किशोर पंवार
अभय बंग का लेख 'वह जादुई स्कूल' जादू कर गया। पढ़कर मेरे बचपन की यादें ताजा हो उठी। मुझे मंदसौर जिले के भानपुरा कस्बे में बिताए दिन ताजा हो आए। मेरा मन मेरे गुरुजी आर. सी. मिश्रा के प्रति श्रद्धा से आज भी भर उठता है, जब भी जीव-विज्ञान की मूलभूत बातों की चर्चा होती है। यह मेरा। सौभाग्य है कि मुझे ऐसे प्रकृति प्रेमी गुरु मिले। प्रकृति के प्रति मेरा लगाव एवं और अधिक जानने की इच्छा मिश्राजी और गांवों में बीते बचपन के कारण है। नवीं-दसवीं कक्षा में वे हमें प्रति रविवार भानपुरा के आसपास के प्राकृतिक स्थानों के भ्रमण के लिए ले जाते थे।उन दिनों (1969 में) हमने रामकुंड के जंगलों से मोरपंखी (एक फर्न जिसके पत्ते मोरपंख के समान दिखते हैं) का संग्रह किया था। जिसका वानस्पतिक नाम एवं जानकारी 1976 में एम. एस. सी. में आकर पता चले। देश के विभिन्न प्रदेशों से आए मेरे सहपाठियों में मैं अकेला ऐसा छात्र था जो मोरपंखी से पूर्व परिचित था। उस समय यह मेरे लिए गर्व की बात थी।
आज भी ऐसे शिक्षक हैं परंतु पाठ्यक्रमों के दबाव और अन्यान्य कारणों से स्कूल अब शिक्षा के केंद्र न रहकर महज जानकारी के केंद्र रह गए हैं; जहां सोचने समझने और कुछ नया करने के लिए कोई खास स्थान नहीं है। वर्तमान में केवल 'वन वे ट्रेफिक' है। जहां शिक्षक बोलते हैं और बच्चे अनुशासित होकर सुनते रहते हैं। न कोई सवाल न कोई जवाब। सिर्फ जानकारियां जिन्हें रटना और रटकर उगल देना ही ज्ञान का मापदंड रह गया है।