एल. गीता
". . . मेरी दिनचर्या की लय, एककी कक्ष में प्रवेश के बाद से हर दिन खिंचती गई और इसके साथ ही सोते हुए या जागते हुए बिताई गई समयावधि भी हर दिन बढझ़ती गई। इस तरह मैं एक दिन में एकमुश्त अधिकतम 34 घण्टे जागती रही थी और अधिकतम 19 घण्टे मैंने सोकर बिताए थे। नतीजतन कक्ष में मेरे एक दिन की लम्बाई लगभग 45.9 घण्टे की थी। यानी लगभग 48 घण्टे होते थे मेरे एक दिन में। सो मेरे सोने-जागने के चक्र में भी 45.9 घण्टों की लय चलती थी। मज़ेदार बात यह थी कि मेरे तापमान की चक्र तब भी चौबीस घण्टों के हिसाब से लयबद्ध था।"
संसार का हरेक जीव एक अंतर्निहित जैविक घड़ी का मालिक होता है। यह बात तभी साबित की जा सकती है जब किसी भी प्राणी को समयहीनता की परिस्थितियों में जीने दिया जाए। ऐसी परिस्थितियों में इन्सान कैसे काम कर पाता है? ऐसे कुछ कक्ष हैं जहां एक समयहीन माहौल में इन्सान अपनी अंतर्निहित जैविक घड़ी के अनुसार विविध शारीरिक क्रियाएं करते हुए आराम से रह सकते हैं। इस लेख मे मदुरई कामराज विश्वविद्यालय में मौजूद ऐसे ही कए कक्ष में मेरे व्यक्गित अुनभवों को जि़क्र है। मेरे (तीन बार के) वहां के प्रवास ने हमें इस महत्वपूर्ण खोज तक पहुंचाया कि एक औरत का माहवारी चक्र उसके सोने-जागने के चग्र से जुड़ा हुआ नहीं होता। इस तरह के प्रयोग, पाले (शिफ्ट-डयूटी) में काम करने वालों, विमान-सफर के कारण जेट-लैग भुगतने वालों और अंतरिक्ष अध्ययनों में कैसे मददगार हो सकते हैं, इसका भी मैंने विवरण दिया है।
क्या है बंकर?
जब आपको किसी परीक्षा की तैयारी करनी हो या अलस्सुबह की कोई टेन पकड़नी हो तो शायद कभी अलार्म घड़ी के बजने से ऐन पहले जाग जाने का अनुभव आपको हुआ होगा। यह उसी जैविक घड़ी के कारण सम्भव हो पाता है जो हम सबके पास है। जैसे हम रेडियों या टी.वी. के अनुसार मानक समय से अपनी घडि़यां मिलाते हैं, ठीक उसी तरह हमारा शरीर भी आसपास के वातावरण से मिल रहे संकेतों की मदद से अपनी घड़ी चौबीस घण्टों के एक समयचक्र के हिसाब से सेट कर लेता है।
ऐसा है मदुरई कामराज विश्वविद्यालय का समयहीन बंकर- अंदर से।
मसलन दूधवालो की साइकिल की घण्टी सुनकर हम यह जान जाते है कि सुबह हो गई है, बिना आंख खोले ही। इसके अलावा कई और चीज़ें भी हैं जो हमें समय के बारे में जानकारी दे सकती हैं – जैसे रोशनी, तापमान, शोर आदि। इन्सान की लगभग सभी शारीरिक क्रियाएं लयबद्ध होती है – यानि वे किसी निश्चित समय के अन्तराल के बाद दोहराई जाती हैं। जैसे हमारी नींद का समय, जागने का समय, हमारे शरीर का तापमान, शरीर से निकलेने वाले सोडियम या पोटेशियम लवणों की मात्रा, पानी की मात्रा आदि कोई भी कार्य के बारे में सोचें तो वह लयबद्ध ही दिखते हैं। शरीर के ये सभी कार्य इसलिए एक लय में घटित होते हैं क्योंकि जिस वातावरण में हम हैं उससे हमें लगातार समय की जानकारी मिलती रहती है।
अगर हमें किसी ऐसे माहौल मे जीना पड़े जिसमें समय के बारे में कोई संकेत हमें मिले ही नहीं, तो क्या हो? अगर हम समय का हिसाब-किताब ही खो दें तो? कितना ज़रूरी होता है हमारे लिए समय का ज्ञान? ये कुछ ऐसे रोचक सवाल हैं जिनके जवाब तभी मिल सकते हैं जबकि हमारे पास एक ऐसा वातावरण उपलब्ध हो जो पूरी तरह से समय के संकेतों से मुक्त हो। और यह सच है कि इस तरह के वातावरण वाली परिस्थितियां दुनिया में केवल पांच जगह निर्मित की गई हैं। चूंकि ये ‘समयहीन वातावरण’ मानव पर प्रयोग करने के लिए बनाए गए हैं इसलिए इन्हें ‘सुविधा’ माना जाता है। दुनिया की ये पांचों खास सुविधाएं काफी कुछ एक-सी हैं इसलिए मैं सिर्फ उसका वर्णन करूंगी जो भारत में है। मेरा यकीन मानिए, मैं इस कक्ष का वर्णन बखूबी कर सकती हूं- इस समयहीन कक्ष में मैंने अब तक (तीन टुकड़ों में) कुल मिलाकर लगभग सौ दिन बिताए हैं।
और सुविधाएं
भारत का एकमात्र एकाकी रहने का कक्ष (बंकर) मदुरई कामराज विश्वविद्यालय के ‘जीव व्यवहार एवं शरीर विज्ञान’ विभाग में है। बाकी चार ऐसे कक्ष अमेरिका, इंग्लैण्ड, स्विटज़रलैण्ड और जापान में हैं। भारत के इस बंकर में एक पच्चीस फुट लंबा और इतना ही चौड़ा, वर्गाकार कमरा है। बंकर में कोई खिड़की नहीं रखी गई है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इसमें सूरज की रोशनी न जा पाए। जो व्यक्ति इसमें रहते हैं, उनके इस्तेमाल के लिए यहां कृत्रिम लाइट लगाई गई हैं। इन लाइटों को चालू या बन्द रखने की छूट अन्दर रहने वाले व्यक्ति को दी जाती है। इस कमरे की दीवारें दोहरी बनाई गई हैं; और दोनों दीवारों के बीच रेत भरी गई है ताकि बाहर की कोई भी आवाज़ अन्दर सुनाई न दे। पूरे प्रयोग के दपौरान इस परिवेश का तापमान लगभग 25 डिग्री सेल्सियस बनाए रखा जाता है। कमरे की हवादारी के लिए कुछ नलियां बनाई गई हैं जिनमें से हवा लगातार कमरे में प्रवाहित की जाती है। इन नलियों में भी बाहर की आवाज़ को अन्दर आने से रोकने का इंतजा़म होता है। इस कमरे के साथ ही एक छोटा-सा रसोईघर और शौच एवं स्नानागार लगा हुआ है। रेफ्रीजरेटर, विडियो कैसेट प्लेयर, टेप रिकॉर्डर, व्यायाम करने की एक मशीन, कुर्सी-मेज़ और खाना पकाने के इंतज़ाम जैसी सारी सुविधाओं से लैस है यह कमरा। पर इस कमरे से ऐसी सब चीज़ें, जो समय की जानकारी दे सकती हैं (जिससे अन्दर रहने वाला व्यक्ति उसके अनुसार अपने सब कार्य लयबद्ध कर सके), गायब हैं जैसे घडि़यां, टी.वी., रेडियो, सामयिक पत्रिकाएं आदि। इस कमरे से लगी एक छोटी-सी कोठरी में अन्दर रहने वाले व्यक्ति की ज़रूरत की सब चीज़ें रखी जाती हैं। बाहर की दुनिया से संवाद सिर्फ लिखित पर्चो के ज़रिए होता है। बाहर बैठा कोई व्यक्ति चौबीसों घण्टें इस कक्ष की सुविधाओं पर नज़र रखता है। अगर कभी बिजली गोल हो जाए तो मिनटों में ही जनरेटर चालू कर दिया जाता है। जिस समय कोई व्यक्ति इस कमरे में रहता है उस दौरान उसकी सारी ज़रूरतें लगभग तुरन्त ही पूरी कर दी जाती हैं। संक्षेप में कहें तो वह व्यक्ति अन्दर के अपने प्रवास के दौरान ‘राजसी बर्ताव’ के मज़े लेता है।
क्या होता है बंकर में?
दुनिया भर के इन एकाकी कक्षों में कई रोचक प्रयोग किए गए हैं। जर्मनी के ज्युरगेन एस्चोफ और आर. वेवर नेइन कक्षों में पहली बार मानवों में मौजूद ऐसी जैविक लय पर प्रयोग किए थे जो स्वत: ही हर चौबीस घण्टे के बाद दोहराई जाती हैं। जर्मनी के (अब अक्रिय) एकाकी कक्ष में किए गए प्रयोगों से ही पहली बार यह बात साबित हुई थी कि इन्सान समय ससंकेतों के अभाव या गैरमौजूदगी में भी काम अपने प्राकृतिक किसी लय के अनुसार करते हैं; कि यह लयबद्धता अंतिर्निहित है और इन्सान की किसी आंतकरक घड़ी पर निर्भर करती है। यह काम ऐसे समय में इन्सान के सोन-जागने के चक्र (हर रोज़ नींद आने और जागने के समय) को मापकर किया गया था जब वे एकाकी कक्ष में रह रहे थे। चूंकि साधारणतयसा हम हर रोज़, दिन के लगभग एक ही समय पर जागते हैं इसलिए दो लगातार दिनां के जागने के समय के बीच का अन्राल लगभग चौबीस घण्टे का होगा। यानी यह उजाले-अनधेरे के चौबीस घण्टे के प्राकृतिक चक्र से बंधा होता है। लेकिन लम्बे समय तक एकाकी परिस्थितियों में रहने से यह बंधन टूट जाता है और प्रयोग कर रहे व्यक्ति का समय आज़ाद हो जाता है। मतलब एक ऐसी स्थ्िाति आ जाती है जब किसी समय संकेत की गैरमौजूदगी में व्यक्ति की आंतरिक लय उभरकर सामने आती है। देखने में आया है कि ऐसे में सोने-जागने के चक्र में चौबीस घण्टों से ज़्यादा का अन्तराल हो जाता है। एस्चोफ और वेवर ने यह भी साबित किया कि सामाजिक संकेत भी इंसान को चौबीस घण्टे के चक्र के प्रति सजग बना देता है। इससे यह भी साबित हुआ कि सामाजिक संकेत हमारे जीवन में अंधेरे-उजाले के चक्र से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण होते हैं।
मेरे अनुभव की शुरूआत
प्रयोगों के इन निष्कर्षो के आधार पर दुनिया भर में ऐसे ही कई और प्रयोग किए गए। भारत का हमारा एकाकी कक्ष भी कई रोजक निष्कर्षों तक पहुंचने का गौरव रखता है। यहां 1987 से प्रयोग किए जाने लगे। पहली बार जी. मारीमुथु नाम के, लय पर ही शोघ कर रहे, एक व्यक्ति मदुरई के इस एकाकी कक्ष में रहे थे। जब मैं पहली बार यहां के ‘जीव व्यवहार विभाग’ में आई थी (जहां की विशेषता है जैविक लय पर शौध) तब मुझे इस कक्ष की एक झलक देखने को मिली थी। तुरन्त ही मैंने चाहा था कि इसमें रहने का अगला मौका मुझे मिले। मेरी खुशकिस्मती थी कि इस ‘अपने तरह के एकमात्र कक्ष’ को बनाने वाले और इस विभाग के अध्यक्ष एम. के. चन्द्रशेखरन लगभग तुरन्त ही मुझे प्रयोग के लिए अगला उम्मीदवार बनाने के तैयार हो गए। चूंकि मैं इन प्रयोगों में शामिल थी इसलिए मैं आपको इनके तौर-तरीकों के बारे में विस्तार से बातऊंगी। साथ ही अपने व्यक्तिगत अनुभव भी आपसे बांटूंगी। शुरू में मुझे कुछ दिन ‘पूर्व-एकाकी काल’ में रहना था जब मुझसे अपने सोने और जागने के समय नोट करने को कहा गया। मेरे शरीर का अन्दरूनी तापमान भी सॉलीकार्डर नामक एक यंत्र से हर छह मिनट में नापकर एक कम्प्यूटर पर दर्ज कर लिया जाता था।
शरीर का तापमान नापने के पीछे भी एक कारण है। वैसे तो हम मानव स्थिरतापी होते हैं, पर हर दिन हमारे शरीर के तापमान में दो डिग्री सेथ्ल्सियस का एक बदलाव आता है। लगभग दोपहर के आसपास हमारा शारीरिक तापमान अपने अधिकतम पर होता है और सबसे कम, जब हम बीच रात में गहरी नींद में होते हैं। चूंकि हम हर रोज़ लगभग एक ही समय पर सोते हैं इसलिए सबसे कम शारीरिक तापमान वाला समय भी लगभग चौबीस घण्टे के अन्तराल में ही आना चाहिए। यानी हमारा तापमान चक्र (या लगातार दो दिनों में सबसे कम तापमान के बीच के समय का अन्तर) भी लगभग चौबीस घण्टे का होगा। हम यह पता लगाना चाहते थे कि एकाकीपन में इस तापमान की लय में कोई फेरबदल दिखता है कि नहीं। इसलिए एकाकीपन के पहले, उस दौरान और उसके बाद भी कुछ समय तक मेरे शरीर का तापमान नापा गया था। बंकर में प्रवास से एक दिन पहले ही मुझे उस कक्ष में एक रात बिताने को कहा गया। यह इिलिए कि एक तो मैं उस कक्ष से परिचित हो जाऊं और दूसरा, अगर कोई समस्या हो जिसे सुधारा, जा सके तो उसका भी पता लग जाए। 4 मई, 1989 को मैंने पहली बार उस एकाकी कक्ष में प्रवेश किया। उस कक्ष मे जाने वाली मैं पहल महिला थी इसलिए आप अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि मुझे कितनी पब्लिसिटी मिली होगी। मेरे सब दोस्त मज़ाक में कह रहे थे कि मैंने मदुरई की गर्मी से बचने के लिए एककी कक्ष में रहने के लिए मई का महीना चुना था।
बंकर में मेरा जीवन
तो, शाम को लगभग 5:00 बजे एकाकी कक्ष मे मेरा प्रवास शुरू हुआ। एक अच्छे खासे जमावड़े ने मुझे विदा किया। व्यक्तिगत तौर पर, मेरे लिए यह एक सच होता हुआ सपना था। बहुत दिनों से मैं कहीं अकेली रहना चाह रही थी। पर यह तो सपने में भी न सोचा था कि वह ‘कहीं’ यह एकाकी कक्ष होगा और मैं उसमें एक शहजा़दी की तरह रहूंगी। एक दिन पहजले मैंने प्रवास के लिए खूब सारी ‘खरीददारी’ की। इसलिए एकाकी कक्ष में घुसने के बाद पहले कुछ घण्टे मैंने वह सब खोलने और जमाने में बिताए। पहले दिन जब मैं सोने लगी तो मुझे एक ऐसे किस्म की शांति का अनुभव हुआ जैसा मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था। अगली सुबह मैंने घड़ी में समय देखने के लिए आंख खोली तो एक झटके से मुझे याद आ गया कि यह एकाकी कक्ष था और मुझे अब काफी समय तक समय का पता नहीं चलना था। धीरे-धीरे मैं कक्ष के अपने एकाकी और समयहीन जीवन की आदी होने लगी। वाकई बहुत ही अनोखा अनुभव था वह- कुछ भी करने के लिए समय की कोई पाबन्दी नहीं थी। किसी निश्चित समय पर जागने, खाने या कुछ भी करने की कोई ज़रूरत नहीं थी और मुझे किसी तरह से ताकीद करने वाला भी कोई नहीं था। वह एक जीवन था जो मैं अपने लिए ही जी रही थी और मुझे यह खासा अच्छा लग रहा था। मुझे लगा कि यह एक ऐसी परिस्थिति थी जहां हम यह अहसास कर सकते हैं कि हम समाज की ज़रूरतों के अनुसार अपने आपको कितना ढालते हैं, समझौते करते हैं।
किसी भी समय की पाबंदी के न होते हुए भी, मैं काफी कुछ व्यवस्थित ही थी। हालांकि मैं अपने सारे काम तभी करती थी जब वे मुझे भाते थे। इस कक्ष की एक दीवार पर बीस बटनों का एक बोर्ड है, प्रत्येक बटन किसी एक काम के लिए निर्धारित। मसलन पहले नंबर का बटन निर्धारित है ‘जागने’ से, दूसरे नंबर का बटन है ‘बिस्तर से उठने’ से और इसी तरह बाकी भी। मैं जब भी कोई काम करूं तो मुझे उसके लिए निर्धारित बटन को दबा देना होता था। इससे बाहर लगे एक ‘गतिविधि रिकॉर्डर’ में सब कुछ रिकॉर्ड होता जाता था। इससे किसी भी समय बाहर के लोग यह जान जाते थे कि मैं क्या कर रही हूं। मसलन मैं कब सोने जा रही हूं और कब जाग रही हूं यह पता लगाकर मेरे सोने-जागने के चक्र को बाहर से देखा जा सकता था। जब भी मुझे लगता कि दो घंटै हो गए होंगे मुझे अठ नंबर का बटन दबाना होता था। इस ‘समय के अनुमान लगाने’ से यह देखने की कोशिश करते हैं कि प्रयोग का उम्मीदवार समयहीन वातावरण में समय बीतने को कितना सटीक माप पाता है। मेरे चलने-फिरने की गतिविधियों को एक गतिविधि-मॉनिटर से मापा जाता था जिसे मैं अपने बाएं हाथ पर पहने रहती थी। इतने सब ताम-झाम के साथ तो मैं एक तमाशा दिखती थी, पर अलग दिखना भी बढि़या लगता था। बस इतनी ही कसर थी कि मुझे देखने को वहां कोई न था। बटन दबाने के अलावा प्रयोग की खातिर मेरे पास करने को कुछ खास नहीं था। सारा दिन मेरे पास होता था, अपनी मर्जी से बिताने को। मैं अपना समय पढ़ने, फिल्में देखने, संगीत सुनने, कुल मिलाकर इत्मीनान से मज़े करने में बिताती थी। बेशक, कभी-कभी मैं क्रोनोबायलॉजी (जीव समय-क्रम विज्ञान) भी पढ़ती थी। और बाकी समय मैं नए-नए व्यंजन आज़माने में खर्च करती थी आमतौर पर एकाकी कक्ष में रह रहे व्यक्ति को अपना खाना खुद पकाने को कहा जाता है क्योंकि बाहर से खाना मुहैया करवाने में काफी दिक्कतें आती हैं। मसलन इस कक्ष में रहने वाले पहले व्यक्ति ने एक बार तब इडलियां मंगवाईं जब बाहर की दुनिया में रात के तीन बजे थे। उस समय इडलियां जुटाने में बाहरवालों को अच्छी-खासी मेहनत करनी पड़ी थी। आप समझ ही सकते हैं कि वे अन्दर के व्यक्ति को यह बता भी नहीं सकते थे कि बाहर ऐसे समय इडलियां आसानी से उपलब्ध नहीं होतीं। अन्दर के व्यक्ति की मानस से जूझना काफी मुश्किल काम होता है क्योंकि छोटी-से–छोटी असावधानी या गलती से भी उसे समय का कोई अंदाज़ा मिल सकता है। इसलिए उस वाकए के बाद से प्रयोग के उम्मीदवारों को अपना खाना खुद ही पकाने को कहा जाता है। आमतौर पर जितने लोग इस कक्ष में रह चुके थे (मुझसे पहले सात लोग), सबके वज़न कम हुए थे। मैं भी प्रयोग के बाद इस कक्ष से निकलते हुए एक 6छरहरे बदन की स्वयं’ की कल्पना करती थी, और वही हुआ भी। कुल मिलाकर मेरा वज़न पांच किलो घट गया था। इसका कारण मुझे तभी पता चला जब प्रयोग खत्म हुआ और मैं बाहर आई।
क्या खोया, क्या पाया
दरअसल जब मुझसे कहा गया कि प्रयोग पूरा हो चुका था और मुझे बाहर आना है तो यह मेरे लिए एक आश्यर्य था (और झटका भी)। यह इसलिए क्योंकि शुरू में यह तय हुआ था कि मैं वहां कम-से-कम एक महीना रहूंगी। पर जब बाहर के लोगों ने मुझे बाहर बुलाया तब तक मैंने सिर्फ बाइस दिन ही गिने थे। मैं बाहर के लोगों से इस प्रयोग को बाइस दिन में ही खत्म कर देने के लिए काफी खफा थी। मेरे कक्ष से बाहर आने के कुछ मिनट बाद ही मुझसे उस दिन की तारीख का अंदाज़ा लगाने को कहा गया। आसपास खेड़े लोगों का काफी मनोरंजन करते हुए मैंने कहा 26 मई, जबकि उस दिन की तारीख 8 जून। तो मैंने अपने जीवन के तेरह बेशकीमती दिन खो दिए थे। पर मुझे लगता है कि यह सार्थक ही था। कुल मिलाकर यह कि मैंने एकाकी कक्ष में पैंतीस ‘कैलेण्डर दिनों’ को बाइस व्यक्तिनिष्ठ दिन यानी उतना समय जिसको मैंने एक दिन के बराबर माना था, न कि कैलेण्डर के मुताबिक चौबीस घण्टे का दिन। मेरी दिनचर्या की लय, एकाकी कक्ष में प्रवेश के बाद से हर दिन खिंचती गई और इसके साथ ही सोते हुए या जागते हुए बिताई गई समयावधि भी हर दिन बढ़ती गई। इस तरह मैं एक दिन में एकमुश्त अधिकतम 34 घण्टे जागती रही थी और अधिकतम 19 घण्टे मैंने सोकर बिताए थे। नतीजतन कक्ष में मेरे एक दिन की लम्बाई लगभग 45.9 घण्टे की थी। यानी लगभग 48 घण्टे होते थे मेरे एक दिन में। सो मेरे सोने-जागने के चक्र में भी 45.9 घण्टों की लय चलती थी। मज़ेदार बात यह थी कि मेरे तापमान का चक्र तब भी चौबीस घण्टों के हिसाब से लयबद्ध था। मेरे सोने-जागने के चक्र में बदलाव के बावजूद मेरे शरीर का तापमान हर चौबीस घण्टे बाद ही न्यूनतम पर आता था। मतलब मेरा तापमान मेरे व्यक्ति निष्ठ दिन में दो बार न्यूनतम की ओर झुकता था। एक बार जब मुझे कायदे से सोना चाहिए था पर मैं जागती रहती थी और दूसरी बार जब मैा दरअसल सोती थी। मेरे एक व्यक्तिनिष्ठ दिन में दो बार न्यूनतम तापमान दर्ज होता था जिसके बीच लगभग 25.1 घण्टे का अंतराल हाता था। दूसरे शब्दों मे कहें तो मेरे सोने-जागने के चक्र के बीच का रिश्ता टूट गया था।
बंकर के अंदर रहने के दौरान मैं रोज़ (यानी चौबीस घंटे के कैलेण्डर दिन में) कितने घंटे सोई और कितने घंटे जागी, इसका ग्राफ। ग्राफ की हर लाइन एक पूरे दिन को दर्शाती है – खाली हिस्सा ‘सोने का समय’ और काला हिस्सा ‘जागते रहने का समय’ दर्शाता है। आठवें दिन की लाइन के पास एक तीर लगा हुआ है। इस दिन मैं बंकर में दाखिल हुई। इसी तरह नीचे भी दो जून के पास एक तीर लगा है। इस दिन मैं बंकर से बाहर आई। बंकर में दाखिल होने के बाद पहली बार मुझे एक मई को माहवारी शुरू हुई और दूसरी बार 29 मई को।ग्राफ देखकर पता चलता है कि मेरे सोते रहने और जागने के घंटे क्रमध: बढ़ रहे थे और बंकर से बाहर निकलेने के कुछ दिन पहलिे इनमें करीबन स्थिरता आ गई थी।
इस पूरी अवधि के दौरान मैं सबसे अधिक देर करीब चौंतीस घंटे जागी रही और इसी तरह मैं सबसे अधिक देर सोई, करीब उन्नीस घंटे। ग्राफ को देखकर कहा जा सकता है कि कुछ दिन तो मैं सोई ही नहीं जैसे 18, 20, और 22 मई को।
आम तौर पर, सामान्य सामाजिक परिस्थितियों में सोने-जागने के चक्र और तापमान चक्र, दोनों में एक सा अन्तराल होता है – लगभग चौबीस घण्टों का। ऐसे में कहा जाता है कि वे लयबद्ध हैं या उनमें एक तालमेल है। लेकिन जब कोई व्यक्ति एकाकी परिस्थितियों में रहता है तो उसका सोन-जागने का चक्र आज़ाद होकर भटकने लगता है और उसका अन्तराल चौबीस घण्टे से फर्क भी हो सकता है। पर ऐसे में तापमान चक्र के अन्तराल का बदलना ज़रूरी नहीं होता। वह लगभग चौबीस घण्टे की लय बरकरार रख सकता है, और अधिकतर रखता भी है। इस स्थिति को आन्तरकि लयबद्धता का टूटना या ‘आन्तरिक लयहीनता’ भी कह सकते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि हमारी शारीरिक लय शायद एक से ज़्यादा घडि़यों से नियंत्रि होती है।अब हमारे पास एक रोचक सवाला था: माहवारी चक्र किस लय को मानेगा? लगभग 48 घण्टों वाला सोने-जागने का चक्र या लगभग 24 घण्टों वाला तापमान चक्र? एककी कक्ष में मैंने सिर्फ बाइस दिनों के बीतने को महसूस किया था।
अगर माहवारी चक्र सोने-जागने के साथ लयबद्ध हो तो उसे मेरे 28 व्यक्ति निष्ठ दिनों के गुज़रने के बाद आना चाहिए। दूसरी ओर अगर वह तापमान चक्र के अनुसार चलता हो तो उसे 28 कैलेण्डर दिन (चौबीस घण्टों वाले) के बाद आना चाहिए। मेरे साथ दूसरी बात हुई। मुझे 28 कैलेण्डर दिनों के बाद ही ‘महीना’ आया। मतलब कि वह सोने-जागने के चक्र पर निर्भर नहीं था।
एक और मज़ेदार बात यह हुई कि बाहर निकलने पर बाहर के सामाजिक परिवेश से लगभग तुरन्त ही पटरी बैठने लगी। मेरे सोने-जागने के चक्र ने कक्ष से निककलने के दूसरे दिन से ही लगभग चौबीस घण्टे का अन्तराल फिर से हासिल कर लिया। आप समझ सकते हैं कि सामाजिक इशारों का इंसान की चौबीस घण्टों की जैविक घड़ी पर कितना ज़ोरदार असर पड़ता है। चूंकि एक ऐसी महिला उम्मीदवार का मिलना बहुत मुश्किल होता, जिसका कि सोने- जागने का चक्र 48 घण्टों का हो, जिसके दो ऐसे समय चक्रों के बीच तालमेल एकाकीपन मे टूट जाती हो और जिसका महावारी चक्र नियमित रूप से 28 दिनों का हो, इसलिए ऐसे प्रयोग दोहराना कठिन होता है। पर हम इस प्रयोग के अपने नतीजों की जांच करना चाहते थे। एक ही तरीका बचता था वही प्रयोग दोहराने का कि उसी उम्मीदवार को (यानी मुझे) फिर से चुना जाए। हमारे शरीर के कुछ सालाना चक्र (साल भर बाद दोहराए जाने वाले) भी होते हैं। इनसे और मौसमी बदलावो के असर से बचने के लिए यह तय किया गया कि प्रयोग साल के उन्हीं महीनों में किया जाए जिनमें पहली बार किया गया था, पर दो साल बाद।
मैंने फिर कर दिखाया
तो जिुन्दगी में दूसरी बार मई 1991 में मैं एकाकी कक्ष की मेहमान बनी। सबकुछ पहले जैसा ही था सिवाय इसके कि दो साल गुज़र चुके थे और अब मेरे पास ज़्यादा जि़म्मेदारी वाले काम थे करने को। जैसे मुझे बहुत कुछ पढ़ना था, चूहों के चौबीस घण्टों के समयचक्र पर मैंने इकट्ठे किए आंकड़ों का विश्लेषण करना था, और भी ऐसे बहुत से काम थे। सो इस बार मैंने अपना समय रचनात्मक तरीके से बिताया। सिर्फ एक सावधानी बरतनी थी मुझे कि मेरे पहले प्रयोग के नतीजों की जानकारी मेरी सोच को प्रभावित न करे। इस बार मेरा प्रवास सचमुच ही समय से पहले रोक दिया गया, 32 कैलेण्डर दिनों के बाद। इसके पीछे एक अच्छा–खासा कारण भी था। मेरे बंकर में प्रवास के बीच राजीव गांधी की हत्या हो गई और बाहर परिस्थितियां काफी उथल-पुथल हो गई। मैं शायद दुनिया के इन बहुत ही कम लोगों में से हूं जिन्होंने यह खबर समय पर नहीं सुनी। ऐसे में बाहर के लोगों को न सिर्फ मेरी ज़रूरतें पूरी करने में दिक्कतें पेश आ रही थीं, बल्कि मेरी इस अज्ञानता के कारण एक और समस्या आ खड़ी हुई।
मैंनपे अपने दिन खोए :- बंकर के अंदर मेरे अपने सोने और जागने के क्रम के कारण मैंने जितने दिन गिने उनका ग्राफ। मैंने 32 कैलेंडर दिनों की बजाए सिर्फ 20 दिन महसूस किए।
शुरू की आठ लाइनें बंकर में घुसने से पहले के आठ दिनों में मेरे सोने और जागने का क्रम हैं। नौवें दिन मैं बंकर में चली गई। इसी तरह जिस दिन मैं बाहर आई मेरे हिसाब से मैं सिर्फ बीस दिन अंदर ही थी जबकि कैलेंडर के हिसाब से 32 दिन हो चुके थे। काला वाला हिस्सा मेरे सोने के समय और खाली वाला हिस्सा मेरे जगे रहने के समय को दर्शाता है। नीचे की पांच लाइनें बंकर से बाहर आने के बाद के पांच दिनों में सोने और जागने का क्रम है।
ग्राफ को देखकर पता चलता है कि मेरे सोने और जागने के हिसाब से मेरे दिन की लंबाई बढ़ती जा रही थी- बाहर निकलेने के दिन तक आते आते ये लगभग 48 घंटे का हो गया था। तोरे के निशान मेरे माहवारी चक्र के शुरू होने के दिन को प्रदर्शित करते हैं।
दरअसल वे मुझे हर रोज़ मेरे व्यक्तिनिष्ठ दिन (एक दिन में लगभग 48 घण्टे) के मुताबिक अखबार भेजा करते थे। मेरे व्यक्तिनिष्ठ दिन के हिसाब से मैा कैलेण्डर के दिन (चौबीस घण्टों वाले) खो रही थी और पीछे चल रही थी। इसलिए बाहर से नियंत्रण सम्हाले लोगों के लिए, बिना मुझ तक इस हादसे की खबर सुनाए भी, कुछ दिनों तक अखबार पहुंचाते रहना सम्भव था। 2 जून 1991 को मेरे लिए एकाकी कक्ष मे तारीख थी 22 मई 1991 की। उस दिन के अखबार में राजीव गांधी हत्याकांड की खबर थी और बाहर के लोग यह तय नहीं कर पाए कि मैं यह सदमा अकेले सह पाऊंगी कि नहीं। और उन्होंने उस दिन मुझे बाहर आने को कहा। इस हादसे के कारण, ज़ाहिर है एकाकी कक्ष से बाहर आने का मेरा दूसरा अनुभव पहले के मुकाबिले बहुत फर्क था। सचमुच यह खबर मेरे लिए कए बढ़ा झटका थी। कक्ष से बाहर आकर भी प्रयोग के बाद के आंकड़ों के लिए मुझे सॉलीकॉर्डर पहले रहना यहोता था। इस बार एक नई मुसीबत सामने आई। इस सॉलीकॉर्डर में एक छोटी सी डिब्बी में दो तार लगे होते हैं और जब इसे पहना जाए तो यह आसानी से दिखती रहती है। ज़रा कल्पना कीजिए कि इस हादसे के कुछ ही दिनों बाबद कोई ल़की एक ऐसी डिब्बी पहनकर घूमती नज़र आए जिसमें से दो तार निकल रहे हों तो क्या होगा।
दूसरे प्रयोग के नतीजों ने हमारे पहले प्रयोग को सही करार दिया क्योंकि इस बार भी हमें तकरीबन वही आंकड़े मिले थे। इस बार मेरे सोने-जागने का चक्र करीब 46.6 घण्टों का औरा तापमान चक्र कोई 24.4 घण्टों का था। इन दोनों के बीच लय 9 वें व्यक्ति निष्ठ दिन टूटी और ठीक 28 वें कैलेण्डर दिन मुझे ‘महीना’ आया। इससे हमारे पहले प्रयोग के नतीजे सही साबित हुए। इस बार भी बाहर आने पर सामाजिक परिस्थतियों से तालमेल पहले की तरह ही हुआ।
एक और बात जो इन दो प्रयोगों और कुछ पहले के प्रयोगों से साबित हुई, वह उम्मीदवारों के दो घण्टे के अन्तराल के अंदाज और सोने-जागने के चक्र के बीच के सीधे संबंध के बारे में थी। जिन उम्मीदवारों की सोने-जागने की लय चौबीस घण्टे बीत जाने का अंदाजा लगभग सही-सही लगाते थे। जबकि मेरे जैसे उम्मीदवार, जिनके चक्र में 48 ध्घण्टे होते हैं, लगभग छह घण्टे बताते हैं। यानी बाहर बैठे लोग उम्मीदवार के पहले दो घण्टे बीतने के संकेत को देखकर यह अंदाजा लगा सकते हैं कि वह कितनी देर तक जागने वाला है।
इस सब से क्या?
अब शायद हमें रूककर यह भी सोच लेना चाहिए कि ये सब प्रयोग क्यों किए जा रहे हैं। ये अध्ययन ऐसे लोगों की मदद कर सकते हैं जिनकी समय चक्रों के बीच की लय किसी न किसी वजह से टूट गई हो। जैसे पाली (शिफ्ट) में काम करने वाले लोग, अन्तरिक्ष यात्री, या ऐसे लोग जो समय-क्षेत्रों के पार सफर करते हैं। अगर ऐसे लोगों के सोने-जागने के चक्र को एकाकीपन में मापा जाए तो यह बताया जा सकता है कि कौन कितनी आसानी से इन परिस्थितियों से जूझ सकता है। उनके काम का समय उनकी अधिकतम कार्यक्षमता के समय के हिसाब से प्लान किया जा सकता है। जो लोग एक देश से दूसरे देश सफर करते हैं और जेट-लैग भुगतते हैं उन्हें भी ऐसे अध्ययन मदद कर सकते हैं कि वे अपने आपको कैसे अलग-अलग के समय के हिसाब से अनुकूलित करें।