विपुल कीर्ति शर्मा

वैसे तो मकड़ी नाम ही डराने के लिए काफी है परन्तु ब्लैक विडो नामक मकड़ी के काट लेने पर चिन्ता होना स्वाभाविक है। वास्तव में तो ये बेहद शालीन होती हैं। ज़्यादा छेड़-छाड़ करने पर भी दुबककर बैठ जाती हैं पर अनजाने में यदि काट लें तो तेज़ दर्द के साथ पेशियों में ऐठन और घबराहट होती है तथा डायाफ्राम के शिथिल होने के कारण साँस लेने में परेशानी होने लगती है। अमेरिका के अस्पतालों में तो इनका एंटीवेनम भी उपलब्ध रहता है। काटने के अधिकांश मामलों में विशेष चिकित्सीय उपचार की आवश्यकता नहीं होती है।
ब्लैक विडो मकड़ी के कई नाम हैं। ये काले रंग की होती हैं और कई बार अपने साथी नर को मैथुन के पश्चात खा जाती हैं। इस कारण इन्हें ब्लैक विडो या काली विधवा कहते हैं। इनकी पीठ पर एक लाल पट्टी पीछे से आगे तक फैली होती है, इसलिए इन्हें रेडबैक स्पाइडर भी कहते हैं। इनका जाला बेतरतीब प्रकार का (टेंग्ल्ड वेब) होता है इसलिए इन्हें बेतरतीब जाले वाली टेंग्ल्ड वेब मकड़ियाँ भी कहते हैं। इनकी टांगों में कंघे जैसी रचना होती है अत: इन्हें कॉम्ब फूटेड (पैर में कंघा वाली) मकड़ियाँ भी कहा जाता है। किन्तु इनका वैज्ञानिक नाम लेट्रोडेक्टस है। लेट्रोडेक्टस मकडियों को थेरिडिडि परिवार में रखा गया है। इस बड़े परिवार में 100 वंशों की लगभग 2200 प्रजातियाँ सम्मिलित हैं। ये ऊनी रेशम की बजाय चिपचिपे रेशम के द्वारा शिकार को पकड़ती हैं। ब्लैक विडो का विष चिकित्सीय अध्ययन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इनके द्वारा स्त्रावित  रेशमी धागे की रासायनिक संरचना का अध्ययन और इसकी उपयोगिता भी वैज्ञानिक शोध के आकर्षक क्षेत्र हैं। इनका सेक्शुअल केनेबेलिक व्यवहार अर्थात् लैंगिक स्वजाति भक्षण की प्रवृति भी रहस्यमय है और शोध को आमंत्रण देती है। अत: ब्लैक विडो वैज्ञानिक शोध के लिए प्रयोगशाला के आदर्श जीव हैं।

मकड़ियों के सामाजिक व्यवहार को समझने के लिए इसी परिवार की एनेलोसिमस मकड़ी एवं अन्य मकड़ियों से खाना चुराकर खाने की आदत (क्लेप्टोपेरासेटिज़्म) दर्शाने वाली आर्जिरोड़ मकड़ी के व्यवहार का भी अध्ययन किया जाता है।

प्रयोगशाला में ब्लैक विडो
पिछले सात सालों से ब्लैक विडो ने मेरी लैब को रोमांच से भर दिया है। कुछ शोधार्थी हमेशा यहाँ इस मकड़ी के साथ व्यस्त दिखते हैं। मेरी प्रयोगशाला में तीन साल पहले कुल जमा 45 वयस्क ब्लैक विडो थीं। 30 मादा और 15 नर। नर की कम संख्या का कारण था उनकी आयु कम होना तथा प्रजनन के बाद उनका शहीद हो जाना।
पालने के लिए हम लैब में प्लास्टिक की पारदर्शी पानी की बोतल में इनका घर बनाते हैं। ढक्कन के ऊपर छोटे-छोटे छेद श्वसन के लिए और बोतल में एक पानी में भीगा रूई का फाहा पानी पीने के लिए रखा जाता है। सभी मकड़ियाँ परभक्षी होती हैं, इसलिए खुराक में उन्हें तीन दिन में एक बार दो घरेलू मक्खियाँ या एक टिड्डा दिया जाता है।
ब्लैक विडो जाला बनाकर रहती हैं। अन्य प्रकार की कुछ मकड़ियाँ घुमक्कड़ होती हैं। वे शिकार करने के लिए जाले नहीं बनातीं बल्कि घात लगाकर शिकार पकड़ती हैं। जाले बनाने वाली मकड़ियाँ शिकार करने के लिए पूर्णत: जाले पर ही निर्भर रहती हैं।

मकड़ियों की आँखें
सामान्यत: मकड़ियों में आठ आँखें होती हैं। मकड़ियाँ कैसे अपना भोजन प्राप्त करती हैं, शायद इस आधार पर उनके शरीर का आकार एवं आँखों की स्थिति का विकास हुआ है। अधिकांश जाला बनाने वाली मकड़ियों में देखने की क्षमता अल्पविकसित होती है। ब्लैक विडो तथा अन्य जाला बुनने वाली मकड़ियों में आँखें केवल दिन एवं रात का ज्ञान या फोटो पीरियड का अनुभव करने के लिए विकसित हुई हैं। वे शिकार, प्रजनन व अन्य कार्यों के लिए स्पर्श, स्पन्दन एवं रासायनिक अणुओं का उपयोग अधिक करती हैं। प्रत्येक प्रजाति में सिर पर आँखों की स्थिति के आधार पर वैज्ञानिकों ने मकड़ियों को वर्गीकृत किया है।

बेतरतीब जाला यानी टेंगल्ड वेब
प्राकृतिक आवास से ब्लैक विडो को पकड़कर प्रयोगशाला में पालने के लिए हम उन्हें प्लास्टिक की पानी वाली सफेद बोतल में रखते हैं। बोतल में छोड़ने के बाद सामान्यत: रात में ये मकड़ियाँ बोतल में उपलब्ध जगह के अनुसार जाला बनाती हैं। कम जगह में छोटा जाला और खुली जगह या प्राकृतिक निवास में बड़ा जाला बनाया जाता है। जाला जितना बड़ा होता है, शिकार की उसमें फँसने की सम्भावनाएँ भी उतनी ही अधिक प्रबल होती हैं। दिखने में ब्लैक विडो का जाला भले ही भद्दा और बेतरतीब दिखे परन्तु शिकार को फाँसने में ये बेजोड़ होता है।
जाले को सतह से जोड़ने के लिए 10-15 आधार-तन्तु होते हैं। आधार-तन्तु आसपास की जगह जैसें चट्टान, टहनियों आदि से जुड़े रहते हैं। इन तन्तुओं पर ब्लैक विडो मचान बनाती है। मचान से ऊपर एवं नीचे जाने के लिए एक रास्ता भी होता है। मचान के नीचे मकड़ी उल्टी लटकी रहती है। आधार-तन्तु के सतह से जुड़ने वाले भाग पर रेशम की अत्यधिक चिपचिपी बूँदें देखी जा सकती हैं। इन्हें ‘गम बूट’ कहते हैं। एक भूखी ब्लैक विडो के जाले में रेशमी धागे एवं गम बूट की संख्या बहुत अधिक होती है। रेशमी जाल का प्रत्येक तन्तु प्रोटीन से बनता है। अत: जाल बनाने में सभी मकड़ियों को भारी मात्रा में अपने शरीर का प्रोटीन खर्च करना पड़ता है। मकड़ियों का जाला इस प्रकार से बना होता है कि इस जाले पर आने वाले शिकार की हलचल की तरंगें मकड़ी तक निर्बाध पहँुच सकें। मादा ब्लैक विडो से मिलने के लिए तत्पर नर के प्रवेश के लयबद्व कम्पनों को भी मादा ब्लैक विडो पहचानती है। जाला दुश्मनों से बचने में भी मददगार होता है।

शिकार करने का तरीका
जैसे ही शिकार जाले में आता है उससे उत्पन्न तरंगें ब्लैक विडो को सचेत कर देती हैं। विडो तेज़ी-से उस स्थान पर पहँुचकर अपने पिछले सबसे लम्बे पैरों के सिरों पर उपस्थित कंघेनुमा बालों की संरचना से रेशम ग्रन्थी से निकले धागों को खींच कर शिकार पर लपेटने लगती है। दोनों पैर लगातार एवं एक निश्चित क्रम से इतनी जल्दी लपेटने का कार्य करते हैं कि कुछ ही पलों में शिकार को जकड़ लिया जाता है, वह हिल भी नहीं पाता। तुरन्त विडो शिकार के पास पहुँचकर शिकार के पैरों में ज़हरीले विषदन्त चुभा देती है।  

लेट्रोटॉक्सिन यानी मकड़ी का विष
इस मकड़ी का विष लेट्रोटॉक्सिन कहलाता है जो रेटल स्नेक के विष से भी 15 गुना ज़्यादा ज़हरीला होता है। यह मुख्यत: तंत्रिका तंत्र को बुरी तरह प्रभावित करता है और शिकार के प्राण कुछ ही पलों में हर लेता है। ब्लैक विडोे शिकार को जगह-जगह काट कर अपने पाचक एंज़ाइम युक्त विष को भारी मात्रा में शिकार के शरीर में डाल देती है। इससे शिकार के अंग गलकर चूसने लायक हो जाते हैं। ब्लैक विडो के विष में 75 विभिन्न प्रकार के प्रोटीन पाए जाते हैं। शिकार के शरीर को नष्ट करने के लिए सभी प्रोटीन सम्मिलित रूप से एकजुट हो जाते हैं। विष प्रोटीन में सबसे महत्वपूर्ण 7 लेट्रोटॉक्सिन अणु होते हैं। इनमें से पाँच अकशेरुकी प्राणी, जैसे कीट पतंगों पर विशेष रूप से काम करते हैं किन्तु शेष दो में से एक अल्फा लेट्रोटॉक्सिन अणु कशेरुकियों पर भी प्रभावशील होता है। इस अणु पर ही सबसे ज़्यादा अध्ययन किया गया है। लेट्रोटॉक्सिन का एक अणु तो विशेषत: केवल क्रस्टेशियन्स (केकड़े, झींगे आदि) को मारने के लिए ही विकसित हुआ है। लेट्रोटॉक्सिन तंत्रिकाओं के सिरों से न्यूरोट्रान्समीटर और केल्शियम आयन को बाहर निकाल देता है। इससे तंत्रिकाएँ डिपोलेराइज़्ड हो जाती हैं तथा सन्देश वहन नहीं कर पातीं। परिणामस्वरूप   शिकार   तुरन्त लकवाग्रस्त हो जाता है।

मकड़ियों का खाना व केनेबेलिज़्म
जाला बनाने वाली सभी मकड़ियों को रोज़ शिकार करने की ज़रूरत नहीं होती। एक अच्छा शिकार मिलने पर ये उसका बहुत सारा रस चूस लेती हैं। मकड़ियों का उदर गुब्बारे की तरह खूब फैल सकता है। भर पेट भोजन के बाद ये कई दिनों तक नहीं खाएँ तो भी इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। लैब में पाली हुई मकड़ियों को भी हम टिड्डे,  ड्रेगनफ्लाय,  डेमसलफ्लाय, फूलगोभी तथा मटर की फलियों से प्राप्त इल्ली, छिपकली के बच्चे, कॉकरोच और मक्खी खाने के लिए देते हैं।
 एगसेक से निकले ढेर सारे नवजात बच्चों को खाना खिलाना थोड़ा मुश्किल काम है क्योंकि एक एगसेक से एक बार में लगभग 200 बच्चे निकलते हैं। एगसेक से बच्चे निकलने के दो दिन पहले एगसेक को हम एक बड़ी बोतल (1 लीटर वाली मिनरल वॉटर बोतल) में पृथक से रखते हैं। बेहद छोटे स्पाइडरलिंग (नवजात शिशु) को खिलाने के लिए हम विशेष तौर पर ड्रोसोफिला यानी फ्रूटफ्लाई को कल्चर करते हैं। इन्हें पालना मुश्किल नहीं है।   जैसे   ही   हम  स्पाइडरलिंग को खिलाने   के लिए ड्रोसोफिला को बॉटल में छोड़ते हैं, वह जाले में फँसकर छटपटाती है। जाले में शिकार से उत्पन्न तरंगों से ब्लैक विडो के बच्चे ड्रोसोफिला को घेर कर शिकार करते हैं। कुछ बच्चे इस प्रक्रिया में फँसकर अन्य बच्चों का शिकार  भी  बनते  हैं। आपको शायद यह जानकारी होगी कि मकड़ियाँ अपने ही जैसी अन्य कमज़ोर मकड़ियों का शिकार भी करती हैं। इसे केनेबेलिज़्म या स्वजाति भक्षण कहते हैं। लगभग एक महीने बाद कुल बच्चों के 30 प्रतिशत बच्चे ही जीवित बचते हैं। जब ये स्वयं शिकार करने लायक हो जाते हैं तब उन्हें अलग-अलग बोतलों में पाला जाता है।

त्वचा त्यागना एवं लैंगिक द्विरूपता
स्पाइडरलिंग जैसे-जैसे बड़े होते हैं, अपनी पुरानी त्वचा को निकाल देते हैं। यह साँप की केंचुली निकालने जैसा ही है। पुरानी त्वचा त्यागते समय कुछ देर के लिए स्पाइडरलिंग अपंग हो जाते हैं। इस समय शिकारी के आक्रमण करने पर ये बचाव में असमर्थ होते हैं। वयस्क होने तक नर ब्लैक विडो 7 बार एवं मादा 9 बार अपनी पुरानी त्वचा बदलते हैं। अन्तिम बार त्वचा त्यागने के बाद ही नर में वीर्य को मादा जननांग में डालने के लिए फूले हुए पेडीपेल्प विकसित होते हैं। नर मादा से आकार में छोटे और वज़न में हल्के होते हैं। नर का शरीर पूर्णत: काला होने की बजाय सफेद एवं काले रंग की धारियों वाला होता है। इस प्रकार से नर एवं मादा ब्लैक विडो में स्पष्ट लैंगिक द्विरूपता दिखाई देती है। नर तीन महीनों में वयस्क हो जाते हैं किन्तु मादा को वयस्क होने में छ: महीने लगते हैं।   

ब्लैक विडो का प्रेमालाप
मेरी लैब में जब ब्लैक विडो के प्रेमालाप (कोर्टशिप) एवं समागम के प्रयोग होते हैं तब सभी शोधार्थी ज़रूर उपस्थित रहते हैं। मादा ब्लैक विडो को पृथक करने के लिए बड़ी बॉटल में स्थानान्तरित करने के तीन दिन बाद नर को उस बॉटल में छोड़ा जाता है। तीन दिनों में मादा पहले से बोतल में रखी एक सूखी लकड़ी के साथ रात को जाला बना लेती है। जैसे ही नर को बोतल में छोड़ा जाता है, नर को तुरन्त ज्ञात हो जाता है कि उसे किसी वर्जिन मादा के जाल में छोड़ा गया है। मादा ब्लैक विडो अनभिज्ञ दिखती है तथा चुपचाप बैठी रहती है परन्तु वह जानती है कि जाल में शिकार नहीं परन्तु नर आया है। स्केनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से पता लगाया जा सकता है कि रेशमी धागे को पकड़ने वाले उसके पैरों के टारसस  (पैर का सबसे निचला भाग) वाले भाग में पाए जाने वाले बाल सचमुच में धागों पर उपस्थित रसायनों को पहचानने वाले संवेदना ग्राही होते हैं।
नर ब्लैक विडो भी जाले में मादा की उपस्थिति को भाँपकर प्रेमालाप में जाले के धागों को गिटार के समान बजाने लगता है। इन कम्पनों को केवल उसकी प्रजाति की मादाएँ ही समझ सकती हैं। नर पेट को लगातार दोनों तरफ हिलाता है तथा मादा के समीप पहुँचने के लिए कुछ धागों को तोड़ता है। इससे मादा जाले में एक ही जगह तक सीमित हो जाती है। इस तरह मादा द्वारा नर को खा जाने के जोखिम को कम किया जाता है। नर मादा के ऊपर भी अपने रेशमी धागों को लपेटकर उसे कैद कर लेते हैं। रेशमी धागों में लगे रसायन मादा को शान्त रखते हैं तथा नर को मादा के आक्रमण से बचाए रखने का उपाय भी है। इस दौरान नर द्वारा की गई एक भी गलती पर मादा उन्हें शिकार समझती है और नर को मौत की सज़ा मिलती है।

प्रजनन
जाला बनाने वाली मकड़ियों में समागम भी अनोखे प्रकार का होता है। नर अपने जननांग से वीर्य की एक बूँद जाल के धागे पर डाल देता है और अपने पिचकारी के समान काम करने वाले पेडीपेल्प में वीर्य को भरकर मादा जननांगों में छोड़ देता है। पेडीपेल्प में केरिटिन से बनी कुण्डलित नली मादा के जननांग में वीर्य को पहुँचाने में इस्तेमाल होती है। पूरी प्रक्रिया में नर उल्टी लटकी हुई मादा के पेट पर लेटकर एक पेडीपेल्प का उपयोग करता है। आधे घण्टे बाद यही प्रक्रिया दूसरे पेडीपेल्प से की जाती है। कुण्डलित नली को मादा जननांग से निकालते समय नर 1800 की कलाबाज़ी करके पलटता है। इस समय नर का उदर मादा के मुँह के समीप आ जाता है। समागम के समय नर का हिलता हुआ उदर मादा को केनेबेलिज़्म के लिए उकसाता है। इस प्रकार 30 प्रतिशत समागम के मामलों मे मादा नर को खा जाती है तथा विधवा बन जाती है। इसलिए इन मादाओं को ब्लैक विडो नाम दिया गया है।

प्राणि जगत में कई प्रजातियों में प्रजनन के बाद नर को खाने के स्वभाव को देखा गया है। मादा को अधिक पोषण प्राप्त हो सके, यह इसका एक कारण हो सकता है। परन्तु पेट भरी हुई ब्लैक विडो भी यह कृत्य करती है। इसलिए कुछ वैज्ञानिक नर के इस व्यवहार  को  प्रकृति  प्रदत्त  तथा जानबूझकर किया बलिदान का कार्य बताते हैं। इसके लिए नर में उदर की खाँच का विकसित होना, एक अनुकूली लक्षण है। पर मुझे ऐसा नहीं लगता। आपको क्या लगता है?
ब्लैक विडो को आप भी पालें और इन रहस्यों से पर्दा उठाऐं। महाराष्ट्र, गुजरात एवं मध्यप्रदेश की सीमारेखा के बहुत-से बीहड़ों और जंगलों में ब्लैक विडो मिलती हैं। मुझे भी इन्हीं   इलाकों में ऐसेे ही मिली थीं।


विपुल कीर्ति शर्मा: शासकीय होल्कर विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर में प्राणिशास्त्र के वरिष्ठ प्रोफेसर। इन्होंने ‘बाघ बेड्स’ के जीवाश्म का गहन अध्ययन किया है तथा जीवाश्मित सीअर्चिन की एक नई प्रजाति की खोज की है। नेचुरल म्यूज़ियम, लंदन ने उनके सम्मान में इस नई प्रजाति का नाम उनके नाम पर स्टीरियोसिडेरिस कीर्ति रखा है। वर्तमान में वे अपने विद्यार्थियों के साथ मकड़ियों पर शोध कार्य कर रहे हैं। पीएच.डी. के अतिरिक्त बायोटेक्नोलॉजी में भी स्नातकोत्तर किया है।
सभी फोटो: विपुल कीर्ति शर्मा।