मुकेश मालवीय
एक स्कूल की कहानी आंकड़ों की जुबानी
मध्यप्रदेश में नर्मदा के दक्षिण में सतपुड़ा पहाड़ों में फैला हुआ है बैतूल जिला। इस जिले की शाहपुर तहसील में सड़क और शहर में तकरीबन बारह किलो मीटर दूर सतपुड़ा पहाड़ों की तलहटी में बसा यह गांव पावरझंडा जंगल से घिरा हुआ है। इसी गांव के स्कूल का किस्सा है यह।
1940 में यानी कि अंग्रेजों के जमाने में शुरू हुआ था पावरझंडा गाव का यह स्कूल। स्कूल का किस्सा बयान करने से पहले आइए गांव के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर लें।
भूमि का वितरण
गांव बहुत बड़ा नहीं है, कुल जमा हज़ार-एक लोग रहते हैं। करीब 148 परिवार गोंड आदिवासियों के हैं और कुछ चार-पांच दलित परिवार हैं। बाकी 52 परिवार गौली जाति के हैं। तो आप कह सकते हैं कि यह एक आदिवासी गांव है। इन दोनों जाति के समूहों का आर्थिक स्तर लगभग एक-सा है - मवेशी, जंगल व ज़मीन इनकी जीविका के प्रमुख साधन हैं।
इस गांव में 212 हेक्टेयर कृषि भूमि है। इस में से 40 हेक्टेयर भूमि 20 वर्ष पहले एक छोटा बांध बन जाने के कारण सिंचित है। वर्तमान में गांव की जनसंख्या 1020 है।
एक हैक्टेयर = 2.5 एकड़; एक एकड़ = 4000 मीटर2
जैसा कि आप तालिका में देख सकते हैं यहां के ज्यादातर लोग छोटे किसान हैं। मिट्टी कमजोर होने के कारण इनकी पूरी गुज़र-बसर खेती से नहीं हो पाती।
खेती के अलावा दूसरा बड़ा काम पशु पालना है। लगभग हर परिवार में 5 से लेकर 25 तक मवेशी हैं जिनको चराने का काम परिवार का एक सदस्य करता है।
जंगल के पास बसे होने के कारण लोग जंगली फसल, महुआ, गुल्ली, सागौन बीज, आंवला, चिरोंटिया बीज, आचार गुठली, तेन्दुपत्ता
आदि इकट्ठा कर इन्हें बेचते हैं। इस काम में घर के बच्चे और बड़े सभी बराबर का सहयोग करते हैं।
चौथा प्रमुख काम है कृषि मज़दूरी या अन्य मज़दूरी का काम। वर्ष में दो बार लगभग 100 से 150 लोग इस गांव से सोयाबीन और गेंहू की कटाई के समय लगभग दो महीने के लिए गांव से बाहर चले जाते हैं। इन बाहर जाने वाले मज़दूरों में 10 से 15 साल के बच्चों की संख्या भी काफी ज़्यादा होती है।
रोजी रोटी के इस संघर्ष में इन परिवारों के बच्चों की शिक्षा की हालत कैसी है, आइए देखें।
शिक्षा का स्तर : स्कूल छोड़ने का दर
पावरझंडा में एक प्राथमिक शाला खुली 1940 में। इस तरह 57 साल पहले यह गांव आधुनिक शिक्षा के संपर्क में आया। स्कूल में दो एक शिक्षक सदैव रहे हैं। एक अच्छी खासी तीन चार कमरे की बिल्डिंग है और साथ ही खेलने के लिए मैदान भी है।
1997 तक इस शाला में 754 बच्चे दर्ज हुए यानी कि 57 साल में 754 बच्चे। इसका अर्थ यह हुआ कि हर साल औसतन तेरह नए बच्चे शाला में दाखिला लेते थे।
इनमें से कितने बच्चे 5 साल शिक्षा प्राप्त करके उत्तीर्ण हुए? कितने बच्चे पढ़ाई बिना खतम किए स्कूल छोड़ गए? इसके लिए हम 1992 तक दाखिल बच्चों के ब्यौरे को देखेंगे। क्योंकि 1993 के बाद जो दाखिल हुए वे अब भी शाला में अध्ययनरत हैं।
1940 से 1992 तक कुल 648 बच्चे दर्ज हुए थे। इनमें से केवल 115 बच्चे ( 18% ) पांचवी उत्तीर्ण हुए। बाकी बच्चों ने अलग अलग कक्षाओं में स्कूल छोड़ दिया। कितने बच्चों ने कौन-सी कक्षा के दौरान स्कूल छोड़ा इसका विवरण तालिका में है।
52 वर्ष के दौरान पहली कक्षा मे दर्ज़ बच्चे = 648
उनमे से कक्षा 5 उत्तरीर्ण 115 17.7%
कक्षा 5 उत्तरीर्ण 21 3.2%
कक्षा 5 उत्तरीर्ण 7 1.1%
ये सभी 7 पुरुष, जिन्होंने बारहवीं पास की शासकीय नौकरी में हैं। - 5 सहायक शिक्षक, एक पटवारी और एक पुलिस की नौकरी कर रहा है।
जो बच्चे पाचवीं के बाद आगे पढ़ पाए उनके बारे में पूछताछ एवं जानकारी इकट्ठा करने पर पता चला कि ये सब बच्चे 1970 के बाद पाचवीं पास हुए हैं। 1970 के आस-पास करीब के एक गांव पहावाड़ी में एक छात्रावास खुला था। इनमें से अधिकांश बच्चे इस छात्रावास में रहकर आठवीं तक की पढ़ाई पूरी कर पाए। इन बच्चों की पारिवारिक पृष्ठभूमि देखी जाए तो इनके पालक तुलनात्मक रूप से आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं एवं खुद भी पढ़े लिखे हैं।
जैसा कि अब तक की जानकारी से साफ है कि बहुत से पांचवीं पास लोग आगे नहीं पढ़ पाए, परन्तु फिर भी उनका साक्षर होना अलग नज़र आता है। या तो वे ‘उन्नत खेती कर रहे हैं या फिर कोई तेंदू पत्ते का फड़ मुंशी है, कोई ट्रैक्टर का ड्राइवर है, कोई पास के शहर में साइकिल स्टोर खोले है या कहीं दूकान पर काम कर रहा है। इन साक्षरों के बच्चे भी बिना पढ़े लिखे पालकों की अपेक्षा स्कूल में कहीं ज्यादा दर्ज होते है, ज्यादा नियमित होते हैं, ज्यादा पढ़ने लिखने में आगे हैं।
1990 से 1992 तक के 52 सालों में पावरझंडा के स्कूल में कुल 6.18 विद्यार्थी पहली कक्षा में दर्ज हुए। उनमे से 113 लड़कियां थी। उनमें से कितनी लड़कियां कहां तक पहूंची यह इस स्तंभालेख में दशाया गया है।
लड़कियों की शिक्षा
पावरझंडा के स्कूल में बावन सालों के दौरान ( 1992 तक ) दर्ज 648 बच्चों में सिर्फ 1 43 यानी कि 17.5% लड़कियां थी। उनकी आगे की शिक्षा कुछ इस तरह से रही।
9 यानी 8% पांचवी कक्षा पार कर पाईं। इनमें से भी माध्यमिक शिक्षा पूरी कर पाने वाली लड़की केवल एक ही है जो आंगनवाड़ी कार्यकर्ता है।
इन नौ बालिकाओं में से दो लड़कियां 1955 में पास हुई थीं और बाकी की सात वर्तमान दशक में। उनमें से भी छह तो पिछले तीन सालों में।
यह भी ध्यान देने की बात है कि इस गांव में पुरुष और महिलाएं संख्या में लगभग बराबर हैं। लेकिन शाला में लड़कियों की तुलना में पांच गुना ज्यादा लड़के दर्ज हुए। पांचवीं पास करने वालों में लड़कियों का हिस्सा केवल 8% है।
- जिस साल देश आज़ाद हुआ उस वर्ष पावरझंडा के स्कूल में पहली लड़की ने दाखिला लिया जो कि एक शासकीय कर्मचारी (पटवारी) की बेटी थी। इसी साल पिताजी का स्थानांतरण हो जाने के कारण लड़की ने स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट ले लिया।
- इसी साल एक शिक्षक की लड़की भी स्कूल में दर्ज हुई। उसने भी पिताजी की ट्रांसफर की वजह से चार साल बाद यह स्कूल छोड़ा। -
- तीसरी लड़की 1951 में दाखिल हुई जो गांव में बाहर से आए एक व्यापारी की बेटी थी। अगले साल शाला से नाम कटवा दिया गया।
- 1954 में पहली बार इस गांव के मूल निवासी आदिवासी की लड़की दर्ज हुई पर अनुपस्थिति के कारण नाम खारिज कर दिया गया।
इस पढ़ाई के खर्च का एक अनुमान
पवारझंडा की इस शाला में औसतन दो शिक्षक रहे हैं सदैव। अग आज की कीमतों से गणना करें तो सालभर के खर्चे का हिसाब कुछ इस तरह बैठता है।
दो शिक्षकों का साल भर का वेतन = 96,000
सत्तर बच्चों को चालीस रुपए की मुफ्त पाठ्य-पुस्तक = 3,000
दस लड़कियों को पन्द्रह रुपए प्रति माह के हिसाब से छात्रवृत्ति =1,500
सत्तर बच्चों का मध्यान्ह भोजन = 28,000
शाला भवन मरम्मत, स्कूल के लिए सामग्री इत्यादि = 20,000
यानी हर साल डेढ़ लाख रुपए खर्च होते हैं इस स्कूल पर। औसतन हर साल 30-35 बच्चे पढ़ते हैं। तो हर छात्र पर प्रतिमाह लगभग 300 रुपए का खर्च होता है। अगर इसको हम परिणाम के हिसाब से देखें तो पाएंगे कि डेढ़ लाख के खर्च पर इस शाला में हर साल 4-5 बच्चे पांचवीं का स्तर हासिल कर रहे हैं।
दूर-दराज़ के एक गांव के एक स्कूल की विस्तृत स्थिति आपके सामने है, सवाल शायद केवल खर्च का नहीं है। बहुत-सी और विश्लेषण की बातें उभरती हैं, अपने नज़रिए का भी असर पड़ेगा कि क्या दिखता है हमें इन आंकड़ों में और उसे हम कैसे समझते हैं। तो आप भी कीजिए कोशिश!