा है?” इससे अखबार का एक और उपयोग समझ आता है कि किसी वास्तविक घटना के क्रियात्मक चित्रों पर बात करना। इसके अलावा अखबार का कोई विशेष उपयोग नहीं दिखाई दिया। कई दिन ऐसे भी बीते जब अखबार सारा दिन टेबल पर पड़ा रहा और किसी ने उसे छुआ तक नहीं। ऐसे में मेरे सामने कुछ प्रमुख चुनौतियाँ थीं:
* अखबार के प्रति बच्चों की रुचि कैसे पैदा की जाए।
* क्या करें कि अखबार सब बच्चों की ज़रूरत का हिस्सा बने और ज़्यादातर बच्चे अखबार ढूँढ़कर पन्ने पलटने लगें। खबरें पढ़ने लगें।
इसलिए बच्चों की रुचियों को ध्यान में रखकर उनके साथ कुछ चर्चाएँ और कुछ छोटी-छोटी गतिविधियों की शुरुआत की गई।

शुरुआत में दस बच्चों की एक टीम  का  गठन  किया  गया  जो ‘पुस्तकालय टीम’ के नाम से जानी गई। इस टीम को, बच्चों को किताबें बाँटने और जमा करने की ज़िम्मेदारी दी गई, साथ ही उनके साथ यह भी तय हुआ कि माह में एक बार हम मीटिंग करेंगे और पुस्तकालय को बेहतर करने के लिए चर्चा करते रहेंगे (इस टीम में चौथी से लेकर नौवीं तक के बच्चे शामिल थे)। मैंने उन्हें रोज़ सुबह अखबार पढ़कर सुनाना और उनके साथ खबरों पर बातचीत करना शुरू किया। कुछ बच्चे सुनते और कुछ पुस्तकालय की किताबों में लग जाते और ध्यान नहीं देते। मैं भी इसे नियमित नहीं कर पाया लेकिन सप्ताह में दो बार पढ़ने का काम तो हुआ ही।  लगभग आधा साल समाचार पत्र पढ़ते-सुनते ऐसी स्थिति ज़रूर बन गई थी कि बच्चे आकर अखबार पलटकर देखने लगे थे, पर वे पेपर फैलाकर कहीं भी छोड़कर चले जाते। इस समस्या के समाधान के लिए एक संक्षिप्त चर्चा के साथ एक गतिविधि की शुरुआत हुई।

पन्नों को क्रम से जमाना
जब ‘पुस्तकालय टीम’ के बच्चे इकट्ठा हुए तो सबको बिठाकर बातचीत की शुरुआत हुई, “कौन-कौन जानता है कि अखबार में कितने पृष्ठ होते हैं?” गायत्री बोली, “मुझे मालूम है, 15 पन्ने होते हैं।” मनीषा ने कहा, “नहीं 18 होंगे।” रीना, संगीता ने भी अन्दाज़ा लगाकर कहा, “18-20 होंगे।” इसके पहले कभी किसी ने पन्ने नहीं गिने थे, शायद सोचा भी नहीं था। मैंने कहा, “चलो, अखबार निकालो और गिन लो।”
बच्चों ने दो-तीन दिन के अखबार निकाले और गिनने में मशगूल हो गए और चन्द मिनिट बाद पुन: गोले में हाज़िर हो गए। “सबको पता चल गया कितने पन्ने होते हैं?”
गायत्री बोली, “किसी को सही नहीं पता था। छोटे-बड़े मिलाकर 16 पन्ने होते हैं।” मैंने बताया, “जब पन्नों को आगे-पीछे गिना जाता है तो उन्हें पृष्ठ कहते हैं।” गायत्री बोली, “फिर तो 32 पृष्ठ हैं।” मनीषा बोली, “मेरे पेपर में तो 30 ही पृष्ठ हैं।” सीमा ने कहा, “मेरे पास भी 32 पृष्ठ हैं।” समस्या के समाधान के लिए मैंने सलाह दी, “यह देखो कि किस दिन का पेपर है।”
“मेरे पास सोमवार का है,” गायत्री ने बताया। “हमारे पास बुधवार का है,” मनीषा ने बताया।
“हम पे गुरूवार का है,” विजय बोला।
गगन बोला, “मतलब हर दिन पन्नों की संख्या अलग-अलग होती है।” “मुझे भी लगता है,” संगीता ने दोहराया। तभी सतीश बोला, “ऐसा नहीं है, सोमवार और गुरूवार के पन्ने तो बराबर हैं।” हमने बातचीत में तय किया कि अब हम हर दिन पेपर जमाकर और पन्ने गिनकर नोट कर लेंगे ताकि सबको पक्का पता चल जाए कि किस दिन कितने पन्ने आते हैं।

रमन ने सुझाव दिया, “भैया, हमको पुस्तकालय में भी पन्नों की जानकारी लगाना चाहिए।” सबकी सहमति के आधार पर एक चार्ट तैयार किया गया। इस चार्ट में एक माह तक रोज़ पन्ने गिनकर भरने की ज़िम्मेदारी बच्चों ने अपने आप ले ली। अब बच्चे रोज़ अखबार के पन्नों को गिनकर और जमाकर रखने लगे थे।
एक दिन कक्षा तीसरी की वंदना अखबार के पन्ने जमा रही थी। मैंने पूछा, “तुम्हें कैसे पता चलता है कि यही पन्ना पहला है, अमुक दूसरा और फलाँ पन्ना तीसरा?” वह बोली, “पेपर के सब पन्नों पर गिनती लिखी रहती है। देख-देख कर जमा देती हूँ।” बच्चों को खुद से काम करने दिया जाए तो वे सीखने की बारीकियाँ खुद-ब-खुद ढूँढ़ लेते हैं।
इससे मुझे एक और गतिविधि मिल गई थी। जब पुस्तकालय में छोटे बच्चे होते तो मैं कई बार बच्चों को अलग-अलग दिन का अखबार फैलाकर देता और उनसे कहता कि गिनती देखकर जमाओ या फिर पेज नम्बर 3 निकालो और उसे देखकर बताओ कि तुम्हारा पन्ना उसके पन्ने से कैसे अलग है। कभी-कभी मैंने अखबार में जहाँ-जहाँ पर में, हैं, था, और आदि शब्द लिखे हैं उन्हें ढूँढ़कर गोला लगवाने जैसा बोझिल काम भी करवाया और देखा कि जिसे मैं बोझिल समझता था, छोटे बच्चों के लिए वो बहुत मज़ेेेदार साबित हुआ। बच्चे मज़ेे से घण्टे भर तक ये काम करते रहे। सलोनी जो कक्षा-1 में पढ़ती थी, मैंने उससे और शब्द पर गोला लगवाया था। उसने घर जाकर अपनी किताब के सभी पन्नों से और ढूंढकर न सिर्फ उन पर गोला लगाया बल्कि वह इस शब्द को पढ़ने भी लगी थी, मात्र एक दिन में।
इधर अखबार के पन्ने गिनकर लिखने का काम तो चल ही रहा था। एक दिन विजय ने आकर बताया, “अब मैं बिना पन्ने गिने बता सकता हूँ कि कौन से दिन अखबार में कितने पन्ने होंगे।” मैंने पूछा, “कैसे...?” वह एक अखबार उठाकर लाया और बोला, “पढ़ो, क्या लिखा है।” उसमें लिखा था - कुल पृष्ठ 20अ12उ32।
उसने कहा, “मैंने गिनकर देखा है जितना लिखा है, अन्दर उतने ही पन्ने होते हैं।”

वह खुश होते हुए मुझसे बोला, “सर जी, पढ़ने का क्या फायदा है आज मैंने भी देख लिया।”
लगातार पेपर क्रम में जमाते-गिनते एक तरफ बच्चों को कुछ हद तक अखबार के पृष्ठ भी समझ आने लगे थे। एक दिन संगीता बोली, “भैया, अखबार के हर पन्ने पर, ऊपर लालपट्टी में भोपाल, देश-विदेश, राज-काज, स्पोर्ट्स, अभिव्यक्ति लिखा रहता है और उसमें वैसी ही खबरें भी होती हैं, है ना?” वह सही कह रही थी लेकिन इतनी बारीकी से वह कब अखबार देखने लगी थी मैं नहीं जान पाया। अखबार बच्चों के करीब तो पहुँचा पर अभी भी मिशन अधूरा था इसलिए एक नई गतिविधि पर चर्चा हुई।
किस फोटो का नाम पता है?
इस बार जब हम पुस्तकालय टीम के साथ बैठे तो मेरा सवाल था, “आज के पेपर में कितनी तस्वीरें या फोटो होंगी?” अटपटा-सा सवाल था, भला फोटो कौन गिनता है?   
                                                   
“नहीं मालूम।”
“तो गिन लो।”
बच्चों ने गिनकर बताया कि 103 फोटो हैं। प्रकृति और जानवरों को हटाकर 83 फोटो बचीं जिनमें अभिनेता, राजनेता, मंत्री, और कुछ स्थानीय लोग थे। मैंने पूछा, “इनमें से कितनों के नाम पता हैं?” प्रदेश के मुख्यमंत्री, नायक-नायिकाओं   और   क्रिकेट खिलाड़ियों के अलावा बच्चे किसी और को नहीं जानते थे। उस दिन शिक्षामंत्री का फोटो भी छपा था। मैंने पूछा, “शिक्षामंत्री का नाम पता है?”
“हाँ,” गायत्री बोली।
“कभी देखा है उनको?”
“नहीं,” बच्चों ने बताया।
फोटो दिखाकर मैंने कहा, “ये रहीं हमारी शिक्षामंत्री।”

“अरे! ये शिक्षामंत्री हैं? इनको फोटो में बहुत बार देखा है, नाम भी पता है लेकिन ये नहीं पता था कि शिक्षामंत्री यही हैं,” सतीश ने कहा। उस दिन की चर्चा में बच्चों ने ऐसे बहुत-से नाम गिनवाए जिन्हें स्कूल में पढ़ते हुए उन्होंने रटा तो था पर अगर वो नाम वाला इन्सान सामने आ जाए तो उसे पहचान नहीं पाते।
उस दिन हमने तय किया कि अब से पेपर में अंकित तस्वीर किसकी है, हम यह भी पता करेंगे। उन्हें यह भी बताया कि अक्सर चित्र के ऊपर-नीचे या दाएँ-बाएँ ही उसका नाम भी लिखा होता है। अगले दिन से फोटो का नाम ढूँढ़ने की कवायद भी शु डिग्री हो गई। अब बच्चे पन्ने गिनते और उन्हें क्रम में जमाते हुए अखबार में छपे चित्रों में कौन है, यह जानने की कोशिश में चित्र के आसपास लिखी लाइनों को पढ़ने की कोशिश भी करते और उन पर आपस में बातें करते। जो बच्चे पढ़ नहीं पाते थे वे चित्र देखकर एक-दूसरे से पूछते। नाम ढूँढ़ने की इस कवायद से पढ़ने की एक छोटी-सी शुरुआत हुई।

आज की कोई खबर सुनाओ
एक दिन लंच टाइम पर बच्चों से चर्चा हुई, “पेपर से हमको कौन-कौन-सी जानकारियाँ मिलती हैं?” बच्चों ने बताया:
* पता चलता है कहाँ क्या हो रहा है,
* किसने किसको मारा,
* कौन-सी नई फिल्म लगी है,
* क्रिकेट मैच कहाँ पर है, कौन हारा-कौन जीता,
* टी.वी.-कूलर की कीमत कितनी है,
* मोबाइल का नया सेट कौन-सा है,
* कहाँ का नेता कौन है,
* भूकम्प, बाढ़, लड़ाई, झगड़े की जानकारी मिलती है।
इस सबसे समझ आ रहा था कि पेपर का उपयोग होने लगा है और बच्चे कुछ हद तक पेपर पढ़ने लगे हैं।
खबर या समाचार क्या है, इस पर चर्चा हुई और अखबार से ढँूढ़कर एक-एक खबर सुनाने का काम दिया गया। बच्चों ने खबर के रूप में पूरा पैराग्राफ सुनाया। इसे छोटा करते हुए खबर बनाने तक बातचीत हुई। पैराग्राफ से खबर निकालना थोड़ा मुश्किल काम था। अत: अखबार से एक खबर का उदाहरण लेकर इन बिन्दुओं पर चर्चा हुई।

* किस जगह की बात है?
* कब की बात है?
* मामला क्या था?
* घटना का क्या असर हुआ?
इन बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए अपनी बात कहने की सलाह दी गई। अबकी बार पेपर पढ़ने के बाद जब टीम ने अपनी बात कही तो उसमें खबर का हल्का-सा स्वरूप नज़र आया। लगभग दो माह के प्रयासों के बाद बड़े बच्चोंे, खासकर 8वीं और 9वीं के बच्चों ने खबर बनाकर सुनाना शु डिग्री कर दिया।

सभा में समाचार  
पुस्तकालय में खबरें सुनाने का दौर शुरू हो गया था। लेकिन इन खबरों का लाभ सिर्फ उन्हीं बच्चों को मिल रहा था जो पुस्तकालय में आते थे। इसीलिए लगा कि इस बात को फैलाना चाहिए। परन्तु कैसे यह बात ज़्यादा-से-ज़्यादा बच्चों तक पहुँचे और सब बच्चों की भागीदारी इसमें हो पाए, इसकी चर्चा बच्चों से की गई। संगीता, मोना, गायत्री की तरफ से सुझाव आया, “स्कूल में प्रार्थना के बाद बच्चों को सुविचार बोलना होता है। बहुत-से बच्चे और हम भी प्रार्थना के बाद सुविचार बोलते हैं। यदि वहीं पर समाचार बोलने का काम भी शुरू हो जाए तो ज़्यादा बच्चे सुन पाएँगे। लेकिन अभी तो कोई भी समाचार नहीं बोलता है इसलिए सिर्फ हम बोलेंगे तो अच्छा नहीं लगेगा और हो सकता है कि हमारा मज़ाक उड़ाया जाए।” सुझाव बहुत अच्छा था और सबको पसन्द भी आया लेकिन थोड़ी समस्या थी। समाधन के लिए मैंने बच्चों से पूछा, “तो फिर क्या करें?” उपाय भी उन्होंने ही सुझाया। सतीश ने कहा, “अगर प्रिंसिपल सर कह देंगे तो बात बन जाएगी। फिर सब बच्चे बोलने लगेंगे, अन्य बच्चे नहीं बोलेंगे तो हम तो बोलेंगे ही।”
समाधान आसान था इसलिए मैंने कहा, “आज लंच टाइम पर सब प्राचार्य के ऑफिस के सामने मिलो।” मैंने बच्चों को साथ लेकर समाचार वाली बात प्रिंसिपल सर को बताई। यह सुनकर वे बहुत खुश हुए और बच्चों को शाबाशी देते हुए उन्होंने कहा, “कल से प्रार्थना में इसकी शुरुआत करो। सभी शिक्षकों और बच्चों को इसकी खबर दे देते हैं।” मैंने भी प्राचार्य की सहमति के आधार पर बच्चों की तरफ से एक चिट्ठी सभी कक्षा-शिक्षकों को भेज दी। लाइब्रेरी टीम सबसे ज़्यादा खुश हुई क्योंकि उनकी आवाज़ सभी कक्षाओं तक पहुँची थी।
इस तरह पुस्तकालय की एक छोटी शुरुआत को बच्चों की कोशिश और शाला परिवार के सहयोग ने न सिर्फ एक बड़ा मंच प्रदान किया बल्कि इसे आगे बढ़ाने के लिए प्रयास भी किया और इस नई शुरुआत को बाद में भी खत्म नहीं होने दिया (स्कूल की प्रार्थना में आज भी समाचार पढ़े जाते हैं)।

समाचार से मानचित्र तक
समाचार सुनाते वक्त जिस स्थान की बात हो रही होती उसका नाम तो बताया जाता लेकिन मानचित्र में वो जगह कहाँ पर है, उसके पड़ोस में कौन-सा राज्य-शहर है, यह जानना भी ज़रूरी लगा। अत: बच्चों से पूछा, “पेपर में से जो खबरें तुम सुनाते हो, क्या उस खबर से जुड़े राज्य या शहर को तुम नक्शे में ढूँढ़ सकते हो?”
“हाँ भैया, कोशिश करेंगे।” इस सहमति के बाद से हमने खबरों की जगह को नक्शे में ढूँढ़ना भी शुरू किया। एक दिन एक बच्चे ने पूछा, “ये वही गुजरात है न, जहाँ के महात्मा गाँधी हैं?” और एक साथ 4-5 बच्चे मानचित्र में गुजरात देखने दौड़ पड़े। यह मेरे लिए एक नया अनुभव था! फिर मैंने उनसे पूछा, “नक्शे में झारखण्ड ढूँढ़ सकते हो?” बच्चों ने झारखण्ड ढूँढ़ा तो मैंने कहा, “यहाँ के हैैं आपके महेन्द्र सिंह धोनी।”
“अच्छा तो वो इधर के हैं।”
मेरा  अनुमान  सही  था  जिन व्यक्तियों के नाम वे जानते थे उनसे जुड़े राज्य-शहर को वे ढँूढ़ना चाहते थे और उस जगह को नक्शे में देखकर वे खुशी महसूस कर रहे थे। इसलिए लगा कि उन सब नामों की सूची बनाई जाए जिनकी शक्ल-सूरत यानी फोटो से हम परिचित हैं और फिर उनसे जुड़े राज्य और शहर को नक्शे में ढूँढ़ा जाए।

काम अच्छा था लेकिन बच्चों की रुचि अभी भी वैसी नहीं बन पा रही थी जैसी मैं तलाश रहा था। इसकी वजह भी थी। नक्शे के सामने उन्हें ज़्यादा देर तक खड़ा रहना पड़ता था जो मुश्किल था। मैं कोई ऐसी चीज़ तलाश रहा था जिससे उन्हें खड़े रहने से निजात मिल पाए। तभी मुझे पता चला कि एकलव्य के पिटारा में ‘भारत जोड़ो’ और ‘मध्यप्रदेश जोड़ो’ नाम से पज़ल मिलते हैं। मैंने 3-3 सेट खरीदे और अपनी लायब्रेरी पहुँचा। बच्चों को ये सामग्री बहुत पसन्द आई। अब हमारे पास समाचार पत्र को पास में रखकर, राज्यों के नामों को छूकर, उठाकर देखने के भरपूर मौके थे। प्रदेश के अन्दर ज़िलों और शहरों के नामों को बैठकर ढूँढ़ा जा सकता था और सबसे मज़ेदार बात थी, पज़ल जमाकर पूरे भारत का नक्शा तैयार करना। पज़ल जमाते-जमाते बहुत-से बच्चों को राज्यों और शहरों के नाम और राज्य की राजधानी के नाम याद हो गए थे। अब दिल्ली की खबर सुनाने के साथ-साथ, नक्शे में दिल्ली कहाँ है वे यह भी जानने लगे थे।
निश्चित तौर पर इस वजह से अखबार पढ़ने वालों की संख्या में बढ़ोत्तरी भी हुई। अब अखबार की कोई खबर पढ़ी जाती तो दस में से दो बच्चों की नज़रें ज़रूर नक्शे की ओर मुड़ जाती थीं, यह जानने के लिए कि यह बात कहाँ की है और नक्शे में यह जगह किधर होगी।

तस्वीर काटो, फाइल बनाओ
जो तस्वीरें रोज़ के अखबार में आती थीं उन्हें नाम सहित लम्बे समय तक याद रखने का सबसे अच्छा तरीका था उन्हें काटकर किसी कार्डशीट पर चस्पा करना, उस शीट को कुछ दिन तक पुस्तकालय में लगाए रखना और फिर बाद में उसकी फाइल बनाकर पुस्तकालय में सुरक्षित रखना। जब हमारे पास चित्रों की संख्या ज़्यादा हो गई तो हमने अलग-अलग कार्डशीट पर एक ही तरह के लोगों की फोटो लगाने की योजना बनाई जैसे एक कार्डशीट पर सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की फोटो, एक पर सभी ज़िलाधीशों की फोटो आदि।
पुस्तकालय में उपस्थित बच्चों को 4-4 के समूहों में बाँटा गया और उन्हें अलग-अलग दिनों के अखबार देकर पूछा, “अखबार में किस-किस क्षेत्र से जुड़ी खबरें हैं? ढूँढ़कर लिखो।” बच्चों ने आपस में बातचीत करते हुए सूची बनाई:
* पढ़ाई-लिखाई की खबरें, स्कूल की खबरें
* अस्पताल, डॉक्टर, मरीज़ों की खबरें
* पुलिस, चोरी, लूट, मार की खबरें
* खेती-बाड़ी की खबरें
* फिल्मों की खबरें
* खेल, क्रिकेट, हॉकी, फुटबॉल, मैच हार-जीत की खबरें

खबरें किस-किस क्षेत्र की होती हैं, यह समझने के बाद बच्चों को समूहों में बाँटकर ज़िम्मेदारी दी गई कि हर सप्ताह अपने चयनित विषयों जैसे स्कूल, बीमारी, सरकारी योजनाओं की खबरें एकत्रित करें और किसी एक दिन सबको सुनाएँ।
इस गतिविधि ने बच्चों को अलग-अलग क्षेत्रों की खबरें ढूँढने और उन्हें पढ़कर अन्य बच्चों तक पहुँचाने के लिए प्रेरित किया।
इस तरह अखबार का उपयोग अलग-अलग गतिविधियों के माध्यम से करते हुए बच्चों को अखबार से जोड़ने का प्रयास किया गया। और फिर   ऐसी स्थिति भी आई जब बच्चे सबसे पहले आकर अखबार ढूँढने लगे। पुस्तकालय में अखबार की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है और  इसका उपयोग पाठक को नए शब्दों, नए विचारों और ढेर   सारी जानकारियों से ओत-प्रोत कर सकता है लेकिन जब तक पाठक की रुचि इसमें शामिल नहीं हो जाती, इसकी कीमत मात्र अखबार की कीमत तक ही सीमित रहेगी।


महेश झरबड़े: भोपाल स्थित मुस्कान संस्था में काम करते हैं। मुस्कान बस्तियों में रहने वाले बच्चों के लिए शिक्षा और शिक्षा से जुड़े अन्य मुद्दों जैसे स्वास्थ्य, रोज़गार आदि पर काम करती है।
सभी चित्र: अंकिता ठाकुर: राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान, अहमदाबाद से ग्राफिक डिज़ाइन में स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रही हैं। बाल साहित्य और चित्रों में दिलचस्पी रखती हैं।