मोहम्मद उमर

मोहम्मद उमर राजस्थान  के  बाड़मेर  ज़िले  का एक ब्लॉक है बालोतरा। यहाँ सड़क चलते कब कहाँ से कोई बैल आपके सामने आकर खड़ा हो जाएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। इतने सारे बैलों को देखकर एक बार मन में ख्याल आया कि इस जगह का नाम बालोतरा न होकर बैल उतरा होना चाहिए।
सन् 2013 के मई माह की गर्मियों की बात है। बालोतरा में एक सरकारी स्कूल में ग्रीष्मकालीन शिक्षक प्रशिक्षण चल रहे थे। मैं भी बतौर गणित प्रशिक्षक इन प्रशिक्षणों में शामिल था। मेरे पास एक मोतीमाला थी जिसकी सहायता से छोटी कक्षा में बच्चों को गिनना सिखाने, संख्या पहचान कराने और मात्रात्मक समझ बनाने को लेकर काफी काम किया था। सभी लोगों को यह मोतीमाला बहुत पसन्द आई थी। इसकी गतिविधियाँ बहुत आसान थीं तथा सीधे कक्षा में पढ़ रहे बच्चों के साथ की जा सकती थीं। बहुत-से शिक्षकों ने मोतीमाला खरीदने में रुचि ज़ाहिर की थी। सभी को जोड़ो ज्ञान, नई दिल्ली तथा पिटारा, एकलव्य, भोपाल का पता तथा फोन नम्बर यह बताते हुए लिखवा दिया था कि यहाँ से आप मोतीमाला प्राप्त कर सकते हैं। बस, उन्हें यह मोतीमाला डाक द्वारा मँगवाना थोड़ा ज़हमत भरा काम लग रहा था।

मोतीमाला का जुगाड़
मैं और मेरे सहकर्मी गणेश नाथ जी, जो इसी ज़िले में कार्यरत थे, बालोतरा शहर के मुख्य बाज़ार में स्थित एक धर्मशाला में ठहरे हुए थे। शाम को जब हम बाज़ार में घूमने निकलते तो सड़क पर बहुत-से गाय और बैल घूमते नज़र आते थे। इधर-उधर घूमते, सब्ज़ियों और फलों की दुकानों पर मुँह मारते इन बैलों और गायों में से कुछ ने गले में बहुत ही रंग-बिरंगी मोतियों की माला पहन रखी थीं। मोतियों के बारे में पूछने पर गणेश जी ने बताया कि यहाँ पर हर साल बहुत बड़ा पशु मेला लगता है। इस इलाके में अपने पशुओं को खूब सजा-धजाकर रखने की परम्परा है। जानवरों के गले में झूल रही माला में टंगे इन रंग-बिरंगे मोतियों ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया था। इन मोतियों को देखकर मुझे अगले बैच में आने वाले शिक्षकों के लिए एक सस्ती गिनमाला बनाने का आइडिया मिल गया था।
“ये मोती कहाँ मिलेंगे?” मैंने गणेश जी से पूछा।
“बाज़ार में रस्सी वगैरह बेचने वाले रखते हैं। क्यों, क्या करेंगे इनका?”
“मैं इन मोतियों से गिनमाला बनाना चाहता हँ।”
बस फिर क्या था। हम दोनों चल पड़े बाज़ार के भीतर की गलियों की ओर। खुशकिस्मती से रस्सियों की एक दुकान हमें मिल गई। दुकान के बाहर कई मालाएँ टंगी थीं। इनमें लाल, हरे, पीले -- कई रंगों के मोती पिरोए हुए थे और हरेक में घण्टी भी लगी थी। जानवर जब इस माला को पहनकर चलते हैं तो यह घण्टी टन-टन बजती रहती है।
इस एक माला की कीमत थी दस रुपए। हमने दुकानदार से अनुरोध किया कि वो हमें दो अलग-अलग रंगों के कुछ मोती दे दें। हमें घण्टी नहीं चाहिए। उन्होंने मना कर दिया। उनका कहना था कि यह माला घण्टी के साथ ही बिकती है। हमने उन्हें बताया कि हमें सिर्फ मोती और उन्हें पिरोने के लिए रस्सी की ही ज़रूरत है। शायद वो हमारी बात और हमारी ज़रूरत को समझ नहीं पा रहे थे। हमने विस्तार से अपना परिचय दिया और बताया कि हम यहाँ शिक्षक प्रशिक्षण करने आए हैं। इन मोतियों का इस्तेमाल करके हम एक मोतीमाला बनाना चाहते हैं जिससे कक्षा में बच्चों को गिनती और जोड़-घटाना सिखाया जाएगा।
हमारी बात सुनकर उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान तैर गई। उन्होंने अपनी दुकान पर काम करने वाले लड़के को आवाज़ देकर भीतर से मोतियों का बोरा लाने को कहा। कुछ ही देर में मोतियों से भरा एक बोरा हमारे सामने था। इसमें लाल, पीले, हरे, सफेद और गुलाबी रंग के बहुत सारे मोती रखे थे। दुकानदार ने बोरे में हाथ डाला और रंग-बिरंगे मोतियों को दिखाते हुए बोला, “जो हैं, यही हैं। आप को जो भी अपने काम का लगे, ले लीजिए।” इस बोरे में मोती तो कई रंग के भरे हुए थे पर लाल और पीले रंग हमें ज़्यादा जँच रहे थे। मैंने और गणेश जी ने मिलकर इन दो रंगों के मोती छाँट लिए। एक पाव मोती पैंतालीस रुपए के आ गए थे। मोती बहुत हल्के थे, एक पाव में दो सौ से अधिक मोती चढ़ गए थे। अपना काम इतने से पूरा हो जा रहा था। पाँच रुपए की नाइलोन की रस्सी भी इसी दुकान से मिल गई थी। मोतीमाला बनाने का इन्तज़ाम हो चुका था।

वापस लौटकर मैंने और गणेश जी ने मिलकर इन मोतियों को दस लाल, दस पीले, दस लाल, दस पीले करके नाइलोन की रस्सी में पिरो दिया। इस तरह कुल पचास रुपए की लागत और थोड़ी-सी मेहनत से दो मोतीमाला तैयार  हो  गई  थीं। अगले  दिन कार्यशाला में मैंने इसी मोतीमाला का उपयोग किया। शिक्षकों को यह बहुत पसन्द आई। रंग-बिरंगी होने की वजह से दिखने में बहुत आकर्षक लग ही रही थी। कुछ गतिविधियों द्वारा इसकी उपयोगिता को भी समझाया गया। इन गतिविधियों से सभी को यह एहसास कराने में बहुत मदद मिली कि हम अपनी कक्षाओं में जिस तरह गिनती सिखाने का काम करते आ रहे हैं वह तरीका ठीक नहीं है।

गणित की कक्षा की चुनौतियाँ
 शिक्षणशास्त्रीय नज़रिए से देखा जाए तो कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर बच्चों के साथ काम करने से ज़्यादा ज़रूरी होता है उन मुद्दों पर पहले बड़ों -- शिक्षकों, शिक्षाविदों, पाठयक्रम निर्माताओं और अभिभावकों - की समझ बनाना। गिनती सिखाने का मामला भी कुछ ऐसा ही है। आम तौर पर लोग इस मुद्दे को बहुत ही हल्के में लेते हैं। उन्हें लगता है कि यह तो बहुत मामूली-सी बात है। लेकिन जब आप छोटी कक्षाओं में पढ़ा रहे शिक्षकों से बात करेंगे तो पाएँगे कि उन्हें सबसे ज़्यादा चुनौतियाँ बच्चों को गिनना सिखाने - गिनती बोलना, चीज़ों को गिनना और संख्याओं को लिखना सिखाने में आ रही हैं। आइए इस मुद्दे को गणित शिक्षण की कार्यशालाओं में घटित कुछ उदाहरणों के सहारे थोड़ा विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं।
मैंने अपनी एक कार्यशाला में शामिल शिक्षकों से सवाल पूछा। “गणित की कक्षा में आम तौर पर किस तरह की चुनौतियाँ आती हैं?” जवाब में लोगों ने तमाम मुद्दे गिना दिए। जैसे - बच्चों को तो पढ़ना-लिखना ही नहीं आता। लिखना तो दूर की बात है, गिनती सही से बोल नहीं पाते। सही क्रम में नहीं बोलते हैं, भूल जाते हैं। माँ-बाप ही ध्यान नहीं देते। अंकों को उल्टा लिख देते हैं आदि आदि।
“आप बच्चों को गिनती कैसे सिखाते हैं?” मैंने फिर सवाल किया। इस पर शिक्षकों की अलग-अलग राय थी। एक शिक्षक ने बोर्ड पर आकर गिनती लिख दी और कहा कि बच्चों को कॉपी में उतारने और इन्हें सही क्रम में बोलने का अभ्यास करवाते हैं। एक अन्य शिक्षक ने बताया कि उनकी कक्षा में एक बच्चा खड़ा होकर गिनती बोलता है, बाकी के बच्चे उसके पीछे-पीछे बोलकर दोहराते हैं। एक शिक्षिका ने कहा कि वे बच्चों के सही उच्चारण पर बहुत ध्यान देती हैं और बोर्ड पर लिखी या किताब में छपी संख्याओं पर स्वयं उंगली रख-रखकर सही नाम बोलने का अभ्यास करवाती हैं। एक अन्य शिक्षक ने कहा कि वो गिनती की कविता बुलवाते हैं -- एक एक एक, नाक हमारी एक। दो दो दो, कान हमारे दो। इस तरह के और भी कई सुझाव आए।

गिनने की प्रक्रिया और सिद्धान्त  
शिक्षकों द्वारा बताए गए इन सभी तरीकों की अपनी उपयोगिता हो सकती है। लेकिन एक महत्वपूर्ण काम अभी छूट जा रहा था -- चीज़ों को गिनना। गिनती, चीज़ों को गिनते हुए सीखी जाती है। बिना ठोस चीज़ों को गिने हुए भला कोई कैसे गिनती सीख सकेगा। लेकिन हमारी परम्परागत कक्षाओं में लम्बे समय से और बहुत व्यापक पैमाने पर ऐसा होता आ रहा है। बच्चे बिना ठोस चीज़ों को गिने ही गिनती सीख रहे हैं। वे संख्यानामों को क्रमवार रट लेते हैं और बार-बार अभ्यास करके उनके संख्याचिन्ह भी लिखना सीख जाते हैं। लेकिन ठीक से गिनना फिर भी नहीं सीख पाते हैं। इसीलिए तीसरी और चौथी कक्षाओं में आ जाने के बावजूद बहुत-से बच्चों को ठीक से गिनना नहीं आता है। कुछ बच्चे तो सौ तक की संख्याओं को फर्राटे से बोल जाते हैं। वे अपनी कॉपी पर सौ तक लिख भी लेते हैं, लेकिन यदि उनके सामने कुछ चीज़ें रखकर उन्हें गिनने को कहा जाए तो काफी गड़बड़ करते हैं। भला ऐसा क्यों होता होगा?
गिनने की सम्पूर्ण प्रक्रिया के पाँच महत्वपूर्ण सिद्धान्त हैं। रोशेल गेलमन और गैलिस्टील ने गिनने की प्रक्रिया पर गहन शोध व अध्ययन करने के बाद 1978 में इन पाँच सिद्धान्तों को दुनिया के सामने रखा था। आम तौर पर ये पाँच सिद्धान्त इस तरह बताए जाते हैं मानो ये अलग-अलग हों। जबकि हम गौर से देखें तो पाएँगे कि प्रत्येक अगला सिद्धान्त अपने से पीछे के सभी सिद्धान्तों को स्वयं में समाहित करने के बाद ही कोई और नई बात कह पा रहा है। इसी बात को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए मैं गेलमेन और गैलस्टील द्वारा कही गई बात को अपने शब्दों में आपके सामने रख रहा हूँ।
*  संख्यानामों के सही निर्धारित क्रम को समझना तथा बोलना। संख्यानाम किसी भी बोली या भाषा के हो सकते हैं। जैसे - एक, दो, तीन, चार, पाँच...
- वन, टू, थ्री, फोर, फाइव...
- एक, द्वा, तृय, चतुर्थ, पंचम...
- वन्दू, यरडू, मूरू, नालकू, रोदू...
- ओण्ण, रेंड, मूण, नाल, अंज...
- ओसोका, उरपम, उरपम ओसोका, उरपम  उरपम,  उरपम  उरपम ओसोका...

*  संख्यानामों के सही निर्धारित क्रम को बोलते हुए (मन ही मन बोलकर भी) गिनी जा रही वस्तुओं के साथ एक से एक संगति करना।
*  संख्यानामों के सही निर्धारित क्रम को बोलते हुए गिनी जा रही वस्तुओं के साथ एक से एक संगति करते हुए गिनने की प्रक्रिया में आने वाला अन्तिम संख्यानाम उस समूह की कुल वस्तुओं की संख्या भी बताता है।
*  किसी समूह की वस्तुओं को गिनने की प्रक्रिया कहीं से भी शु डिग्री की जा सकती है। इससे समूह की चीज़ों की कुल मात्रा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
* मूर्त वस्तुएँ जैसे कंकड़, आम आदि के अलावा अमूर्त जैसे आवाज़, घटनाएँ आदि को भी गिना जा सकता है।
अब अगर हम अपनी कक्षाओं में अपनाए जा रहे पारम्परिक तरीकों पर गौर करें तो पाएँगे कि बोर्ड पर गिनती लिखकर उसे दोहराने के काम में हम सबसे पहले संख्या चिन्हों को लिखना तथा पहचानना सिखाने पर आ जाते हैं। जबकि अभी बच्चों ने ठीक ढंग से संख्यानाम बोलना भी नहीं सीखा है, और संख्यानामों के साथ जुड़ी मात्रा की समझ भी विकसित नहीं हो पाई है। कक्षा में बच्चों द्वारा संख्यानामों के बार-बार उच्चारण के अभ्यास के कारण यह तो सम्भव है कि उन्हें ये संख्यानाम क्रम में याद हो जाएँ, लेकिन सिर्फ इतना भर होने से उन्हें इन संख्यानामों के साथ जुड़ी मात्रा की जानकारी नहीं हो पाएगी। ऐसी स्थिति में वे वस्तुओं की गिनती कैसे कर सकेंगे?  

अपनी सम्पूर्ण प्राथमिक शिक्षा प्रणाली पर गौर करें तो पाएँगे कि हम बड़ी-बड़ी संख्याओं को लिखना सिखाने, उनका जोड़ तथा घटा करना सिखाने पर काफी जल्दबाज़ी करते हैं। बहुत-से निजी स्कूल संख्यानामों को बोलने तथा संख्याओं को लिखने का काम तीन साल के बच्चों के साथ ही शु डिग्री कर देते हैं। सरकारी स्कूलों में यही काम पाँच साल के बच्चों के साथ शु डिग्री किया जाता है। दोनों जगह कमोबेश एक ही तरीका अपनाया जाता है। इस प्रक्रिया में बच्चों को स्वयं चीज़ों को गिनकर देखने के अवसर या तो होते ही नहीं, या फिर बहुत कम होते हैं। बहुत-से स्कूलों में मैंने स्वयं देखा है कि बच्चे या तो बोर्ड पर लिखी हुई संख्याओं को देख-देखकर अपनी कॉपी पर उतार रहे होते हैं, या कोई एक बच्चा गिनती बोल रहा होता है और बाकी के सारे बच्चे उसके पीछे-पीछे दोहरा रहे होते हैं। इस प्रक्रिया में वह तो हुआ ही नहीं जिसे हम गिनना कहते हैं। कम-से-कम छोटी कक्षाओं में तो गिनने का मतलब ही यही है कि बच्चों के सामने कुछ वस्तुएँ हैं और बच्चे उन्हें गिन रहे हैं।

बच्चों की समस्या
आपने देखा होगा कि अक्सर बच्चे जोड़ के सवाल इस तरह हल करते हैं। यदि इन बच्चों को सच में 27 और 38 की मात्रा का अन्दाज़ा होता तो उनका हल 515 कतई नहीं आता।
यह हल बता रहा है कि बच्चों ने जोड़ करने की विधि को तो - आंशिक रूप से ही सही - पकड़ लिया है, लेकिन इन संख्याओं के साथ सम्बद्ध मात्राओं के बारे में अभी उन्हें कोई अन्दाज़ा नहीं है।
अपनी कार्यशालाओं में अक्सर मैं लोगों से यह सवाल पूछता हूँ कि उन्हें अपने जीवन में कितनी चीज़ों को गिनने की ज़रूरत पड़ती है। अगर अपने जीवन से रुपए-पैसे के लेन-देन आधारित गिनती या हिसाब-किताब को निकाल दें तो हम पाएँगे कि आम तौर पर दैनिक जीवन में हमें सौ या पचास तक भी गिनती गिनने की ज़रूरत बहुत कम ही पड़ती है। अपनी एक कार्यशाला में शिक्षकों के बीच मैंने एक सवाल रखा था। सवाल था कि पिछले एक साल के दौरान आपने कब सौ से अधिक चीज़ों को गिना था, रुपए-पैसे को छोड़कर? सभी लोग सोच में पड़ गए थे। एक शिक्षक ने बताया कि उनके घर बारात आने वाली थी, डिब्बों में मिठाई रखने के दौरान उन्हें सौ से अधिक डिब्बों को गिनना पड़ा था। इस तरह के कुछ अन्य उदाहरण भी आए थे, लेकिन सभी ने यह माना कि आम जीवन में बहुत ज़्यादा चीज़ें गिनने के अवसर बहुत ही कम हैं। हमारी कक्षाओं में पढ़ने वाले इन छोटे बच्चों के जीवन में तो रुपए-पैसे का इस्तेमाल बहुत ही सीमित सन्दर्भ में ही हो रहा होता है। बमुश्किल पाँच या दस रुपए की खरीदारी से ज़्यादा का अनुभव बहुत कम बच्चों के पास ही मिलेगा।

कक्षा में बतौर गणित शिक्षक काम करते हुए हमारा-आपका ये फर्ज़ बनता है कि हम उन्हें चीज़ों को स्वयं गिनकर मात्रा जानने के ज़्यादा-से-ज़्यादा अवसर उपलब्ध कराएँ। ये इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि वे अपने घरों से दो-चार या पाँच तक की चीज़ों की मात्रात्मक समझ तथा संख्यानाम लेकर आ रहे होते हैं। उनके अपने भाई-बहनों की संख्या, घर पर पाले गए जानवरों की संख्या, गाँव में लगे नल आदि के अनुभवों से एक हद तक संख्या की समझ उनके पास होती है। हमें उसी समझ को और आगे बढ़ाना होता है। ये काम कई तरीके से किया जा सकता है। पत्तियाँ गिनना, कंकड़ गिनना, बीज इकट्ठे करना आदि आदि।

मोतीमाला
मोतीमाला भी बच्चों को इसी तरह के कुछ व्यवस्थित अनुभव उपलब्ध कराने में सहायक हो सकती है। इसकी यह खास बनावट हमारी दाश्मिक संख्या पद्धति की कुछ विशेषताओं को ध्यान में रखकर तैयार की गई है। दाश्मिक पद्धति में एक बहुत खास बात यह होती है कि हम चीज़ों को दस-दस के समूहों में ही देखते हैं। उदाहरण के लिए चौदह बोलना, 14 लिखना और चौदह चीज़ें गिनकर बता देना काफी नहीं होगा। इस चौदह को हम 14 ही क्यों लिख रहे हैं? इसका तर्क  दस  के  समूहीकरण  तथा स्थानीयमान के सिद्धान्त की मदद से समझा जा सकता है।
संख्या चिन्ह ‘14’ में 4 इकाइयाँ और 1 दहाई को संख्याँकों द्वारा दर्शाया गया है। यहाँ संख्याँकों को लिखने के लिए स्थान निर्धारित है। इकाई, दहाई, सैंकड़ा, हज़ार... संख्या 14 में 4 इकाई और 1 दहाई है। कुल मिलाकर देखने पर चौदह तीलियाँ हैं।

यह काम मोती माला पर और भी बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। बाएँ सिरे के पहले मोती से गिनना शु डिग्री कर जैसे ही आप चौदह मोती गिनकर अलग करेंगे, वो स्वत: ही दस सफेद मोती और चार लाल मोती के रूप में दूर से ही देखे जा सकेंगे। इस प्रक्रिया में दस के समूहीकरण को दर्शाने के लिए लाल तथा सफेद रंगों का उपयोग किया गया है। इस तरह 35 से 40 तक की संख्याओं को दर्शाने के दौरान ही बच्चे संख्याएँ बोलने और उनके लिए संख्याचिन्ह लिखने के तरीके में छिपे पैटर्न को पकड़ने लग जाते हैं। मोतीमाला में पिरोए गए दो रंगों के मोती यह पैटर्न समझने में तो मदद करते ही हैं, साथ ही कक्षा में कुछ दूर पर बैठकर देख रहे अन्य बच्चों को भी बोली गई संख्या की मात्रा देखकर समझ बनाने में मददगार होते हैं।
बीते ग्रीष्मकालीन प्रशिक्षण के दौरान एक अध्यापिका से मुलाकात हुई। वे अपने स्कूली दिनों के स्लेट के बारे में बताते हुए उसके पीछे लगे अबेकस को याद कर रही थीं। उनका मानना था कि सरकार को सभी स्कूलों में अबेकस उपलब्ध कराना चाहिए। इसकी सहायता से बच्चे जल्दी गिनती सीख लेते हैं। मैंने उन्हें अबेकस के साथ जुड़ा अपना एक अनुभव बताया, जहाँ एक बच्चा नीचे लिखी संख्याओं को देखकर उतने ही मोती बना रहा है। संख्या के साथ सम्बन्धित मात्रा और मोतियों की मात्रा में गड़बड़ थी।

अबेकस  स्थानीय  मान  की अवधारणा पर आधारित सामग्री है। दाहिनी ओर से बाईं ओर बढ़ते हुए हम छड़ों को इकाई, दहाई, सैकड़ा तथा हज़ार के लिए निर्धारित करते चलते हैं। इस तरह दहाई की छड़ में पिरोया गया प्रत्येक मोती दस मोतियों के एक समूह का प्रतीक बन जाता है तथा इकाई की छड़ में पिरोया गया प्रत्येक मोती इकाई का प्रतीक रहता है।
दिए गए चित्र में संख्या 4057 को अबेकस पर मोतियों द्वारा दर्शाया गया है। इसी तरह सैंतालीस को दर्शाने के लिए 4 दहाई के मोती और 7 इकाई के मोती की ज़रूरत पड़ती है। एक छोटे बालक की नज़र से सोचेंे तो उससे 4 मोती और 7 मोती देखकर 47 की मात्रा की कल्पना करने का आग्रह किया जा रहा है। यह तब ही सम्भव है जब स्थानीय मान की अवधारणा पर उसकी अच्छी खासी समझ बन चुकी हो। स्थानीय मान की अवधारणा को अच्छे से समझाने के लिए दूसरी और तीसरी कक्षा की पाठयपुस्तकों में कई अभ्यास दिए जाते हैं।
हम देख सकते हैं कि बच्चों के साथ अबेकस का प्रयोग यदि सही ढंग से नहीं किया गया तो मदद मिलने की बजाय नुकसान हो सकता है। यह बच्चों के दिमाग में संख्याओं की सही मात्रात्मक समझ बन पाने में बाधक साबित हो सकता है।

आम तौर पर जो शिक्षक बच्चों को गिनने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराने के प्रति जागरूक रहते हैं, वे किसी सामग्री के मोहताज नहीं होते। वे कंकड़, कंचे, पत्तियाँ, बच्चों का समूह, बकरियाँ आदि कुछ भी गिनने के अभ्यास कराते रहते हैं। इस तरह संख्यानाम और संख्यानाम के साथ सम्बद्ध मात्रा के साथ बच्चे अपनी समझ बना पाते हैं। इसी काम को थोड़ा और भी बेहतरी से करने के लिए ‘रियलिस्टिक मैथ एजुकेशन’। आन्दोलन से जुड़े शिक्षकों ने मोतीमाला का निर्माण किया था। संख्यारेखा उनके इस काम का मुख्य आधार थी।
हम जानते हैं कि संख्यारेखा पर बराबर दूरी पर निशान बने होते हैं और क्रम से संख्याचिन्ह लिखे रहते हैं। बाएँ से दाहिनी तरफ बढ़ने पर संख्याएँ भी बढ़ती जाती हैं। इसी तरह मोतीमाला पर भी बाएँ से दाहिनी तरफ बढ़ने पर बड़ी संख्याएँ मिलती हैं। सौ या पचास मोतियों से बनी मोतीमाला की मदद से बच्चों के साथ मोतियों को गिनना, मोती गिनकर संख्यानाम बोलना व संख्या कार्ड टाँगना, बड़ी-छोटी संख्या जानना तथा जोड़ना-घटाना पर आधारित तमाम रोचक अभ्यास किए जा सकते हैं। बच्चों की समझ पक्की हो जाने के बाद यह मोतीमाला हटा ली जाती है। अब उनके दिमाग में मोतीमाला का एक अमूर्त चित्र होता है जो हर परिस्थिति में संख्यारेखा की तरह ही एक औज़ार के रूप में उनकी मदद करता रहता है।

मोतीमाला  पर  आधारित  कुछ गतिविधियाँ
* संख्यानामों को बोलने के साथ-साथ उतने ही मोती अलग करना। इस तरह संख्याओं की मात्रात्मक समझ बनाने में मदद मिलेगी।
* कुछ मोती दिखाकर बच्चों से सवाल करना कि ये कितने हैं। बच्चे मोतियों को गिनकर संख्यानाम बताएँगे।
* बोली गई संख्या को सुनकर उतने ही मोती दिखाना तथा संख्याचिन्ह लिखा हुआ कार्ड टाँगना। इस तरह संख्यानाम, मात्रा और चिन्ह में सम्बन्ध बनाने में मदद मिलेगी।
* दो मोतीमाला और बच्चों के दो समूह बनाकर प्रतियोगिता कर सकते हैं।  दोनों  समूह  के  बच्चों  को संख्यानाम सुनना है फिर नीचे पड़े कार्डों के ढेर में से सही संख्याकार्ड चुनकर मोतीमाला पर टाँगना है।
* सात में तेरह का जोड़ करने या तेईस में से अठारह घटाने के मौखिक सवाल को मोतीमाला पर करके दिखाना। जोड़ने तथा घटाने के तरीकों को ध्यान से देखकर हम बच्चों की सोचने की प्रक्रिया को समझ सकेंगे।
* मोतीमाला में मोतियों को दस लाल, दस सफेद, दस लाल, दस सफेद करते हुए पिरोया गया है। दस के समूहों की यह व्यवस्था पैटर्न की समझ देती है। मोतीयों को दस के समूहों में देख पाना अप्रत्यक्ष रूप से स्थानीयमान की अवधारणा को समझने में भी मदद करता है।
* मोतीमाला में दो रंग के मोतियों और दस-दस के समूहीकरण की व्यवस्था को बार-बार देखकर बच्चों के मन में संख्याओं का एक चित्र पनपता है। यह चित्र मात्रा को समझने और किसी अन्य मात्रा के साथ तुलना करने के दौरान एक मानसिक औज़ार के रूप में उपयोगी साबित होता है। उदाहरण के लिए 23 में दस लाल, दस सफेद और 3 लाल जबकि 32 में दस लाल, दस सफेद, दस लाल और 2 सफेद... इस तरह बच्चे आसानी से समझ सकते हैं कि 32 की तुलना में 23 छोटी संख्या है।
* मन की संख्या खोजने का खेल। कोई बच्चा अपने मन में 1 से 100 तक की कोई भी संख्या सोच लेगा। दूसरा बच्चा तीर का निशान बना कार्ड मोतीमाला पर टाँगेगा। पहला बच्चा तीर की दिशा देखकर ‘हाँ’ या ‘नहीं’ में जवाब देगा। दूसरा बच्चा  कम-से-कम  कितनी  बार मोतीमाला पर कार्ड टाँगकर मन की संख्या खोज पाता है।
* जोड़ के सवाल 17+23 को मोतीमाला पर करने के दौरान दो रंग और दस के समूह में रखे मोतियों की सहायता से यह अन्दाज़ लगाने में मदद मिलती है कि यह जोड़ 30 से ज़्यादा है तथा 50 से कम।
* मोतीमाला की मदद से संख्या तथ्य समझने में मदद मिलती है। जैसे संख्या 5 को कई तरह से बनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए 2+3=5, 3+2=5, 1+4=5, 6-1=5 आदि।
अर्थपूर्ण सन्दर्भ, जो बच्चों के अनुभवों पर आधारित हों तथा रोचक भी हों, पर आधारित इबारती सवालों को मोतीमाला की मदद से हल करने के दौरान बच्चों के मन में गणित का विकास होता है। जोड़, घटा, गुणा तथा भाग के सवालों को हल करने के लिए वे वैकल्पिक तरीके खोज पाते हैं, साथ ही मानक कलन विधि को भी बेहतर ढंग से समझ पाते हैं। रोचक तथा मज़ेदार तरीके से सवाल के हल तक पहँुचना -- यह भी सिखाता है कि गणित सिर्फ एक खास किस्म की कलनविधि नहीं है। समस्या के समाधान के लिए हम अपने तरीके भी इस्तेमाल कर सकते हैं। अलग-अलग लोगों द्वारा उपयोग किए जाने वाला तरीका अलग-अलग हो सकता है। किसी भी विधि को उपयोग करते समय सबसे ज़रूरी बात होती है उस विधि के पीछे के तर्क को समझना।

मोतीमाला - कुछ किस्से
एक
राजसमन्द ज़िले का एक ब्लॉक है, देवगढ़। यहाँ पर एक शासकीय स्कूल में कार्यरत शिक्षक विक्रम मीणा जी को स्टाफ की कमी के चलते पहली तथा दूसरी कक्षा के बच्चों को एक साथ बिठाकर पढ़ाना पड़ता है। एक दिन मुझे अपनी कक्षा में ले जाकर उन्होंने कुछ बच्चों से मिलाया। बच्चे कंकड़, पत्थर और कंचों को गिन रहे थे। विक्रम जी ने बारी-बारी से कुछ बच्चों को कंचे व कंकड़ गिनकर बताने के लिए कहा। दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली एक लड़की ने सामने रखे कंचों को एक-एक कर उठाया और साथ ही साथ सही क्रम में संख्यानाम भी बोलती गई - एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह, बारह... उसने बताया कि उसकी ढेरी में बारह कंचे हैं।
पहली कक्षा के एक लड़के ने सामने रखे पत्थरों के ढेर को गिनने का प्रयास किया। वह संख्यानामों को सही क्रम में नहीं बोल पाया। एक अन्य लड़के ने संख्यानामों को काफी तेज़ी-से बोलते हुए कंचों को गिना। उसकी गिनती तेरह पर जाकर रुकी। ये वही कंचों का ढेर था जिसे थोड़ी देर पहले ही एक लड़की ने गिनकर ‘बारह’ बताया था। लड़के ने अपने सामने बेतरतीब पड़े कंचों को इस तेज़ी से गिना कि जल्दी-जल्दी में किसी एक कंचे को दो बार गिन गया। ढेर सारी चीज़ों को गिनते हुए अक्सर बड़े लोग भी ऐसी गलती कर देते हैं। या तो कुछ चीज़ों को दोबारा गिन लेते हैं या फिर कुछ चीज़ें छूट जाती हैं।
पिछले दिनों गणित शिक्षण पर आधारित एक कार्यशाला में विक्रम जी के साथ तीन दिन रहने का अवसर मिला। कार्यशाला के अन्तिम दिन सभी सम्भागी शिक्षक अपने स्कूलों के लिए मोतीमाला बनाकर ले गए थे। विक्रम सर का कहना है कि उनकी कक्षा के बच्चों को मोतीमाला पर गिनती करना बहुत अच्छा लग रहा है। पहली कक्षा के बच्चों द्वारा गिनती बोलने तथा संख्याकार्ड टाँगने के दौरान दूसरी कक्षा के बच्चे उनकी मदद करते हैं।

दो
राजसमन्द ज़िले के ही रेलमगरा ब्लॉक में पदस्थ शिक्षक मुकेश वैष्णव जी पहली कक्षा के बच्चों को गिनती सिखाने पर काम कर रहे थे। उन्होंने शुरु में बीस तक सही क्रम में संख्यानाम बोलना और उन संख्याओं की मात्रात्मक समझ पर काम करने के लिए योजना बनाई थी। अभी उनका ध्यान संख्याओं को लिखना सिखाने पर नहीं था। यह काम वे थोड़ा बाद में करना चाहते थे -- तब जब उनकी कक्षा के सभी बच्चों को अच्छी तरह से बीस तक चीज़ों को गिनना आ जाए। इसके लिए मुकेश सर ने बच्चों की प्रारम्भिक समझ का आकलन किया। उन्हें पता चला कि बहुत-से बच्चे दो, तीन या चार का मतलब समझते थे। इतनी चीज़ों की मात्रा बच्चे अपनी उंगलियों पर भी दिखा देते थे। निःसन्देह संख्याओं की यह प्रारम्भिक समझ बच्चों को स्कूल आने से पहले ही अपने घर, परिवार व परिवेश में प्राप्त अनुभवों से बनी होगी। मुकेश सर ने बच्चों के इन्हीं अनुभवों को आधार बनाकर कक्षा में अपना काम आरम्भ किया।
इस प्रक्रिया में उन्होंने बच्चों के साथ बातचीत की और दैनिक जीवन के अनुभव से जुड़े कुछ सवालों को पूछकर उनकी समझ को टटोला। ऐसे ही और सवालों को पूछते हुए मुकेश जी ने अपनी कक्षा के बच्चों को संख्यानाम बोलने और उतने ही मोती गिनकर मोतीमाला पर दर्शाने की गतिविधियाँ कराईं। उन्होंने बच्चों के सामने खुद ही एक से दस तक की गिनती बोलकर, उतने ही मोती मोतीमाला पर दिखाते हुए गिने। बारी-बारी से बच्चों को मोतीमाला के पास बुलाया जाता। वे एक से दस तक गिनती बोलते और उतने ही मोती सरकाते जाते। कुछ बच्चों को अभी संख्यानाम ठीक से याद नहीं हो पाए थे। ऐसे बच्चे जहाँ तक बोल पाते थे, बोलते थे, फिर चुपचाप खड़े हो जाते थे। कुछ अन्य बच्चे एक से शु डिग्री कर दस तक आकर ही रुकते थे, लेकिन बीच की संख्याओं के क्रम को गड़बड़ कर देते थे या कुछ संख्याओं को बोलना ही भूल जाते थे। ऐसे में कक्षा में बैठे अन्य बच्चे उनकी हर हरकत पर नज़र रखते और संख्यानाम को सही क्रम में बोलने और मोतियों की सही गिनती करने की प्रक्रिया में होने वाली गलती को दूर से देखकर ही पकड़ लेते। इस तरह बच्चों द्वारा की जाने वाली गलतियाँ, बच्चों द्वारा ही दुरुस्त कर दी जातीं।
मुकेश  सर  का  कहना  है  कि मोतीमाला की गतिविधियों ने सभी बच्चों का ध्यान आकर्षित करने तथा गिनती सीखने की गतिविधियों में रोचकता लाने में बहुत मदद की है। उनकी कक्षा के कुछ बच्चे तो अब मोतीमाला की मदद से पहाड़े बनाना भी सीख गए हैं।

तीन
राजसमन्द ज़िले के भीम ब्लॉक के एक प्राथमिक स्कूल में एकल शिक्षक के रूप में कार्य कर रहे शिक्षक नरेन्द्र सभी बच्चों को एक साथ बिठाकर काम करते हैं। यह करने के अलावा उनके पास और कोई चारा भी नहीं है क्योंकि पहली से पाँचवीं कक्षा तक के बच्चों को पढ़ाने के लिए वे अकेले शिक्षक हैं।
नरेन्द्र जी के स्कूल में चौथी और पाँचवीं कक्षा में पढ़ रहे कुछ बड़े बच्चे एक से सौ तक की संख्याओं को सही क्रम में बोल पाते हैं। नरेन्द्र जी ने अपनी कक्षा में मोतीमाला का खूब उपयोग किया है। अब बड़ी कक्षाओं में पढ़ रहे बच्चे आसानी-से गिनने का काम कर लेते हैं। इनकी देखा देखी बहुत-से छोटे बच्चों ने भी कुछ संख्यानामों को उच्चारित करना सीख लिया है। कुछ ऐसे बच्चे भी हैं जो एक से दस तक संख्यानामों को सही क्रम में तो बोल लेते हैं लेकिन मोतीमाला पर उतने ही मोती गिनने को कहा जाए तो काफी गड़बड़ करते हैं। कुछ अपनी गिनती को बड़ी तेज़ी-से बोल जाते हैं, लेकिन साथ-साथ ही उतने मोती नहीं सरकाते हैं। नतीजतन बोलने की प्रक्रिया में दस तो आ जाता है, लेकिन मोतीमाला पर मोती दस से कुछ कम ही रह जाते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो एक से दस तक गिनने की प्रक्रिया में मोतियों को इतना तेज़ी के साथ सरकाते जाते हैं कि हर बार उनके मोती दस से ज़्यादा ही निकलते हैं।
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इस तरह हम देख सकते हैं कि बतौर शिक्षक विक्रम मीणा, मुकेश वैष्णव और नरेन्द्र सिंह की चुनौतियों में काफी विविधता है। उनकी कक्षाओं में पढ़ रहे बच्चों का स्तर भी अलग-अलग है। कुछ बच्चों को संख्यानाम का सही क्रम नहीं ज्ञात है। कुछ बच्चे संख्यानाम तो सही क्रम में बोल लेते हैं, लेकिन चीज़ों को गिनते समय संख्यानाम और वस्तु में ‘एक से एक संगति’ नहीं बना पाते हैं। पाठयपुस्तक को गौर से देखें तो हम पाएँगे कि ‘एक से एक संगति’ बनाने के इस काम को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है। संख्या पूर्व की अवधारणाओं पर काम करने के दौरान ही इस मुद्दे पर कई अभ्यास तथा गतिविधियाँ तैयार की जाती हैं।
बच्चों के गिनने के तरीकों और उनमें आने वाली चुनौतियों को हम गेलमन और गैलिस्टील द्वारा प्रतिपादित गिनने के पाँच सिद्धान्तों के सापेक्ष देख सकते हैं। एक शिक्षक के रूप में हम यह भी देख सकते हैं कि किसी बच्चे की सीखने की प्रक्रिया को गति देने के लिए हमें उसके साथ किस सिद्धान्त पर आधारित गतिविधियों पर ज़्यादा काम करने की ज़रूरत है। मोतीमाला की मदद से हम शुरुआती चार सिद्धान्तों पर बहुत ही रोचक गतिविधियाँ तैयार कर बच्चों के साथ काम कर सकते हैं। आगे चलकर आप देखेंगे कि बच्चे गिनने के कौशल की पुख्ता समझ को पाँचवें सिद्धान्त पर भी लागू कर रहे होंगे।
गिनती सीखने के विभिन्न स्तरों पर स्थित सभी बच्चों की आवश्यकता के अनुरूप रोचक गतिविधियाँ और अभ्यास तैयार करने की ज़िम्मेदारी अध्यापक की ही है। इस काम में मोतीमाला अपने आप में एक नायाब और आकर्षक सामग्री हो सकती है जिसकी सहायता से हम तमाम किस्म की गतिविधियाँ तैयार कर सकते हैं।
हमने देखा है कि अपने हाथों से बनाई गई सामग्री के साथ शिक्षक साथी काफी अपनापन महसूस करते हैं। मोतीमाला के प्रति शिक्षक साथियों में आकर्षण तथा कक्षा कक्ष में उसकी उपयोगिता को देखने के बाद हमारे गणित समूह के साथियों ने यह निर्णय लिया कि अपनी कार्यशालाओं में सामग्री निर्माण पर आधारित एक सत्र का समावेश किया जाए। इस सत्र में अन्य सामग्री के साथ ही हम लोग मोतीमाला का निर्माण भी करवाते हैं। बीते साल हमने बाड़मेर के पशु मेले से पच्चीस हज़ार रंग-बिरंगे मोती खरीद लिए। इस साल आयोजित हुई गणित की कार्यशालाओं में दो सौ से अधिक शिक्षकों ने अपने-अपने स्कूल के लिए अपने हाथों से मोतीमाला तैयार की। ये शिक्षक बड़े उत्साह से अपने स्कूलों में अपने हाथ से बनाई गई मोतीमाला का उपयोग कर रहे हैं।

ये कतई ज़रूरी नहीं कि शिक्षण सहायक सामग्री के लिए हम बाज़ार की महँगी चीज़ों पर ही निर्भर रहें या इसके लिए बजट कम होने की दुहाई देते रहें। एक शिक्षक के रूप में हम स्वयं भी अपने आसपास उपलब्ध अनुपयोगी सामान से अच्छी शिक्षण सहायक सामग्री का निर्माण कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में बच्चों को भी अपने साथ रखकर उनके स्तर की ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिए। इस सम्बन्ध में मैं आपको एक शिक्षक श्रवण जी के बारे में बताना चाहूँगा। श्रवण जी पाली ज़िले के बाली ब्लॉक में कार्यरत हैं। उन्होंने अपने कुछ शिक्षक साथियों को कक्षा में मोतीमाला का उपयोग करते हुए देखा था। वे मोतीमाला की गतिविधियों से इतना प्रभावित हुए कि अपने स्कूल के बच्चों के लिए भी उन्होंने एक मोतीमाला बनाने का निश्चय किया।
श्रवण जी को समीप के बाज़ार में उपयुक्त आकार के मोती नहीं मिले। ऐसे में उन्होंने अपने स्कूल के सभी बच्चों को खाली बोतलों के ढक्कन इकट्ठा करने को कहा।
बच्चों ने अगले कुछ दिनों में ढेर सारे ढक्कन इकट्ठा कर दिए। श्रवण जी तथा उनके स्कूल के बच्चों ने मिलकर इन ढक्कनों में छेद किया और फिर दस हरे, दस लाल, दस हरे करते हुए एक रस्सी में पिरो दिया। इस तरह उन्होंने मोतीमाला के विकल्प के रूप में ढक्कन माला का आविष्कार कर लिया है। श्रवण जी अब रोज़ इस ढक्कन माला की मदद से अपनी कक्षा में गिनती सिखाना, जोड़-घटाना आदि पर रोचक गतिविधियाँ करवाते हैं। पिछले दिनों श्रवण जी की यह ढक्कन माला राजस्थान के शिक्षकों के कई वॉट्सएप समूहों में चर्चा का विषय रही।
पिछले कुछ सालों के दौरान राजस्थान के कई ज़िलों में आयोजित शिक्षक प्रशिक्षणों में मैंने मोतीमाला की उपयोगिता को लेकर कई सत्र किए हैं। छोटी कक्षाओं में पढ़ा रहे शिक्षकों को ये मोतीमाला बहुत उपयोगी लगती है। राजस्थान के कई शिक्षक अपने हाथों से बनाई गई मोतीमाला का उपयोग अपनी कक्षाओं में कर रहे हैं। राजस्थान की प्राथमिक कक्षाओं की गणित की पाठयपुस्तकों में भी मोतीमाला पर आधारित गतिविधियों का समावेश किया गया है।
मुझे यह देखकर बहुत खुशी मिलती है कि पाँच साल पहले बालोतरा के बैलों के गले में झूल रहे मोती अब मोतीमाला बनकर नन्हे बच्चों के हाथों में आ पहुँचे हैं और खेल-खेल में गणित सीखने में बहुत मददगार साबित हो रहे हैं।


मोहम्मद उमर: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, राजसमन्द, राजस्थान में कार्यरत हैं। गणित अध्ययन एवं शिक्षण में विशेष रुचि।
सभी फोटो: मोहम्मद उमर।