सी. एन. सुब्रह्मण्यम
पिछले वर्ष राजस्थान के गांवों के अध्ययन का मौका मिला। इस दौरान मैंने खुद को उदयपुर के पास के नवानिया गांव में पाया। यह गांव उस क्षेत्र के अन्य गांवों से खास फर्क नहीं था। उसकी खासियत मात्र इतनी थी कि 30 साल पहले किसी ने उस गांव पर एक बहुत ही खूबसूरत शोध प्रबंध लिखा था। उसको पढ़कर मैं वहां गया था।
गांव के कुछ लोगों ने मुझे गांव में घुमाया और उनकी बस्ती, तालाब और खेत दिखाए। बस्ती के आसपास जो खेत थे, उनमें मिट्टी भूरी थी, खेत छोटे-छोटे थे; उनमें कुएं खुदे थे, चारों तरफ पेड़ों व झाड़ियों के बाड़े बने थे। ऐसे खेतों से गुज़रकर आगे निकले तो गांव के साथी ने कहा- “ये देखिए यहां से ‘माल' शुरू होता है।'' यहां नज़ारा ही कुछ और था।
दूर-दूर तक समतल सपाट खेत, इक्के-दुक्के पेड़ों को छोड़कर कोई झाड़-पेड़ नहीं, कोई कुंआं नहीं, ऊंची मेड़ नहीं, बाड़े नहीं। बस एकदम काली मिट्टी। गांववालों ने बताया कि पुराने ज़माने में यही भूमि इस गांव की खेती का आधार थी। इसमें बिना सिंचाई के रबी में गेहूं या चने की फसल ली जाती थी। बरसात में चिकनी काली मिट्टी में कीचड़ मच जाती थी सो खेती नहीं हो पाती थी। मगर सर्दियों में इस खेत में गेहूं के लिए नमी बनी रहती थी। इस कारण इस भूमि के चप्पे-चप्पे में खेती होती थी। खेती का काम ‘माल' में सामूहिक होता था। पूरे इलाके में एक साथ गेहूं की बुआई होती थी। और एक साथ कटाई शुरू होती थी। कटाई के समय तो यहां मेले जैसा लगता था।
एक किसान ने कहा- “आजकल तो सिंचाई के साधन हो गए हैं तो लोग भूरी मिट्टी में दो फसल तक ले लेते हैं। मगर पहले इस ‘माल'। की भूमि पर ही हम सब निर्भर थे।''
गांव से लौटा तो मेरे मन में एक छोटा-सा सवाल परेशान कर रहा था, इस ज़मीन को ‘माल' क्यों कहते हैं? उदयपुर में कुछ भूगोल के विद्वानों ने बताया कि हो सकता है। यह मालवा से निकला शब्द है। मालवा में भी इस तरह की काली मिट्टी होती है। राजस्थान में जहां जहां काली मिट्टी का इलाका है, उसे माल ही कहते हैं। मैं एक दूसरी दिशा में सोचने लगा। मुगल प्रशासनिक साहित्य में ‘माल' का मतलब था लगान। हो सकता है कि इस जमीन से नियमित रूप से हर सोल लगान मिलने के कारण इसे 'माल' कहा जाने लगा होगा।
‘माल' शब्द मालवा से निकला या फारसी ‘माल' से इस समस्या का निदान पिछले एक साल से नहीं हो पाया। हल निकला कुछ दिनों पहले, कालिदास के 'मेघदूतम्' में पता चला कि मामला कुछ और ही है।
नर्मदा नदी के दक्षिण में किसी पहाड़ पर एक यक्ष रहता था। रहता क्या था उसकी मजबूरी थी। वैसे वो रहने वाला था कैलास पर्वत के पास अलकापुरी का। उसने चाकरी में कुछ लापरवाही की थी, सो उसके मालिक ने कर दिया। ट्रांसफर। जगह ऐसी थी कि वह अपनी पत्नी को साथ नहीं ले जा सकता था। वियोग के कारण बेचारा बड़ा परेशान था और दुखी भी। ऐसे में आषाढ़ के प्रथम दिन उसे काले बादल दिखे। बादल को देखकर उसे ख्याल आया कि यह तो उड़कर । कैलास पर्वत तक जाएगा। क्यों न उसके हाथ अपनी प्रियतमा के लिए एक संदेश भेजूं। उसने मेघ से कहा मित्र, तुम अलकापुरी में मेरी पत्नी को यह संदेश पहुंचाना कि मैं उसे याद कर रहा हूं और चार माह बीतने पर लौट आऊंगा।'' संदेश के साथ रास्ता, पता भी बताना था। यक्ष ने विस्तार से रास्ते का विवरण दिया। नर्मदा नदी, उसके उत्तर में विदिशा, उज्जयिनी, फिर दशपुर (मंदसौर), फिर कुरुक्षेत्र और। हरिद्वार होते कैलास का रास्ता।
कालिदास शायद उज्जैन का रहने वाला था। आसपास के इलाके से भली-भांति परिचित था। इसी कारण तो मेघ को रास्ता बताते । समय नर्मदा नदी से दशपुर तक के रास्ते के लिए 29 श्लोकों का उपयोग करने वाला कवि दशपुर से हरिद्वार के रास्ते को केवल तीन श्लोकों में निपटा देता है।
इसी कारण जो लोग कालिदास के काल के क्षेत्रीय भूगोल का अध्ययन करते हैं- मेघदूतम् का विशेष उपयोग करते हैं। बहरहाल हम किसी और बात पर चर्चा कर रहे थे।
मैं पिछले महीने मेघदूतम् पढ़ रहा था तो अचानक मेरी नज़र एक शब्द पर आकर रुक गई। शब्द था ‘माल'। यह 1 6 वें श्लोक में था। नर्मदा नदी के आसपास के इलाके के रास्ते का वर्णन है। श्लोक का आनंद आप भी लीजिए:
त्वय्यायत्तं कृषिफलमिति भूविलासानभिज्ञैः
प्रीति स्निग्धैर्जनपदवधूलोचनैः पीयमानः।
मद्य:सीरोत्कषणसुरभि क्षेत्रमारुह्य माल
किजित्पश्चाद व्रज लघुगतिर्भूय एवोत्तरेण।
अर्थात् – “खेती का फल तुम्हारे ही अधीन है, इसलिए स्नेह भरी, भूविलासों से अनभिज्ञ (भोली भाली) गांव की वधुओं की आंखों से प्यारपूर्वक देखे जाते हुए तुम तत्काल हल जोतने के कारण सोंधी 'माल' में चढ़कर कुछ समय पश्चात तेज़ी से उत्तर की ओर चल देना।''
इसमें ‘माल' शब्द को कई लोग ‘मालवा' समझते हैं। लेकिन ऐसा अर्थ लगाने में कई समस्याएं हैं। पहली बात तो यह है कि मेघ ने अभी तक नर्मदा नदी को पार नहीं किया है, वह उसके दक्षिण में कहीं है। इसके तीन-चार श्लोकों के बाद ही नर्मदा पार करने का उल्लेख है। मालवा नर्मदा के दक्षिण में तो नहीं हो सकता है। दूसरी बात यह है कि मेघदूतम् के मध्यकालीन टीकाकार मल्लिनाथ ने इसका अर्थ दिया है ‘‘शैल प्रायम उन्नतस्थलम''। यानी पहाड़ों की आड़ में ऊंची भूमि। कालिदास ने 'माल' भूमि को कृषि से जोड़ा है। यह भी एक महत्वपूर्ण बात है।
इन सबको जोड़कर देखने पर गुत्थी कुछ सुलझने लगी। वास्तव में ‘माल' शब्द ऊंचाई पर स्थित कृषियोग्य भूमि को सूचित करता है। आधुनिक भौगोलिक भाषा में इसे पठार या Plateau कहेंगे। अब बात स्पष्ट हुई कि 'माल' शब्द न फारसी ‘माल' से उपजा है न ‘मालवा' शब्द से, वह पठार के लिए प्रयुक्त एक प्राचीन शब्द है। वैसे इस अर्थ में इस शब्द का संस्कृत साहित्य में उपयोग दुर्लभ है। संभवतः यह शब्द तमिल भाषा के ‘माल' शब्द से संबंधित है। तमिल में ‘माल' का अर्थ है महान, ऊंचा। और इससे ही जुड़े शब्द । 'मलै' का मतलब होता है पहाड़।
अब एक नई समस्या सामने आती है - ‘मालवा' शब्द को लेकर। आमतौर पर सभी विद्वान यह मानते हैं कि यह शब्द ‘मालव' कबीले की भूमि से जुड़ा है। यूनानी स्रोतों में इन्हें पंजाब के इलाके में बसा बताया गया है। गुप्तकाल के आसपास इनके द्वारा जारी किए गए सिक्के बड़ी मात्रा में राजस्थान में (जयपुर के पास) मिलते हैं। लेकिन क्या ये लोग आज के मालवा क्षेत्र में कभी आकर बसे? इसके कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं। तो मालवा नाम कैसे पड़ा? क्या ऊंची पठारी भूमि होने के कारण इसे 'माल' कहते थे और बाद में यह शब्द परिवर्तित होकर मालवा हो गया? यह विचार करने की बात है।
सी. एन. सुब्रह्मण्यमः एकलव्य के सामाजिक अध्ययन कार्यक्रम से संबद्ध हैं।