कमलेश चन्द्र जोशी

स्कूल  के  पुस्तकालयों  में  कई तरह की किताबें होती हैं। मेरा यह अनुभव है कि प्राथमिक कक्षाओं में चित्रों से सजी पुस्तकें बच्चों में पढ़ने की उत्सुकता विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। चित्रों की वजह से बच्चे किताबों को चुनते हैं और पाठ्य के साथ कुछ संवाद करते है, अनुमान लगाकर पढ़ने की कोशिश करते हैं। चित्र जहाँ पाठ्य को कल्पनात्मक विस्तार देते हैं, वहीं बच्चों में सौन्दर्यबोध भी विकसित करते हैं। प्राथमिक शालाओं में पुस्तकालय संचालित करने का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है -- बच्चों को किताबों से जोड़ना व उत्साही पाठक बनाना। पाठक बनने का मतलब है कि बच्चे पढ़ने के साथ चित्रों का भी आनन्द लें, उनमें चित्रों के प्रति सौन्दर्यबोध विकसित हो, कुछ खुद से होकर भी सृजन करें। इन्हीं सब उद्देश्यों के मद्देनज़र पुस्तकालय में एक सहजकर्ता नियुक्त किया जाता है।

इस लेख में शासकीय प्राथमिक शालाओं में संचालित पुस्तकालय में शिक्षक और बच्चों के साथ काम करते हुए मिले कुछ अनुभवों को मैं आपके साथ साझा कर रहा हूँ।

अक्सर स्कूलों में देखने को मिलता है कि बच्चों को किताबें पढ़ने को तो दी जाती हैं लेकिन चित्रों को गौर से देखने और उन पर बातचीत करने पर बहुत ही कम ध्यान दिया जाता है। मेरा ऐसा मानना है कि स्कूलों में चित्रकला हाशिए का विषय है। इस पर बहुत सोच-समझकर काम नहीं होता। यह केवल बच्चों से कुछ परम्परागत चित्र बनवाने तक ही सीमित रहता है। चित्रमय किताबें बच्चों को मौका देती हैं कि वे विविध चित्रकारों, विविध शैलियों, विविध दृश्यों को देख पाएँ, समझ पाएँ, कुछ चर्चा कर पाएँ। इसके बाद जब बच्चे खुद से चित्र बनाते हैं तो इन सब की झलक दिखाई देती है। इन्हीं सब विचारों और अपेक्षाओं के साथ हमने प्राथमिक शालाओं के साथ काम शुरू किया।

बच्चों को दें मौके   
बच्चों के भाषा विकास को ध्यान में रखते हुए हमने सर्वप्रथम शिक्षकों के साथ प्रशिक्षण कार्यक्रमों में स्कूल में पुस्तकालय स्थापित करने और बच्चों को किताबें पढ़ने के अवसर देने की बात रखी। साथ ही, यह चर्चा भी की गई कि स्कूल में केवल किताबें आ जाने से हमारा उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता। ज़रूरी है कि हम बच्चों को नियमित रूप से किताबें पढ़ने के मौके दें और किताबें पढ़कर सुनाएँ। किताबों व उनके चित्रों पर बातचीत करें। उन्हें अनुमान लगाकर पढ़ने, स्वतंत्र रूप से चित्र बनाने और लिखने के भी मौके दिए जाएँ। इस प्रकार बच्चों के पढ़ने-लिखने और चित्र बनाने को साथ-साथ चलने वाली प्रक्रिया के रूप में देखें।

बच्चों का किताबों व चित्रों के प्रति रुझान बनाने के लिए ज़रूरी है कि बच्चों के साथ किताब पढ़ते हुए उनका ध्यान चित्रों की ओर भी दिलाया जाए और चित्र पर कुछ सवाल भी किए जाएँ जैसे - उन्हें चित्र कैसा लगा, चित्र में क्या-क्या है, यह लड़की क्या सोच रही है, यह लड़का पहले बड़ा खुश था पर अब कैसा दिख रहा है, कौन-कौन से फल दिख रहे हैं, किताब के कौन-से चित्र अच्छे लगे और क्यों आदि आदि।

मेरा अनुभव है कि कई दफा चित्र बच्चों को उनके जीवन की स्मृतियों से जोड़ते हैं तो कभी कल्पनाओं का दरवाज़ा खोलते हैं। जैसे नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित रेलगाड़ी चले छुक-छुक नामक किताब पर जब बच्चों से बात की जाती है तो बच्चों की रेलगाड़ी से की गई किसी यात्रा से जुड़ी यादें ताज़ा हो जाती हैं, यहाँ इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि बच्चा कौन है। इसमें चाहे गाँव का बच्चा हो या शहर का बच्चा, चाहे मज़दूर का बच्चा हो या किसी कर्मचारी का। कुछ-न-कुछ यादें या कुछ कल्पनाएँ सभी की होती हैं।

चिल्ड्रेन्स बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित किताब अम्मा सबकी प्यारी अम्मा के चित्रों को देखकर बच्चों को अपने घर या पास-पड़ोस के पशु-पक्षी पालने के अनुभव याद आ ही जाते हैं। इस किताब के साथ शिक्षक की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो जाती है कि वह कहानी को बच्चों के बीच कैसे रखता है। इस कहानी के मुख्य पात्र रवि की अलग-अलग छवियाँ हैं। रवि के खुश होने, रवि के गुस्सा होने व रात-दिन के समय के सुन्दर फ्रेम हैं। इस पर बच्चों से बात होती है कि रवि अभी कैसा दिख रहा है, अब वह क्या करेगा, यह कौन-सा समय है आदि। इन सब बातों पर बच्चों का ध्यान दिलाना पड़ता है।

बच्चों को किताबों के चित्र दिखाने, उन पर बातचीत करने से कहीं उनमें यह समझ बन रही होती है कि ये चित्र किस तरह फोटो या विज्ञापन के चित्र से अलग हैं, इनमें भाव भी हैं, चित्र कुछ कह रहे हैं। कई बार किताब के चित्र अपने आसपास की चीज़ों एवं पर्यावरण का एहसास भी दिलाती हैं जैसे कि पहाड़ जिसे एक चिड़िया से प्यार हुआ किताब को पढ़ते हुए हम पक्षियों, पहाड़ और अपने परिवेश के प्रति संवेदनशीलता का भाव महसूस करते हैं। किताबों के चित्र बच्चों की स्मृतियों को भी जगाते हैं, जागरूकता व संवेदनशीलता का भाव भी जगाते हैं।

चिल्ड्रेन्स बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किताबों महागिरी व प्यासी मैना में भी पढ़ने-पढ़ाने की प्रक्रिया में लाइब्रेरी सहजकर्ता द्वारा चित्रों पर ध्यान दिलाने, उन पर बात करने से पढ़ने का मज़ा कई गुना बढ़ जाता है।

पढ़ो और चित्र भी बनाओ
बच्चों के साथ किताबों पर चर्चा के उपरान्त यह गतिविधि अच्छी रहती है -- इस कहानी के आधार पर अपने मन से चित्र बनाओ। इस वजह से बच्चे तरह-तरह के चित्र बनाते हैं और किताब से जुड़े अपने अनुभव भी लिखते हैं। वहीं कुछ स्कूलों में जहाँ बच्चों का अभी किताबों से गहरा रिश्ता नहीं बना है, और उन्हें चित्र बनाने का अनुभव भी नहीं होता, वे कहते हैं, “हम चित्र नहीं बना पाएँगे, हमने नहीं बनाया है।” बच्चों को प्रोत्साहित किया जाए तो वे भी कोशिश करते हैं। इसके अन्तर्गत कुछ बच्चे किताब से देखकर चित्र बनाने का प्रयास करते हैं और कुछ किताब से चित्र छापने की कोशिश भी करते हैं।

इस सन्दर्भ में एक अनुभव याद आता है। एक स्कूल में कक्षा-2 के बच्चों को बिल्ली के बच्चे नामक कहानी की किताब सुनाई जा रही थी। तत्पश्चात, बच्चों को चित्रों के आधार पर अनुमान लगाने व अपने अनुभव बताने की बात की गई। उनका ध्यान चित्रों की तरफ दिलाया गया। पढ़ाने के बाद किताब पर चर्चा भी हुई और बच्चों से कहा गया, “अभी हमने किताब में बिल्ली के बच्चों के तरह-तरह के चित्र देखे जिसमें बच्चे आटे के डिब्बे में घुसे हुए हैं, मेंढक के पीछे भाग रहे हैं, मछली पकड़ने के लिए तालाब में कूद पड़े हैं आदि। अब इन चित्रों को सोचते हुए तुम भी एक चित्र बनाओ।” कुछ बच्चे कहने लगे, “हम नहीं बना पाएँगे।” उनसे कहा गया, “कोशिश करो, बन जाएगा।” तब बच्चों ने प्रयास किया और उन्होंने विविध मुद्राओं में बिल्ली के बच्चों के रंग-बिरंगे चित्र बनाए। इन चित्रों को देखकर शिक्षक भी अचम्भित हुए। इन रचनाओं में सभी बच्चों की बिल्लियाँ अलग-अलग तरह की थीं। किसी चित्र में बिल्ली के बच्चे मोटे थे, किसी के चित्र में पतले थे, किसी में छोटे थे। बच्चों ने तरह-तरह के रंग भी भरे थे। इन चित्रों पर शिक्षक से भी बात हुई, “देखिए, बच्चे अभी कह रहे थे कि हम नहीं बना पाएँगे और इन्होंने इतने विविधता पूर्ण चित्र बनाए हैं। दरअसल, बच्चों को मौके देने और उनकी कल्पनाशीलता को समझने की बात है।” इसी तरह एक अन्य विद्यालय में बच्चों के साथ हाथी की हिचकी नामक कहानी की किताब पर बात करते हुए भी ऐसा ही अनुभव रहा। बच्चों ने इस पुस्तक में हाथी के विभिन्न भावों को देखा, हाथी के रंग-बिरंगे चित्र बनाए और कुछ पंक्तियाँ भी लिखीं।

प्रेरित करते चित्र
स्कूल पुस्तकालय में काम करते हुए मुझे यह भी लगा कि अच्छे चित्रों से सजी किताबें बच्चों को चित्र बनाने की प्रेरणा भी देती हैं। एक स्कूल में बच्चों को तूलिका द्वारा प्रकाशित किताब पहाड़ जिसे चिड़िया से प्यार हुआ पढ़कर सुनाई गई। इस किताब को सुनने-पढ़ने और इसके चित्र देखने में बच्चों ने बहुत रुचि ली। यह कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई, आकर्षक चित्र बच्चों के सामने आते गए। इन चित्रों को देखते हुए बच्चे ‘वाओ’, ‘आहा’ आदि कहने लगते हैं। इस कहानी से प्रेरित होकर बच्चे कहानी के आधार पर चित्र बनाने की माँग करने लगे। कक्षा के चार-पाँच बच्चे तो अपना मिड-डे मील जल्दी-से पूरा करके आ गए और एक चार्ट पर उन्होंने एक बढ़िया-सी दृश्यावली के साथ चिड़िया का चित्र बनाया और उसमें बड़ी एकाग्रता से रंग भी भरे। यानी कि कई किताबें बच्चों को चित्र बनाने की प्रेरणा खुद ही दे देती हैं।

बच्चों द्वारा चित्र बनाने पर बात करें तो शिक्षकों को यह समझ नहीं आता कि चित्र बनाना बच्चों की अभिव्यक्ति से कैसे जुड़ा है, चित्र बनाने से उनमें किन क्षमताओं का विकास हो रहा है, यह आगे बच्चों के लेखन से कैसे जुड़ा है, बच्चों के भाषा विकास और कला से कैसे जुड़ा हुआ है, इनका आकलन कैसे किया जाए आदि। सबसे महत्वपूर्ण यह समझना कि यह भी पाठ्यक्रम का ही हिस्सा है।

सबका समावेश
एक स्कूल का उदाहरण याद आ रहा है। वहाँ कक्षा पाँच के बच्चों को कथा संस्था द्वारा प्रकाशित एक बजरबट्टू का गीत नामक किताब पढ़कर सुनाने की योजना बनाई गई। इस किताब में कहानी के साथ बहुत सुन्दर चित्र हैं। किताब सुनाने से पूर्व शिक्षिका कह रही थीं, “इनमें से कुछ बच्चों को पढ़ना नहीं आता। आप इनके लिए भी कुछ करिए।” वे बच्चे पीछे बैठे हुए थे तो सबसे पहले उन बच्चों को आगे बैठाया गया और यह कहा, “हम लोग जिस भी किताब पर बात करेंगे, उन पर सबसे पहले आगे बैठे हुए बच्चे अपनी बात रखेंगे। बाकी बच्चे बाद में बोलेंगे।” इस प्रक्रिया से समझ में आया कि ये बच्चे भी अच्छे-से अपनी बात रख रहे थे और अनुमान लगाकर बता रहे थे। किताब में बजरबट्टू के विभिन्न भावों के माध्यम से बच्चों से बात की गई कि बजरबट्टू क्या सोच रहा है, अभी कैसा दिख रहा है, अब कितना खुश है, फिर आगे वह कितना उदास हो गया है आदि। बच्चों ने इस किताब के चित्रों में बहुत रुचि ली।

फिर बच्चों से कहा गया, “अभी हमने किताब में सुन्दर चित्र देखे हैं। अब ऐसा करते हैं कि हम भी इस कहानी के आधार पर अपने मन से चित्र बनाते हैं।” कुछ बच्चे किताब माँगने लगे क्योंकि उन्हें पहले कभी स्वतंत्र चित्र बनाने का मौका नहीं मिला था। कुछ बच्चों को किताब देखने को दे दी और वे एक समूह में बैठकर चित्र बनाने लगे। कुछ बच्चे अपने मन से चित्र बना रहे थे। शिक्षिका से बात हुई, “आपने देखा, किताब सुनाने पर ये बच्चे भी अच्छे-से प्रतिक्रिया दे रहे हैं और चित्र बनाने में भी जुड़ सके और बीच-बीच में किताब पढ़ने की कोशिश करते रहे।” शिक्षिका कहने लगीं, “यह तो बच्चे कर लेते हैं लेकिन अभी पढ़ नहीं पाते।” मैंने कहा, “बच्चों के साथ किताब पर अच्छे-से बात करना, उनका चित्र बनाना और उन पर लिखना -- सब एक साथ जुड़ा हुआ है। इस प्रक्रिया में वे पढ़ना भी सीखेंगे। हमें इन सब बातों को समग्रता में देखना होगा और बच्चों के लिए एक अर्थपूर्ण सन्दर्भ बनाना होगा।” अभी शिक्षिका पढ़ने को केवल एक टुकड़े में ही देख रही थीं और उसी के अनुसार सोच रही थीं। उनका चित्रों पर बहुत ध्यान नहीं था।

इसी तरह, बच्चों के चित्रों में हम बहुत स्पष्टता, सुडौलता देखेंगे तो बात नहीं बनेगी। बच्चों द्वारा बनाए चित्रों को देखते हुए हमें यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि एक बच्चे ने अपने चित्र को किस तरह समझा है, चित्र में कितने डिटेल्स हैं, उसके चित्र में कल्पनाशीलता कहाँ दिखाई दे रही है, कौन-कौन-से रंग भरे हैं आदि। साथ ही, हमें बच्चों की उम्र के अनुसार उनके चित्रों के विकास के सहसम्बन्ध को भी समझने की ज़रूरत पड़ेगी।

अमूमन होता यह है कि बच्चों से चित्र बनवा लिए जाते हैं और उन्हें अच्छा कहकर एक तरफ रख दिया जाता है। बच्चों के नज़रिए को समझने की कोशिश नहीं होती। बच्चों में चित्रों के प्रति रुझान बनाने के लिए उनसे यह चर्चा करना अच्छा होता है कि किताब में उन्हें कौन-से चित्र अच्छे लगे, उनके बारे में वे बताएँ।

सांस्कृतिक व शैलीगत विविधता
बाल पुस्तकों के चित्रों को देखते हुए बच्चे अन्य संस्कृतियों से भी जुड़ते हैं। एकलव्य द्वारा प्रकाशित गाँव का बच्चा किताब पढ़ते हुए बच्चे अफ्रीकी जन जीवन को करीब से देख पाते हैं। उनके पहनावे, रहन-सहन, गाँव-बाज़ार आदि से जुड़ते हैं।
तूलिका द्वारा प्रकाशित इस्मत की ईद नामक किताब के चित्रों को देखते हुए बच्चे इस्लामिक संस्कृति, पहनावे एवं खान-पान की झलक पाते हैं। तूलिका द्वारा प्रकाशित जू की कहानी में बच्चे केरल के परिवेश को महसूस कर पाते हैं। तूलिका द्वारा ही प्रकाशित एक अन्य किताब क्यूँ-क्यूँ लड़की के चित्रों को देखते हुए बच्चे झारखण्ड के जनजातीय क्षेत्र के बारे में जान पाते हैं। इस प्रकार यह देखने में आता है कि इन किताबों के चित्र व कहानियाँ बच्चों को विभिन्न संस्कृतियों के प्रति संवेदनशील बनाती हैं। यह भी साहित्य और कला का उद्देश्य है।

चित्रों की विविधता से परिचित कराने के लिए बच्चों को विभिन्न किताबों की चित्र शैलियाँ दिखाई जा सकती हैं और उन पर बातचीत की जा सकती है जैसे कि लोककथाओं की किताबों में किस तरह के चित्र हैं, सो जा उल्लू में किस तरह के चित्र हैं, छुटकू उड़ चला में किस तरह के चित्र हैं, कजरी गाय  शृंखला की किताबों में किस तरह के चित्र हैं आदि। इसी तरह हम एक चित्रकार की शैली की बारीकियों को समझने के लिए उसके द्वारा चित्रांकित विभिन्न किताबों को भी देख सकते हैं जैसे जगदीश जोशी, अतनु रॉय, पुलक विश्वास के बनाए चित्रों में क्या खास बात है और वे प्रोइती रॉय या दुर्गाबाई के बनाए चित्रों से किस तरह फर्क हैं।

कुछ शिक्षकों ने अपने अनुभव के आधार पर बताया कि जहाँ बच्चों को चित्र बनाने के मौके मिलते हैं, उन्हें लिखने में भी आसानी हो जाती है। मसलन, लिखने की शुरुआत में बच्चों से कई ज्यामितीय आकृतियाँ -- गोला, आधा गोला, आड़ी-तिरछी लाइन आदि बनवाई जाती हैं। इसी तरह जब हम बच्चों को किताब पढ़कर सुनाते हैं और चित्र बनाने का मौका देते हैं तो बच्चे आगे चलकर धीरे-धीरे शब्द एवं अक्षर बनाना भी सीख जाते हैं। अपना नाम भी लिखते हैं और बाद में चित्र में क्या बनाया है, उसे भी लिखते हैं। इस प्रकार इस प्रक्रिया में बच्चे लिखना भी सीखते हैं।

इन किताबों पर काम करते हुए सबसे महत्वपूर्ण बात यह उभरकर आती है कि स्कूल में शिक्षक साथी भी इन किताबों व चित्रों की अहमियत समझें और इसे बच्चों के भाषा व कला के विकास से जोड़कर देख पाएँ। सबसे पहला काम यह होगा कि वे इन किताबों को पढ़ने, उनके चित्रों को देखने की आदत डालें। आखिरकार, किताब के चित्र भी अच्छे-खासे टीचिंग लर्निंग मटेरियल (टीएलएम) साबित हो रहे हैं।


कमलेश चन्द्र जोशी: प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र से लम्बे समय से जुड़े हैं। इन दिनों अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, ऊधमसिंह नगर में कार्यरत।