अनुराधा अनन्या
पुस्तक समीक्षा
क्यों-क्यों-क्यों लड़की कहानी महाश्वेता देवी ने लिखी है और सुषमा द्वारा अनुवादित है। इस कहानी को किताब की शक्ल में बी.जी.वी.एस. और तूलिका ने प्रकाशित किया है।
तूलिका और बीजीवीएस द्वारा प्रकाशित किताबों में बहुत फर्क है। बी.जी.वी.एस. की तुलना में तूलिका द्वारा प्रकाशित किताब का चित्रांकन और बुक डिज़ाइन बेहतर है, क्योंकि इसमें विवरण काफी है और हर पेज पर कुछ खास तरह के संवाद और जानकारियों को एक खास स्टाइल दिया गया है। जैसे पहले ही पन्ने पर पक्षी की चोंच में चिट्ठी दिखाई देती है जिसमें लेखक के बारे में जानकारी दी गई है। आड़ी-तिरछी पंक्तियों में कुछ संवाद हैं जिन पर एकदम से नज़र जाती है जो अपने आप में बच्चों के बीच एक विमर्श की परत खोलता है, जैसे - मैं उनकी जूठन क्यों खाऊँ।
तूलिका द्वारा प्रकाशित किताब के चित्रों में मोयना और उसकी पृष्ठभूमि को समझने में आसानी होती है। एक नाटक जैसी गतिविधि में बच्चों को दृश्य बनाने और समझाने में मदद मिलती है।
मोयना का चरित्र बहुत कम किताबों और कहानियाँ में देखने को मिलता है जिसमें इस तरह के वंचित तबके की लड़कियाँ नायिका के रूप में सामने आती हैं। इस तरह के परिपक्व सवाल करने वाली लड़कियाँ तो किताबों में बिलकुल भी नज़र नहीं आतीं क्योंकि अक्सर समाज में जहाँ उच्च वर्ग की लड़कियों को चुप रहने की ही हिदायतें दी जाती हैं, वहाँ सवाल करना तो बहुत दूर की बात है। लेकिन मोयना एक वंचित तबके से होते भी हुए बहुत अहम सवाल उठाती है। इस तरह मोयना का प्रतिनिधि-चरित्र के रूप में सामने आना बहुत-सी लैंगिक-जातीय और वर्ग के आधार पर बनाई हुई बन्दिशों को तोड़ता है।
इस तरह की कहानी बच्चों में सवाल पूछने जैसी प्रवृत्ति को बहुत सहजता से स्थापित करती है। और लड़कियों की बनी-बनाई छवि से बाहर निकलकर एक नया आत्मविशवास बनाती है।
लेखक महाश्वेता देवी आदिवासियों के बीच में काम करती रहीं और उनके जीवन से जुड़ी हुई बातों पर लिखती रहीं, हालाँकि उनका ज़्यादातर काम पश्चिम बंगाल में रहा लेकिन यह कहानी झारखण्ड की पृष्ठभूमि पर है। इस कहानी में बच्चों के माध्यम से छोटे-छोटे सवालों से अत्यन्त व्यापक मुद्दों की झलक दिखती है, जैसे मोयना के सवाल, “मैं उनकी जूठन क्यों खाऊँ,” “मैं बाबू की बकरियाँ क्यों चराने जाऊँ,” “उनके लड़के क्यों नहीं जाते,” “मुझे पानी लाने इतना दूर क्यों जाना पड़ता है,” “हम दिन में दो बार चावल क्यों नहीं खा सकते,” “क्या कभी उन्होंनें मेरा धन्यवाद किया तो मैं क्यों करूँ” आदि।
साथ ही, यह भी पता चलता है कि बच्चों के बालपन की जो कल्पना आम मध्यमवर्गीय जनमानस के मन में पैठी है -- मासूम-नासमझ-नाज़ुक-साफ-सुथरे और स्वीट, प्यारे, सुन्दर-चंचल-शरारती बच्चे आदि -- ये सभी उपमाएँ कितनी सीमित हैं या यूँ कहिए कि बहुत ही कम बच्चों को अभिव्यक्त कर पाती हैं जो किसी वर्ग-विशेष से सम्बन्ध रखने वाले ही होते हैं। ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि मोयना सबर-जाति से सम्बन्ध रखती है और उसके मैले-कुचैले, साँप खाने वाले, बकरी पालने वाले और तीखे सवाल उठाने वाले गरीब और मजबूर चरित्र के साथ उस तरह के बालपन की छवि मेल नहीं खाती है। हकीकत में इस तरह के बच्चों की संख्या ज़्यादा है जो आभासी चंचल बालपन की छवि के ढाँचे में फिट नहीं बैठते हैं। बाल साहित्य में इस तरह के बच्चों को लेकर बहुत कम लिखा गया है लेकिन यह कहानी न सिर्फ इस तरह के बच्चों की अभिव्यक्ति है बल्कि सभी वर्ग के बच्चों में संवेदनाएँ एवं बराबरी की भावना पैदा करेगी। यही नहीं, खुद की भ्रामक छवि में छिपी ज़िम्मेदारी-समझदारी-जिज्ञासा और सही-गलत पर सवाल करना जैसे पहलुओं को भी यह कहानी उभार पाती है।
क्यों-क्यों-क्यों लड़की कहानी और बच्चों के साथ अनुभव
अक्सर बच्चों को कहानी सुनाने के बाद उनके साथ कहानी पर बातचीत होती है। इसी दौरान बच्चों के अलग-अलग तरह के अनुभव सामने आते हैं। अव्वल तो बाल साहित्य में जिस तरह की फॉर्मूला आधारित कहानियों की भरमार है, इस तरह की गम्भीर कहानियों में बच्चों की रुचि जगाना या विमर्श में खींचना अपने-आप में काफी चुनौतीपूर्ण काम है। बच्चे भी जन्मदिन आधारित, प्रेरणादायक या फन्तासी कहानियों के आदि होते हैं। उन्हीं की तर्ज़ पर बातचीत भी करते हैं जो अपने-आप में एक ढाँचे या कहिए समीक्षा के फॉर्मुले पर आधारित होता है। मसलन, यह कहानी किसके बारे में है, इस कहानी में नायक या नायिका कौन है, इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है, या फिर यह अच्छी लगी या बुरी लगी -- इस तरह की बातों के इतर बात करना या निकलवाना बहुत मुश्किल होता है।
इस कहानी पर बात करते हुए भी हमेशा की तरह स्वाभाविक प्रतिक्रिया ही आई मगर जैसे-जैसे कहानी के संवादों और चित्रों पर चर्चा हुई तो बच्चों के अलग-अलग तरह के अनुभव सामने आने लगे। ये अनुभव मेरी खुद की बाल स्मृतियों में भी थे और आज भी ऐसे ही अनुभवों का सामने आना मोयना जैसे चरित्रों के जीवन से दूरी का परिणाम है। जैसे कि कहानी में साँप पकड़ने और साँप खाने का ज़िक्र आता है। यह बात बच्चों के लिए बहुत हैरानी पैदा करने वाली है कि कोई इन्सान साँप भी खा सकता है। यह एक तरह की सामाजिक-सांस्कृतिक दूरी भी है क्योंकि एक तरफ जहाँ समाज में प्रचलित तौर पर मांस के सेवन को नैतिकता पर सवाल के रूप में देखा जाता है और मांस का सेवन भी बहुत खुले तौर पर प्रचलित नहीं, वहाँ बच्चों के दिमाग में भोजन के रूप में अण्डा, मछली और मुर्गे तक की ही सीमित तस्वीर बनती है। मगर साँप खाने या मांसाहार करने वाले लोगों के बारे में कभी कोई ज़िक्र नहीं रहता इसलिए उनको सामान्य रूप में देखने की आदत भी नहीं। इस कहानी में इस तरह के बच्चों का ज़िक्र आने पर कक्षा में बच्चे काफी असहज हो गए, कुछ में घृणा का भाव भी झलका, परन्तु चर्चा आगे बढ़ने पर धीरे-धीरे माहौल काफी हद तक सहज हो पाया। ‘जन-जाति’ शब्द पर भी गहन चर्चा हुई क्योंकि बच्चों में जातियों का एक्सपोज़र तो था मगर जनजातियों का नहीं। जनजातियों के बारे में चर्चा करते-करते उनके जन-जीवन एवं रहन-सहन के बारे में नई बातों को जानने की जिज्ञासा और रुचि पैदा हो रही थी। वे खुद ही सवाल भी करते, खुद ही जवाब तक भी पहुँच रहे थे। हर जवाब में नए सवाल पैदा हो रहे थे, जैसे - वे लोग साँप क्यों खाते हैं, साँप खाकर लोग मरते क्यों नहीं हैं, उन्हें अन्य खाने की चीज़ें कम पड़ती होंगी। स्कूल तो सबके लिए हैं तो वे क्यों नहीं स्कूल जाते, शायद उन्हें पढ़ाई की ज़रूरत नहीं या कोई पढ़ाने वाला नहीं होगा या उन्हें स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता होगा आदि। इन सवालों और जवाब तक पहुँचने की प्रकिया में बच्चों ने अपने जीवन के आसपास इस तरह के बच्चों को खंगालना शु डिग्री किया। अपने अनुभवों द्वारा स्कूल न जाने वाले बच्चों, काम करने वाले बच्चों, कूड़ा बीनने वाले बच्चों का भी ज़िक्र आया। मोयना और खुद के चरित्र में समानता पर बात की, सवाल पूछने की प्रवृत्ति पर मिलने वाली प्रतिक्रिया पर बात की।
इनके अनुभवों से पता चला कि बच्चों के सवाल पूछने पर उन्हें अक्सर डाँट दिया जाता है या यह कहकर चुप कर दिया जाता है कि अपना स्कूल का काम करो या चुप रहो। खास तौर पर लड़कियों के लिए तो इस तरह के संवाद की सम्भावना बहुत ही कम होती है। इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे प्रचलित मान्यता के अनुसार लड़कियों को चुप रहना चाहिए, ज़्यादा सवाल नहीं करने चाहिए, घर का काम सीखने पर ध्यान देना चाहिए आदि। खैर, इस तरह के अभ्यास से बच्चों की झिझक तो टूटती ही है, साथ ही बच्चों के बारे में सोची जाने वाली ‘गैर-ज़िम्मेदाराना’ छवि भी टूटती है। मेरे अनुभव में बच्चों ने बहुत गम्भीर सवाल किए और चर्चा करके जवाब भी खोजे। इस पूरी प्रक्रिया में बच्चों के भीतर जीवन को समझने की जद्दोजहद और जिज्ञासा पनपती हुई दिखाई दी। आशा है कि एक वक्त के बाद उनके भीतर खान-पान, पहनावे आदि को लेकर संकीर्ण पूर्वधारणा भी खत्म होगी।
कहानी पढ़कर कई बच्चे मोयना की तरह सवाल करने लगे। हालाँकि, बात सिर्फ यह नहीं है कि इस कहानी ने कोई विशेष जादू किया है मगर यह भी सच है कि इस तरह के बाल-साहित्य से बच्चों की सिर्फ खुश रहने, भोले-भाले, नादान और ‘क्यूट’ होने की मध्यम-वर्गीय छवि टूटती है। इस तरह की कहानियाँ जीवन को पूरे अर्थों में देखने का मौका तो देती ही हैं, साथ ही बच्चों के बीच जीवन के तमाम पहलुओं पर बात करने और उन पर समझ बनाने का मौका भी देती हैं। इसलिए यह कहानी बाल-साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण जगह रखती है।
अन्तत:, यह किताब बाल-साहित्य की बुनियादी किताबों में से एक है जिसमें हर तरह के बच्चों को जोड़ने की सम्भावना है। गहन विमर्श के साथ-साथ साहित्यिक और रचनात्मक कुशलताओं से भरपूर एवं आकर्षित करने के गुण मौजूद हैं। यह कहानी बच्चों के बीच विमर्श के बुनियादी हथियार का काम करती है।
अनुराधा अनन्या: कवि, लेखक और समीक्षक। बच्चों की कहानियाँ लिखती हैं। कई पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। इण्डिया फाउण्डेशन फॉर द आर्ट संस्था के अन्तर्गत हरियाणा की लोकगायन शैली ‘रागनी’ में शोध कार्य के लिए फैलोशिप।
सभी चित्र क्यों-क्यों-क्यों लड़की किताब से साभार। यह किताब पिटारा, एकलव्य में उपलब्ध है।