नंदा शर्मा
मुझे एकलव्य संस्था में काम करते हुए लम्बा अर्सा बीत गया है। संस्था द्वारा तैयार की गई किताबें व विविध सामग्री को देखते-देखते आँखें इतनी अभ्यस्त हो जाती हैं कि कई बार इस सामग्री के आसपास कुछ भी दिखाई देना बन्द हो जाता है। मैं यहाँ बात कर रही हूँ भाषा शिक्षण के लिए तैयार की गई सामग्री की। अक्सर हम लोग प्राथमिक शाला के बच्चों के साथ काम करते समय प्राशिका कार्यक्रम द्वारा तैयार की गई खुशी-खुशी पाठ्यपुस्तकों का उपयोग करते हैं, साथ ही शब्द कार्ड, चित्र-शब्द कार्ड, कविता पोस्टर आदि संसाधनों का इस्तेमाल भी करते हैं।
आम तौर पर हम लोग कक्षा एक से तीन तक में बच्चों की बोलने की झिझक तोड़ने, बच्चों को शब्दों की पहचान करवाने, वाक्य की पहचान करवाने व पढ़े हुए पाठ की समझ बनाने में कविता पोस्टर का काफी उपयोग करते हैं। बच्चे इन पोस्टर्स में रंग भरने, शब्द पहचानने, पहचाने शब्दों पर गोला लगाने, नोटबुक में वाक्य लिखने, अपनी ओर से कविता को आगे बढ़ाने की गतिविधियाँ सहजता से कर लेते हैं।
लगातार इन कविता पोस्टर्स को देखते हुए अब ये इस कदर याद हो गए हैं कि आधी रात को भी कोई उठाकर किसी भी कविता की एक पंक्ति बोल दे तो मेरी ज़ुबान से अगली पंक्ति निकल जाएगी। बच्चों को भी कुछ ही दिनों में लालाजी लड्डू दो, धम्मक धम्मक आता हाथी, ऊँट चला, क्योंजी बेटा राम सहाय आदि कविताएँ याद हो जाती हैं। यह सब देखकर हमें भी यही लगता रहा कि सब सही ट्रेक पर जा रहा है। थोड़ी बोरियत भी होती है, लेकिन इन कविताओं से और क्या कुछ किया जा सकता है, यह मुझे समझ आना शायद बन्द हो गया था।
हमारा घर हमारा विद्यालय
इसी दौरान कोविड-19 की वजह से शालाएँ बन्द हो गईं। जुलाई के महीने में राज्य शासन ने ‘हमारा घर हमारा विद्यालय' योजना की शुरुआत की। इस योजना के तहत शिक्षक बच्चों के घर जाकर पढ़ाने का काम कर रहे थे। होशंगाबाद ज़िले के कई गाँवों में हमारे कई साथियों ने गाँव-गाँव जाकर इस योजना में शासन की मदद की। मैं भी कई गाँवों में जाकर बच्चों के भाषा व गणित शिक्षण में मदद कर रही थी।
यहाँ मैं होशंगाबाद के खेड़ला गाँव की प्राथमिक शाला में कविता पोस्टर के सम्बन्ध में मिले नए अनुभव के बारे में बताने वाली हूँ। इस गाँव की दो शिक्षिकाएँ कला मीणा व प्रज्ञा शर्मा ‘हमारा घर हमारा विद्यालय' योजना के तहत गाँव के ही एक घर में कुछ बच्चों को पढ़ाने का काम कर रही हैं।
एक रोज़ मैं हमेशा की तरह खेड़ला गाँव गई थी। वहाँ दोनों ही शिक्षिकाओं ने बच्चों को दो समूहों में बाँटकर पढ़ाने का काम शुरू किया। पहले समूह में कला मीणा मैडम कक्षा 1 व 2 के बच्चों को गणित पर काम करवा रही थीं। वहीं दूसरी प्रज्ञा मैडम कक्षा 3 से 5 तक के पाँच बच्चों के साथ भाषा शिक्षण पर काम करने वाली थीं। चूँकि दूसरे समूह के साथ काम शुरू हो रहा था तो मैं इस समूह के साथ बैठ गई।
कविता पोस्टर के साथ गतिविधि
कक्षा 3 से 5 की शिक्षिका के पास लालाजी लड्डू दो... कविता का एक पोस्टर रखा हुआ था। शिक्षिका बच्चों के साथ एक गोल घेरे में बैठ गईं। शिक्षिका का ध्यान कविता पोस्टर पर ही था। वे बार-बार बच्चों को कह रही थीं, “ठीक से पकड़ो, सब को दिखना चाहिए।” शिक्षिका का ध्यान कक्षा-3 के दो बच्चों पर ज़्यादा था क्योंकि इन दोनों ही बच्चों को पढ़ना नहीं आता था। थोड़ी ही देर में शिक्षिका एक ऊँचे-से डिब्बे पर जाकर बैठ गईं ताकि सभी बच्चों को कविता पोस्टर दिखाई दे। शिक्षिका ने ज़ोर-से कविता का शीर्षक पढ़ा, “लालाजी लड्डू दो…।” इसके बाद बच्चों से कहा, “पहले इस कविता पोस्टर में दिए गए चित्रों में रंग भर दो, ताकि पोस्टर सुन्दर दिखाई दे और इसे पढ़ने में और मज़ा आए।” शिक्षिका ने बच्चों के सामने मोम कलर बिखेर दिए। बच्चे कविता पोस्टर के चित्र को बड़े ध्यान से देख रहे थे और आपस में बातचीत भी कर रहे थे।
कोई कहता, “इसमें तो एक-दो चित्र हैं”, कोई कहता, “मुझे रंग भरने दो”, कोई कहता, “तू लड्डू को भर ले, मैं लाला जी को।” शिक्षिका ने बच्चों की बातचीत सुनकर उन्हें टोकते हुए कहा, “देखो, बारी-बारी से कोई लड्डू में रंग भरेगा, कोई लालाजी के चेहरे पर रंग करेगा, कोई उनके कुर्ते पर रंग करेगा और कोई उनके बालों को, तो कोई उनकी मूँछों को।” मूँछ का नाम सुनते ही बच्चे ज़ोर-से हँस दिए।
एक लड़की ने झट-से काले रंग का मोम कलर उठाया और लालाजी के सर के बालों को रंगने लगी। उसका काम होने पर किसी दूसरे बच्चे ने कुर्ते में लाल रंग भरना शुरू कर दिया, तो किसी ने उनके लड्डू में पीला रंग। अब बारी आई लालाजी की मूँछों की, उसे भी काले रंग से रंगा गया। थोड़ी ही देर में पोस्टर के सभी चित्रों को रंगीन कर दिया गया था।
शिक्षिका ने एक बच्चे को पोस्टर सीधे पकड़कर खड़ा होने को कहा और हाव-भाव के साथ उंगली रखकर कविता सुनाती गईं। कविता खत्म होते ही शिक्षिका ने सभी बच्चों को मौका दिया कि वे कविता को उंगली रखकर पढ़ें। ऐसा लगा, वे चाह रही थीं कि कक्षा 3 के बच्चों को शब्दों की पहचान हो जाए क्योंकि इन बच्चों को पढ़ना नहीं आता था। थोड़ी ही देर में शिक्षिका ने बच्चों से कुछ सवाल करना शुरू कर दिए।
“लालाजी से बच्चे ने कितने लड्डू माँगे?”
जवाब मिला - चार।
किसी ने कहा, “नहीं एक।”
कविता पोस्टर को एक बार फिर देखकर सही जवाब तक पहुँचा गया।
शिक्षिका ने सवाल किया, “हमारे गाँव में लालाजी किसको कहते हैं?”
एक बच्ची का जवाब आया, “जीजाजी को।”
शिक्षिका ने उसकी बात को दोहराते हुए कहा, “हाँ, जीजाजी यानी दामादजी को भी लालाजी कहते हैं। पर यहाँ तो मिठाई बेचने वाले सेठजी को लालाजी कहा जा रहा है।”
शिक्षिका ने सवाल किया, “बच्चा लालाजी की तारीफ कैसे कर रहा था? क्या आप भी किसी की तारीफ करते हो जब आपको कुछ माँगना होता है?”
बच्चे - जी हाँ, मम्मी की तारीफ करते हैं, दादी की तारीफ करते हैं, पापा की तारीफ करते हैं।
शिक्षिका - मम्मी की तारीफ कैसे करते हो?
बच्चे - मम्मी आप बहुत ही अच्छे गुलाब जामुन बनाती हो।
शिक्षिका - दादी की तारीफ कैसे करते हो?
बच्चा - दादी आप अच्छे भजन गाती हो, मज़ा आ जाता है।
शिक्षिका - आपके घर में लड्डू और गुलाब जामुन कौन बनाता है?
बच्चे - मम्मी
शिक्षिका - तो लालाजी के घर में लड्डू कौन बनाता होगा?
बच्चे - शायद उनकी पत्नी।
शिक्षिका - बच्चे ने लालाजी की किस चीज़ की तारीफ की थी?
बच्चे - मूँछों की।
शिक्षिका - वैसे मूँछ किसकी होती है?
बच्चे - आदमियों की।
शिक्षिका - क्या आदमियों के अलावा और किसी की मूँछ देखी है?
बच्चे - हाँ, शेर की, बिल्ली की, चूहे की।
तभी धीरे-से एक आवाज़ आई, “औरत की।” यह जवाब उस बच्ची ने ही दिया था जो थोड़ी देर पहले शर्माते हुए लालाजी की मूँछों में रंग भर रही थी।
यह सुनकर सब बच्चे ज़ोर-से हँस दिए।
शिक्षिका ने पूछा, “क्या आपने ऐसी कोई औरत देखी है जिसकी मूँछ हो?”
बच्चे थोड़ी देर चुप रहे। फिर एक-दो बच्चों ने झिझकते हुए बताया, “पुरुषों जैसी घनी मूँछ वाली तो नहीं देखीं लेकिन हल्की-हल्की मूँछ वाली औरतें देखी हैं।”
शिक्षिका ने बच्चों से कहा, “शरीर पर बालों का आना या जाना तो हॉरमोन्स के कारण होता है। ये तो किसी के साथ भी हो सकता है, चाहे आदमी हो या औरत।”
ऐसा लग रहा था कि हम इस चर्चा में और गहराई में जाने वाले हैं। लेकिन उस दिन की कक्षा समाप्त हो गई। हम कक्षा तीन और पाँच के बच्चों के साथ भाषा शिक्षण की कुछेक गतिविधियाँ करवा पाए थे। लेकिन कविता पोस्टर से और क्या हासिल हो सकता है, इस उधेड़बुन में उलझकर मैं अपने ऑफिस वापस आ गई। रह-रहकर ऐसा लग रहा था कि आज कुछ हासिल होते-होते रह गया था। परन्तु क्या हासिल नहीं हो पाया, यह समझ नहीं आ रहा था।
इन्हीं मनोभावों में गोते लगाते हुए मैंने अपने एक मित्र को फोन लगाकर इस अनुभव के बारे में बताया। मेरे मित्र ने बताया कि उनके एक अन्य मित्र ने लालाजी का कविता पोस्टर करवाते हुए बच्चों से बोला कि मान लो आज लालाजी के पेट में दर्द हो रहा है, इसलिए दुकान पर लालाजी की पत्नी बैठी हैं, तो लालाजी की पत्नी को ध्यान में रखते हुए कविता में बदलाव करो और हम सबको वो कविता सुनाओ। कुछ बच्चों ने तुरन्त लालाजी का ललाईन कर दिया, लेकिन तारीफ किस बात की करें, इस पर जाकर रुक गए। कुछ बच्चों ने कहा, “लालाजी बीमार हैं तो उनका बेटा दुकान में बैठा दिया जाए।” इस बदले हुए कविता पोस्टर की पूरी बात न बताते हुए, मैं इसे यहीं रोक रही हूँ। मुझे दरअसल, इस बातचीत से एक नई दिशा मिल गई थी।
लालाजी के लड्डू ने खोली चर्चा
मैं एक बार फिर खेड़ला गाँव की प्राथमिक शाला के बच्चों के साथ मिलना चाहती थी इसलिए जल्द ही बच्चों के पास लालाजी के कविता पोस्टर के साथ जा पहुँची। पिछली बार ही हमने पोस्टर में रंग भरने की और शब्दों सम्बन्धी कुछ गतिविधियाँ कर ली थीं। इसलिए पिछली चर्चा की याद दिलवाते हुए हमने उसी चर्चा को आगे बढ़ाने का निश्चय किया। मेरे साथ प्रज्ञा मैडम व कला मीणा मैडम थीं।
चर्चा यहाँ से शुरू हुई, “लालाजी की दुकान पर यदि लालाजी बीमार हों और लालाजी की पत्नी बैठी हों तो क्या हो?” बच्चे सहजता से इस बदलाव को मानने को तैयार नहीं थे।
शिक्षिका - अपने गाँव में कितनी किराने की दुकानें हैं?
बच्चे - किराने की तीन दुकानें हैं।
शिक्षिका - उन दुकानों पर कौन बैठता है?
बच्चे - चाचा बैठते हैं या आदमी बैठते हैं।
शिक्षिका - क्या इन दुकानों पर औरतें भी बैठती हैं?
तुरन्त जवाब आया – नहीं।
एक बच्ची ने कहा - हमारी किराने की दुकान है। हमारे पापा जब खेत जाते हैं या खाना खाने जाते हैं तो हमारी मम्मी थोड़ी देर के लिए दुकान में बैठती हैं।
हमें समझ आ गया था कि इन औरतों की भूमिका एक रिलीवर जैसी है, प्रमुख दुकानदार की घण्टे भर की अनुपस्थिति में दुकान के माल की सुरक्षा व ग्राहकी चलाना – बस इतना करना है।
शिक्षिका ने आगे सवाल किया, “ऐसी कौन-सी दुकानें हैं जहाँ आदमी दुकान चलाते हैं और ऐसी कौन-सी दुकानें हैं जिन्हें औरतें चलाती हैं?”
बच्चे - किराना दुकान, नाई की दुकान, जूते-चप्पल की दुकान, खाद-बीज की दुकान, कपड़े की दुकान आदमी चलाते हैं। कुछ बच्चों का मानना था कि ज़्यादातर दुकानों को आदमी ही चलाते हैं। औरतें ंगार की दुकान, सब्ज़ी की दुकान, ब्यूटी पार्लर, फूल-बेलपत्री-नारियल की दुकान (नर्मदा नदी के किनारे पर) चलाते हुए दिखाई देती हैं।
शिक्षिका ने बच्चों के सामने फिर एक सवाल रखा, “अगर ऐसा हो कि सारी दुकानों को महिलाएँ चलाएँ तो ठीक रहेगा?”
कुछ बच्चों ने कहा कि सारी दुकानों पर औरतें होंगी तो उन्हें बाज़ार जाने में असहजता होगी। सब ओर औरतें ही दिखेंगी।
हमें लगा कि इन बच्चों ने सवाल को ठीक-से समझा नहीं है। इसलिए दोबारा बताया कि “अभी जैसे हम माँ-पिता-चाचा-मौसी-बुआ के साथ बाज़ार जाते हैं वैसे ही जाएँगे लेकिन दुकानदार कोई पुरुष न होकर महिला होगी। इतना ही फर्क है।”
दो बच्चों ने कहा, “हाँ, हमें कोई समस्या नहीं। बाज़ार में कमीज़ खरीदना है। वो औरत दुकानदार दे या आदमी। कोई दिक्कत नहीं।”
एक बच्चे को अभी भी सारी महिला दुकानदार होने से दिक्कत महसूस हो रही थी। लेकिन वह खुलकर बता भी नहीं पा रहा था कि क्या दिक्कत है। काफी देर बाद उसने कहा, “मम्मी लोग दुकान पर बैठेंगी तो पापा लोग क्या करेंगे?”
शिक्षिका ने कहा, “पापा लोग खेत में काम करेंगे, घर के काम करेंगे, खाना बनाएँगे।”
एक-दो बच्चों ने कहा, “पापा लोग को तो खाना पकाना आता नहीं।”
शिक्षिका ने कहा, “पापा लोग खाना पकाना सीख लेंगे। क्या अभी आपके आसपास कोई ऐसा आदमी है जो झाड़ू लगाना, खाना बनाना वगैरह काम करता हो?”
बच्चों ने दो उदाहरण बताए लेकिन वो पत्नी की मृत्यु के बाद अकेले पड़े पुरुषों के थे।
शिक्षिका ने पूछा, “महिलाओं और पुरुषों के काम फर्क-फर्क क्यों हैं?”
किसी बच्चे ने सकुचाते हुए कहा, “कुछ काम में काफी ताकत की ज़रूरत होती है।”
यहाँ शिक्षिकाओं ने बताया, “यह हमारा वहम है कि औरतों का शरीर कमज़ोर है। औरतें भी ट्रेक्टर, ट्रक, ट्रेन, हवाई जहाज़ चला सकती हैं। तुम्हारे स्कूल को भी पाँच महिला शिक्षिका ही चला रही हैं। सभी को सब काम करने के मौके मिलना चाहिए।”
यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते हमने एक बार लालाजी के पोस्टर को देखा। ऐसा लग रहा था कि लालाजी अभी हाथ बढ़ाकर हम तीनों मैडमों को लड्डू दे देंगे।
इस बातचीत से बनी जो समझ
लालाजी के पोस्टर के मार्फत आज हम रोज़गार के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी के मुद्दे को छू पाए थे। बच्चों के दिमाग में बने स्टीरियोटाइप को भी समझ पाए कि वे किसी दुकान में दुकानदार के रूप में पुरुषों को देखने के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि थोड़े समय के लिए ही किसी दुकान पर महिला दुकानदार को बैठाने की कल्पना मात्र से असहज हो उठते हैं। पिताजी क्या करेंगे, जैसे खयाल दिमाग में चलने लगते हैं।
अभी भी इस पोस्टर में चर्चा की सम्भावना है। लालाजी की दुकान में काम करने वाले कारीगर, वेटर, उनका काम, उनका वेतन, लालाजी का कर्मचारियों से व्यवहार आदि आदि। ये सब ऐसे अनुभव क्षेत्र हैं जिनसे मूँछों की तारीफ सुनकर लड्डू देने वाले लालाजी से लेकर बच्चों से श्रम करवाते लालाजी तक के अनुभव कक्षा में आ सकते हैं। इसलिए कविता पोस्टर सिर्फ भाषा शिक्षण तक सीमित न रहकर, कई सामाजिक ताने-बाने को परखने का मौका भी देता है।
हमारे कविता पोस्टर्स में भाषा शिक्षण के साथ-साथ सामाजिक सवालों को खोलने की, चर्चा की भी भरपूर सम्भावना है। आखिरकार भाषा हमारे जीवन, हमारे तमाम अनुभवों को व्यक्त करने के साथ-साथ उन पर सोच-विचार करने का भी तो ज़रिया है।
नंदा शर्मा: एकलव्य के जश्न-ए-तालीम कार्यक्रम में बतौर ब्लॉक समन्वयक होशंगाबाद में काम कर रही हैं। होशंगाबाद में रहती हैं।
शासकीय प्राथमिक शाला, खेड़ला, होशंगाबाद में पदस्थ प्रज्ञा शर्मा मैडम व कला मीणा मैडम ने बच्चों से बातचीत में जो मदद की, इसके लिए विशेष आभार।