‘’यदि आप पूछेंगे कि बच्चों के साथ दोस्ताना रिश्ते कैसे बन पाते हैं तो मैं यही जवाब दूंगा कि अगर आपमें कोई दुराव- छिपाव नहीं है, बच्चों की बातों को ध्यान से सुनते हैं और उनरके साथ एक पारदर्शी संबेध रखते हैं तो आप उनसे गहरा रिश्ता बना पाएंगे।‘’
अंकुर संस्था के गौतमपुरी केन्द्र पर बच्चों के साथ काम करते हुए, मुझे इस बात पर गम्भीरता से सोचने-विचारने का मौका मिला है कि हमारा बच्चों के साथ एक गहरा रिश्ता कैसे बनता है? तथा यह रिश्ता हमारे बच्चों के साथ काम करने के लिए कितना ज़रूरी हैं? अगर हम आत्म-अनुशासन की बात करते हैं, तो हमें बच्चों की बातों को भी उतनी जगह देनी होगी जितना कि हम चाहते हैं कि वे हमारी बात मानें। इसके साथ ही हमें अपनी गलती मानने में ज़रा भी संकोच नहीं करना चाहिए।
बच्चों की अपेक्षाएं
हमारे केन्द्र पर औपचारिक रूप से नमस्ते मकरने की कोई परम्परा नहीं है। चाहे वे बड़े हों या छोटे, अगर आपका मूड है तो नमस्ते कर लीजिए, अन्यथा कोई बात नहीं। मेरे साथ भी ऐसा होता रहता है। ‘बगीचा समूह’ कमी कल्पना, सावित्री, लक्ष्मी, कभी मुझसे नमस्ते कर लेती हैं, तो कभी मैं उनसे नमस्ते कर लेता हूं। कुल मिलाकर कोई किसी के प्रति अभिवादन को लेकर आशान्वित नहीं रहता। कभी-कभी मैं नमस्ते करता हूं तो उनसे पूछ लेता हूं कि कल्पना, तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है; या लाइब्रेरी से तुमने कौन सी किताब पढ़ी, कैसी लगी, कल क्यों नही आई, वगैरह। एक दिन कल्पना से मैं इसी तरह पूछ रहा था। लेकिन उसे ये बातें सतही मालूम हुई। उसने अपना गुस्सा ज़ाहिर करते हुए तुरन्त कहा, ‘’खुद तो आते नहीं हैं, न ही पढ़ाते हैं।‘’ तब मैंने उसको समझाया कि तुम्हें अब शशि दीदी पढ़ाती हैं। में केन्द्र पर रोज़ तो आ रहीं पाता-कभी ऑफिस जाना होता है या कभी दूसरे केन्द्र पर। इसलिए मैं रोज़ तुम्हारे साथ कैसे बैठ सकता हूं? वह यह सब सुनकर समझ गई और सामान्य हो गई।
बगीचा समूह की एक ओर लड़की लक्ष्मी की भी बात सुनिए- हुआ यह कि एक रविवार तबीयत खराब होने की वजह से नाट्य गतिविधियिों में मैं उनके साथ शामिल नही हो पाया। अगले दिन मैंने लक्ष्मी से पूछा, ‘’कल तुमने क्या - क्या किया?’’ उसने तुरन्त जवाब दिया, ‘खुद तो आए नहीं थे। हमसे पूछते हैं क्या किया?’’ इन दो उदाहरणों से मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि अक्सर हम बच्चों से तो ज़रूर पूछते हैं, ‘’तुम कल क्यों नहीं आए?’’ या यह भी आशा रखते हैं कि कल अगर वह न आने वाले हो तो पहले से बता दें। लेकिन हम उन्हें नहीं बताते कि मैं कल नहीं आऊंगा या मैं इस कारण से कल नहीं आ पाया। मैंने यह महसूस किया कि हमें भी अपना कर्त्तव्य मानते हुए उन्हें अपने आने या न आने के बारे में बताना चाहिए।
उसकी सहजता
रिश्तों के बारे में और उदाहरण देखें। मेरी साथी गीता की बेटी सुमित (छह वर्ष) अपनी छोटी बहन टुल्लू (आठ महीने) को गोदी में लिए बस्ती में अपनी मां को ढूंढ रही थी। मैं बस्ती में जा रहा था। उसे देखकर मैंने पूछा, ‘’सुमित, कहां घूम रही हो?’’ उसने बताया, ‘’मैं अपनी मम्मी को ढूंढ रही हूं।‘’ इसपर मैंने कहा, ‘’तुम केन्द्र पर चलो, मम्मी बस्ती गई हैं। अभी आती ही होगीं।‘’ मेरी बात सुनकर उसने बहुत सहजता से उत्तर दिया, ‘भैयाजी, मैं थक गई हूं (थकने वाली बात थी भी)। आप इसे गोदी लेकर केन्द्र चलो। वहां पर मैं इसे देख लूंगी।’
प्यारे और शैतान भी
चार वर्षीय नेहा और इन्द्रजीत के भी उदाहरण देखें। इन्द्रजीत- बहुत ही प्यारा, शैतान तथा चमकीली तेज़ आंखों वाला लड़का। जिसकी गतिविधियों को मैं चुपचाप देखता रहा हूं तथा मन-ही-मन खुश होता हूं। वह हर सुबह मुझे केन्द्र पर मिलता है, और देखते ही पूछता है, ‘’सर जी, मोटी वाली किताब ले आऊं?’’ उसके पास एक रंग-बिरंगी पंचतंत्र की कहानियों की मोटी किताब है। मैं कहता हूं, ‘’ले आओ।‘’ मैं उसकी किताब देखता हूं, चित्रों को दिखाकर कहानी बताता हूं। फिर उससे बात करता हूं कि तुम्हारा यह लॉकेट कौन लाया इस लॉकेट पर क्या बना है? मैंने पूछा, कि तुम्हारा पहले वाला लॉकेट कहां गया? वह कहता है, ‘’टूट गया न।‘’ उसकी प्रिय गतिविधियां रंग-बिरंगी किताबों को देखना, पानी का नल खेलना और बंद करना, किताबों या अन्य चीजों को गिनना आदि हैं। आइए देखें, वह गिनता कैसे है। एक दिन उर्मिल जी की सिलाई की कक्षा में इन्द्रजीत लड़कियों द्वारा बनाए गए कपड़े गिन रहा था। गिनने का उसका ढंग कुछ इस तरह था, एक रूमाल, एक कच्छा, एक पाजामा, एक फ्रॉक, एक ब्लाउज़ आदि। एक दिन मैंने उससे कहा, ‘’इन्द्रजीत, चलो किताबें ठीक करते हैं। तुम ज़रा इन्हें गिनकर बताओं।‘’ वह गिनता है- 4,2,5,7,16,25,6- और कहता है कि 6 किताबें हैं।
गिनती से सम्बन्धित मेरे और भी अवलोकन रहे हैं। एक बार मैं गीता की कक्षा में बच्चों से लकड़ी के गट्टे गिनवा रहा था। उस समय भी मज़ेदार अनुभव रहे। कुछ बच्चे तो सही गिन रहे थे लेकिन जिन्हें पूरी गिनती हनहीं आती थी उनकी गिनती कुछ इस प्रकार थी – 1, 2, 4, 25, 54, 16, 18, .... अंत तक आते-आते वे 100 ज़रूर कहते थे। कहने का मतलब कि आखिरी गट्टे या आखिरी चीज़ को सौ कहना है यह उन्हें बखूबी मालूम है। इस पर ज़रा गइराई से सोचा तो मुझे ख्याल आया कि गांव जाता हूं तो वहां पहली कक्षा में पढ़ने वालों के लिए योग्यता है – उसे अ, आ, .... पूरे आने चाहिए तथा 1 से 100 तक गिनती भी आनी चाहिए। वहां माताएं अपने बच्चों के बारे में कुछ इस प्रकार बताती है।, ‘6विटिया को अ, आ, ..... पूरा आवत है और एक से सौ तलक गिनती लिख लेत है।’’ इस बात से मुझे लगा कि बच्चे इसीलिए अंत में सौ कह रहे हैं ताकि लोग यह समझें कि उनको सौ तक गिनती आती है।
रंग-रबर के लिए जि़द
आइये, अब चार वर्षीय नेहा के बारे में बात करें। नेहा से मेरी अभी-अभी दोस्ती हुई हैं। नेहा शुरू-शुरू में आकर केन्द्र की गतिविधियां देखती रहती थी। उसका प्रिय खेल था- बच्चों की चप्पल को अपने पैर में डालकर देखना। अगर ठीक आए तो उसे घर लेकर चले जाना। एक दिन, मैंने उसे अपने पास बुलाया, बैठाया और घर से कॉपी लाने को कहा। अब वो नियमित रूप से आती है, बैठती है थोड़ा काम भी करती है। एक दिन उसे यह कहते हुए एक पेज दिया कि वह कुछ भी बनाए। उसने पहले कुछ आड़ी तिरछी रेखाएं खींची, फिर एक टेढ़ी-मेंढी आकृति बनाई। अब वह रंग के लिए अड़ गई उसके इस अड़ने से ही मैंने जाना कि उससे अब एक अच्छा रिश्ता बन गया है। इसी तरह एक बार वह रिफिल से बनाई आकृति को रबर से मिटाने को उतारू हो गई। मुझसे कहने लगी, ‘ये(सलीम) मुझे रकबर नहीं दे रहा है।’ मैंने कहा, ‘’सलीम इसे रबर दे दो।‘’ सलीम कने लगा, ‘’ भैयाजी, इससे रिफिल का बनाया नहीं मिटेगा।‘’ सलीम अपनी जगह सही था। लेकिन नेहा की समझ में नहीं आया, वह अपनी मांग पर कायम रही। फिर मैंने सलीम से रबर मांगा और नेहा से कहा, ‘’चलो मिटओं।‘7 लेकिन आकृति नहीं मिटी (मिटती भी कैसे)। फिर मैंने उसे समझाया कि रबर से रिफिल का बनाया नहीं मिटता, पेंसिल से बनाया हुआ ही मिटता है। जब उसने करके देखा तो वह समझ पाई कि रबर से पेंसिल का बनाया हुआ ही मिटता है।
भोला (चार वर्ष)- बस नाम से भोला, स्वभाव से शर्मिला, परन्तु चुपके से शैतानी करने में तेज़। उसके प्रिय खेल हैं चटाई को लपेटना, केन्द्र के रंग व किताबें घर ले जाकर रख लेना। एक दिन वह चुपचाप चटाई लपेट रहा था कि मैंने उसे देख लिया। उसे लगा कि शायद उसने कुछ गलत किया है। वह चटाई छोड़कर घर भागने लगा। तब मैंने उसे बुलाया और कहां, ‘चलो हम दोनों चटाई लपेटकर अंदर रख दें।’ वह मान गया। यह करना उससे मेरे रिश्ते की पहली सीढ़ी थी। अब वह मेरे साथ बिखरी किताबें ठीक करता है, मेरे पास बैठता है और किताब, पेंसिल- चॉक कुछ भी मांग लेता है। कहने का मतलब अब उसे बिल्कुल भी हिचकिचाहट नही होती है।
गुड्डू के रंग निराले
अभी कुछ दिन पहले एक चार वर्ष का बच्चा केन्द्र के बाहर नल पर पानी पी रहा था और हमारे केन्द्र की गतिविधियों को गौर से देख रहा था। मैंने उसे बुलाया और वहीं सबके साथ बैठने को कहा। अब रोज़ अपनी मुड़ी तुड़ी कॉपी लेकर वह आ जाता है। मैं उससे पूछता हू्ं कि गुड्डू क्या हाल है? मेरे इस प्रश्न का उत्तर देने का उसका ढंग निराला है। कभी वह मेरा हाथ पकड़ेगा या मेरे गले में बाहें डाल देगा। एक दिन उसने अपने गांव की भाषा में मुझसे पूछा, ‘’कल नाय आय रहव?’’ तो मैंने उत्तर दिया कि मैं अपने ऑफिस गया था। जैसे तुम्हारे पापा भी काम पर जाते होंगे। उसकी भाषा मुझे बड़ी प्यारी लगती है। वह चित्रों वाली किताब भी बहुत देखता है तथा उससे शाब्दिक संबंध भी बनाता है। एक दिन मैंने उसे नेशनल बुक ट्स्ट की ‘चंदामामा’ किताब दी, यह देखने के लिए कि उस किताब के चित्रों से वह कैसे संबंध बिठा रहा है- ‘’यह बिलार है। दरवाजा खोल के बाहर आय गयी। गोड़े से पल्ला खोल लेत है। भाग जात है।‘’ उसकी इस अभिव्यक्ति से हम उस कथन को अपने सामने घटित होता देख पाए कि बच्चा पहले अपने घर की भाषा से ही चीज़ों से संबंध बैठाता है, बाद में वह मानक भाषा सीखता है। अब वह नियमित रूप से केन्द्र पर आता है तथा अपना काम करता रहता है।
किताब पाकर खुश हुआ
अंत में गीता की कक्षा के एक सात-आठ वर्षीय बालक कमलेश का उदाहरण दूंगा। कमलेश अपनी बड़ी बहन के लिए लाइब्रेरी से किताब ले जाता है क्योंकि उसे अभी पूरी तरह पढ़ना नहीं आता। एक दिन उसने अपनी बहन के लिए वन्या प्रकाशन की बैगा लोक कथा सूरी गाय चुनी और बोला, भैयाजी मैं यह किताब ले जाऊंगा।‘’ मैंने कहां कि मैं भी यह किताब ढू़ढ रहा था। (वास्तव में मैं भी उन दिनों आदिवासी कथाएं चुनकर पढ़ रहा था।) मैंने कहा, कल ले लेना। आज मैं पढ़ लूं।‘’ वह मान गया। लेकिन हुआ यह कि उसी दिन वह किताब केन्द्र में आने वाली एक लड़की देखने लगी और फिर अपने साथ ले गई। मैं भी उससे किताब लेना भूल गया। अगले दिन कमलेश ने मुझसे किताब मांगी। लेकिन मैं निरूत्तर था। वो बढ़े दुखी मन से कहने लगा, ‘मैंने गाय वाली कितनी अच्छी किताब ढूंढी थी भैयाजी ने किसी दूसरे को दे दी।’ उसके किताब न पाने की उदासी को मैंने बड़ी शिद्दत से महसूस किया। मैंने उसे वह किताब मंगवाकर तुरन्त दी। वह बहुत प्रसन्न हुआ और किताब देखकर उसका चेहरा एकदम खिल उठा।
सुमित को उदहरण के रूप को देखें कि क्या इस तरह कोई बच्चा अपने स्कूल में सर या मैडम से कह पाता होगा? बच्चों के साथ काम करने से पहले हमारे लिए ज़रूरी है कि हम उनके साथ एक दोस्ताना रिश्ता बनाएं।
कमलेश चन्द्र जोशी:- दिल्ली में अंकुर अनौपचारिक शिक्षा केन्द्र में बच्चों के साथ विविध गतिविधियां करते और करवाते हैं। इस लेख के सभी चित्र ‘इंडिया माय चिल्डन माय फ़यूचर’ किताब से लिए गए हैं। इन्हें सी. कल्पना, 12 वर्ष एवं एस. जेना, 11 वर्ष ने बनाया है।