अश्विन साई नारायण शेषशायी
चिकित्सा तथा जैव-चिकित्सा विज्ञान में आजकल एक प्रमुख चुनौती एंटीबायोटिक प्रतिरोध की है। यह वह परिघटना है जिसके तहत संक्रामक रोगों के कारक - जैसे बैक्टीरिया - अब ‘चमत्कारिक औषधियों’ का प्रत्युत्तर नहीं देते। आइए हम मानव इतिहास में संक्रामक रोगों की भूमिका के रास्ते इस परिघटना को समझने की कोशिश करते हैं। इसमें हम यह भी देखेंगे कि पिछली सहस्राब्दियों में इन्हें समझने और इनका उपचार करने के हमारे नज़रिए क्या रहे हैं। हम हाल के वर्षों में एंटीबायोटिक दवाइयों के उपयोग व दुरुपयोग पर नज़र डालेंगे और यह देखेंगे कि इसके परिणामस्वरूप एंटीबायोटिक प्रतिरोध कैसे पैदा हुआ है। हम यह देखेंगे कि पर्यावरण में कुदरती एंटीबायोटिक्स प्राचीन समय से मौजूद रहे हैं और प्रतिरोध की समस्या अपरिहार्य थी। इसके साथ ही आगे की संभावनाओं पर भी विचार करेंगे।
इतिहास में संक्रामक रोग
संक्रामक रोग हज़ारों सालों से मानव जाति पर अंकुश का काम करते आए हैं। खेती के विकास के साथ मानव जनसंख्या घनत्व में विस्फोटक वृद्धि और आगे चलकर नगर-राज्यों के संगठन ने परस्पर संपर्क को बढ़ावा दिया होगा। यहां तक भी कहा जा सकता है कि रोग पैदा करके ऐसी घनी आबादियों में संख्या वृद्धि करने और फैलने की क्षमता ने कुछ बैक्टीरिया में घातकपन के विकास में योगदान दिया होगा। वास्तविक तस्वीर शायद ज़्यादा पेचीदा होगी मगर यह सरल वर्णन भी बहुत गलत नहीं है।
इस बात के प्रमाण हैं कि वर्ष शून्य से एक सहस्राब्दि पहले मिस्री फरोआ रामेसेस पंचम को शायद चेचक हुआ था। चेचक वह घातक वायरसजन्य रोग है जिसका अब सफाया कर दिया गया है। आयुर्वेद ग्रंथ चरक संहिता और उसके समकालीन हिपोक्रेटस की चिकित्सा संहिताओं में टीबी को क्रमश: शोशा रोग/राज्यक्षमा और थायसिस कहा गया है। ये ग्रंथ 500 ईसा पूर्व से पहली ईस्वीं सदी के बीच के हैं। टीबी एक बैक्टीरियाजनित रोग है जो आजकल काफी महत्वपूर्ण हो गया है। उपरोक्त संहिताओं में कुष्ठ का उल्लेख भी है। यह भी एक बैक्टीरिया जनित रोग है। संभव है कि टीबी और कुष्ठ के बैक्टीरिया का एक साझा पूर्वज रहा होगा। उक्त दोनों ही ग्रंथों में रुक-रुककर आने वाले बुखार का भी ज़िक्र है जो विभिन्न किस्म के मलेरिया का लक्षण है। मलेरिया न तो बैक्टीरिया की वजह से होता है न ही वायरस की वजह से। यह तो एक प्रोटोज़ोआ जीव की करतूत है।
अपने विस्तार व आबादी की अभूतपूर्व स्थिति वाले रोमन साम्राज्य को कई बार प्लेग का सामना करना पड़ा था। प्लेग एक और बैक्टीरियाजनित रोग है। 1990 के दशक में सूरत में हुए प्रकोप के बाद भारत में इसकी काफी चर्चा हुई थी। प्लेग ने 14वीं सदी में युरोप को तहस-नहस कर दिया था। चीन से शुरु होकर युरोप तक पहुंचने के अपने मार्ग में यह विनाश के चिंह छोड़ता गया था। इसे ‘ब्लैक डेथ’ यानी ‘काली मृत्यु’ की संज्ञा दी गई थी। एक मत यह है कि इस प्लेग ने उन सामाजिक परिवर्तनों को लाने में भूमिका अदा की थी जिनकी परिणति अंतत: पुनर्जागरण या रिनेसां में हुई थी। यह भी माना जाता है कि लोकप्रिय बाल गीत ‘रिंग-ए-रिंग रोज़ेस’ वास्तव में प्लेग से पीड़ित बच्चों के रोग के लक्षणों से प्रेरित होकर लिखा गया था... “एंड वी ऑल फॉल डाउन डेड।” अपेक्षाकृत हाल की सदियों में बैक्टीरिया जनित निमोनिया और हैजा की भयानक महामारियां और विश्वव्यापी महामारियां हुई हैं। यहां हम विभिन्न सांस सम्बंधी वायरसों और बहु-औषधि प्रतिरोधी बैक्टीरिया की बात करेंगे।
हालांकि उपरोक्त सूची चुनिंदा ऐतिहासिक महामारियों को ही दर्शाती है मगर इससे मनुष्य और संक्रामक रोगों के सह-अस्तित्व के लंबे इतिहास की झलक तो मिल ही गई होगी। इससे यह भी पता चलता है कि एक समूह का जैविक संघटन दूसरे के लिए किस तरह की चुनौतियां प्रस्तुत करता है।
ऐतिहासिक समझ
हालांकि मानव जाति प्राचीन समय से ही संक्रामक रोगों से पीड़ित रही है, मगर इनकी पैथॉलॉजी की समझ हाल ही में विकसित हुई है। हिपोक्रेटस और उसी काल के आयुर्वेदिक चिकित्सक वे पहले लोग थे जिन्होंने बीमारी के कारणों को पारलौकिक शक्तियों से अलग करके देखना शु डिग्री किया था। अलबत्ता, बीमारियों को कतिपय द्रवों के संतुलन, जिस पर मौसम और भोजन जैसे बाहरी कारकों का असर हो सकता है, में गड़बड़ी के लक्षणों के रूप में देखने के उनके सिद्धांत हमारे आज के ज्ञान की तुलना में अत्यंत सरलीकृत थे। मगर रोग-उत्पत्ति के उनके सिद्धांतों की वैधता की चिंता न करें, तो उन चिकित्सकों ने उनके पास उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर संक्रामक रोगों पर नियंत्रण के कारगर प्रयास किए होंगे। बहरहाल, उन्होंने बीमारी के कीटाणु सिद्धांत का अंदेशा नहीं किया था। वह तो उनके समय के 2000 साल बाद फलने-फूलने लगा।
यह विचार कि कीटाणु बीमारियां पैदा करते हैं, युरोप में एक इतालवी व्यक्ति गिरोलेमो फ्राकेस्टारो ने प्रचलित किया था। उन्होंने मध्य सोलहवीं सदी में यह सुझाया था कि हवा के माध्यम से फैलते कुछ कणों के संपर्क से बीमारियां होती हैं। इसकी अगली सदी में कुछ जीवों के स्वत: जनन के सिद्धांत को फ्रांसेस्को रेडी ने खारिज कर दिया था। यह सिद्धांत कहता था कि कुछ जीव अपने आप निर्जीव पदार्थों में से प्रकट हो जाते हैं। इसके बाद सूक्ष्मजीव विज्ञान के जनक एन्तोन फान ल्यूवेनहूक ने सूक्ष्मदर्शी की मदद से सूक्ष्मजीवों को देखा और उनका वर्णन ‘एनिमलक्यूल्स’ के रूप में किया था।
1767 में होलवेल ने एक पुस्तक/निबंध (जिसका लंबा-सा शीर्षक था “एन अकाउंट ऑफ दी मैनर ऑफ इनॉक्यूलेटिंग फॉर स्माल पॉक्स इन दी ईस्ट इंडीज़ विद सम ऑब्सर्वेशन्स ऑन दी प्रैक्टिस एंड मोड ऑफ ट्रीटिंग दैट डीसीज़ इन दोस पार्ट्स”) में बताया था कि कैसे बंगाल के कुछ ब्राह्मण स्थानीय बाशिंदों को ऐसे लोगों के मवाद से बने एक मिश्रण से ‘इनॉक्यूलेट’ करते हैं जिन्हें एक वर्ष पहले चेचक हुआ था। यह इनॉक्यूलेशन, जो वर्तमान टीकाकरण का पूर्ववर्ती कहा जा सकता है, मौसमी चेचक महामारी की शुरुआत से पहले किया जाता था और संभव है कि भारत में यह 1000 ईस्वीं में प्रचलित था।
ऐसा प्रतीत होता है कि इन चिकित्सकों के दिमाग में बीमारियों का कीटाणु सिद्धांत था और उनका तर्क था कि छूत के रोग “वातावरण में तैरते अनगिनत एनिमलक्यूलेट से पैदा होते हैं... (जो) एक खास मौसम में कम या ज़्यादा संख्या में लौटते हैं (और) सांस की क्रिया के दौरान सारे जंतुओं के शरीर के अंदर-बाहर आते-जाते रहते हैं।”
मध्य-उन्नीसवीं सदी में इग्नेज़ सेमेलवाइस और जॉन स्नो के कार्यों से क्रमश: प्यूरपेरल ज्वर और हैज़ा महामारी के भौतिक स्रोत पहचाने गए। इन निष्कर्षों के फलस्वरूप बीमारी की रोकथाम के लिए अस्पताल कर्मियों के हाथों को क्लोरीन से संक्रमण मुक्त करने और संक्रमण के स्रोत के रूप में पहचाने गए कुओं को बंद करने जैसे सरल उपाय सामने आए। इससे पहले ऑगस्टिनो बास्सी ने संक्रमण के एक स्रोत के रूप में एक ‘वनस्पति परजीवी’ की पहचान की थी जो रेशम उद्योग को तबाह कर रहा था।
इन शुरुआती अध्ययनों के बावजूद, ‘कीटाणु’ और बीमारी के बीच की कड़ी की औपचारिक खोजबीन उन्नीसवीं सदी के अंत में लुई पाश्चर और रॉबर्ट कोच की बदौलत शु डिग्री हुई थी। किसी कीटाणु और किसी बीमारी के बीच कड़ी स्थापित करने के सम्बंध में कोच के नियम आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। लगभग 30 वर्ष पहले स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के स्टेनले फाल्कोव ने इन्हें ‘कोच के आणविक नियमों’ के रूप में विस्तार दिया है। पौल डी क्रुइफ द्वारा 1926 में लिखित पुस्तक दी माइक्रोब हंटर्स संक्रामक रोगों की खोजों में रुचि रखने वाले हर व्यक्ति को अवश्य पढ़नी चाहिए।
एंटीबायोटिक से पहले
कीटाणु सिद्धांत से पहले संक्रामक रोगों का उपचार मूलत: जड़ी-बूटियों पर आश्रित था। प्राचीन आयुर्वेद तथा हिपोक्रेटस के समय में विचार यह था कि ये बीमारियां कतिपय ‘तरलों’ (ह्यूमर्स) में विकार के कारण पैदा होती हैं। इसका मतलब यह था कि आप ऐसे हस्तक्षेप विकसित करेंगे जो इन विकारों को ठीक कर दें।
अब्बासिद खिलाफत (8वीं से 13वीं सदी) की राजधानी बगदाद, जो उस समय बौद्धिक गतिविधियों का केंद्र था, में संक्रामक रोगों पर अंकुश लगाने के लिए संग-रोध (अलग-थलग करने) के तरीके अपनाए जाते थे। इब्न सिना ने बगदाद मेंें सैकड़ों औषधीय नुस्खों का विवरण दिया है। उनकी पुस्तक के लैटिन अनुवाद का उपयोग युरोप की चिकित्सा पाठ्य पुस्तकों में अगले 500 वर्षों तक होता रहा था। नवीं सदी के एंग्लो-सैक्सन ग्रंथ लीचबुक ऑफ बाल्ड में कुछ संक्रामक रोगों के उपचार के लिए नुस्खे बताए गए हैं। हम इस पर थोड़ी देर में लौटेंगे।
मलेरिया-रोधी औषधि आर्टीमिसिनीन, के लिए 2015 का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। यह उस अर्थ में कोई एंटीबायोटिक नहीं है, जिस अर्थ में हम आजकल एंटीबायोटिक (बैक्टीरिया नाशक) को समझते हैं। बहरहाल, जिस वनस्पति से आर्टीमिसिनीन प्राप्त की गई है उसका उपयोग चीनी चिकित्सा प्रणाली में संभवत: 300-200 ईसा पूर्व से किया जा रहा है।
इनमें से कई उपचार तथा अन्य सभ्यताओं व संस्कृतियों द्वारा इस्तेमाल किए गए उपचार अनुभव से उभरे थे और कारगर रहे होंगे, चाहे उनमें संक्रामक रोगों के कारणों को लेकर अनभिज्ञता थी।
एक दिलचस्प बात यह है कि सूडान के नुबियावासियों और रोमन मिस्र वासियों के कंकालों के अवशेषों (400 ईस्वीं) पर आजकल के एक एंटीबायोटिक टेट्रासायक्लीन के अंश मिले हैं। यह अंदाज़ लगाना मुश्किल है कि क्या यह टेट्रासायक्लीन उनकी किसी वनस्पति औषधि का घटक था या उनके भोजन का हिस्सा था। देखा जाए, तो हम जिन एंटीबायोटिक्स का उपयोग करते हैं, उनमें से कई प्राकृतिक उत्पाद हैं। हम आगे देखेंगे कि यही बात एंटीबायोटिक प्रतिरोध को अपरिहार्य बना देती है।
संक्रामक रोगों के खिलाफ टीकाकरण का एक लंबा इतिहास है और लगता है कि भारत में 1000 साल पूर्व इसके उपर्लिखित उपयोग का सम्बंध बीमारी के कीटाणु सिद्धांत को स्वीकार करने से था। टीकाकरण चीन में भी 14वीं सदी में और अरब विश्व में 12वीं सदी में होता था। इस प्रथा को युरोप में एडवर्ड जेनर ने 18वीं सदी के अंत में औपचारिक रूप दिया था। अलबत्ता, आज भी बैक्टीरिया संक्रमण के खिलाफ टीकाकरण कभी-कभार ही सफल रहता है - हमारे बच्चों के लिए टीकाकरण की सूची पर नज़र डालने से स्पष्ट हो जाता है कि अधिकांश टीके बैक्टीरिया नहीं बल्कि वायरस जनित रोगों के लिए हैं। यहां यह स्पष्ट कर दें कि एंटीबायोटिक्स, जिन्होंने आगे चलकर चिकित्सा विज्ञान में क्रांति ला दी थी, के विपरीत टीके संक्रमण का इलाज नहीं करते। वे तो प्रतिरक्षा तंत्र को तैयार करते हैं ताकि संक्रमण से सुरक्षा मिले।
एंटीबायोटिक का युग
मुर्गियों और पशुपालन में एंटीबायोटिक का उपयोग एक बड़े परिवर्तन का द्योतक है - इसके साथ ही एंटीबायोटिक का उपयोग बैक्टीरिया संक्रमण के इलाज की बजाय संक्रमण की रोकथाम के लिए होने लगा। इसकी वजह से इन दवाइयों के उपयोग में बेतहाशा वृद्धि हुई है। संक्रामक रोगों के उपचार में दवाइयों के उपयोग की सबसे सफल गाथा एंटीबायोटिक क्रांति की है। इसकी शुरुआत पौल एहर्लिश द्वारा 1910 में ‘जादुई गोली’ के नाम से मशहूर सालवार्सन नामक औषधि के उपयोग के साथ शुरु हुई थी। यह एक आर्सेनिक-आधारित दवा है जिसका उपयोग सिफलिस के उपचार में किया गया था। इसके कुछ ही समय बाद बायर ने पहली सल्फोनामाइड दवा प्रस्तुत की। निर्णायक मोड़ तो एलेक्ज़ेडर फ्लेमिंग द्वारा पेनिसिलीन की खोज तथा हॉवर्ड फ्लोरी द्वारा इसके उत्पादन के साथ आया था। इसने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान तथा उसके बाद संक्रमणों के इलाज में बड़ी भूमिका निभाई। पेनिसिलीन एक प्राकृतिक रसायन है जिसका उत्पादन एक किस्म की फफूंद (जिसे मोल्ड कहते हैं) करती है। गौरतलब है कि प्राचीन लोगों में कुछ संक्रमणों के इलाज के लिए खास किस्म की मोल्ड खाने की प्रथा प्रचलित थी।
पेनिसिलीन एक एंटीबायोटिक है जो बैक्टीरिया को उसकी कोशिका भित्ती बनाने से रोकता है। बैक्टीरिया एक कोशिकीय होते हैं और उनमें जो कुछ होता है और जो कुछ भी उन्हें एक जीव बनाता है, वह सब एक नाज़ुक डिटर्जेंट नुमा झिल्ली में बंद रहता है और इस झिल्ली के आसपास एक कठोर कोशिका भित्ती होती है। कोशिका भित्ती शर्कराओं और अमीनो अम्लों की आपस में सख्ती से जुड़ी श्रृंखलाओं से बनी होती है। यदि यह सुरक्षात्मक कोशिका भित्ती बनाना असंभव हो जाए, तो नाज़ुक झिल्ली पर्यावरण के संपर्क में आ जाती है और तेज़ी से ध्वस्त हो जाती है। इसके साथ ही बैक्टीरिया का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। हमारी कोशिकाओं में कोशिका भित्ती नहीं होती और हमारे लिए सिर्फ झिल्ली से ही काम चल जाता है। इसका मतलब हुआ कि पेनिसिलीन हमारी कोशिकाओं का ज़्यादा नुकसान नहीं कर सकती। लिहाज़ा यह एक निरापद दवा है जो सिर्फ बैक्टीरिया को मारती है और हमें अछूता छोड़ देती है। हां, यह अवश्य है कि पेनिसिलीन की अति-खुराक लीवर को क्षति पहुंचाती है वगैरह मगर वह एक अलग ही कहानी है।
कोशिका भित्ती के अलावा बैक्टीरिया की और भी दुखती रगें हैं। ये वे जैव-रासायनिक कार्य हैं जो उनके जीवन के लिए ज़रूरी हैं मगर कुछ इस तरह विकसित हुए हैं कि इनको सम्पन्न करने वाले अणु मनुष्य में इन्हीं कार्यों के लिए ज़िम्मेदार अणुओं से बहुत अलग होते हैं। इसका मतलब है कि ऐसी औषधियां तैयार की जा सकती हैं जो विशेष रूप से बैक्टीरिया के इन गुणों पर प्रहार करे जबकि मनुष्य के जैव-रसायनों को अछूता छोड़ दे। उदाहरण के लिए टेट्रासायक्लीन, अमीनोग्लायकोसाइड और मैक्रोलाइड्स जैसे एंटीबायोटिक बैक्टीरिया की प्रोटीन बनाने वाली मशीनरी में बाधा पहुंचाते हैं, मगर मानव कोशिका की प्रोटीन मशीनरी को नहीं।
कई ऐसे एंटीबायोटिक बनाए गए हैं जिन्होंने दुनिया भर में संक्रमणों को नियंत्रित किया और मनुष्य की औसत आयु में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। सब कुछ बहुत खुशगंवार लग रहा था। गैर-ज़िम्मेदाराना उत्साह से भरपूर, हमने स्वयं और अपने पर्यावरण को एंटीबायोटिक से पाट दिया: हर छोटी-मोटी तकलीफ के लिए एंटीबायोटिक लेने लगे। आखिर आकर्षक सुनहरे पैकिंग में जेनेरिक एमॉक्सिसिलीन डॉक्टर की पर्ची के बगैर हमारा केमिस्ट उदारता से दे देता है और कीमत भी ज़्यादा नहीं होती। ये कई अन्य तरीकों से भी पर्यावरण में पहुंचे: पशुओं और मुर्गियों को वृद्धि प्रोत्साहक के रूप में और संक्रमणों की रोकथाम के लिए दिए जाने पर, औद्योगिक कचरे के रूप में नदियों और जलमार्गों में बहाए जाकर, और प्रयोगशालाओं में जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रयोगों के दौरान। खास तौर से पशुओं और मुर्गियों को एंटीबायोटिक खिलाया जाना एक प्रमुख बदलाव था जब एंटीबायोटिक का उपयोग संक्रमणों के उपचार की बजाय उनकी रोकथाम के लिए होने लगा। इसकी वजह से इन दवाइयों के उपयोग में बेतहाशा वृद्धि हुई है।
भरपूर आत्मविश्वास और तथाकथित दूरदृष्टि के साथ हमने मान लिया कि संक्रामक रोग अब अतीत की बात हो चुके हैं और इन विषयों में अनुसंधान के लिए फंडिंग में कटौती कर दी गई। बदकिस्मती से, हमने जैव विकास को ध्यान में नहीं रखा था। अगली बार इसी की बात करेंगे। (स्रोत फीचर्स)