अवनीश शुक्ला

आम  तौर  पर  जब  हम  छाया के बारे में सोचते हैं या हमसे इस बारे में पूछा जाता है तो हमारे मन में स्याह रंग की एक छवि उभरती है। ‘छाया और उसके रंग’ पर छात्रों का विचार जानने के लिए मैंने 6वीं, 7वीं और 8वीं कक्षा के छात्रों से बातचीत की। विचार-विमर्श शुरू करने से पहले वातावरण को सहज और सीखने के योग्य बनाने के लिए मैंने बच्चों के नाम एवं वर्ग के बारे में पूछा। साथ ही, उनकी रुचियों के बारे में भी पता किया। अधिकांश छात्रों ने मिलते-जुलते उत्तर दिए कि उन्हें पढ़ना-लिखना पसन्द है। केवल कुछ की ही प्रतिक्रिया अलग थी। 10-15 मिनट के बाद मैंने पूछा कि क्या उन्होंने छाया या परछाई देखी है। केवल कुछ छात्रों ने ही हाथ उठाए, तब मैंने अपने सवाल को बदलकर पूछा, “जब भी आप धूप में खड़े होते हैं तो क्या देखते हैं?” सबने कहा, “छाया।”

मैंने कुछ और सवाल पूछकर छाया के बारे में बातों का सिलसिला आगे बढ़ाया। छाया क्या है? छाया कब और कैसे बनती है? छाया बनने की ज़रूरी परिस्थितियाँ क्या हैं? छाया का रूप और आकार क्या होगा? क्या छाया के रूप और आकार बदलते रहते हैं?

छात्रों की प्रतिक्रियाएँ कुछ इस प्रकार थीं -
“जब भी हम धूप में खड़े होते हैं, हमारी छाया बनती है। किसी भी चीज़ के पीछे बने काले क्षेत्र को छाया कहते हैं। प्रकाश का कोई स्रोेत जैसे कि सूरज, मोमबत्ती, आग, बल्ब, ट्यूब लाइट, टॉर्च, दीया इत्यादि छाया बनने के लिए ज़रूरी है।”
“कोई वस्तु जैसे कि कुर्सी, मेज़, वृक्ष, आदमी, किताब इत्यादि भी छाया बनने के लिए आवश्यक हैं।”

छात्रों की प्रतिक्रिया जानने के बाद हमने टॉर्च के प्रकाश का उपयोग कर विभिन्न वस्तुओं जैसे कि कलम, कार्ड, बॉक्स, कुर्सी, मेज़, गिलास आदि की छाया का अवलोकन किया। तत्पश्चात मैंने छात्रों से फिर प्रतिक्रियाएँ लीं जोइस प्रकार थीं।
“प्रकाश का स्रोत और वस्तु, छाया बनने के लिए आवश्यक हैं। अलग-अलग वस्तुओं की अलग-अलग तरह की छाया बनेंगी।”
“छाया के रूप और आकार अलग वस्तुओं के लिए अलग-अलग होंगे।”
“छाया  के  रूप  और  आकार सुनिश्चित नहीं होते। प्रकाश के स्रोत और वस्तु के बीच दूरी बदलने से ये बदल जाते हैं।”

क्या छाया का रंग भी होता है?
छाया की बुनियादी समझ स्थापित करने के बाद मैंने पूछा, “छाया का रंग क्या होगा?” बिना कोई समय लिए लगभग सभी छात्रों ने जवाब दिया, “छाया का रंग तो काला ही होता है। छाया तो मिट्टी या बालू के रंग की होती है। काले और भूरे का मिश्रण होता है।”
मैंने पूछा, “क्या रंगीन छाया का अस्तित्व है?” पूरे वर्ग में चुप्पी पसर गई, सभी छात्र उलझन-ग्रस्त हो गए। फिर मैंने पूछा, “हम रंगीन छाया बना सकते हैं या नहीं?” उन्होंने जवाब दिया, “नहीं, यह असम्भव है। छाया हमेशा काली होती है।” तब मैंने पूछा, “क्या कभी आपने रंगीन छाया देखी है?” उन्होंने फिर ‘ना’ में जवाब दिया।

मैंने उन्हें एक संकेत दिया, “क्या होगा अगर हम श्वेत प्रकाश-स्रोत के बदले रंगीन प्रकाश-स्रोेत का प्रयोग करें?”
छात्रों ने जवाब दिया, “रंगीन प्रकाश-स्रोेत उपयोग करने पर भी छाया काली होती है।” “टेलीविज़न में हमने देखा है कि जब हरे रंग के प्रकाश का उपयोग होता है तो छाया हरी होती है, जब नीले प्रकाश का उपयोग होता है तो छाया नीली बनती है।” किसी ने कहा, “हमने श्वेत प्रकाश-स्रोेत के ज़रिए ही किसी वस्तु की छाया देखी है।”

जब किसी ने कहा कि “हम टेलीविज़न में देखते हैं कि नीले और हरे प्रकाश-स्रोेत से नीली और हरी छाया बनती है” तो कुछ छात्र उलझनग्रस्त हो गए और उन्होंने इस बात की आलोचना की। उनका कहना था, “यह असम्भव है, हमने रंगीन प्रकाश-स्रोतों से बनने वाली छाया भी देखी है लेकिन वह भी काली थी।” वर्ग में उलझन फैली थी; कुछ छात्र छाया के काले रंग के ही पक्ष में थे, कुछ रंगीन भी हो सकने के पक्ष में।

तभी कक्षा के आखिरी हिस्से से किसी ने हल्की आवाज़ में कहा, “हम ऐसे ही किसी की बात से सहमत नहीं हो सकते क्योंकि विज्ञान कहता है कि निरीक्षण करो और उस आधार पर प्राप्त निष्कर्षों पर भरोसा करो। विज्ञान कहता है ‘क्या-क्यों और कैसे?’ ” यह आवाज़ मेरे लिए चकित करने वाली थी। मुझे महसूस हुआ कि छात्रों को विज्ञान की प्रकृति के बारे में भी कुछ समझ है। मैंने उस छात्र की सराहना की और इस बात पर ज़ोर दिया कि हमें किसी चीज़ को बिना तथ्य या प्रमाण के नहीं मानना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो निरीक्षण कर, खुद करके और अनुसंधान से प्राप्त निष्कर्ष के आधार पर विश्वास करना चाहिए। यह भी हो सकता है कि कोई चीज़ आज सही हो और कुछ समय बाद गलत हो जाए। मज़बूत तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर पुराना ज्ञान बदल सकता है। मेरे इस विचार-विमर्श का लक्ष्य विज्ञान की परिवर्तनशील प्रकृति को समझाना था।

चूँकि शिक्षकगण भी रंगीन छाया को लेकर मुश्किल में थे, इसलिए गतिविधि शुरू करने से पहले मैंने छात्रों से कहा कि वे शिक्षकों को भी बुला  लाएँ। यह  सुखद  था  कि शिक्षकगण  भी  रंगीन  छाया  की अवधारणा को समझने के लिए उत्सुक थे। मैंने छात्रों को दो समूहों में विभक्त किया, यह सुनिश्चित करते हुए कि दोनों समूह में सभी वर्गों के छात्र हों। उसके बाद मैंने गतिविधि के विभिन्न कदमों को प्रदर्शित किया।

  • पहला - श्वेत प्रकाश-स्रोत, वस्तु, पर्दा एवं निरीक्षण।
  • दूसरा - रंगीन प्रकाश-स्रोत, वस्तु, पर्दा, फिर निरीक्षण।
  • तीसरा - एक श्वेत और एक रंगीन प्रकाश-स्रोत,  वस्तु,  पर्दा,  फिर निरीक्षण।
  • चौथा- दो रंगीन प्रकाश-स्रोत, वस्तु, पर्दा एवं निरीक्षण।
  • पाँचवाँ - प्रकाश के स्रोत एवं वस्तु के बीच की दूरी को बढ़ाना एंव घटाना।

सभी समूहों के सदस्यों ने तो गतिविधि संचालन एवं निरीक्षण किया ही, अन्य छात्र भी इस प्रयोग में शामिल हुए। जब उन्होंने दो रंगीन प्रकाश के स्रोतों (नीला एवं लाल) का उपयोग, टॉर्च को नीले एवं लाल सेलोफेन पेपर से ढँककर किया तो रंगीन छाया बनी। वे चकित थे और उनके बीच खुशी की एक लहर दौड़ गई। यह उनके लिए अवधारणात्मक परिवर्तन का क्षण था क्योंकि अब तक वे मानते थे कि छाया का रंग काला होता है, रंगीन छाया असम्भव है। लेकिन नीले या हरे प्रकाश-स्रोत का उपयोग होने पर हमने नीली और हरी छाया देखी।

इस गतिविधि से बनी समझ को छात्रों ने यूँ साझा किया, “जब हम एक श्वेत प्रकाश-स्रोत का उपयोग करते हैं तो काली छाया पाते हैं।”
“जब हम हरे या नीले प्रकाश-स्रोत का उपयोग करते हैं तो छाया भी नीली या हरी होती है।”
“छाया की संख्या प्रकाश-स्रोतों की संख्या पर निर्भर करती है।”
“छाया का रंग प्रकाश-स्रोत के रंग पर निर्भर करता है।”
“भिन्न-भिन्न वस्तुओं की भिन्न-भिन्न छाया बनती है।”
“जैसे-जैसे प्रकाश-स्रोत और वस्तु के बीच की दूरी बदलती है, वैसे-वैसे छाया का आकार भी बदलता है।”


अवनीश शुक्ला: विज्ञान शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए पिछले पाँच वर्षों से अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, बारकोट, उत्तराकाशी में कार्यरत हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: मनोज कुमार झा: विज्ञान में स्नातकोत्तर। दो कविता संग्रह और कई साहित्यिक अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित होते रहे हैं। दरभंगा, बिहार में रहते हैं।