मोहम्मद उमर

मैं राजस्थान  के  राजसमन्द  ज़िले में काम करता हूँ। एक दिन एक सरकारी स्कूल में तीसरी कक्षा के बच्चों के साथ बातचीत कर रहा था। कक्षा की दीवार पर कुछ रंगीन चित्र बने थे, कुछ प्रसिद्ध कहानियों को चित्रों द्वारा दर्शाया गया था। मैंने बच्चों से पूछा कि क्या वे इन कहानियों को जानते हैं। ज़्यादातर ने ‘हाँ’ में अपनी गर्दन हिलाई। मैंने एक चित्र की तरफ इशारा कर राजेश नाम के लड़के से वही कहानी सुनाने को कहा।

“एक कछुआ था...,” इतना कहकर राजेश रुक गया। कुछ क्षण रुकने के बाद वह फिर बोला, “कछुए का दोस्त एक खरगोश था।” राजेश अपने भावविहीन चेहरे और आवाज़ के साथ दीवार पर बने चित्र को देखकर कहानी सुना रहा था। यह काम वह दीवार पर बने चित्र को देखकर कर रहा था या अपनी पुस्तक में पढ़ी गई इसी कहानी के वाक्यों को याद करते हुए, यह कह पाना मुश्किल था। दीवार पर बने चित्रों को देखकर इस कहानी की घटनाओं की क्रमिकता में राजेश ने कोई बड़ी गड़बड़ नहीं की थी। राजेश का इतने नीरस ढंग से कहानी कहना चिन्ता की बात थी, लेकिन मेरी ज़्यादा जिज्ञासा इस बात में थी कि राजेश दो वाक्यों को बयान करने के दरम्यान इतना लम्बा विराम क्यों ले रहा है। यदि उसे कहानी याद है तो उसे जल्दी आगे बढ़ जाना चाहिए।

“अपनी हिन्दी की किताब से देखकर कोई कहानी पढ़ोगे?” मैंने राजेश से पूछा। राजेश तैयार हो गया। बाकी बच्चों को भी किताब निकालने को कहा, ताकि वे राजेश के साथ-साथ पढ़ सकें। इस बार राजेश ने जैसे ही पहला वाक्य पढ़कर विराम लिया तो अन्य बच्चे भी वही वाक्य दोहराने लगे। राजेश अगला वाक्य पढ़ता और चुप हो जाता। बाकी बच्चे भी उस वाक्य को दोहराते।

राजेश द्वारा कहानी सुनाते हुए दो वाक्यों के बीच लम्बा विराम लेने का राज़ अब मुझे समझ में आ गया था। उसकी कक्षा में पुस्तक पढ़ने की यही परम्परा है। एक बच्चा सबसे आगे खड़े होकर तेज़ आवाज़ में पुस्तक का पाठ पढ़ेगा और कक्षा के अन्य बच्चे उसके पीछे-पीछे वाक्य दोहराएँगे। राजेश द्वारा लिया जाने वाला विराम अन्य बच्चों की तरफ से आने वाली इसी कोरस ध्वनि के लिए था। इसमें राजेश और उसके साथियों से ज़्यादा ज़िम्मेदारी उनके शिक्षकों की है, जिन्होंने बच्चों को इस तरह से पढ़ने का आदि बना दिया है। किसी कक्षा में बच्चों के बीच कुछ समय बिताते ही हम यह जान सकते हैं कि समस्या कितनी व्यापक है।

अपनी पुस्तक बच्चे की भाषा और अध्यापक में कृष्ण कुमार कहते हैं कि ‘भाषा संसार के प्रत्येक बच्चे के दृष्टिकोण, रुचियों, क्षमताओं, मूल्यों और मनोवृत्तियों को आकार देती है। भाषा सम्प्रेषण का साधन होने के साथ ही सोचने, महसूस करने और चीज़ों से जुड़ने का साधन भी है।’ राजेश और उसकी कक्षा के अन्य बच्चों के साथ बात करके लगा कि वे जैसे-तैसे बस पढ़ना सीख पा रहे हैं। रुचि, मूल्य या मनोवृति जैसा मुझे कुछ भी तो देखने को नहीं मिला यहाँ। भाषा शिक्षण में स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति, दोनों महत्वपूर्ण हैं। बिना इसके हम स्वतंत्र रूप से सोचने-समझने और तर्क करने वाले नागरिकों को तैयार ही नहीं कर सकते हैं।

समाधान के तरीके खोजना
मैं और मेरे साथी शिक्षकों के साथ काम करते हैं। हमने तय किया कि इस मुद्दे को लेकर हम शिक्षकों के बीच जाएँगे। उनसे बात करेंगे और इस समस्या से मिलकर लड़ने के रास्ते खोजेंगे। हम यह भी चाहते थे कि यह मुद्दा अन्य विषयों के शिक्षकों के लिए भी चिन्ता का विषय बने। वे भी अपनी कक्षाओं में ऐसे अवसर तैयार करें जहाँ बच्चों को अपनी बात कहने, दूसरों की बात सुनने और एक साथ मिलकर सोचने के मौके हों। इसके लिए यह ज़रूरी था कि हमारा काम किसी एक विषय के दायरे में ही सीमित न रहे।

क्या किया जाए? इस प्रश्न पर विचार करते हुए हमारा ध्यान रोचक ढंग से कहानी कहने की एक प्राचीन परम्परा ‘किस्सागोई’ पर गया। कहते हैं कि पुराने ज़माने में राजाओं-बादशाहों के दरबार में एक किस्सागो हुआ करता था जो अपने किस्सों, कहानियों और चुटकुलों से लोगों का मनोरंजन किया करता था।
इसके अलावा यदि अपने बचपन को भी याद करें तो हम पाएँगे कि परिवार के बड़े-बूढ़ों में से या फिर गाँव में कोई अन्य ऐसा ज़रूर मिला होगा  जो  बहुत  मज़ेदार  ढंग  से कहानियाँ सुनाता था। कहानियाँ कहने का यह ढँग बच्चों को देर तक बाँधे रखता था। आज के तकनीकी युग में यह सब बहुत कम हो गया है।

खैर, हम लोगों ने तय किया कि स्कूल में जाकर बच्चों और शिक्षकों के बीच इसी तरह का काम करेंगे। बच्चों के लिए लिखी गई चित्र कथाओं और कहानियों की कुछ किताबों को हम सबने उलट-पलटकर देखा। कहानियाँ तो बहुत अच्छी थीं, पर उन्हें कहने का ढँग हमारे पास भी नहीं था। आखिर हम सब भी तो ऐसे ही परम्परागत स्कूलों से ही पढ़कर आए हैं, जहाँ एक बच्चा पाठ पढ़ता जाता है और बाकी लोग उन्हीं लाइनों पर उंगलियाँ सरकाते जाते हैं।

किस्सागोई की तैयारी
राजस्थान बहुत-सी रंग-बिरंगी साँस्कृतिक धरोहरों से भरा पूरा प्रदेश है। तरह-तरह की कठपुतलियों का उपयोग करके रोचक ढँग से गीत-कहानी कहने की बड़ी ही समृद्ध परम्पराएँ हैं यहाँ पर। काफी विचार विमर्श के बाद तय किया गया कि हम भी कठपुतलियों का इस्तेमाल करके कहानियाँ सुनाएँगे। परदे के पीछे से हम कठपुतलियों का संचालन करने के साथ-साथ संवाद भी बोलेंगे।

रंगमंच एक ऐसी कला है जहाँ अभिनेता सीधे-सीधे दर्शकों के साथ आँख में आँख डालकर अपने संवाद बोलते हुए अभिनय करता है। नए अभिनेताओं को सबसे ज़्यादा संकोच इसी दौरान महसूस होता है। योजना के अनुसार हमें सीधे दर्शकों के सामने जाने की ज़रूरत नहीं थी। बस परदे के पीछे से संवाद बोलते हुए अपनी-अपनी कठपुतली का संचालन करना था। इस तरह हमारी टीम के जो साथी प्रत्यक्ष रूप से बच्चों के सामने आकर हाव-भाव से संवाद बोलने, अभिनय करने आदि में संकोच महसूस कर रहे थे, उन्होंने भी राहत की साँस ली। इस सबके बावजूद हम 3-4 लोग ही यह सब करने की हिम्मत जुटा सके।

अब आगे सवाल यह था कि क्या करेंगे, कैसे करेंगे। हम सभी किसी छोटी और रोचक कहानी से शुरुआत करना  चाहते  थे।  सबने  अपनी मनपसन्द कहानियों को संक्षेप में सुनाया। कुछ लम्बी थीं और कुछ में पात्र ज़्यादा थे। कुछ ऐसी भी थीं जिनको कठपुतलियों से प्रदर्शित करने में बहुत चुनौती आती। हम सब आपस में मिलकर अगले दो-तीन दिन तक कहानियों की खोजबीन करते रहे।

मेरे पास एकलव्य संस्थान द्वारा प्रकाशित उड़ान नामक पत्रिका की एक प्रति रखी थी। यह पत्रिका बाल समूह कार्यक्रम के अन्तर्गत की जाने वाली गतिविधियों पर आधारित होती थी। इसमें मुख्यत: बच्चों तथा युवाओं द्वारा रचित चित्र, कविता तथा कहानी आदि को प्रकाशित किया जाता था। यह एक नाटक विषेशांक था। बाल समूह के साथियों ने ‘सद्गति’ नामक नाटक तैयार करके आसपास के गावों में प्रदर्शित किया था। उड़ान में इसी नाटक की रिपोर्ट और कुछ तस्वीरों को प्रकाशित किया गया था। साथ ही एक कठपुतली नाटक छुटकी मुर्गी की मेहनत की पटकथा तथा कठपुतली बनाने का तरीका भी प्रकाशित था।

टीम के सभी साथियों ने नाटक छुटकी मुर्गी की मेहनत को पढ़ा। तय हुआ कि अपने किस्सागोई कार्यक्रम का आगाज़ हम लोग इसी नाटक से करेंगे। अगले दो-तीन दिन तक हम लोगों ने आपस में मिलकर इस कहानी के सभी पात्र तैयार किए। एक साथी की चित्रकारी बहुत अच्छी थी। उनकी मदद लेकर सुन्दर और रंगीन चित्र तैयार किए गए। हमारे एक साथी ने कठपुतली तैयार करने का एक आसान रास्ता खोज लिया था। उन्हें इन्टरनेट से जानवरों और पक्षियों के चित्रों के सरल आरेख मिल गए। इस आरेख में नाक, मुँह और आँख बनाकर रंग भरना होता है। इस तरह कुछ देर में ही अपनी मनपसन्द कठपुतली तैयार की जा सकती है।

हम सभी ने रंग तथा अन्य साज-सज्जा करके कहानी के सभी पात्रों को तैयार कर लिया। प्रत्येक पात्र को लकड़ी की छड़ पर चिपकाया गया। इसी तरह पेड़ और खेत के लिए भी कठपुतली तैयार की गई। अन्त में इन सभी कठपुतलियों को धूप में सूखने के लिए रख दिया गया।

अगले दिन अपने-अपने पात्रों की कठपुतलियाँ हाथ में लेकर हम सभी ने चार-छह बार रिहर्सल की। एक साथ गाते हुए सुर-ताल मिलाने का अभ्यास भी किया गया। शुरू-शु डिग्री में तो बहुत चुनौती महसूस हुई। संवाद कुछ बोले जाते और कठपुतली कोई और आ जाती थी। कुछ प्रयासों के बाद हम लोग आपसी तालमेल बैठा पाए। नाटक की रिहर्सल के दौरान इस मुद्दे पर भी बात की गई कि स्कूल में यह नाटक दिखाने के बाद हम बच्चों के साथ किस तरह के मुद्दों पर बात करेंगे। यह भी तय किया गया कि बच्चों से कहा जाएगा कि वे भी इन्हीं कठपुतलियों का उपयोग कर नाटक करें।

अगले दिन हम पाँच साथी अपनी पूरी तैयारी के साथ पास के एक सरकारी स्कूल की ओर निकल पड़े। यहाँ के शिक्षकों ने एक बड़े हॉल में दो चादरों को आपस में जोड़कर परदा तैयार कर दिया। इस परदे के पीछे खड़े होकर हमें अपना कठपुतली नाटक प्रस्तुत करना था। परदे के उस ओर तकरीबन 250 बच्चे बैठे थे। सामने की कुर्सियों पर इस स्कूल के सभी शिक्षक तथा शिक्षिकाएँ भी बैठ गए। बच्चों में ज़बर्दस्त उत्साह और जिज्ञासा थी। सभी से शान्ति बनाए रखने और ध्यान से देखने के आग्रह के साथ नाटक शुरू किया गया।

किस्सागोई की शुरुआत
कहानी का सन्दर्भ कुछ इस प्रकार था कि छुटकी नाम की मुरगी अपने खेत में गेंहूँ बोना चाहती थी। मदद के लिए वह अपने दोस्तों - टिल्लू सूअर, नीलू बिल्ली और मीकू चूहे - के पास बारी-बारी से जाती है। तीनों दोस्तों ने कोई-न-कोई बहाना बनाकर छुटकी मुरगी की मदद नहीं की। मुरगी फसल की बोआई का सारा काम अकेले करती है। फसल तैयार होने पर भी वह एक बार फिर सबको कटाई करने के लिए बुलाती है। इस बार भी उसके दोस्त बहानेबाज़ी करके उसका साथ नहीं देते हैं। अन्तत: छुटकी को अकेले ही अपनी फसल काटनी पड़ती है। अन्तिम दृश्य में छुटकी इसी गेंहूँ के आटे से अपने लिए रोटी बनाती है। गरम रोटियों की खुशबू सूँघकर छुटकी के सारे दोस्त रोटी माँगने आ धमकते हैं। छुटकी नाराज़ होकर सभी को फटकार लगाती है। वह किसी को रोटी नहीं देती है।

सूत्रधार कठपुतली की लम्बी मूछों और उसके संवादों को सुन बच्चों को बहुत मज़ा आया। नीलू बिल्ली की मियाउँ-मियाउँ और मीकू चूहे की चीं-चीं सुनकर सब खूब हँसे। टिल्लू सूअर का संवाद - अरी छुटकी देख कितनी तेज़ गर्मी पड़ रही है। मुझे तो कीचड़ में लोटने में बहुत मज़ा आ रहा है - सुनकर ठहाके लगने लगे। नाटक के अन्त में सभी बच्चों ने ज़ोरदार तालियाँ बजाईं। हम सभी साथियों ने अपने पात्रों को प्रस्तुत करते हुए अपनी आवाज़ को बदल लिया था। परदे से बाहर आकर बच्चों से पूछा गया कि हममें से कौन क्या बना था। बच्चों ने सभी की सही पहचान कर ली थी।

बच्चों के साथ संवाद
“क्या छुटकी मुरगी ने अपने दोस्तों को रोटी न देकर सही किया? तुम छुटकी मुरगी की जगह होते तो क्या करते?” सभी बच्चों से यह प्रश्न किया गया। एक लड़के ने बताया, “छुटकी के दोस्तों ने ज़रूरत पड़ने पर उसकी मदद नहीं की थी। इसलिए छुटकी ने भी उन्हें रोटी नहीं देकर बिलकुल ठीक किया।” वहाँ बैठे ज़्यादातर बच्चों का भी यही मानना था कि छुटकी मुरगी ने बिलकुल सही किया। सिर्फ एक लड़की का कहना था, “छुटकी को अपने भूखे दोस्तों को भी थोड़ी रोटी देना चाहिए थी।”

“ऐसा क्यों?” इस लड़की से कारण जानने का प्रयास किया गया। लड़की का उत्तर था, “रोटी खाने के बाद उसके दोस्तों के मन में पछतावा होता। वे सोचते कि उन्होंने ज़रूरत के समय छुटकी मुरगी की मदद नहीं की, लेकिन छुटकी फिर भी उनसे मिल-बाँटकर खा रही है। इस तरह वे आगे मदद करने के लिए तैयार रहते।” बच्चों का बहुसंख्यक समूह जो इस लड़की के विचार से सहमत नहीं था, वह लगातार कहता रहा कि ऐसा करना ठीक नहीं है। उनकी राय में आलसी दोस्तों को सबक सिखाना ज़रूरी था।

फसलें कितने प्रकार की होती हैं? गेंहूँ की फसल तैयार होने में कितना समय लगता है? इन सवालों पर चर्चा के दौरान बच्चों के साथ उनके शिक्षक भी सक्रिय हो गए। एक शिक्षक ने बताया कि फसलें तीन प्रकार की होती हैं - रबी, खरीफ और जायद। उन्होंने बच्चों से इन फसलों के नाम भी पूछे। इसी तरह रोटियों के बराबर हिस्से करने को आधार बनाकर आधा, तिहाई और तीन-चौथाई की मात्रा बताने और उन्हें भिन्न संख्या के रूप में लिखकर दिखाने को कहा गया। इस चर्चा में पास बैठी गणित शिक्षिका को एहसास हो गया कि आठवीं कक्षा में पढ़ रहे बच्चे भी उनके द्वारा पढ़ाई गई भिन्न संख्याओं की मात्रा को नहीं समझ सके हैं। वे बीच-बीच में कहती रहीं, “अभी कुछ दिन पहले ही तो पढ़ाया था तुम लोगों को। इतनी जल्दी भूल गए।”

अब बच्चों को इसी कहानी में इस्तेमाल हुए कुछ शब्दों का उपयोग करके अपने मन से वाक्य बनाने को कहा गया। बच्चों ने जिगरी दोस्त, स्वार्थी, मेहनत, बहानेबाज़ी आदि शब्दों से कई तरह के वाक्य बनाए। बच्चों को सफलतापूर्वक वाक्य बनाता देख उनके हिन्दी शिक्षक ने भी अच्छा महसूस किया।

अब बच्चों की बारी
बच्चों के साथ कुछ देर बातचीत करने के बाद उन्हें कठपुतली बनाने के तरीके के बारे में बताया गया। साथ ही, यह कहा गया कि वे अपने स्कूल की किताब से किसी अच्छी कहानी का चयन कर उस पर कठपुतली नाटक तैयार करें और अपने गाँव के लोगों के बीच प्रदर्शन करें।
प्रधानाध्यापकजी  ने  बच्चों  को सम्बोधित करते हुए कहा कि गाँव में अन्धविश्वास एक बड़ी समस्या है। तबियत खराब होने पर लोग डॉॅक्टर के पास न जाकर आसपास के भोपाजी से झाड़-फूँक कराते हैं। सही समय पर सही इलाज न मिलने से कई लोगों की मौत हो चुकी है। उन्होंने आठवीं में पढ़ रहे बच्चों से इस मुद्दे पर नाटक तैयार करने को कहा।

हमारी टीम के साथियों ने कुछ बच्चों को आमंत्रित कर यही नाटक प्रस्तुत करने को कहा। छठवीं से आठवीं कक्षा में पढ़ रहे कुछ बच्चे नाटक तैयार करने को राज़ी हुए। उन्हें रिहर्सल करने का समय दिया गया। सभी साथियों ने तैयारी में उनकी मदद की। नाटक देखने के बाद बच्चों को सभी पात्रों के संवाद और घटनाक्रम अच्छे से याद हो गए थे।

बच्चे अपने घर-परिवार के लोगों से तथा आपस में बात करते हुए मेवाड़ी बोली का उपयोग करते हैं। अत: संवादों को हिन्दी में बोलने के दौरान उन्हें चुनौती आ रही थी। अपेक्षा थी कि वे संवादों को खुलकर बोलें, लेकिन वे रटने का प्रयास कर रहे थे। इसलिए सभी बच्चों को अपने संवाद मेवाड़ी में बोलने को कहा गया। एक लड़के ने जैसे ही अपना संवाद मेवाड़ी में बोलने का प्रयास किया तो सभी बच्चे हँसने लगे। अपनी बोली को औपचारिक रूप से कक्षा में उपयोग करने का यह अनुभव उनके लिए शायद नया था। हममें से जो लोग मेवाड़ी जानते थे, उन्होंने भी मेवाड़ी में ही अपनी बात कही। इस तरह कुछ देर हँसी-ठट्ठा हुआ, लेकिन फिर सब सहज हो गए। अपने एक लेख में मशहूर भाषाविद तथा शिक्षक रमाकांत अग्निहोत्री कहते हैं कि ‘किसी कक्षा में मौजूद बच्चों के बीच बोली जाने वाली विभिन्न भाषाएँ तथा बोलियाँ एक बहुमूल्य संसाधन हैं। एक शिक्षक को अपनी कक्षा में उपलब्ध इस बहुमूल्य संसाधन को सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के लिए इस्तेमाल करना चाहिए’।

खैर, थोड़ी देर की तैयारी के बाद एक बार फिर छुटकी मुरगी हाज़िर थी। अपने तीनों दोस्तों और सूत्रधार के साथ। मेवाड़ी बोली में मुरगी को कुक्कड़ो, सूअर को गढूरो और चूहे को उंदरो कहते हैं। इन स्थानीय शब्दों के उपयोग से बच्चों का आपसी संवाद और भी मज़ेदार और जीवन्त हो गया था। पूरा कक्ष ज़ोरदार ठहाकों से गूँज रहा था। पहली दूसरी कक्षा में पढ़ने वाले छोटे बच्चों को और भी ज़्यादा आनन्द आ रहा था। वे उठकर परदे के पीछे झाँकते और अपने स्कूल के बड़े बच्चों को यह संवाद बोलते देख और भी खुश होते। इस बार टिल्लू सूअर ने यह कहकर सभी को और भी ज़्यादा हँसाया कि - घणो तावड़ो पड़ रयो, म्हारो तो मुण्डा घूम रयो।

अपनी इस पहली प्रस्तुति के बाद से अब तक हमारी टीम के साथियों ने पीछे मुड़कर नहीं देखा है। राजसमन्द ज़िले के कई सरकारी स्कूलों में छुटकी मुरगी अपनी गेंहूँ की फसल काट चुकी है। इसके अलावा तीन और कहानियों के कठपुतली नाटक तैयार किए जा चुके हैं। विभिन्न ब्लॉकों में कार्यरत हमारे साथी इन नाटकों के सहारे भाषा, पर्यावरण और गणित शिक्षण के व्यापक उद्देश्यों की तरफ शिक्षक साथियों का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। कई प्रधानाचार्यों ने स्वयं पहल कर इन नाटकों का आयोजन अपने स्कूलों में करवाया है।

देवगढ़ ब्लॉक की कुछ महिला शिक्षिकाओं ने किस्सागोई की इस विद्या का उपयोग कर मीना मंच और किशोरी मेला जैसे कार्यक्रमों में भागीदारी की है। देवगढ़ नगर में हुए एक नाट्य समारोह में भी इन्हीं शिक्षिकाओं ने कठपुतलियों का उपयोग करते हुए अपनी प्रस्तुति दी थी। बच्चों के साथ शिक्षकों ने भी उत्साह से सहभागिता की। शिक्षकों तथा कुछ बड़े बच्चों के साथ दो बार एक-दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। पहली कार्यशाला में सभी ने कहानी से नाटक बनाना और कठपुतलियों की मदद से नाटक का प्रस्तुतिकरण सीखा। दूसरी कार्यशाला में इन्हीं लोगों को कठपुतली बनाने का प्रशिक्षण दिया और सभी ने मिलकर कहानी के पात्रों को तैयार किया व नाटक का प्रस्तुतिकरण किया।

पिछले  कुछ  महीनों  के  दौरान राजसमन्द ज़िले में कार्यरत कई शिक्षक- शिक्षिकाओं ने अपनी कक्षाओं में बच्चों द्वारा प्रस्तुत किए जा रहे कठपुतली नाटकों की तस्वीरें वॉट्सएप द्वारा भेजी हैं। अपने हाथों में कठपुतलियाँ थामे प्रस्तुति दे रहे बच्चों और दर्शक के रूप में बैठे बच्चों के चेहरों पर उत्साह और आनन्द का भाव साफ पढ़ा जा सकता है। अपने हाथों से कठपुतलियों का निर्माण तथा उनका उपयोग करते हुए किस्सागोई का यह सफर जारी है। ये एक सुखद संयोग है कि आज 21 मार्च ‘विश्व कठपुतली दिवस’ के अवसर पर मैं अपने इस लेख को पूरा कर रहा हूँ।


मोहम्मद उमर: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, राजसमन्द, राजस्थान में कार्यरत हैं। गणित अध्ययन एवं शिक्षण में विशेष रुचि।
सभी फोटो: मोहम्मद उमर।