माधव केलकर
पिछले दिनों आपने चांद के बारे में एक खबर जरूर पढ़ी होगी कि चांद के ध्रुवीय इलाके के कुछ क्रेटर्स (गड्ढों) में पानी की बर्फ पाई गई है। चांद पर बस्ती बनाने के ख्वाब देखने वालों के लिए यह एक रोचक खबर हो सकती है कि चलो वहां पानी की किल्लत तो नहीं होगी। हालांकि इस बर्फ की सिर्फ थोड़ी-सी जानकारी मिली है और अभी काफी सारे सवालों के जवाब शोधकर्ताओं को देने हैं। जैसे -- चांद पर बर्फ कहां से आई? चांद की प्रकाशमान सतह का तापमान 130 डिग्री सेल्सियस होने के बावजूद वहां बर्फ का वजूद कैसे बचा रहा? शायद आने वाले कुछ सालों में हम यकीनी तौर पर कुछ कह पाएंगे। लेकिन इस खबर से ही जुड़ी हुई बात है - ‘चांद के क्रेटर' यानी गोलाकार गड्ढे।
दूरबीन की नजर
खुली आंखों से चांद को देखकर वहां बुढ़िया जैसी आकृति दिखने की बात आपने खूब सुनी होगी। दूरबीन की खोज होने से पहले ऐसे कई किस्से प्रचलित थे। दूरबीन का जमाना आने के बाद पहले-पहल जब चांद को दूरबीन से देखा-परखा गया तो चांद के बारे में जानकारियों को एक नया रास्ता खुल गया। यह बात भली भांति समझ में आ गई कि चांद पर विशालकाय सपाट मैदान हैं जो सैकड़ों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए हैं। दूरबीन से ये हिस्से गहरे रंग के दिखते थे इसलिए उस दौर के खगोलशास्त्री उन्हें समुद्र मान बैठे। इन मैदानों पर यदा-कदा कटोरेनुमा आकृतियां और लम्बी-लम्बी घाटियां देखी गई थीं। चांद परे मैदानों के अलावा पहाड़-पर्वत, कटोरेनुमा गड्ढे आदि भी दिखते थे।
लेकिन हम यहां चांद की समूची सतह पर देखी जाने वाली एक अनोखी आकृति की बात कर रहे हैं वो है - गोलाकार कटोरेनुमा आकृति। इन्हें आमतौर पर क्रेटर कहा जाता है। इन्हें क्रेटर कहने की खास वजह यह थी कि इनका आकार धरती पर देखे गए ज्वालामुखी से बनने वाले गड्ढों (वोल्केनिक क्रेटर) से काफी मेल खाता था। चांद के ये क्रेटर लम्बे समय से खगोलविदों के लिए आकर्षण का केन्द्र बने हुए थे। अंततः एक लम्बी जांच पड़ताल के बाद क्रेटर के बनने की गुत्थी सुलझ सकी है।
क्रेटर कैसे बने
जब चांद पर ये क्रेटर दिखाई दिए तो सवाल यह उठा कि इनकी उत्पत्ति कैसे हुई होगी? 19वीं सदी के अंत तक क्रेटर की उत्पत्ति को लेकर विविध विचार रखे गए थे। इनमें से एक मत था कि भूतकाल में जब चांद गरम होगा तब गैसीय पदार्थों के बुलबुलों के रूप में बाहर निकलने से क्रेटर बने होंगे। एक अन्य मत के अनुसार क्रेटर चांद की ज्वालामुखीय सक्रियता के कारण बने हैं, यानी ये ज्वालामुखी गड्ढे हैं जिनसे किसी समय लावा निकल-निकल कर चारों ओर फैला होगा। छेद के पास लावा के जमाव से। ये कटोरेनुमा आकृतियां बनी होंगी। शुरुआत में इस विचार का विरोध नहीं हुआ क्योंकि हमारी पृथ्वी पर भी इटली, इंडोनेशिया, जापान, हवाई द्वीप पर ऐसे अनेक ज्वालामुखी क्रेटर देखे गए थे। लेकिन जब चांद की सतह
चित्र-1 : ज्वालामुखी क्रेटर के बनने की शुरुआत कुछ इस तरह होती है। किसी सतह में छेद बनाकर गर्म लावा बाहर निकलता है और ठंडा होकर छेद के आसपास इकट्ठा होता जाता है। फिर कुछ समय तक लावा का निकलना बंद रहता है। कुछ महीनों या सालों के बाद फिर से लावा निकलता है और छेद के आसपास इकट्ठा हो जाता है। इस तरह क्रेटर धीरे-धीरे ऊंचा उठता जाता है। लेकिन उल्कापात से बने क्रेटर में इतनी लम्बी गतिविधि की गुंजाइश नहीं होती। उल्का के टकराने के बाद कुछ ही सेकेंड में एक गहरा गड्ढा बनकर तैयार मिलता है।
का बारीकी से अध्ययन किया जाने लगा तो इस विचार के विपरीत अनेक अवलोकन सामने आने लगे।
---ये क्रेटर चांद की समूची सतह पर अलग-अलग आकार (साइज़) में फैले हुए हैं। कहीं इनका व्यास मात्र एक-दो किलोमीटर है तो कहीं इनका व्यास सौ, दो सौ किलोमीटर। फिर सवाल यह भी था कि सौ किलोमीटर व्यास का क्रेटर किस तरह की ज्वालामुखीय गतिविधि के कारण बना होगा, क्योंकि हमारी धरती पर तो इस आकार के क्रेटर देखे नहीं गए हैं।
---अध्ययन से यह बात भी सामने आई कि चांद के क्रेटर की अंदरूनी दीवार काफी खुरदुरी और तीव्र ढाल वाली है। जबकि धरती के ज्वालामुखी क्रेटर में दीवार चिकनी होती है और उसका ढाल धीरे धीरे कम होता जाता है।
धरती पर देखे गए ज्वालामुखी क्रेटर प्रायः पहाड़ों पर पाए गए हैं। इनमें क्रेटर का फर्श आसपास। के धरातल से काफी ऊंचा होता है जबकि चांद पर पाए गए क्रेटर में। क्रेटर का फर्श आसपास के चंद्रतल से काफी नीचे होता है। (देखिए। चित्रः1) कभी-कभी तो यह फर्श चार किलोमीटर नीचे तक देखा गया है।
---एक आखिरी बात, चांद पर देखे गए क्रेटर में से कुछ पर ही ज्वालामुखी गतिविधि के संकेत दिखाई देते हैं।
इन सब बातों पर गौर करने के बाद यह माना गया कि चांद पर कुछ क्रेटर तो धरती की तरह ज्वालामुखी से संबंधित हैं जिनका स्वरूप भी हमारे क्रेटरों जैसा ही है लेकिन अधिकांश क्रेटर ज्वालामुखी क्रेटर नहीं लगते हैं।
उल्कापात से बने क्रेटर
जब ज्वालामुखी क्रेटर वाली बात गले नहीं उतरी तो एक नया विचार प्रस्तुत किया गया कि ये क्रेटर चांद पर हुए उल्कापात से बने हैं। चांद पर उल्काओं का गिरना एक आम बात है। वैसे तो यह कथन धरती के लिए भी उतना ही सही है परन्तु पृथ्वी पर वायुमंडल के घेरे की वजह से स्थिति काफी बदल जाती है। वायुमंडल के घर्षण के कारण ज्यादातर छोटी-छोटी उल्काएं तो राख में तब्दील हो जाती हैं। अगर उल्का का आकार बड़ा हुआ तो कभी-कभी उल्का का कुछ हिस्सा धरती की सतह तक पहुंचने में कामयाब हो जाता है और सतह से टकराकर एक विशाल गड्ढा (इम्पैक्ट क्रेटर) बना लेता है। ऐरिजोना (अमरीका), आस्ट्रेलिया, अफ्रीका में ऐसे कई क्रेटर पहचाने गए हैं। भारत में महाराष्ट्र राज्य की गोलाकार लोणार झील के बारे में भी यही माना जाता है कि यहां उल्कापात के बाद बने
उल्कापात से बना आस्ट्रेलिया का वुल्फ क्रीक क्रेटर। पृथ्वी के भूतकाल में उल्कापात से कई क्रेटर बने होंगे लेकिन हवा, पानी आदि से कटाव के कारण कुछ गिने-चुने क्रेटर ही धरती पर बचे हैं।
50 हज़ार साल पहले हुए उल्कापात से बना, अमरीका का एरीजोना क्रेटर। धरती पर मिले विशालतम क्रेटरों में से एक। इसकी गहराई 180 मीटर, तथा व्यास 1200 मीटर है।
खड्ड में पानी जमा होने से झील बनी है।
इस मामले में चांद की स्थिति थोड़ी भिन्न है। यहां वायुमंडल न होने से उल्कापिंड अपने पूरे दम-खम के साथ सीधे सतह से आकर टकराता है। और इस टकराव से वह गोलाकार कटोरेनुमा गड्ढा बना देता है।
चांद पर आदमी के कदम रखने से पहले ही पृथ्वी पर उल्कापात से बने गड्ढों का अध्ययन किया गया। हालांकि हवा, पानी द्वारा लगातार किए जाने वाले कटाव का कुछ असर इन पर पड़ा है लेकिन फिर भी यह बात समझ में आई कि इन क्रेटर की भीतरी दीवार तीव्र ढाल वाली, खुरदुरी होती है; तथा क्रेटर का फर्श आसपास के धरातल से काफी नीचे होता है। लगभग यही दोनों बातें चांद पर देखे गए कई क्रेटर के बारे में भी पाई गई थीं, इसलिए चांद पर बने क्रेटर में से अधिकांश क्रेटर उल्कापात से ही बने हैं यह मान लिया गया।
यह मान लेने पर भी सारा मामला उतना आसान नहीं है जितना समझा जा रहा था क्योंकि क्रेटर का कटोरेनुमा आकार एक बड़ी गुत्थी थी। इसलिए इस उल्का की टक्कर का अध्ययन किया जाने लगा। यदि आप एक गोल पत्थर को मिट्टी में पूरी ताकत से मारकर देखेंगे तो पाएंगे कि पत्थर ने टकराकर कुछ मिट्टी को हटाकर एक गड्ढा बना दिया है जबकि पत्थर का वेग मात्र कुछ मीटर/सेकेंड है। लेकिन चांद की सतह से टकराने वाली उल्का का वेग दस हजार मीटर/सेकेंड है जो ध्वनि के वेग से भी ज्यादा है। इस वेग से टकराने पर चांद की सतह पर पड़ने वाले प्रभाव को अति तीव्र गति टक्कर (Hyper-Velocity Impact) कहते हैं।
उल्का द्वारा इस रफ्तार से टक्कर मारने के कारण सतह के पदार्थ को इतना समय नहीं मिल पाता कि रास्ते से हट सके, लेकिन उल्का चांद की सतह से टकराने के बाद कुछ धंसकर रुक जाती है। इस तेज रफ्तार के बाद अचानक रुकने की वजह से उल्का की सारी गतिज ऊर्जा उष्मा में परिवर्तित हो जाती है जिससे उल्का में विस्फोट होता है। चूंकि यह विस्फोट पूरी उल्का में एक साथ, समान रूप से होता है। इसलिए गड्ढा समान रूप से गोल आकार लिए बनता है।
उल्का टकराने पर वास्तव में क्या होता है यह देखने के लिए भू-वैज्ञानिकों ने एक ऐसी बंदूक बनाई जो ध्वनि के वेग से ज्यादा वेग से पत्थर की गोली दाग सकती है। इस तेज रफ्तार गोली के सतह से टकराने पर क्या होता है
चांद का इतिहास
साठ के दशक में अपोलो अभियान के पहले चांद के बारे में हमारी जानकारी काफी सीमित थी। चंद्र अभियान के पश्चात चांद से लाए गए पत्थरों का अध्ययन करने के बाद यह माना जाने लगा कि 160 करोड़ साल पहले पृथ्वी और चांद एक साथ इस सौर्य मंडल का हिस्सा बने थे। चांद के इस 460 करोड़ साल के इतिहास को चार हिस्सों में बांटा जा सकता है।
पहला, 440 करोड़ साल पहले: चांद की सतह काफी गर्म और पिघली हुई अवस्था में थी।
दूसरा, 440 करोड़ से 390 करोड़ साल की अवधिः इस दौरान चांद पर उल्काओं की जोरदार मार पड़ी है। इस मार की वजह से बने क्रेटर आज भी देखे जा सकते हैं।
तीसरा, 390 करोड़ से 310 करोड़ साल की अवधिः इस कालावधि में चांद के भीतर का तापमान बढ़ने के कारण इसके भीतरी भागों से मैग्मा चांद की सतह पर आ गया। चांद पर फैले विशाल लावा मैदान इसी कालावधि में बने हैं।
चौथा, 310 करोड से आज तकः चांद की आंतरिक गतिविधियां क्रमशः कम होती जा रही हैं। चांद का अंदरूनी हिस्सा लगातार ठोस होता जा रहा है। ज्वालामुखी का फूटना 310 करोड़ साल से बंद है। लेकिन उल्कापात से क्रेटर बनने का सिलसिला आज भी जारी है।
चित्र-2: हाई स्पीड कैमरे से देखे गए दृश्य को रेखाचित्रः 1. पत्थर की गोली सतह से टकरा रही है। 2. गोली सतह में कुछ भीतर तक घुसकर रुक जाती है। एकाएक ब्रेक लगने के कारण गोली की सारी गतिज ऊर्जा उष्मा में परिवर्तित हो जाती है जिससे विस्फोट होता है। 3. विस्फोट के कारण जहां सतह पर एक गोलाकार गड्ढा बन जाता हैं वहीं कुछ शॉक वेव चट्टानों को दबाती हैं। 4. विस्फोट समाप्त हो जाने के बाद चट्टानों पर से दबाव हट जाता है। दबाव हटने पर चट्टान अपनी पुरानी अवस्था में न आकर मुड़कर क्रेटर की मोड़दार दीवार बना लेती है जो काफी तेज ढालवाली होती है।
ऊपर: चांद की सतह का एक दृश्य जिसमें कई क्रेटर दिखाई दे रहे हैं। खास बात है कि एक पहले से बने बड़े क्रेटर पर दुबारा उल्कापात के कारण कई क्रेटर बन गए है। साथ ही पुराने क्रेटर की दीवार भी दिखाई दे रही है।
नीचे: चांद पर देखे गए विभिन्न प्रकार के क्रेटर।
यह देखने के लिए उच्च गति कैमरे किया। कैमरे ने जो देखा उसका रेखाचित्र (High-Speed Camera) का इस्तेमाल दिखाया गया है (देखिए चित्रः2)।
क्रेटर किस्म-किस्म के
चांद पर हाल के वर्षों में हुई खोजों के बाद कई तरह के क्रेटर देखे गए हैं। चांद पर दिखाई देने वाले क्रेटर के आकार और प्रकार में विविधता है। इन क्रेटर्स को किसी-न-किसी खासियत से पहचानते हुए इनके प्रकार तय किए गए हैं।
माइक्रो क्रेटर - कुछ क्रेटर सिर्फ कुछ मिलीमीटर व्यास के होते हैं। ये नन्हे क्रेटर सौर्यमंडल में घूम रहे धूल कणों के चंद्र सतह से टकराने के कारण बने हैं। जाहिर है ये धूल कण भी चांद की सतह से ध्वनि के वेग से भी ज्यादा वेग (हाइपर वेलोसिटी) से टकराए होंगे।
टेरेस क्रेटर (Terraced Crater) - ये चांद पर देखे गए विशालतम क्रेटर हैं,जो उल्कापात से बने हैं। इनमें फर्श पर एक चोटीनुमा आकृति भी बनी होती है। साथ ही खड़ी दीवार भी होती है। यह दोनों बातें तभी दिखती हैं जब क्रेटर का व्यास 20 किलोमीटर से ज़्यादा हो। जो इम्पैक्ट क्रेटर इससे कम व्यास के होते हैं वे सिर्फ कटोरे जैसे आकार के होते हैं।
संकेन्द्रीय क्रेटर (Concentric Crater) - ये क्रेटर ज्वालामुखी से बने हुए हैं और ये क्रेटर चांद पर उन्हीं जगहों पर देखे गए जहां भूतकाल में ज्वालामुखी सक्रिय थे। इन क्रेटरों में लावा नीचे से ही आता था।
घोस्ट क्रेटर (Ghost Crater) - ये क्रेटर उल्कापात से ही बने थे लेकिन चांद की सतह पर बहने वाला लावा भर जाने से क्रेटर का गड्ढा तो गायब हो गया लेकिन दीवार के अवशेष अभी भी दिखाई देते हैं।
रे क्रेटर (Ray Crater) - चांद पर कुछ क्रेटर के आसपास चमकदार धारियां दिखाई देती हैं। ऐसा माना जाता है कि उल्का के विस्फोट के कारण गड्ढे की चट्टान का धूलनुमा पाउडर ही आसपास फैलता है। सतह की चट्टानों के मुकाबले पाउडर ज्यादा बेहतर प्रकाश का परावर्तक है इसलिए क्रेटर के आसपास चमकदार धारियां दिखती हैं।
माधव केलकरः संदर्भ से संबद्ध हैं।